Wednesday 20 September 2017

लाहौर उपचुनाव नतीजों का दूरगामी परिणाम होगा

पिछले कुछ दिनों से पाकिस्तान में कौमी असेम्बली के हल्के (निर्वाचन क्षेत्र) 120 लाहौर उपचुनाव का बुखार चढ़ा हुआ था। इसी चुनाव क्षेत्र से नवाज शरीफ तीन बार प्रधानमंत्री के सिंहासन तक पहुंचे थे। इस बार उनकी पत्नी बेगम कुलसुम नवाज चुनाव लड़ रही थीं। रविवार को इस उपचुनाव को लंदन में कैंसर का इलाज करा रही नवाज शरीफ की बेगम कुलसुम नवाज ने यह सीट जीत ली है। जुलाई में नवाज शरीफ को पीएम पद के लिए अयोग्य ठहराए जाने के बाद कुलसुम ने उनकी सीट पर चुनाव लड़ा था। नवाज शरीफ के भ्रष्टाचार के आरोपों में फंसने के बाद यह उपचुनाव उनकी परीक्षा भी थी और प्रतिष्ठा भी। इस बार उनकी बेगम कुलसुम नवाज ने पाला मारा और तहरीक--इंसाफ की उम्मीदवार यास्मिन राशिद को लगभग 15,000 वोटों से हरा दिया। मगर इस चुनाव के नतीजों से भी ज्यादा अहम बात जिसकी तरफ मीडिया का ध्यान कम गया वो यह है कि मुस्लिम लीग नवाज और तहरीक--इंसाफ के बाद तीसरे न्म्बर पर एक ऐसे निर्दलीय उम्मीदवार ने पांच हजार वोट लिए जिसे लश्कर--तैयबा उर्फ जमात-उद-दावा के लीडर हाफिज सईद का समर्थन हासिल है। जबकि आसिफ अली जरदारी की पार्टी को सिर्फ ढाई हजार वोट मिले। शेख मोहम्मद याकूब का चुनाव प्रचार जमात-उद-दावा के पेट से डेढ़ महीने पहले निकली मिल्ली मुस्लिम लीग के वर्कर्स ने किया। यूं समझिए कि जो ताल्लुक भाजपा का आरएसएस से है वही ताल्लुक मिल्ली मुस्लिम लीग का हाफिज सईद की जमात-उद-दावा से है। मगर चूंकि मिल्ली मुस्लिम लीग अभी चुनाव आयोग में नामांकित नहीं, इसलिए उसके उम्मीदवार ने निर्दलीय के रूप में चुनाव लड़ा। मिल्ली मुस्लिम लीग ने चुनाव प्रचार में अच्छा-खासा पैसा खर्च किया। मुंबई आतंकी हमले के मास्टर माइंड हाफिज सईद की नई पार्टी मिल्ली मुस्लिम लीग ने घोषणा की है कि पाकिस्तान में 2018 के आम चुनावों में हर सीट पर वह अपने प्रत्याशी उतारेगी। लाहौर उपचुनाव में हाफिज सईद के संगठन जमात-उद-दावा समर्थित प्रत्याशी शेख याकूब ने तीसरे नम्बर पर रहने के बाद यह बात कही। शेख याकूब की रैलियों में हाफिज सईद के पोस्टर भी नजर आए, हालांकि चुनाव आयोग ने सख्ती से मना किया है कि जिन लोगों पर चरमपंथ का आरोप है उनका नाम चुनाव प्रचार में इस्तेमाल नहीं हो सकता। खुद हाफिज सईद जनवरी से अपने घर में कैद है। मिल्ली मुस्लिम लीग का अपनी पैदाइश के चन्द हफ्ते बाद ही चुनाव में हिस्सा लेना और तीसरे नम्बर पर आना इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि जब से अमेरिका में राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और बीजिंग में ब्रिक्स नेताओं की बैठक की तरफ से पाकिस्तान को कहा गया है कि वह अपने यहां ऐसे संगठनों को रोके जिन पर इलाके में दहशतगर्दी फैलाने का आरोप है। तब से पाकिस्तान सरकार में दो तरह की बहस चल रही है। सिविलियन हुकूमत चाहती है कि विदेश नीति में बदलाव हो क्योंकि अब सिर्फ यह कहने से दुनिया संतुष्ट नहीं होगी कि पाकिस्तान का अतिवादी संगठनों से कोई लेना-देना नहीं। दूसरी तरफ यह दलील दी जाती है कि अगर इन चरमपंथी संगठनों को राष्ट्र की मुख्य धारा में शामिल किया जाए तो हम दुनिया से कह सकते हैं कि हमने इन लोगों को एक नया रास्ता सुझाया है जिसमें दहशतगर्दी की कोई गुंजाइश नहीं है। पर मुश्किल यह है कि अगर कल के चरमपंथी आज के लोकतांत्रिक सियासत का हिस्सा अपने उसी नजरिये के साथ बनाते हैं जिससे बाकी दुनिया चिंतित है तो ऐसी स्थिति में उन्हें मुख्य धारा में लाने का लाभ की जगह ज्यादा नुकसान न हो जाए। यह संभव है कि अगर हाफिज सईद कौमी सियासत का हिस्सा बनता है तो ऐसा नहीं होगा कि हाफिज सईद अपना अतिवादी नजरिया छोड़ देगा। चूंकि नवाज की पत्नी कुलसुम नवाज को गले का कैंसर हुआ है और उनका इलाज चल रहा है इसलिए चुनाव प्रचार की सारी जिम्मेदारी मरियम नवाज को दी गई थी। मरियम नवाज बहुत तेज-तर्रार नेता हैं और पंजाब में उनकी लोकप्रियता भी है। उनकी तुलना भूतपूर्व प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो से की जाती है। इसलिए कुलसुम की गैर-मौजूदगी में भी उनके चुनाव प्रचार में कोई फर्क नहीं पड़ा। जीत असल में हुई तो मरियम शरीफ और हाफिज सईद की हुई।

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