Thursday 8 September 2011

यह बम धमाकों का सिलसिला यूं ही चलता रहेगा

Editorial Publish on 9 Sep 2011
-अनिल नरेन्द्र
बुधवार का दिन धमाकों का रहा। सुबह हाई कोर्ट में बम फटा तो देर रात एक
तेज भूकम्प आया। दिल्ली हाई कोर्ट में कुछ महीने पहले भी 25 मई को एक
धमाका हुआ था। क्योंकि यह धमाका छोटा था और कोई हताहत नहीं हुआ था इसलिए
यह मामला एज युजुअल रफा-दफा कर दिया गया। यह किसी ने भी जरूरी नहीं समझा
कि हो सकता है यह एक ट्रायल हो और असल भविष्य में हो सकता है। हमने
दुर्भाग्य से कोई सीख नहीं ली, गृहमंत्री पी. चिदम्बरम पूरी तरह फेल हो
चुके हैं। पद्भार सम्भालने के बाद हमें लगा था कि अंतत एक काबिल
गृहमंत्री आया है जो आतंकी खतरे को समझता है। बहुत दिनों तक कोई बड़ा
धमाका भी नहीं हुआ और ऐसे लगने लगा कि भारत धीरे-धीरे जीरो टालरेंस की ओर
बढ़ रहा है पर फिर एक के बाद एक धमाके होने लगे। 26/11 के तो हमले ने देश
को हिलाकर रख दिया। जरूरत इस बात की थी कि उसके बाद खुफिया तंत्र,
कानूनों को सख्त करें, जरूरत इस बात की थी कि जांच ठीक से कराई जाए और
केस सुलझाए जाएं पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। मौजूदा जांच एजेंसियों के विरोध के
बावजूद इन्हीं चिदम्बरम साहब ने एनआईए का गठन कर दिया। कहा यह गया कि देश
के पास ऐसी कोई एक एजेंसी नहीं है जो आतंकवाद से मुकाबला करने में पूरी
तरह आत्मनिर्भर हो, पूरी तरह सक्षम हो। देश को एनआईए से बड़ी उम्मीदें
थीं पर धीरे-धीरे पता चलने लगा कि यह खोखला दावा है। आज तक एनआईए ने एक
भी केस अभी तक नहीं सुलझाया। यूपीए सरकार ने टाडा को वोट बैंक के चक्कर
में हटा तो दिया पर उसकी जगह आज तक कोई प्रभावी वैकल्पिक कानून नहीं बना
सके। देश के पूर्व पुलिस अधिकारियों ने एकमत होकर चेतावनी दी कि दोषी
आतंकवादी को सजा देने की प्रक्रिया में तेजी लाने के लिए कानून में नए
सिरे से बदलाव लाने की सख्त जरूरत है पर न तो मनमोहन सिंह पर और न ही
चिदम्बरम पर इसका कोई असर हुआ। उल्टा चिदम्बरम ने राजनीतिक वोट बैंक के
चक्कर में भगवा आतंकवाद की ओर देश और जांच एजेंसियों का ध्यान बंटाने का
प्रयास किया। जब खुद गृहमंत्री कहे कि यह सब भगवा आतंकवादी कर रहे हैं तो
जांच एजेंसियां भला क्यों हूजी और लश्कर जैसे संगठनों पर ध्यान देगी।
खुफिया एजेंसियों का सबसे बड़ा साधन होता था मुखबिर। मुखबिरों का सिलसिला
समाप्त हो गया और चिदम्बरम ने कभी यह जानने के कारणों को समझने और ठीक
करने की जरूरत नहीं समझी। राज्यों में स्थानीय स्तर की इंटेलीजेंस में
लोगों की संख्या घटती जा रही है। एक तो ऐसे खुफिया सूचना एकत्र करने
वालों की भारी कमी है, जो लोग हैं वे भी कुशल प्रशिक्षित नहीं हैं।
इंटेलीजेंस एकत्र करने जैसे काम को अब अधिकारी इतना महत्व नहीं देते।
इंटेलीजेंस जैसे महत्वपूर्ण कार्य के लिए संसाधनों की जरूरत होती है
जबकि संसाधनों के नाम पर इंटेलीजेंस के ये प्राथमकि स्रोत बेहाल हैं। हाल
ही में एक आरटीआई के तहत पता चला है कि मुंबई जैसे अत्यंत संवेदनशील शहर
में इंटेलीजेंस के लिए केवल 50 लाख रुपये का बजट है। किसी ने इस ओर ध्यान
देना जरूरी ही नहीं समझा।
श्रृंखलाबद्ध बम विस्फोट के जरिये देश की राजधानी व आर्थिक राजधानी को
निशाना बनाने से लड़ने के लिए सुरक्षा मामलों के विशेषज्ञों ने सुझाव
दिया है कि राष्ट्रीय सुरक्षा गार्ड (एनएसजी) और आपदा प्रबंधन बटालियन की
तर्ज पर `आतंकवाद निरोधक बल' का गठन किया जाना चाहिए। देश के विभिन्न
इलाकों में मौजूद यह स्लीपर सेल देश की खुफिया एजेंसियों के लिए गम्भीर
चुनौती पेश कर रहे हैं। विभिन्न संगठनों के स्लीपर सेलों के बीच समन्वय
के साथ काम करने की बात भी सामने आई है। मुंबई में सिलसिलेवार बम धमाकों
ने यह साबित किया है कि खुफिया एजेंसियों और सुरक्षाबलों के बीच बेहतर
तालमेल बनाए बिना ऐसी घटनाओं पर अंकुश नहीं लगाया जा सकता। इस उद्देश्य
से अलग आतंकवाद निरोधक दस्ता गठित करना एक महत्वपूर्ण उपाय हो सकता है।
दिल्ली और मुंबई में बम धमाकों का सिलसिला रुकने वाला नहीं। इसका सबसे
बड़ा कारण है कि इस यूपीए सरकार में न तो इच्छाशक्ति है, न ही इसमें
स्थिति से निपटने के लिए सक्षम लीडरशिप है और न ही यह वोट बैंक की
राजनीति से ऊपर उठ सकती है। मारा जाता है बेचारा निर्दोष जो पास बनवाने
के लिए दिल्ली हाई कोर्ट में लाइन में गलत वक्त खड़ा हुआ था या जावेरी
बाजार अपना धंधा करने गया था।

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