Friday 9 September 2011

जिसने भी ड्यूटी में कोताही की उसे जेल में डालो, लीपापोती और नहीं

Editorial Publish on 10 Sep 2011
-अनिल नरेन्द्र
11/7, 26/11, 13/7, 7/9 न जाने कितने और आतंकी हमले हमें सहने पड़ेंगे।
यह गिनती कभी थमने वाली है भी या नहीं? सारे देश की बात तो छोड़िए अकेले
दिल्ली में ही नौ जनवरी 1997 से लेकर 25 मई 2011 तक 15 बम ब्लास्ट हो
चुके हैं। दिल्ली हाई कोर्ट का यह धमाका 16वां था। पिछले दो विस्फोट हाई
कोर्ट में ही क्यों हुए? यह प्रश्न भी महत्वपूर्ण है। इसके पीछे कई कारण
उभरकर आ रहे हैं। पब्लिसिटी का मकसद तो है ही पर अदालत परिसरों में बम
विस्फोट करके यह आतंकी जजों और वकीलों को भी एक संदेश देना चाहते हैं।
प्लान सिर्प भीड़भाड़ इलाके में जहां ज्यादा से ज्यादा नुकसान पहुंचाया
जा सकता है ही साथ-साथ दिल्ली हाई कोर्ट को इसलिए चुना गया क्योंकि यहां
पर बटला हाउस जैसे कई महत्वपूर्ण केसों की अपीलें रिजैक्ट हुई हैं। बटला
हाउस एनकाउंटर से जुड़ी सारी अपीलें दिल्ली हाई कोर्ट ने 2009 में
रिजैक्ट कर दी थी। बुधवार को जिस दिन धमाका हुआ उस दिन भी 1993 मुंबई
धमाके के केस की सुनवाई थी। अगर हम अदालत परिसरों पर आतंकी हमलों पर नजर
डालेंगे तो एक निश्चित पैटर्न सामने आएगा। 23 नवम्बर 2007 को लखनऊ,
फैजाबाद और वाराणसी में साइकिल में रखे बम 1ः15 से लेकर 1ः30 बजे तक हुए
थे। इसमें 15 की मौत हुई थी और 80 से ज्यादा घायल। 10 मई 2008 को हुबली
डिस्ट्रिक्ट अदालत में विस्फोट हुए। दो दिन बाद इस अदालत में सिमी के
कार्यकर्ताओं के खिलाफ केस की सुनवाई होनी थी। 30 अक्तूबर 2008 को
गुवाहाटी के सीजेएम की अदालत के पास विस्फोट हुआ। उस दिन गुवाहाटी में छह
धमाके हुए थे। एक अदालत परिसर में किया गया। 10 जुलाई 2009 को बिहार के
आरा डिस्ट्रिक्ट में एक आतंकी वकीलों के चैम्बर में अपनी कमर में एक
विस्फोटक बांधकर घुस गया और जैसे ही वह बैठा धमाका हो गया। इसमें एक वकील
की मौत हुई और छह घायल हुए। 25 मई 2011 को दिल्ली हाई कोर्ट परिसर में
धमाका हुआ और अब बुधवार को। अदालतों के अन्दर धमाकों में आतंकी यह चांस
भी लेते हैं कि शायद भीड़भाड़ के बीच कोई हाई कोर्ट जज भी उस समय वहां से
गुजर रहा हो तो एक तीर से दो निशाने हो जाएंगे। जजों की बात कर रहे हैं
तो बता दें कि धमाके के बाद जजों ने भी अपनी तरफ से आतंकवादियों से न
डरने का संदेश दिया। हाई कोर्ट ने घोषणा कर दी कि दोपहर 2 बजे से दिल्ली
हाई कोर्ट काम करेगा। उन्होंने अदालत बन्द नहीं की। जजों ने आतंकियों को
मुंहतोड़ जवाब दिया कि वह उनके हमलों से डरने वाले नहीं और न ही अदालत
कार्रवाई रुकेगी। बुधवार के धमाके के बाद दिल्लीवासियों में कमाल का जोश
देखने को मिला। दिल्ली हाई कोर्ट में जज भी मौके पर आ गए और वकीलों,
कोर्ट स्टाफ ने तो घायलों की बाकायदा पूरी मदद की। दिल्ली हाई कोर्ट बम
ब्लास्ट में घायल लोगों के इलाज में कोई कसर बाकी न रहे, यहां तक कि
उनमें खून की कमी न रह जाए जिसके चलते उन्हें अपनी जान गंवानी पड़े, उसी
के चलते तीस हजारी कोर्ट के जज श्री अजय पांडे अपने दो-तीन अन्य जज
साथियों पे साथ रक्तदान के लिए पहुंच गए और उन्होंने स्वेच्छा से रक्तदान
किया। ज्ञात रहे कि श्री अजय पांडे ही वे जज हैं जिन्होंने जन लोकपाल बिल
आंदोलन को लेकर रामलीला मैदान में अन्ना के मंच पर आकर अपना समर्थन दिया
था। रक्तदान के बाद माननीय जज महोदय ने कहा कि वे मानवता के नाते यहां आए
हैं और व्यक्ति को जीवन में अपनी अंतरात्मा की आवाज पर हमेशा जनहित पर
निर्णय लेना चाहिए।
इन बम धमाकों में हमेशा गरीब, बेसहारा पब्लिक ही मरती है। उनकी बस यही
गलती होती है कि वह गलत समय पर गलत जगह खड़े थे। बुधवार को दिल्ली हाई
कोर्ट में जब धमाका हुआ उस समय लोग लम्बी कतारों में खड़े प्रवेश पास
बनवा रहे थे। वहीं मौजूद एक प्रत्यक्षदर्शी वकील ने बताया कि जहां धमाका
हुआ वह अदालत में सबसे भीड़भाड़ वाला इलाका है। यही वह समय होता है जब
सैकड़ों की संख्या में लोग अदालत में भीतर जाने के लिए अपने प्रवेश कार्ड
बनवाने आते हैं। विजिटर पास बनवाने की जल्दबाजी में रोहिणी के राहुल
गुप्ता कतार में सबसे आगे जाकर खड़े हो गए। उनका पास करीब-करीब बन चुका
था और उन्होंने अपना हाथ खिड़की के अन्दर डाला ही कि जोरदार धमाका हुआ।
उनके पैर अचानक ही लड़खड़ाए और वे धम्म से नीचे गिर पड़े। पलटकर कतार में
पीछे खड़े दोस्तों की ओर देखा तो आंखों के आगे अंधेरा-सा छा गया। काला
धुआं फैल चुका था। लगभग एक मिनट तक उन्हें कुछ भी समझ नहीं आया। जब धुएं
के बादल हटे तो उनके पीछे चारों ओर खून ही खून फैला था। किसी का सिर
अलग-धड़ अलग तो किसी की बांह कटी हुई पड़ी थी। कुछ लोगों के पैर उड़ गए
थे। एक अन्य अभागे थे गीता कॉलोनी के इन्द्र सिंह। काल ने कुचक्र रचा और
नौ साल पहले बन्द हो चुके मामले में इन्द्र सिंह को हाई कोर्ट का नोटिस आ
गया। बुधवार को वह उसी मामले की सुनवाई के लिए बेटे हरजीत के साथ स्कूटर
पर कोर्ट आए थे। कोर्ट में गेट नम्बर पांच पर एंट्री पास बनवाने के लिए
इन्द्र सिंह सीनियर सिटीजन की खिड़की पर खड़े हुए और हरजीत जल्दी पास
बनवाने के लालच में दूसरी खिड़की पर जाकर खड़ा हो गया। इस बीच ब्लास्ट
हुआ। जिसमें इन्द्र सिंह की तो मौके पर ही मौत हो गई वहीं हरजीत चूंकि
दूसरी पंक्ति में थे मामूली चोटों से बच गए। वसंत विहार के रहने वाले
बृजेश अपनी पत्नी के साथ प्रॉपर्टी केस के सिलसिले में हाई कोर्ट आए हुए
थे। बृजेश ने ध्यान नहीं दिया और उनकी पत्नी नलिनी थोड़ा तेज चलते हुए
आगे निकल गई। तभी धमाका हुआ और उसमें नलिनी ने हमेशा के लिए आंखें मूंद
लीं। बृजेश बेहोश हो गए थे, जब होश आया तो उन्हें पता चला कि उनका घर तो
उजड़ गया है। एक महिला बिना पास बनवाए ही गेट नम्बर पांच से अन्दर घुस
आई। वह कुछ दूर ही गई थीं कि सुरक्षाकर्मी ने उसे पकड़ लिया और कहा कि वह
पास बनवाकर ही आए। वह दोबारा काउंटर की तरफ गई, ब्लास्ट हो गया और उसकी
मौत हो गई। एक प्रत्यक्षदर्शी ने रौंगटे खड़ा करने वाला दृश्य बताया।
उसने बताया कि घटना के बाद एक शव तो पास में चल रहे निर्माण कार्य के
सरिया पर जाकर टंग गया था। किसी की टांग नहीं थी तो किसी का हाथ गायब था।
एक आदमी ने तो दोनों पैर ही गंवा दिए थे फिर भी वह अपने को बचाने के लिए
घिसट रहा था। एक महिला का आधा शरीर ही गायब था। एक वकील सुग्रीव दूबे ने
बताया कि उसके एक मुवक्किल गुरमेल सिंह का बुधवार को एक मामला लगा हुआ
था। उसने साफ मना किया था कि मत आना, बुधवार को कुछ होने वाला नहीं,
लेकिन वह नहीं माना और आ गया। काउंटर पर खड़ा गुरमेल विस्फोट का शिकार हो
गया। उसके दाहिने हाथ व पैर में काफी चोट आई है। इतना ही नहीं, अपने
मुवक्किलों की सहायता करने आए तीन वकील भी इस घटना में घायल हो गए। ऐसे
दर्जनों दर्दनाक किस्से हैं।
बार-बार हो रही इस बर्बादी का जिम्मेदार कौन है? जनता को जवाब चाहिए
भाषणों से काम नहीं चलेगा। हमें एकाउंटेबिलिटी, जवाबदेही चाहिए। आतंकी
हमलों को रोकने की जिम्मेदारी किन अफसरों की है? कौन नकारा रहा? किसने
ऐसी चूक कर दी या होने दी? यह पूछना होगा। नाम सामने लाने होंगे। एक साफ
सरल सूची बनानी होगी, जिसमें लिखा होöनाम इतना बड़ा, औहदा इतना रसूखदार,
फर्ज इनता स्पष्ट, आपराधिक लापरवाहीöऐसी भयावह और नतीजाöइतनी दर्दनाक
मौतें। बस, 24 घंटे में मुकदमा। विशेष अदालतें। बगैर `किन्तु-परन्तु,
यदि...' वाली धाराएं, तय शुदा समय में सुनवाई। अपील, दलील, वकील के तीखे,
घुमावदार सवालों के लिए भी तयशुदा समय। फर्ज था या नहीं? निभाया 100
फीसदी ईमानदारी से या नहीं? यह सब एक ही दिन में सिद्ध हो सकता है, नहीं
निभाई जिम्मेदारी तो सीधे सलाखों के पीछे जाएं। मुस्तैदी दिखाई तो ही
आतंक के विरुद्ध युद्ध में भेजे जाएं। क्योंकि इस युद्ध में देश के लिए
मर-मिटने को तत्पर मतवाले योद्धा ही जा सकते हैं। करियर बनाने सरकारी
नौकरी में आए अफसरों के लिए इस जंग में कोई जगह नहीं। विपक्ष भी बस
इस्तीफे की मांग करता है, यह नहीं कहता कि बर्खास्त कर दो वह भी निर्भयता
से। लीपापोती से अब काम नहीं चलेगा। जनता जवाबदेही चाहती है और हर उस
अफसर को जवाब देना होगा जिसने अपनी जिम्मेदारी सही से नहीं निभाई। आखिर
कब तक यह लीपापोती चलती रहेगी?

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