Saturday 17 September 2011

सरकारी फरेब

Editorial Publish on 17 Sep 2011

महंगाई की आग में पहले से ही झुलस रही जनता में त्राहि-त्राहि मची थी अब तेल कम्पनियों ने अपना घाटा कम करने के नाम पर 5 प्रतिशत पेट्रोल पर दाम बढ़ाकर महंगाई की आग को एक बार फिर बेकाबू कर दिया है।
जून 2010 में पेट्रोल की कीमतों के सरकारी नियंत्रण से बाहर होने से नौवीं बार पेट्रोल के दाम बढ़े हैं। मसलन तब से अब तक पेट्रोल के दामों में 19 रुपये की वृद्धि हो चुकी है।
सच तो यह है कि यह सरकार अत्यंत संवेदनहीन है। इसे पता है कि वह जो पेट्रोल पर दाम बढ़ेगा उसका असर आम जनता पर पड़ेगा। इससे बड़ा देश की जनता पर भला और क्या उपहास हो सकता है कि चारों तेल मार्केटिंग कम्पनियों के प्रमुखों ने बृहस्पतिवार को मुंबई में एक बैठक की और यह तर्प देते हुए कि अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के दामों में वृद्धि एवं रुपये के कमजोर होने से पेट्रोल की कीमतों में वृद्धि जरूरी है, पेट्रोल का दाम सीधे 5 प्रतिशत बढ़ा दिया और इस तरह दिल्ली में अब पेट्रोल की कीमत 66.84 रुपये प्रति लीटर हो गई।
यह सही है कि आज की तारीख में कच्चा तेल 110-111 डालर प्रति बैरल पर पहुंच गया है जबकि दूसरी तरफ रुपये की विनिमय दर डालर की तुलना में कमजोर पड़कर दो साल के निचले स्तर पर 48 रुपये प्रति डालर के आसपास पहुंच गया है। इस गणित के मुताबिक तेल कम्पनियों को आज भी पेट्रोल की बिक्री पर 2.61 रुपये या प्रतिदिन 15 करोड़ रुपये का नुकसान हो रहा है। इसीलिए कम्पनियों ने वैट लगाने के बाद पेट्रोल की कीमतों को अंतर्राष्ट्रीय भाव के अनुरूप लाने के लिए 3.14 रुपये की वृद्धि की।
व्यवसाय के हिसाब से पेट्रोल की कीमतों में वृद्धि के पक्ष में जो भी झूठे तर्प दिए जा रहे हैं वे देखने व सुनने में अकाट्य हो सकते हैं। किन्तु उनके संगत या असंगत होने से देश के उन तमाम लोगों का कोई वास्ता नहीं है, जो गरीबी और अल्प आय वर्ग के हैं। वे तो सिर्प यह जानते हैं कि पेट्रोल की कीमतें बढ़ने से उनके जीवन पर महंगाई का बोझ पड़ना अवश्यंभावी है और इसी के साथ उनकी जिन्दगी भी बोझिल हो जाती है।
सच तो यह है कि पेट्रोल का दाम बढ़ाने का तर्प झूठा, फरेब और निहायत ही घटिया है क्योंकि तेल मार्केटिंग कम्पनियों का घाटा हो ही नहीं रहा है। महालेखा परीक्षक (कैग) की ताजा रिपोर्ट में ओएनजीसी का लाभ 31 मार्च 2010 तक 13403.53 करोड़ था जबकि 31 मार्च 2011 तक यह राशि 22455.83 करोड़ हो गई। एचपीसीएल को 31 मार्च 2010 तक 1476 करोड़ का फायदा हुआ जबकि यही राशि 31 मार्च 2011 तक 1702 करोड़ हो गया। इंडियन आयल का 31 मार्च 2010 तक लाभ राशि 10908.68 करोड़ थी जो 31 मार्च 2011 तक 18085.62 करोड़ हो गई। भारत पेट्रोलियम की 31 मार्च 2010 तक 171998 करोड़ तथा 31 मार्च 2011 तक 174206 करोड़ हो गई।
दूसरी तरफ इस संवेदनहीन सरकार ने केंद्रीय कर्मचारियों का 7 प्रतिशत महंगाई भत्ता बढ़ा दिया। इस तरह 50 लाख केंद्रीय कर्मचारियों एवं 38 लाख पेंशनभोगियों पर सरकार 7,229 करोड़ का अतिरिक्त खर्च करेगी। इससे यह स्पष्ट है कि सरकार सिर्प केंद्रीय कर्मचारियों के दुःख-दर्द को महसूस कर रही है। उसे गरीब, मजदूरों, निजी कम्पनियों में काम करने वाले लोगों के प्रति कोई संवेदना नहीं है।
यह सरकार संवेदनहीन ही नहीं बल्कि कूर भी है। एक तरफ तो तेल कम्पनियों को पेट्रोल की कीमतें बढ़ाने के लिए खुली छूट दे रखी है तो दूसरी तरफ पेट्रोल पर तमाम केंद्रीय कर ठोंक कर आम जनता से कीमतें निचोड़ रही है। यदि सरकार यह मानती है कि अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतें बढ़ रही हैं तो जरूरी नहीं कि सरकार पेट्रोल पर असीमित कर का बोझ लाद कर उसे आम आदमी के लिए असहनीय बना दे। केंद्र सरकार को अपने भारी-भरकम कर ढांचे में सुधार करना चाहिए।
सवाल यह है कि तेल कम्पनियों की फिजूलखर्ची और अपने बेतहाशा बढ़ाए गए केंद्रीय करों की समीक्षा के लिए तो सरकार तैयार है नहीं, वह सिर्प आए दिन आम जनता की जेब में आग लगाने के लिए घात लगाए बैठी रहती है। अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल का दाम बढ़ने पर पेट्रोल का दाम बढ़ना स्वाभाविक है तो घटने पर घटता क्यों नहीं सरकार ने तो हमेशा के लिए हाथ खींच लिया है और तेल कम्पनियों को ही दाम बढ़ाने का अधिकार दे दिया और तेल कम्पनियां कच्चे तेल का दाम घटने पर पेट्रोल का दाम घटाती नहीं। कहती हैं कि अभी तो वह अपना घाटा पूरा कर रही हैं। क्या आम जनता अब अपनी व्यथा लेकर तेल कम्पनियों के पास जाए। सच तो यह है कि सरकार समझती सब कुछ है। उसे पता है कि देश में उसके फैसलों से हाहाकार मचा है किन्तु उसे यह भी पता है कि अभी निकट भविष्य में चुनाव नहीं है। इसीलिए वह जमकर आम आदमी का शोषण कर रही है।
कूरता की इससे भयानक मिसाल और क्या हो सकती है कि जब एक तरफ दुनिया के तमाम विकसित और विकासशील देश अपनी जनता को राहत देने के बारे में तरह-तरह की योजनाएं लागू करते हैं उनमें टैक्सों में व्यापक सुधार और कटौती तथा सब्सिडी बढ़ाने पर विचार कर रहे हैं तो हमारे देश की सरकार धुआंधार शोषण पर लगी है। समझ में नहीं आता कि प्रधानमंत्री का यह गिरोह किस आर्थिक संस्थान से पढ़ा-लिखा है जिसने इन्हें शोषण के इतने सारी ठग विद्या सिखा दिया है।
बहरहाल इस सरकार को देश की जनता की हालत से कुछ लेना देना नहीं है बल्कि वह तो देश के करोड़ों लोगों को इस बात की चुनौती दे रही है कि वह वही करेगी जो उसे करना है, तुम्हें जो करना है तुम कर सकते हो।

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