दिल्ली हाईकोर्ट के रिशेप्शन पर हुए बम विस्फोट से एक बार फिर से दिल्ली
दहल गई और यह चर्चा चल पड़ी कि आखिर भारत में आतंकवाद पर नियंत्रण क्यों
नहीं हो पा रहा है? यह बात सही है कि सभी जगह सुरक्षा बलों को नहीं तैनात
किया जा सकता है, मगर संसद एवं उसके आस-पास के इलाकों में आतंकी घटनाओं
को तो रोका ही जा सकता है। कोई भी घटना होने पर हमारी सरकार के मंत्री
अपना रूटीन बयान दे देते हैं कि आतंकवादी अपने मंसूबों में कभी कामयाब
नहीं हो सकते हैं। वे अपने देश का कुछ भी नहीं कर सकते हैं। इसके साथ-साथ
पूरे देश में हाई अलर्ट घोषित कर दिया जाता है। कुछ पमुख स्थानों की
सुरक्षा व्यवस्था बढ़ा दी जाती है, फिर धीरे-धीरे सब कुछ रूटीन पर आ जाता
है। परिणाम वही होते हैं, ठाक के तीन पात। मुंबई की घटना के बाद सरकार ने
ऐसा रुख दिखाया कि जैसे अब वह आतंकी हमलों को होने ही नहीं देगी। मुंबई
की घटना के बाद सरकार ने जो सख्ती दिखाई, उसका परिणाम देखने को भी मिला।
हमारे देश में जब भी कोई आतंकी घटना होती है, तो उसकी अमेरिका से तुलना
होने लगती है। पूरे देश में यह चर्चा चल पड़ती है कि एक घटना के बाद जब
अमेरिका में अतांकी हमलों को रोका जा सकता है तो भारत में क्यों नहीं?
मगर समझने वाली बात यह है कि अमेरिका भारत ही नहीं है। भारत में आतंकियों
के खिलाफ सरकार सख्त नहीं दिख रही है। आतंकियों में एक संदेश चला गया है
कि भारत में कुछ भी कर देना आसान हे। ज्यादा से ज्यादा इतना ही होगा कि
पकड़े जाये तो जेल में चले जाएंगे। फांसी या मौत की सजा तो होनी नही है।
अदालत फांसी की सजा भले ही सुना दे, मगर सरकार ऐसा नहीं होने देगी। किसी
न किसी बहाने सरकार बचा ही लेगी। उदाहरण के तौर पर अफजल गुरु एवं कसाब
सबके सामने हैं। पूरा देश चाहता है कि अफजल गुरु एवं कसाब को फांसी दी
जाए, मगर सरकार में इच्छा शक्ति न होने के कारण ऐसा नहीं हो पा रहा है।
अफजल गुरु एवं कसाब पर सरकारी धन की बर्बादी जारी है। एक ही समुदाय के जब
कुछ लोगों के खिलाफ कार्रवाई होने लगती है तो उसे सांपदायिकता का रूप दे
दिया जाता है। यदि ऐसा नहीं हो पाता है तो इस कमी को राजनैतिक दल पूरा कर
देते हैं। कुल मिलाकर कहने का आशय यह है कि आतंकवाद के मामले में भारत एक
नरम राष्ट्र घोषित होता जा रहा है। आज इसी नरम नीति का परिणाम है कि
तमिलनाडु में राजीव गांधी के हत्यारों के पति सहानुभूति दिखाई दे रही है।
इस मामले में तमिलनाडु के राजनैतिक दल भी मैदान में कूद पड़े हैं।
जम्मू-कश्मीर के युवा मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने कहा है कि तमिलनाडु
की तरह अफजल गुरु का ममला यदि जम्मू-कश्मीर में होता तो क्या ऐसे ही
माहौल रहता। पंजाब में भी भुल्लर के पति अब ऐसा मामला देखने को मिल सकता
है।
जितना मुस्तैद होने की आवश्यकता खुफिया एवं सुरक्षा बलों को है, उतनी ही
अधिक दृढ़ इच्छा शक्ति की आवश्यकता राजनैतिक नेतृत्व को भी है। खुफिया
एवं सुरक्षा एजेंसियां चाहकर भी तब तक कुछ नहीं कर सकतीं जब तक सरकार
नहीं चाहेगी। आज अगर आतंकवादियों को यह विश्वास हो जाए कि भारत की तरफ जो
नजर उठाकर देखेगा, उसकी खैर नहीं। आधे हमले अपने आप रुक जाएंगे। मगर भारत
सरकार का खौफ आतंकियों के मन में बिल्कुल भी नहीं है। कुछ ऐसे मामलें
हैं, यदि उनमें सुधार हो जाए तो आतंकी घटनाएं रोकने में काफी मदद मिल
सकती है। कहा जाता है कि आतंकी हमले से पूर्व सुरक्षा एजेंसियों को
खुफिया सूचना नहीं मिलती। सूचना होती है तो खुफिया एजेंसियां यह नहीं बता
पातीं कि हमला कहां हो सकता है? पुलिस और सुरक्षा एजेंसियां बम निरोधक
तकनीकी से लैस नहीं हैं। सूचना के लिए 90ज्ञ् थानों में कंप्यूटर और
इंटरनेट नहीं है। विस्फोटक सामग्री ढूंढने के लिए उपकरणों की कमी है।
थाने के पुलिस कर्मियों को आतंकवाद से निपटने की पर्याप्त ट्रेनिंग नहीं
है। उन पर रोजमर्रा के कानून व्यवस्था संबंधी कार्यों का बोझ अधिक है।
आतंकी घटनाओं की रोकथाम के लिए अलग से जिम्मेदार एजेंसी नहीं है।
आतंकवाद के संदर्भ में चाहे कुछ भी कहा जाए मगर इतना निश्चित रूप से कहा
जा सकता है। यदि भारत के खिलाफ आतंकियों के हौसले इतने बुलंद हैं तो उसके
लिए सरकार की नरम नीति भी काफी हद तक जिम्मेदार है। पूरी दुनिया को सर्व
विदित है कि अमेरिका में 9/11 की एक ही घटना के बाद वहां सारा कुछ बदल
गया। आज अमेरिका की तरफ आंख उठाने से पहले आतंकियों को सौ बार सोचना
पड़ता है। वर्ल्ड ट्रेड सेंटर और पेंटागन पर आतंकी हमले ने आर्थिक,
सामाजिक और तमाम मामलों में अमेरिका में काफी परिवर्तन देखने को मिला है।
आतंकवाद को लेकर भारत में राष्ट्रीय एकता और अधिक मजबूत किए जाने की
आवश्यकता है। यह काम देश के सभी लोगों एवं नागरिकों को मिलकर करना होगा।
बिना जनता के सहयोग के आतंकवाद जैसी गंभीर समस्या से निपटा नहीं जा सकता
है। हर किसी नागरिक को यदि कहीं कोई संदिग्ध वस्तु मिलती है, या कोई
व्यक्ति संदिग्ध लगता है तो उसकी सूचना सुरक्षा एजेंसियों को अवश्य देनी
चाहिए। इस मामले में पुलिस एवं सुरक्षा एजेंसियों की भी जिम्मेदारी बनती
है कि वे सूचना देने वालों को बेवजह परेशान न करें। कितने ऐसे लोग हैं जो
किसी बात की जानकारी होने पर भी पुलिस के पास जानकारी देने नहीं जाते,
क्योंकि उन्हें लगता है कि पुलिस बेवजह दुनियाभर के पश्न पूछेगी ओर उस पर
शक करेगी।
समय रहते यदि सरकार नहीं चेती तो संभवत जिस तरह भ्रष्टाचार के खिलाफ
अन्ना हजारे के नेतृत्व में रामलीला मैदान एवं पूरे देश में जन सैलाब
उमड़ पड़ा। उसी तरह आतंकवाद के भी खिलाफ जनता न उठ खड़ी हो जाए। आतंकवाद
इतनी गंभीर समस्या हे कि इस पर ढील देने से समस्या उत्पन्न हो जाएगी। जब
कोई आतंकी घटना होती है तो गृहमंत्री पी. चिदम्बरम उसकी जिम्मेदारी
राज्यों पर डालकर अपना पल्ला झाड़ लेते हैं।
कह देते हैं कि कानून व्यवस्था दुरुस्त करना राज्यों का काम है। मान
लीजिए कोई राज्य सरकार ऐसा कर पाने में सक्षम नहीं हो पाती है तो केन्द्र
और राज्य में समन्वय बनाने का काम कौन करेगा? कुल मिलाकर आज स्थिति यह बन
गई है कि चाहे जिस पकार हो, आतंकवाद पर काबू पाना बहुत आवश्यक हो गया है।
Sunday, 11 September 2011
भारत में आतंकवाद एवं राजनैतिक नेतृत्व ?
Editorial Publish on 12 Sep 2011
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