Sunday 18 September 2011

सरकार के निशाने पर आम आदमी

Editorail Publish on 18 Sep 2011
 
शुक्रवार को पेट्रोल का दाम बढ़ाकर महंगाई की आग में तेल डालकर उसे भड़काया जाता है और फिर संभावित मुद्रास्फीति के बढ़ने के डर से रिजर्व बैंक का गला पकड़कर रेपो एवं रिवर्स रेपो दरों में 0.25 प्रतिशत की वृद्धि यानि ब्याज दरों को और महंगा करा दिया जाता है। है न जादूगरी आग भड़काकर पानी का छींटा मारने की पुरानी तरकीब।

डॉ. मनमोहन सिंह और उनकी टीम के लोग देश-विदेश के तमाम विश्वविद्यालयों के उच्च आर्थिक संस्थानों से डिग्रियां हासिल किए हुए हैं। उनकी टीम के प्रमुख सदस्य प्रणब मुखर्जी बड़े अनुभवी वित्त मंत्री हैं। पता नहीं इन सबको क्या हो गया है कि वे इस तथ्य को अच्छी तरह जानते हुए भी कि `ब्याज दरें बढ़ाकर मुद्रास्फीति पर लगाम लगाने के उपाय की एक सीमा है।' आर्थिक अनिवार्यता संबंधी तथ्यों को नकारते हुए इस सरकार ने गत मार्च से अब तक 12 बार ब्याज दरें बढ़ाई हैं। इससे एक बात स्पष्ट हो जाती है कि न तो महंगाई से निपटने का उपाय सरकार के पास है और न ही रिजर्व बैंक के पास।

भारतीय अर्थव्यवस्था की हालत कितनी भयावह है कि ब्याज दर बार-बार बढ़ाने के बावजूद महंगाई खूंटा तोड़कर भाग रही है। किन्तु सरकार इतनी मगरूर है कि वह सच्चाई समझने को तैयार ही नहीं है। रिजर्व बैंक के अधिकारी भी मानते हैं कि महंगाई पर काबू पाने के लिए ब्याज दरों में बार-बार वृद्धि अर्थव्यवस्था पर साइड इफेक्ट डाल सकती है। जनता हैरान परेशान है। व्यवसायी महंगे ब्याज दर के कारण बेवशी महसूस कर रहे हैं किन्तु बदहवास सरकार जबरदस्ती रिजर्व बैंक से ब्याज दरें बढ़वा देती है।

महान अर्थशास्त्राr हमारे प्रधानमंत्री और उनकी टीम ने अर्थव्यवस्था को पतन के मुहाने पर खड़ा कर दिया है। यह आरोप हवा में नहीं लगा रहा हूं। इस आरोप के पक्ष में ठोस व्यावहारिक तर्प हैं। पहला, बढ़ती ब्याज दरों की वजह से सकल घरेलू उत्पाद 18 महीनों में सबसे निचले स्तर पर आ गया है। ब्याज दरों में बढ़ोतरी का असर आम आदमी के व्यक्तिगत जीवन पर तो पड़ता ही है, औद्योगिक क्षेत्र के विकास पर भी विपरीत असर पड़ता है। मसलन ब्याज दरों में अंधाधुंध बढ़ोतरी से उद्योगों में निवेश घटते हैं और जब निवेश घटते हैं तो औद्योगिक विकास घटते हैं। अब जरा कोई इन डपोरशंखी अर्थशास्त्रियों से पूछे कि जब औद्योगिक विकास गति ही नहीं बढ़ेगी तो मंदी की मार से बच नहीं सकती हमारी अर्थव्यवस्था। दूसरा यह कि अर्थशास्त्र की किसी किताब में लकीर के फकीर का सिद्धांत नहीं चलता। जब एक सिद्धांत यानि मौद्रिक नीति के जरिये महंगाई पर काबू पाने के उपाय से सफलता नहीं मिली तो बार-बार उसे ही लागू करने का सीधा मतलब क्या यह नहीं है कि अर्थशास्त्राr प्रधानमंत्री आर्थिक मोर्चे पर असफल हो चुके हैं। उनके पास महंगाई कम करने की अब कोई तरकीब नहीं बची है।

असल में अर्थशास्त्राr प्रधानमंत्री ने अपना सारा जोर महंगाई को नियंत्रण में करने के लिए ही लगा दिया। उन्होंने कभी भी यह नहीं सोचा कि महंगाई बढ़ाने वाले कारकों को सुधारा जाए। हर समस्या के लिए अपनी पूर्ववर्ती सरकार को जिम्मेदार ठहराने वाले प्रधानमंत्री और उनकी टीम के लोग कुछ तरकीबें एनडीए सरकार से सीख सकते हैं किन्तु उन्हें महंगाई के कारकों से निपटने में कोई दिलचस्पी नहीं है।

बहरहाल इतना तो तय है कि हमारी अर्थव्यवस्था अब मंदी के मुहाने पर खड़ी है। लगता नहीं कि देश का नेतृत्व इस मंदी से अर्थव्यवस्था को उबार पाएगा।

लगता है कि आम जनता को महंगाई की मार बर्दाश्त करना उसकी नीयत में है। मंदी की अंध सुरंग में अर्थव्यवस्था को धकेलने वाले नेतृत्व को राष्ट्र कभी भी क्षमा नहीं करेगा क्योंकि 2000 के बाद महाशक्ति बनने की जो गति भारत ने पकड़ी थी उसको मौजूदा सरकार ने न सिर्प नेस्तनाबूद किया बल्कि दुनिया के देशों में भारतीय अर्थव्यवस्था को बदनाम भी कर दिया। जिस सरकार के मंत्रियों की आय सत्ता में आने के बाद 100 प्रतिशत बढ़ गई उस सरकार के मुखिया के नेतृत्व में यदि आम जनता महंगाई के सामने असहाय और पिसने के लिए विवश हो तो सरकार की नीयत के बारे में खुद ही देश समझ सकता है कि महंगाई के कारक भ्रष्टाचारजन्य हैं जिसे खत्म करने में न तो सरकार की इच्छा है और न ही उसके अस्तित्व के लिए हितकर।

 

 

 

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