Sunday, 3 September 2017

ओबीसी को साधने के लिए मोदी सरकार का दांव

मिशन 2019 की तैयारी में जुटी मोदी सरकार ने अपने दो निर्णयों के सहारे पिछड़े वर्ग को साधने की सबसे मजबूत पहल की है। सरकार के अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के आरक्षण पर लिए गए दो फैसले दूरगामी असर रखते हैं। सरकार को क्रीमीलेयर की सीमा बढ़ाने और ओबीसी में उपश्रेणियां बनाने के लिए आयोग के गठन का ऐलान इसी दिशा में एक कदम है। दरअसल ओबीसी में शामिल 5000 से अधिक जातियों में से 95 फीसदी को आरक्षण का लाभ चुनिन्दा जातियों तक ही सीमित रह जाने की शिकायत है। आयोग के गठन के जरिये मोदी सरकार ने 95 फीसदी जातियों को एक साथ साधने की पहल की है। आजादी के बाद से ही आरक्षण व्यवस्था की समीक्षा की मांग लगातार होती रही है। इसी के मद्देनजर नेहरू सरकार के दौरान 1953 में काका कालेलकर ने पिछड़े जाति की न सिर्फ 2399 जातियों को पिछड़ा जाति वर्ग में शामिल किया, बल्कि इनमें से 837 जातियों को अतिपिछड़ा वर्ग घोषित कर अलग से आरक्षण का प्रावधान करने की सिफारिश की। मगर यह रिपोर्ट लागू नहीं हो पाई। हालांकि 70 के दशक में बिहार में कर्पूरी ठाकुर सरकार ने इसी तरह की ओबीसी आरक्षण व्यवस्था बहाल की। हालांकि आरक्षण की राजनीति तब अचानक गरम हो गई जब 90 के दशक में वीपी सिंह सरकार ने मंडल आयोग की रिपोर्ट को लागू किया जिसमें ओबीसी के लिए 27 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था है। मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू होने के 27 वर्ष बाद भी केंद्र सरकार की नौकरियों की स्थिति में बड़ा बदलाव नहीं आया। एक रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2014 में महज 12 फीसदी लोग ही थे। उस दौरान केंद्र सरकार के चार श्रेणियोंö, बी, सी और डी 79,483 पद हैं। इनमें महज 9040 कर्मचारी ओबीसी से हैं। मोदी सरकार के फैसले का दूरगामी असर होगा। पहले फैसले में जहां क्रीमीलेयर यानि मलाईदार तबके की आय सीमा छह लाख से बढ़ाकर आठ लाख रुपए कर दी गई है वहीं दूसरा निर्णय ज्यादा महत्वपूर्ण है। इसमें ओबीसी की केंद्रीय सूची में जातियों के लिए कोटे के अंदर कोटा तय करने को मंजूरी दी गई है। सरकार का निशाना दरअसल उन जातियों को आरक्षण का फायदा लेने में आगे करने का है जो इसी समूह में शामिल ताकतवर और प्रभुत्वशाली जातियों के चलते लाभ लेने से वंचित रह जाते हैं। सीधे शब्दों में सरकार की सोच दो प्रमुख जातियों को पीछे कर अन्य पिछड़ी और अत्यंत पिछड़ी जातियों को आगे बढ़ाने की है। उन्हें कमजोर सामाजिक आर्थिक आधार पर खामियाजा भुगतने से रोकना है। यह ताकतवर पिछड़ी जातियां उन्हें लामबंद होकर सुविधाओं की लाइन से परे धकेल देती हैं। कोटे के अंदर कोटे के गणित से भाजपा को उन राज्यों में जहां चुनाव होने हैं सियासी फायदा होने की उम्मीद है। वहीं इस कदम से ताकतवर पिछड़ी जातियों में नाराजगी पनपेगी क्योंकि कोटे में कोटे से आरक्षण में उनकी हिस्सेदारी पहले की तुलना में कम हो जाएगी। उत्तर भारत में यादव और कुर्मी को होने वाली इस नई व्यवस्था से सर्वाधिक नुकसान उठाना पड़ सकता है। देखना यह है कि इनकी नाराजगी को भाजपा किस तरह दूर करेगी। फिर सवाल यह भी है कि आयोग किन आंकड़ों के आधार पर उपश्रेणियां बनाएगा? जातिवार जनगणना के आंकड़े सरकार ने जारी नहीं किए हैं। क्या यह आंकड़े आयोग को मुहैया कराए जाएंगे? यह सवाल भी उठेगा कि उपश्रेणी अनुसूचित जाति को आरक्षण क्यों नहीं, जबकि आरक्षण का लाभ सिकुड़े होने की शिकायत वहां भी है। ओबोसी आरक्षण की नई मांगें जो मराठा, कापु, पटेल, जाट जैसे समुदाय कर रहे हैं वो तो आयोग के विचार के दायरे में भी नहीं हैं। लिहाजा आरक्षण संबंधी विवाद खत्म हो जाएगा, यह मान लेना नादानी होगी, बल्कि कुछ मायनों में नए विवाद को जन्म दे सकती है। बावजूद इसके यह फैसला भले ऊपरी तौर पर सामाजिक समानता लाने की बात कहता है, किन्तु इसका राजनीतिक सन्दर्भ व्यापक है।

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