Saturday, 31 March 2018

तीसरे मोर्चे यानि फेडरल फ्रंट की कवायद

उत्तर प्रदेश के उपचुनाव में सपा और बसपा के अनौपचारिक गठबंधन के नतीजों से उत्साहित विपक्ष में 2019 के लिए एकजुटता की कवायद तेज हो गई है। इसी कड़ी में तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी ने मंगलवार को दिल्ली में विभिन्न नेताओं के साथ-साथ एनडीए में शामिल नेताओं से मुलाकात भी की। मंगलवार को पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी लगभग आधा दर्जन क्षेत्रीय दलों के बीच नेतृत्व की कमान लेती दिखीं। वह खुद राकांपा नेता शरद पवार से मिलने गईं तो संदेश यह देने की कोशिश हुई कि विपक्षी एकजुटता के बाद शरद पवार स्वीकार्य नेता के रूप में उभरें। लेकिन इस पूरे क्रम में कांग्रेस को शामिल करने पर एक राय नहीं बनी। विपक्षी दलों में से कुछ नेता चाहते हैं कि कांग्रेस को शामिल करके ही भाजपा के खिलाफ मोर्चा खड़ा हो। इसका ज्यादा असर होगा, लेकिन टीआरएस प्रमुख मुख्यमंत्री चन्द्रशेखर राव ने ममता से मुलाकात करके गैर-भाजपा व गैर-कांग्रेस मोर्चा बनाने की वकालत की थी। ममता ने भी फेडरल फ्रंट बनाने की वकालत की है। माना जा रहा है कि कांग्रेस के साथ बीजद जैसे दल भी नहीं आएंगे। ममता की एनडीए से हाल में अलग हुए टीडीपी नेताओं और एनडीए सहयोगी शिवसेना के नेताओं से मुलाकात के बाद कयासों का बाजार गरम है। जानकारों का कहना है कि अभी कुछ भी कहना जल्दबाजी होगी। शिवसेना और टीडीपी नेताओं की मुलाकात संसद की रणनीति से भी जोड़कर देखा जा रहा है। ममता भाजपा के असंतुष्ट नेताओं यशवंत सिन्हा, शत्रुघ्न सिन्हा तथा पूर्व केंद्रीय मंत्री अरुण शौरी से भी मिलेंगी। केजरीवाल से भी उनकी मुलाकात हो सकती है। इसमें दो राय नहीं कि भाजपा जैसे प्रबल जनादेश के साथ सत्ता में आई उसके अनुरूप प्रदर्शन नहीं कर सकी और इसी कारण आम जनता के बीच एक बेचैनी-सी जरूर है पर अभी ऐसे किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा जा सकता कि जनता उसके विकल्प की तलाश में जुट गई है और वह उसे विपक्ष में नजर आने लगा है। अगर भाजपा तमाम बुनियादी समस्याओं का समाधान नहीं खोज सकी और शासन-प्रशासन के तौर-तरीकों में जरूरी बदलाव नहीं ला सकी तो विपक्षी दल भी अपने शासन वाले राज्यों में सुशासन की कोई नई इबारत नहीं लिख सके हैं। विपक्षी दलों के समक्ष एक बड़ी समस्या यह भी है कि राष्ट्रीय महत्व के मसलों पर उनके पास न तो कोई स्पष्ट दृष्टिकोण दिखता है और न ही किसी तरह का न्यूनतम साझा कार्यक्रम। फिर इस तीसरे-चौथे मोर्चे का इतिहास भी उत्साहवर्द्धक नहीं।
-अनिल नरेन्द्र

24 लाख छात्रों को दोबारा देनी होगी परीक्षा

13 दिन से पेपर लीक की खबरें नकार रहे सीबीएसई ने आखिर मान लिया कि पेपर लीक हुए हैं। बोर्ड ने बुधवार को 10वीं और 12वीं के पेपर रद्द कर दिए। बुधवार को हुए 10वीं का गणित और सोमवार को हो चुके 12वीं के इकोनॉमिक्स की परीक्षा फिर से होगी। नई तारीखें हफ्तेभर में सीबीएसई अपनी वेबसाइट पर बताएगा। परीक्षा से पहले हाथ से लिखे सवाल वाट्सएप पर शेयर हो रहे थे। हालांकि सीबीएसई दावा करती रही कि पेपर लीक नहीं हुए हैं। इससे पहले 15 मार्च को 12वीं का अकाउंट का पेपर लीक होने की खबर थी। पंजाबी बाग के मादीपुर इलाके में एक कोचिंग संचालक ने मंगलवार को रात 10 बजे पुलिस को बताया कि उसके सेंटर में पढ़ने वाले बच्चों को हाथ से लिखे नौ सवाल मिले हैं। 10वीं की परीक्षा में सुबह यही सवाल पूछे जाएंगे। इनपुट मिलते ही पुलिस ने पहले बच्चों से पूछताछ की। इसके बाद बुधवार को जब एग्जाम पेपर मिलाया तो हर प्रश्न हूबहू वही था, जो लीक हुआ था। बड़ी चिन्ता की बात यह है कि इन दोनों विषयों के प्रश्न पत्र न केवल लीक ही हुए बल्कि बड़े पैमाने पर वितरीत भी कर दिए गए। यह तो जांच के बाद ही पता चलेगा कि यह आपराधिक कृत्य किसने और कितने बड़े पैमाने पर किया, लेकिन इसमें दो राय नहीं कि इस कारण देश के लाखों छात्रों पर तुषाराघात हुआ है। गणित की परीक्षा के साथ ही 10वीं के ज्यादातर छात्रों की परीक्षा खत्म हो गई थी और वे इससे खुश थे कि परीक्षा का बोझ सिर से उतर गया, लेकिन उनके राहत की सांस लेने से पहले ही यह खबर आ गई कि इस विषय की परीक्षा फिर से देनी होगी। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने गोपनीय सूचनाएं, जानकारियां, प्रश्न पत्र लीक होने पर तीखा हमला बोला और कहा कि चौकीदार कमजोर होने के कारण ऐसा हो रहा है। श्री गांधी ने ट्वीट कियाöकितने लीक। डाटा लीक, आधार लीक, एसएससी परीक्षा लीक, चुनाव तिथि लीक और अब सीबीएससी पेपर लीक। हर चीज में चौकीदार वीक है। चन्द दिनों पहले ही कर्मचारी चयन आयोग की परीक्षा के पर्चे लीक होने के मामले की जांच सीबीआई को सौंपनी पड़ी थी। इससे पहले भी अन्य कई परीक्षाओं के पर्चे लीक हो चुके हैं। यह ठीक नहीं कि प्रतियोगी परीक्षाओं के साथ-साथ स्कूल और कॉलेज स्तर की परीक्षाओं के भी पर्चे लीक होने लगे हैं। केंद्रीय शिक्षा मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने कहा कि बाकी परीक्षाओं के लिए सोमवार से लीक प्रूव सिस्टम लाएंगे। टेक्नोलॉजी के जरिये सुरक्षा के नए और पुख्ता प्रबंध करेंगे। यह घटनाक्रम निराशाजनक है, पर किसी के साथ अन्याय नहीं होने देंगे। चलिए देखते हैं कि लीकेज का यह सिलसिला थमेगा या नहीं?

Friday, 30 March 2018

अमेरिका समेत 17 देशों ने रूस के 107 राजनयिक निकाले

यह दुनिया में फिर से शीतयुद्ध शुरू होने की आहट है। अमेरिका ने सोमवार को रूस के 60 राजनयिक निष्कासित कर दिए। इनमें से 12 संयुक्त राष्ट्र में तैनात हैं। इसके बाद जर्मनी, फ्रांस समेत 18 देशों ने भी रूस के 40 राजनयिकों को निकाल दिया है। ब्रिटेन पहले ही 23 रूसी राजनयिक निष्कासित कर चुका है। ब्रिटेन में पूर्व रूसी जासूस सर्गेई क्रिपल और उनकी बेटी यूलिया को जहर देकर मौत के घाट उतारने के मामले में रूस चौतरफा घिर गया है। इस मामले में कई देशों ने एक साथ रूस के खिलाफ कार्रवाई की। अमेरिका समेत 17 अन्य देशों ने रूस के 107 राजनयिकों को देश छोड़ने को कहा है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने 60 रूसी राजनयिकों को निष्कासित करने के साथ-साथ जर्मनी, फ्रांस, पोलैंड, इटली, नीदरलैंड समेत 14 यूरोपीय यूनियन (ईयू) के देशों ने कुल 30 रूसी राजनयिकों को निकालने के फैसले से एक भयंकर विवाद व तकरार आरंभ हो गया है। रूसी विदेश मंत्रालय ने अपने राजनयिकों के खिलाफ हुई इस कार्रवाई के खिलाफ जवाबी कार्रवाई के कड़े संदेश दिए हैं। मंत्रालय ने बयान जारी कर कहाöनाटो और ईयू देशों द्वारा हमारे राजनयिकों को निकालने के इस फैसले का हम विरोध व्यक्त करते हैं। हम इसके खिलाफ गैर-दोस्ताना कदम उठाने को विवश है। हम यह देख रहे हैं कि कुछ देश परिस्थितियों से वाकिफ हुए बिना हमारे खिलाफ कार्रवाई कर रहे हैं। यह कदम संघर्ष बढ़ाएगा और टकराव की गतिविधियां बढ़ाएगा। मास्को ने यह भी कहा कि ब्रिटेन ने हम पर आधारहीन आरोप लगाए हैं। यह हमारे खिलाफ एक पूर्वाग्रह, पक्षपाती और दमनकारी कदम है। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अमेरिका और रूस (तत्कालीन सोवियत संघ) के राजनीतिक और आर्थिक हितों का टकराव शुरू हो गया और दोनों देशों के बीच अपना प्रभाव बढ़ाने की होड़ लग गई है। 1990 तक दुनिया के ज्यादातर देश दोनों महाशक्तियों के बीच बंटे रहे। सोवियत संघ के विखंडन के  बाद जो शीत युद्ध खत्म हो गया था वह लगता है कि अब फिर शुरू हो रहा है। इस कार्रवाई के बाद रूस और पश्चिमी देशों के बीच एक गंभीर राजनयिक संकट खड़ा हो गया है। रूस के खिलाफ ब्रिटेन के साथ यूरोपीय देशों और अमेरिका का आना जबरदस्त एकता का प्रदर्शन है। यह ऐसे समय हो रहा है जब ब्रैग्जिट के चलते ब्रिटेन और यूरोप में तनावपूर्ण संबंध हैं। 60 रूसी राजनयिकों को देश से निकालने का उद्देश्य भारत जैसे देश को कोई संदेश भेजना नहीं है, जिसके मास्को और वाशिंगटन के साथ समान रूप से मजबूत संबंध हैं।

-अनिल नरेन्द्र

पहले से मजबूत पर अब भी चुनौतियां बरकरार

राज्यसभा की 59 सीटों पर हुए चुनाव ने उच्च सदन राज्यसभा की तस्वीर को बहुत हद तक बदल दिया है। आंकड़ों के लिहाज से राजग ने हालांकि कांग्रेस पर भारी बढ़त बना ली है, मगर इसके बावजूद यह गठबंधन बहुमत से फिलहाल बहुत दूर है। इस चुनाव में भाजपा को 14 अतिरिक्त सीटें हाथ लगी हैं। जबकि 245 सदस्यीय राज्यसभा में राजग के सदस्यों की संख्या 76 से बढ़कर 92 हो गई है। भगवा पार्टी राज्यसभा में सबसे बड़े दल के रूप में उभरी है। पार्टी के सदस्यों की संख्या बढ़कर अब 69 हो गई है लेकिन बहुमत से पार्टी अभी कोसों दूर है। लेकिन उच्च सदन में भाजपा अब पहले की तुलना में बेहतर स्थिति में आ गई है। पार्टी अन्नाद्रमुक सहित कुछ अन्य कांग्रेस विरोधी दलों को साथ कर बिल पारित कराने जैसे कामकाज आसानी से निपटा सकेगी। इस दौरान उसके लिए कांग्रेस को किनारे करना भी अब पहले की तुलना में आसान हो गया है। शुक्रवार को हुए राज्यसभा चुनाव के बाद भाजपा की झोली में 28 सीटें आईं। इससे भाजपा को 11 सीटों का फायदा हुआ। कांग्रेस ने 10 सीटों पर जीत दर्ज की जबकि पहले उसका इनमें से 14 सीटों पर कब्जा था। इस तरह पार्टी को चार सीटों का नुकसान हुआ है। 245 सदस्यीय सदन में अब भाजपा की सीटें बढ़कर 69 हो गई हैं और कांग्रेस की सीटें घटकर 54 से 50 रह गई हैं। लेकिन भाजपा और एनडीए दोनों ही बहुमत से दूर हैं। बहुमत के लिए 123 सीटें चाहिए। भाजपा को अभी हाल ही में एक झटका लगा है जब चार साल से उनकी सहयोगी रही तेलुगूदेशम पार्टी ने उससे नाता तोड़ लिया। सदन में इस समय तेदेपा के छह सदस्य हैं। बहरहाल कांग्रेस और समाजवादी पार्टी जैसे अपने प्रमुख विपक्षी दलों की संख्या में गिरावट से भाजपा खेमा काफी उत्साहित है। सपा की झोली में केवल एक सीट आई है जबकि सदन में उसके छह सदस्यों का कार्यकाल अब खत्म होने जा रहा है। भाजपा के सूत्रों ने बताया कि मोदी सरकार अब सदन में पहले से काफी आसान स्थिति में है क्योंकि सरकार के विरोधी एजेंडे पर अन्नाद्रमुक, टीआरएस, वाईएसआर कांग्रेस और बीजद जैसे राजग के बाहर वाले क्षेत्रीय दलों के उसे समर्थन मिलने की संभावना है। पर्याप्त संख्याबल नहीं होने के कारण मोदी सरकार द्वारा लाए गए विधेयक लोकसभा में पारित हो जाने के बावजूद राज्यसभा में आकर अटक जाते हैं। राज्यसभा में विपक्षी दलों के एकजुट हो जाने से मोदी सरकार को विधेयक पारित कराने में काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। मोदी सरकार का कार्यकाल 2019 में समाप्त हो रहा है। इसका अर्थ हुआ कि राज्यसभा में उसे अब भी काफी मशक्कत करनी पड़ेगी।

Thursday, 29 March 2018

आतंकी फंडिंग नेटवर्प का भंडाफोड़

उत्तर प्रदेश की एटीएस ने शनिवार को बड़ी कार्रवाई करते हुए लश्कर-ए-तैयबा के नापाक इरादों में शामिल 10 मददगारों को धर दबोचा। इनमें से आठ को यूपी से और एक-एक को बिहार और मध्यप्रदेश से गिरफ्तार किया गया। यह सभी आतंकी संगठन के लिए पैसा जुटाने का काम करते थे। आईजी एटीएस असीम अरुण ने बताया कि गिरफ्तार युवकों में से प्रतापगढ़ का संजय सरोज, गोरखपुर का नसीम अहमद व रीवा (एमपी) का उमा प्रतापEिसह पाकिस्तान के लाहौर में बैठे लश्कर-ए-तैयबा के हैंडलर से सीधे सम्पर्प में थे। यह पाकिस्तान से मिलने वाले निर्देशों पर फर्जी नामों से अलग-अलग बैंकों में खाते खोलते थे। इन खातों में पाकिस्तान, नेपाल और कतर से पैसे ट्रांसफर किए जाते थे। उसके बाद हैंडलर द्वारा बताए गए बैंक में फर्जी खोले गए खातों से ग्रीन कार्ड के जरिये या फिर कैश निकालकर पैसे ट्रांसफर कराए जाते थे। इसके बदले में इन लोगों को कमीशन मिलता था। आईजी ने बताया कि इंटेलीजेंस इनपुट व पूर्व की घटनाओं के आधार पर मामले की तफ्तीश की जा रही थी। गिरफ्तार नौ लोगों को कोर्ट में पेश कर जेल भेज दिया गया है और रीवा के उमा प्रताप को सोमवार को ट्रांजिट रिमांड पर लखनऊ लाया जाएगा। इन आरोपियों के पास से 52 लाख रुपए, बड़ी संख्या में डेबिट कार्ड, तीन लैपटॉप, आठ स्वैप मशीन,मैग्नेटिक कार्ड रीडर व एक विदेशी पिस्टल समेत कई अन्य सामान बरामद हुए हैं। गिरफ्तार लोगों के तार नेपाल से जुड़े होने की भी पुष्टि हुई है। इसमें नेपाल के कुछ नागरिक शामिल रहे हैं, जिनकी तलाश में बार्डर पर पुलिस को अलर्ट जारी कर दिया गया है। आतंकी संगठन से जुड़ा मास्टर माइंड कुशीनगर का रहने वाला है। यह अपना नाम बदलकर रहता था। मुशर्रफ अंसारी ने अपना नाम निखिल राय रखा था। यहां तक कि उसके दोस्त और करीबी भी उसे निखिल के नाम से ही जानते थे। आईजी ने बताया कि प्रथम दृष्टया यह इल्लीगल मनी फ्लो का रैकेट लग रहा था, लेकिन तफ्तीश में इसके तार सीधे टेरर फाइनेंसिंग गिरोह से जा मिले। उन्होंने बताया कि अभी तक सिर्प एक सिरा ही पकड़ में आता था, लेकिन इस मामले में पूरी चेन पकड़ी गई है। पता चला है कि वहां से पैसा आ रहा है और कहां जा रहा है। 50 से अधिक बैंक खातों के इस्तेमाल का पता चला है, जिनके जरिये एक करोड़ से अधिक का लेनदेन हुआ। इस टेरर फंडिंग गिरोह का पर्दाफाश कर यूपी की एटीएस बधाई की पात्र है। आतंकवाद में फंडिंग बहुत जरूरी होती है और इसको रोका जाए तो आतंकवाद खुद ही कम हो जाता है।

-अनिल नरेन्द्र

युद्ध से कम नहीं कर्नाटक चुनाव

कर्नाटक विधानसभा चुनाव की तारीख घोषणा के साथ ही विवाद भी खड़ा हो गया है। कर्नाटक की 224 विधानसभा सीटों के लिए 12 मई को वोट डाले जाएंगे और चुनाव के नतीजों की घोषणा 15 मई को की जाएगी। कर्नाटक विधानसभा चुनाव की तारीखें चुनाव आयोग की घोषणा से पहले ही लीक होने से बवाल खड़ा हो गया है। गौरतलब है कि भाजपा के आईटी सेल के प्रमुख अमित मालवीय ने चुनाव आयोग की ओर से कर्नाटक विधानसभा चुनाव की तारीखें घोषित करने से पहले ही मंगलवार को इस चुनाव की तारीखें ट्वीट कर दी थीं। कांग्रेस के प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने इस पर कहा कि भाजपा सुपर चुनाव आयोग बन गई है क्योंकि उन्होंने चुनाव आयोग से पहले ही चुनाव तारीखों की घोषणा कर दी। चुनाव आयोग की साख दांव पर है। क्या संवैधानिक संस्थाओं का डाटा भी भाजपा चुरा रही है। हमें समझ नहीं आया कि भाजपा आईटी सेल प्रमुख अमित मालवीय ने ऐसा क्यों किया? अगर किसी भी तरीके से उन्हें चुनाव की तारीखों का पता भी चल गया था तो उन्हें खामोश रहना चाहिए था। खैर जो होना था हो गया। कर्नाटक के चुनाव किसी युद्ध से कम नहीं दिखते। मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने लिंगायत को अलग धर्म का दर्जा देने जैसा संवेदनशील और राजनीतिक फैसला करके अपनी मंशा साफ कर दी है। वह हर पत्ता आजमाने को तैयार हैं। ऐसे में भाजपा के दो शीर्ष नेतृत्व अलग-अलग मोर्चे पर घेराबंदी करेंगे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जहां सार्वजनिक रैली के जरिये जनता को संबोधित करेंगे, वहीं अमित शाह ने जमीनी स्तर पर कमान संभाल ली है। दरअसल शाह कांग्रेस के लिंगायत कार्ड का तोड़ ढूंढने कर्नाटक पहुंचे हैं। सिद्धारमैया के नेतृत्व वाली कर्नाटक की कांग्रेस सरकार ने भाजपा के परंपरागत वोट बैंक समझे जाने वाले लिंगायत-वीर शैव समुदाय को अपने पाले में लाने के लिए उन्हें धार्मिक अल्पसंख्यक का दर्जा देने को लेकर केंद्र सरकार के पास प्रस्ताव भेजा है। इसे सिद्धारमैया का मास्टर स्ट्रोक माना जा रहा है। सोमवार को भाजपा अध्यक्ष अमित शाह सबसे पहले दुमकुर स्थित सिद्धगंगा मठ पहुंचे और श्री श्री शिव कुमार स्वामी का आशीर्वाद लिया। यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण लिंगायत और दलित समुदाय के मठों का दौरा है जिसके सहारे शाह राज्य के वोटर्स का मन टटोलने कर्नाटक पहुंचे हैं। माना जा रहा है कि इन मठों की यात्रा से शाह न सिर्प राज्य में लिंगायत और दलित वर्ग के गुरुओं का रुख जानेंगे, बल्कि इस बात का संदेश भी देंगे कि हर चुनाव की तरह इस बार भी लिंगायत समुदाय के वोटर भाजपा को ही अपना समर्थन दें। गौरतलब है कि भाजपा ने लिंगायत समुदाय के इसी वोट बैंक को ध्यान में रखते हुए राज्य के पूर्व सीएम बीएस येदियुरप्पा को अपना सीएम उम्मीदवार घोषित करना पड़ा है। येदियुरप्पा लिंगायत समुदाय से आते हैं जिसे राज्य की करीब 100 सीटों पर निर्णायक वोट बैंक माना जाता है। कर्नाटक में अपनी चार दिवसीय जन-आशीर्वाद यात्रा के अंतिम दिन मंगलवार को कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने आरोप लगाया कि आरएसएस देश के संस्थानों पर कब्जा करने का प्रयास कर रहा है। राहुल ने कहा कि यदि हम केंद्र की सत्ता में आए तो मौजूदा जीएसटी को एक कर बनाने का प्रयास करेंगे और उसकी एक उचित सीमा तय करेंगे। इतना तय है कि युद्ध से कम नहीं होगा कर्नाटक विधानसभा चुनाव।

Wednesday, 28 March 2018

अमेरिका का गन कल्चर उसे ही कर रहा तबाह

पूरे अमेरिका में बंदूकों पर सख्त नियंत्रण की मांग को लेकर छात्रों की अगुवाई में जबरदस्त विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं। `मार्च फॉर आवर लाइव्स' के बैनर तले हो रहे इन प्रदर्शनों की रूपरेखा पिछले महीने फ्लोरिडा के एक हाई स्कूल में गोलीबारी की घटना के बाद बनी थी। उस घटना में 17 बच्चों की मौत हो गई थी। बंदूक नियंत्रण के कड़े कानूनों की मांग को लेकर 10 लाख से ज्यादा लोगों ने अमेरिका के कई शहरों में विरोध प्रदर्शन किए। मार्च का फ्लोरिडा हाई स्कूल के किशोर छात्रों ने नेतृत्व किया। फ्लोरिडा के पार्पलैंड स्थित आरजोरी स्टोनमैन डगलस हाई स्कूल के 17 साल के छात्र कैमरन कास्की ने वाशिंगटन में एक विशाल रैली में भीड़ से कहाöनेता या तो लोगों का प्रतिनिधित्व करें या बाहर जाएं। न्यूयार्प के मेयर बिल डब्लासियो ने कहा कि शहर की रैली में 1,75,000 लोगों ने हिस्सा लिया। उन्होंने ट्विटर पर लिखाöये छात्र अमेरिका को बदल देंगे। लेकिन सबसे बड़ा विरोध प्रदर्शन वाशिंगटन में हुआ जहां आयोजकों के अनुसार आठ लाख से ज्यादा लोग जमा हुए थे। न्यूयार्प, वाशिंगटन के अलावा अमेरिका में 700 से ज्यादा जगहों पर प्रदर्शन हुए। तीन साल पहले ओरेगॉन के कॉलेज में नौ बच्चों की हत्या के बाद तत्कालीन राष्ट्रपति बराक ओबामा रो पड़े थे। अमेरिकी कांग्रेस के 70 प्रतिशत सांसद हथियारों के समर्थक थे। लिहाजा ओबामा बेबस रहे। वहीं राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने बीते महीने फ्लोरिडा स्कूल में शूटिंग से पीड़ित परिवारों से मुलाकात में कहा थाöफायरिंग की घटनाओं से निपटने के लिए हर टीचर के हाथ में पिस्टल थमा देंगे। अमेरिका में गन निर्माता लॉबी बहुत शक्तिशाली है। यह आर्म्स लॉबी गन पॉलिसी प्रभावित करती है। गन इंडस्ट्री का हर साल 2.5 लाख करोड़ रुपए का कारोबार है और इसमें 2.65 लाख लोग जुड़े हुए हैं। 57 साल में शूटिंग में 15 लाख जानें गई हैं। 2018 में स्कूलों में 20 बार फायरिंग हुई है। 9/11 के बाद गोलीबारी की 400 से ज्यादा घटनाएं हुईं जिसमें ज्यादातर स्कूल ज्यादा निशाना बने। बता दें कि अमेरिकी संविधान के दूसरे संशोधन के तहत हथियार खरीदने के लिए संरक्षण प्राप्त है और हथियारों के पक्ष में काम करने वाली संस्था नेशनल राइफल एसोसिएशन ताकतवर लोगों को प्रभावित करने में सक्षम मानी जाती है। अमेरिका के लचीले बंदूक कानूनों की वजह से वहां बंदूकें खरीदना और उसे साथ लेकर चलना आसान है। अमेरिका में आम लोगों की ओर से बेकसूरों पर गोलीबारी की घटनाएं बरसों से हो रही हैं। लेकिन हाल के वर्षों में ताकतवर हथियारों की उपलब्धता से सबसे जघन्य घटनाएं सामने आई हैं। पिछले साल ही लास वेगास में अमेरिकी इतिहास की सबसे भीषण गोलीबारी की घटना हुई थी जिसमें 58 लोगों की जान चली गई थी। इसके बाद एक बार फिर और इस बार कुछ अधिक पुरजोर तरीके से, यह बहस उभरी है कि अमेरिका के बंदूक कानून क्या इतने लचीले हैं कि वे मानवता पर संकट बन गए हैं। 2017 के एक सर्वेक्षण की मानें तो करीब 40 प्रतिशत अमेरिकियों ने माना था कि उनके पास बंदूक है या उनके घर में किसी के पास बंदूक है। अमेरिका में 2016 में बंदूकों से हुई हत्याओं और सामूहिक हत्याओं में 11 हजार लोगों की मौत हुई। दुनिया में बंदूक से हुए नरसंहार में से 64 प्रतिशत अकेले अमेरिका में हुए हैं। देखें, अमेरिका में हो रहे इतने बड़े-बड़े प्रदर्शनों व विरोध से क्या अमेरिका के गन कल्चर पर कोई सकारात्मक असर पड़ेगा?

-अनिल नरेन्द्र

सैन्य शिविरों पर हमले इतने आम क्यों हो गए हैं

रक्षा मंत्रालय से जुड़ी संसदीय समिति ने एक के बाद एक कई सैन्य शिविरों और प्रतिष्ठानों पर हो रहे लगातार हमलों को लेकर सरकार की जमकर खिंचाई की है। संसद में पेश समिति की रिपोर्ट में सवाल उठाया गया है कि सैन्य प्रतिष्ठानों पर आतंकी हमले होना आम बात क्यों हो गई है? यह रिपोर्ट ऐसे समय आई है जब कुछ समय पहले जम्मू-कश्मीर में सुंजवां आर्मी कैंप पर आतंकी हमला हुआ। इसमें सैनिकों के परिवारों को निशाना बनाया गया। हमले में पांच सुरक्षाकर्मी मारे गए जबकि तीन आतंकवादियों को ढेर कर दिया गया। संसदीय समिति ने इस हमले को कमजोर सुरक्षा घेरे की एक मिसाल करार दिया। समिति ने हैरानी जताई कि उच्च सुरक्षा वाले मिलिट्री कॉम्पलैक्स में सेंध लगाने में आतंकवादी कामयाब कैसे हो रहै हैं? जनवरी 2016 में पठानकोट के एयरबेस पर आतंकियों ने दुस्साहसी हमला किया था। समिति का मानना है कि उस हमले से भी कोई सबक नहीं लिया गया। इसके बाद से सैन्य शिविरों की किलेबंदी करने के लिए जो कदम उठाए जाने थे, उस दिशा में कोई खास प्रगति नहीं हुई। पठानकोट एयरबेस पर हुए हमले के बाद सरकार ने सैन्य प्रतिष्ठानों की सुरक्षा को चाक-चौबंद करने के लिए उस समय के वाइस चीफ लेफ्टिनेंट जनरल फिलिप कम्पोस की अगुवाई में एक कमेटी बनाई थी। कमेटी ने मई 2016 में अपनी रिपोर्ट रक्षा मंत्रालय को सौंप दी। इसमें पाया गया कि कई सैन्य प्रतिष्ठानों की सुरक्षा में खामियां हैं। संसदीय समिति ने इस बात पर आश्चर्य जताया कि उस कमेटी की सिफारिशों को लागू करने में महीनों लग गए। इस बीच उनके सैन्य शिविरों पर आतंकी हमले होते रहे। सुंजवां सैन्य शिविर हमले के कुछ दिन बाद ही रक्षा मंत्रालय ने सैन्य प्रतिष्ठानों के सुरक्षा घेरों की मजबूती की खातिर 14 हजार 97 करोड़ रुपए जारी किए। सेना ने समिति के सामने अपनी बात रखी। सेना के प्रतिनिधियों ने समिति को बताया कि कहने को तो सरकार ने 14 हजार करोड़ रुपए शिविरों की सुरक्षा पर खर्च करने का अधिकार दे दिया लेकिन सच यह है कि यह पैसा सेना को मिले बजट में से खर्च होना है। वैसे सेना के पास अपनी जरूरतों को नए सिरे से तय करने के अलावा और कोई रास्ता नहीं है। सेना का कहना है कि सुरक्षा घेरों को मजबूत करने से साजो-सामान की खरीददारी के लिए अलग से फंड बनाने की जरूरत है। सैन्य शिविरों की सुरक्षा के लिए सिर्प पॉलिसी का ऐलान करने से कुछ नहीं होगा। ज्यादा सैनिक ग्राउंड पर तैनात करने की बजाय टेक्नोलॉजी का सहारा लेना होगा। सैन्य शिविरों के आसपास आबादी के दबाव बढ़ने पर ध्यान देना होगा। खुफिया इनपुट बढ़ानी होगी। नई टेक्नोलॉजी लानी होगी।

Tuesday, 27 March 2018

अमेरिका-चीन का ट्रेड वॉर

दुनिया के दो सबसे बड़े अर्थव्यवस्था वाले देश चीन और अमेरिका के बीच ट्रेड वॉर छिड़ने की आशंकाओं से अर्थशास्त्रियों और शेयर बाजारों में खलबली मची हुई है। अमेरिका ने चीनी आइटमों पर 50 अरब डॉलर के नए आयात कर ठोंकने की प्रक्रिया शुरू कर दी है। उधर चीन ने भी इस कदम के खिलाफ कड़े कदम उठाने की चेतावनी दे दी है। ट्रेड वॉर को हिन्दी में कारोबार के जरिये युद्ध कह सकते हैं। किसी दूसरे युद्ध की तरह इसमें भी एक देश दूसरे देश पर हमला करता है और पलटवार के लिए तैयार रहता है। लेकिन इसमें हथियारों की जगह करों (टैक्स) का इस्तेमाल करके विदेशी सामान को निशाना बनाया जाता है। ऐसे में जब एक देश दूसरे देश से आने वाले सामान पर टैरिफ यानि कर बढ़ाता है तो दूसरा देश भी इसके जवाब में ऐसा ही करता है और इससे दोनों देशों में टकराव बढ़ता है। अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने चीन से आयातित करीब 60 अरब डॉलर के उत्पादों पर आयात शुल्क लगाने के ज्ञापन पर हस्ताक्षर करने के साथ वैश्विक व्यापार युद्ध का बिगुल पूंक दिया है। चीन ने भी इसके विरोध में अमेरिका के 128 उत्पादों पर आयात शुल्क लगाने की बात की है। चीन ने सूअर के मांस (पोर्प) और पाइप सहित अन्य अमेरिकी उत्पादों पर उच्च शुल्क लागू करने की योजना जारी की है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप मानते हैं कि ट्रेड वॉर आसान और बेहतर है और वह कर बढ़ाने के मुद्दे से पीछे नहीं हटेंगे। अमेरिका का कदम कथित तौर पर कई सालों से हो रही इंटलेक्युअल प्रॉपर्टी की चोरी के बदले में आता रहा है। क्योंकि चीन पर इंटलेक्युअल प्रॉपर्टी भुनाने यानि उत्पादों की मौलिक डिजाइन और विचार आदि की चोरी के बदले में की जा रही कार्रवाई है। इस मारधाड़ की आशंका का असर साफ दिखाई देने लगा है। 23 मार्च को मुंबई शेयर बाजार का सूचकांक करीब 410 बिन्दु गिर गया। जो चीन-अमेरिका व्यापार युद्ध में भारत का कहीं सीधा लेना-देना नहीं है। भारत ग्लोबल कारोबार का बहुत छोटा खिलाड़ी है। चीन और अमेरिका बड़े खिलाड़ी हैं। चीन के उत्पाद सस्ते होते हैं इसलिए उसका ग्लोबल बाजार है। अमेरिका में भी वह सस्ते पड़ते हैं, इसलिए वह बिकते हैं। ट्रंप को इससे परेशानी यह है कि अमेरिका में लोगों के रोजगार पर इसका विपरीत असर पड़ता है। उसका मानना है कि चीनी आइटमों पर ज्यादा कर लगाकर उन्हें महंगा बनाकर अमेरिका में चीनी आइटमों की खपत पर रोक लगे। स्वाभाविक है कि दुनिया की दो सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के बीच का यह युद्ध द्विपक्षीय ही नहीं, बहुपक्षीय बाजार की व्यवस्थाओं को चुनौती दे रहा है, जो 1990 के बाद से वैश्विक बाजारों को नियंत्रित करती आई हैं। उम्मीद की जाती है कि अमेरिका-चीन अपने इस कारोबारी युद्ध को मिल बैठकर सुलझाएं।
-अनिल नरेन्द्र


समोसे में तो आलू रहेगा पर क्या राजनीति में रहेंगे लालू

आरजेडी सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव को चारा घोटाले से जुड़े एक और केस में भी सीबीआई अदालत ने शनिवार को अब तक की सबसे बड़ी सजा सुनाई। विशेष न्यायाधीश शिवपाल सिंह की अदालत ने लालू प्रसाद यादव को 14 साल की सजा सुनाई है। इस 14 साल की सजा होने के बाद लगभग तय हो गया है कि बिहार के समोसे में तो आलू रहेगा, लेकिन वहां की राजनीति में लालू नहीं होंगे। लालू प्रसाद को अब तक विभिन्न केसों में साढ़े 27 साल की सजा हो चुकी है और एक करोड़ रुपए का जुर्माना। 1996 में हाई कोर्ट के निर्देश पर सीबीआई ने लालू प्रसाद पर पहला केस दर्ज किया था। अभी भी एक-दो केस बचे हुए हैं। लालू बिना बिहार की राजनीति में अगले कुछ दिनों तक काफी बदलाव देखा जा सकता है। जहां तेजस्वी यादव के सामने लालू के बिना आरजेडी का कुनबा एक रखने के साथ इसे बढ़ाने की चुनौती होगी, वहीं एनडीए के सामने भी अपने ही घर में उठापटक के बीच कुनबे को एक रखने की चुनौती सामने आ गई है। लालू प्रसाद यादव को अब तक सबसे बड़ी सजा होने के बाद आरजेडी नेताओं ने तुरन्त कहा कि वे हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट जाएंगे। लेकिन फिलहाल जो केस की स्थिति है उस हिसाब से लालू प्रसाद का लंबे समय तक जेल से निकल पाना मुश्किल है। अभी भी इस केस में सजा मिलने के अलावा दो और केस में कोर्ट का फैसला आना है। उन सब में अगर लालू को सजा मिलती है तो सब में अलग-अलग सजा मिलेगी और सब में अलग-अलग जमानत लेनी होगी। इस सूरत में लालू प्रसाद को 2019 के आम चुनाव से पहले बेल मिलना बेहद कठिन है। अगर बेल मिली तो वह सुप्रीम कोर्ट से ही मिल सकती है। अब सबसे बड़ा सवाल है कि क्या लालू औपचारिक रूप से पार्टी की कमान तेजस्वी यादव को सौंप देंगे? सूत्रों के अनुसार अब पार्टी की पसंद और मजबूरी तेजस्वी यादव हैं। वे उपचुनाव का टेस्ट भी पास कर चुके हैं, जिसमें आरजेडी अपनी दोनों सीटें जीतने में सफल रही थी। लेकिन लालू के सामने अभी तीन तरह की चुनौती है। पहली चुनौती अपनी पार्टी के अंदर सीनियर नेताओं मसलन रघुवंश प्रसाद सिंह, अब्दुल बारी सिद्दीकी की जैसों के साथ समीकरण बनाने की है। पिछले दिनों मनोज झा को राज्यसभा भेजकर तेजस्वी ने हालांकि संदेश दे दिया था कि उनका पार्टी पर नियंत्रण हो चुका है। लेकिन इसके बाद बड़ी चुनौती अपने कुनबे को बढ़ाने की है। गठबंधन की गाड़ी को संवारने की है। अब तक लालू यह काम निभाते रहे हैं। यह स्पेस तेजस्वी के लिए भरना आसान नहीं होगा। बता दें कि यह सजा किसी भी भ्रष्टाचार के मामले में किसी पूर्व मुख्यमंत्री व मंत्री को हुई अब तक की सबसे बड़ी सजा है। लालू 69 वर्ष के हो गए हैं। लगता है कि उनका बुढ़ापा जेल में ही कटेगा।

Sunday, 25 March 2018

गुरुद्वारों में लंगर से जीएसटी हटाओ

बड़े दुख की बात है कि गुरुद्वारों में जो लंगर जरूरतमंदों को बिना जाति अथवा गरीब-अमीर के भेदभाव के मुफ्त खिलाया जाता है उस पर भी जीएसटी लगता है। बीते दिनों शिरोमणि गुरुद्वारा कमेटी की ओर से जानकारी दी गई की सात माह में उसे लंगर पर दो करोड़ रुपए के लगभग जीएसटी अदा करना पड़ा है। इसी प्रकार दिल्ली गुरुद्वारा कमेटी का भी कहना है कि उसे भी इसी समय के दौरान लंगर पर एक करोड़ रुपए से अधिक का जीएसटी अदा करना पड़ा है। इन्हीं आंकड़ों के आधार पर इन संस्थाओं के मुखियों द्वारा केंद्रीय वित्तमंत्री अरुण जेटली को पत्र लिखकर, उनसे मुलाकातें कर और राजनीतिक पहुंच कर मांग की जा रही है कि गुरुद्वारों में बांटे/खिलाए जा रहे लंगर को जीएसटी मुक्त किया जाए। उधर दूसरी ओर केंद्रीय वित्तमंत्री की ओर से यह दावा किया जाता रहा है कि मंदिरों-गुरुद्वारों में बांटा/खिलाया जाने वाला लंगर जीएसटी मुक्त है। दोनों पक्षों द्वारा किए जा रहे दावों में से किसी भी पक्ष के दावे को गलत अथवा सच्चाई के विरुद्ध करार दिया जाना बहुत मुश्किल है। ऐसे में यदि दोनों पक्षों के दावों को गंभीरता से जांचा जाए तो ऐसा लगता है कि दोनों ओर से किसी न किसी कारण या तो भ्रम की स्थिति बनी हुई है या फिर एक-दूसरे की बात को समझ नहीं पाया जा रहा। जानकारों का मानना है कि अरुण जेटली का यह कहना है कि लंगर जीएसटी मुक्त है, संभव है कि उनका यह मानना हो कि मंदिरों-गुरुद्वारों में जो लंगर बांटा जाता है वह जीएसटी मुक्त है। जबकि शिरोमणि गुरुद्वारा कमेटी और दिल्ली गुरुद्वारा कमेटी की ओर से लंगर में जीएसटी मुक्त न होने का जो दावा किया जा रहा है, उसका मतलब यह है कि लंगर तैयार करने के लिए जिस सामग्रीöआटा, दालें, घी, मसाले इत्यादि की जरूरत होती है उस पर उन्हें जीएसटी अदा करना पड़ता है। इसलिए गुरुद्वारा कमेटियां चाहती हैं कि लंगर में जिस सामग्री का उपयोग किया जाता है उसे जीएसटी मुक्त किया जाए। बता दें कि अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में रोज एक लाख लोगों को लंगर में खाने का सौभाग्य मिलता है। श्री दरबार साहिब में जो मुख्य प्रवेश द्वार (दर्शनी ड्योढ़ी) है उससे पहले ही लंगर स्थान है, जो इस उद्देश्य की ओर संकेत करता है कि गुरु साहिब के दर्शन के लिए दरबार साहिब परिसर में प्रवेश करने से पहले गुरु घर की परंपरा के अनुसार पहले पगंत में बैठकर लंगर छकना/खाना अनिवार्य है। हम गुरुद्वारा कमेटियों की मांग का समर्थन करते हैं और सरकार से अपील करते हैं कि कोई रास्ता निकाले ताकि गुरु के लंगर पर जीएसटी न लगे।

-अनिल नरेन्द्र

आप के 20 विधायकों को हाई कोर्ट ने दी राहत

दिल्ली हाई कोर्ट ने शुक्रवार को लाभ के पद के मामले में चुनाव आयोग की सिफारिश पर राष्ट्रपति द्वारा अयोग्य ठहराए गए आम आदमी पार्टी (आप) के 20 विधायकों की अयोग्यता की अधिसूचना रद्द कर दी। अदालत ने चुनाव आयोग को नए सिरे से इस मामले पर सुनवाई करने को कहा है। दिल्ली हाई कोर्ट के न्यायाधीश न्यायमूर्ति संजीव खन्ना और न्यायमूर्ति चन्द्रशेखर की पीठ ने कहा कि आप विधायकों को अयोग्य ठहराने वाली अधिसूचना कानूनन सही नहीं थी। विधायकों को अयोग्य ठहराने वाली चुनाव आयोग की सिफारिश को दोषपूर्ण बताते हुए पीठ ने कहा कि इसमें नैसर्गिक न्याय के सिद्धांत का उल्लंघन हुआ है और आयोग ने इन विधायकों को दिल्ली विधानसभा की सदस्यता के लिए अयोग्य ठहराने की सिफारिश करने से पहले कोई मौखिक सुनवाई का अवसर नहीं दिया। अदालत ने कहा कि चुनाव आयोग की ओर से राष्ट्रपति को 19 जनवरी 2018 को दी गई राय नैसर्गिक न्याय के सिद्धांतों का पालन नहीं करने की वजह से कानूनन गलत और दोषपूर्ण है। यह मामला मार्च 2015 से चल रहा है जब अरविन्द केजरीवाल ने अपने 21 विधायकों को संसदीय सचिव के पद पर नियुक्त किया था। इसके अनुसार दिल्ली में संसदीय सचिव को घर, गाड़ी और दफ्तर जैसी सुविधाएं मिल सकती हैं। चुनाव आयोग ने 19 जनवरी 2018 को संसदीय सचिव के पद को `लाभ का पद' करार देते हुए राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद से 20 विधायकों की सदस्यता रद्द करने की सिफारिश की थी। चुनाव आयोग का मानना था कि यह विधायक 13 मार्च 2015 से आठ सितम्बर 2016 के बीच लाभ के पद के मामले में अयोग्य घोषित किए जाने चाहिए। इसके बाद 21 जनवरी को केंद्र सरकार ने इस बारे में अधिसूचना जारी की। इसके बाद ही यह 20 विधायक इस फैसले के खिलाफ दिल्ली हाई कोर्ट पहुंचे थे। लाभ के पद का मतलब उस पद से है जिस पर रहते हुए कोई व्यक्ति सरकार की ओर से किसी भी तरह की सुविधा ले रहा हो। अगर इसके सिद्धांत और इतिहास की बात करें तो इसकी शुरुआत ब्रिटिश कानून एक्ट्स ऑफ यूनियन, 1707 में देखी जा सकती है। इस कानून में कहा गया है कि अगर कोई व्यक्ति राज्य के अधीन किसी भी पद पर कार्यरत रहते हुए कोई सेवा ले रहा है या पेंशनभोगी है तो वह व्यक्ति हाउस ऑफ कामंस का सदस्य नहीं रह सकता। भारतीय संविधान की बात करें तो संविधान के अनुच्छेद 191(1)(ए) के मुताबिक अगर कोई विधायक किसी लाभ के पद पर पाया जाता है तो विधानसभा में उसकी सदस्यता अयोग्य करार दी जा सकती है। उत्तर प्रदेश सरकार में लाभ के एक पद पर बने रहने के कारण साल 2006 में जया बच्चन को अपनी राज्यसभा सदस्यता छोड़नी पड़ी थी। जया बच्चन ने सुप्रीम कोर्ट में इसके खिलाफ याचिका में कहा था कि उन्होंने किसी तरह की सुविधा नहीं ली। सुप्रीम कोर्ट ने उनकी याचिका खारिज करते हुए कहा था कि इस मुद्दे पर कानूनी स्थिति साफ है जिसके मुताबिक इससे फर्प नहीं पड़ता कि लाभ के पद पर रहते हुए कोई सुविधा ली गई अथवा नहीं, बल्कि इससे फर्प पड़ता है कि वो पद लाभ का पद है या नहीं? आप विधायकों के वकीलों ने बड़ी होशियारी से हाई कोर्ट में इस मुद्दे को तो छुआ ही नहीं। उन्होंने तो इस बात पर आपत्ति जताई कि विधायकों को चुनाव आयोग ने अपनी बात रखने का मौका ही नहीं दिया। इस तकनीकी दलील से हाई कोर्ट प्रभावित हो गया और उसने अपना फैसला दे दिया। अभी भी लाभ के पद का मुद्दा तय होना है। हाई कोर्ट का यह फैसला चुनाव आयोग के लिए बड़ा झटका है। यह अलग बात है कि आयोग ने इसे अपने लिए कोई झटका मानने से इंकार किया है। यह प्रतिक्रिया झेंप मिटाने की कोशिश के अलावा और क्या कही जा सकती है। चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर भी प्रश्नचिन्ह लगता है। साथ-साथ चुनाव आयोग ने राष्ट्रपति को भी बीच में फिजूल घुसेड़ दिया। अब आयोग को नए सिरे से इन विधायकों को सुनना पड़ेगा और इस मामले की सुनवाई में लंबा समय लग सकता है। तब तक नए चुनाव हो जाएंगे और किसी भी प्रकार के फैसले से शायद फर्प न पड़े।

Saturday, 24 March 2018

एससी/एसटी एक्ट का दुरुपयोग

लंबे समय से यह महसूस किया जा रहा था कि अनुसूचित जाति-जनजाति प्रताड़ना निवारण अधिनियम यानि एससी/एसटी एक्ट का दुरुपयोग किया जा रहा है और जिस मकसद से इसे बनाया गया था वह पूरा नहीं हो पा रहा है। अंतत माननीय सुप्रीम कोर्ट ने हस्तक्षेप करके इस एक्ट के दुरुपयोग को रोकने की पहल की है। सुप्रीम कोर्ट ने अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति अधिनियम-1989 के दुरुपयोग को रोकने को लेकर ऐतिहासिक फैसला किया है। महाराष्ट्र के एक मामले में मंगलवार को फैसला देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने इस पर गाइडलाइन जारी की है। इस एससी/एसटी एक्ट के तहत एफआईआर दर्ज होने के बाद आरोपी की तत्काल गिरफ्तारी से पहले आरोपों की डीएसपी स्तर का अधिकारी शुरुआती जांच करेगा। इसमें आरोपों की पुष्टि के बाद ही आगे की कार्रवाई होगी। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि इस एक्ट के तहत दर्ज एफआईआर या शिकायत में आरोपी सरकारी कर्मचारी है तो उसकी गिरफ्तारी के लिए विभागीय अधिकारी की अनुमति जरूरी होगी। अन्य आरोपियों की गिरफ्तारी जिले के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक (एसएसपी) की लिखित अनुमति के बाद ही होगी। यह अच्छा हुआ कि सुप्रीम कोर्ट ने यह निर्देश दिया कि प्रताड़ना की शिकायत मिलते ही न तो तत्काल उसे एफआईआर में तब्दील किया जाएगा और न ही आरोपित की तुरन्त गिरफ्तारी होगी। इस एक्ट का किस तरह दुरुपयोग किया जा रहा था, यह इससे समझा जा सकता है कि अकेले 2016 में दलित प्रताड़ना के 5347 मामले झूठे पाए गए। इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि एससी/एसटी एक्ट का दुरुपयोग जातीय विद्वेष बढ़ाने का काम कर रहा था। कानून के शासन की प्रतिष्ठा के लिए जहां यह जरूरी है कि अपराधी बचने न पाए वहीं यह भी कि निर्दोष सताए न जाएं। यह भी सही हुआ कि सुप्रीम कोर्ट ने यह साफ कर दिया कि एससी/एसटी एक्ट के तहत अभियुक्त को जमानत दे दिया जाना भी संभव है। जमानत पाने की राह साफ करने की आवश्यकता इसलिए थी, क्योंकि अपने देश में पुलिस की जांच और अदालती कार्यवाही में देरी किसी से छिपी नहीं। कई बार यह देरी आरोपित व्यक्तियों को बहुत भारी पड़ती है। बैंच ने कहा कि अगर किसी मामले में गिरफ्तारी के अगले दिन ही जमानत दी जा सकती है तो उसे जमानत क्यों नहीं दी जा सकती? उन्होंने कहा कि संसद ने कानून बनाते वक्त यह नहीं सोचा था कि इसका दुरुपयोग किया जाएगा। बैंच ने गाइडलाइन में देश की सभी निचली अदालतों के मजिस्ट्रेट से कहा कि इस एक्ट के तहत आरोपी को जब पेश किया जाता है तो उस वक्त उन्हें आरोपी की हिरासत बढ़ाने के निर्णय लेने से पूर्व गिरफ्तारी की वजहों की समीक्षा करनी चाहिए और इसमें अपने विवेक से फैसला लेना चाहिए।

-अनिल नरेन्द्र

वोटर फिक्सिंग वाला फेसबुक

करीब पांच करोड़ फेसबुक यूजर्स का डाटा चुराकर अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में दुरुपयोग के खुलासे के बाद अमेरिका की राजनीति में उठा भूचाल भारत भी पहुंच गया है। कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने बुधवार को आरोप लगाया कि 2019 का चुनाव जीतने के लिए कांग्रेस डाटा चोरी की आरोपी रिसर्च फर्म कैम्ब्रिज एनालिटिका की सेवाएं ले रही है। भारत में 20 करोड़ फेसबुक यूजर्स हैं। चुनाव प्रक्रिया प्रभावित करने की कोशिश बर्दाश्त नहीं करेंगे। जरूरत पड़ी तो फेसबुक के सीईओ मार्प जुकरबर्ग भी तलब होंगे। भाजपा और कांग्रेस के बीच चुनाव डाटा प्रदान करने वाली एक कंपनी की सेवा को लेकर जो आरोप-प्रत्यारोप हो रहे हैं, उनका मूल तत्व यह है कि दुनिया में चुनाव को प्रभावित करने के लिए इस कंपनी ने डाटा चोरी किया है। उधर कांग्रेस ने कहा कि भाजपा फेक न्यूज फैक्टरी चला रही है। प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने कहा कि भाजपा ने 2014 के चुनाव में इस फर्म की सेवाएं ली थीं। दरअसल अमेरिकी और ब्रिटिश मीडिया ने दावा किया है कि कैम्ब्रिज एनालिटिका ने पांच करोड़ फेसबुक यूजर्स के डाटा का गलत इस्तेमाल कर ट्रंप को जिताने में मदद की थी। आरोप लगा है कि डोनाल्ड ट्रंप को अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव जिताने के लिए रूसी दखल था। हिलेरी की रणनीतियां हैक करके ट्रंप को भेजी गईं। सोशल मीडिया डाटा का गलत इस्तेमाल हुआ। एफबीआई ने रूस के 13 लोगों और तीन कंपनियों पर आरोप तय किए हैं। बता दें कि डाटा का गलत प्रयोग कैसे होता है? एनालिटिका के सीईओ ने बताया कि कंपनी फेसबुक यूजर्स के साइकोलाजिकल प्रोफाइलिंग के साथ अपने क्लाइंट के समर्थन में और विरोधी के खिलाफ सूचनाएं प्लांट करती है। इससे जनमत बदलता है। गार्डियन और न्यूयॉर्प टाइम्स ने एक रिपोर्ट में बताया कि ट्रंप के कैंपेन से जुड़ी ब्रिटिश फर्म कैम्ब्रिज एनालिटिका ने 2014 में पांच करोड़ फेसबुक यूजर्स का डाटा गलत तरीके से हासिल किया था। फेसबुक को इसका पता था पर उसने यूजर्स को सतर्प नहीं किया। इस स्कैंडल पर फेसबुक के सीईओ मार्प जुकरबर्ग ने सीधे तौर पर कंपनी की गलती स्वीकार करते हुए कहा कि डाटा की सुरक्षा करने की जिम्मेदारी हमारी है। जुकरबर्ग ने कहा कि यह विश्वास में सेंध लगने जैसा है। सोशल मीडिया साइट के साथ अपनी जानकारी साझा करने वाले लोग यह उम्मीद करते हैं कि हम उनकी सुरक्षा करेंगे। कैम्ब्रिज एनालिटिका पर अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के अलावा केन्या, नाइजीरिया एवं अन्य देशों के चुनावों को प्रभावित करने का आरोप भी है। प्रश्न यह है कि क्या फेसबुक के साथ एनालिटिका का कोई व्यावसायिक करार है या उसने फेसबुक को भी अंधेरे में रखा? भारत ने दो टूक चेतावनी दी है कि उसके प्लेटफार्म का दुरुपयोग के प्रयास को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।

Friday, 23 March 2018

फिर तेज हुई तीसरे मोर्चे की कोशिश

जब भी देश में सियासी उठापटक होती है, तीसरे मोर्चे की हसरत फिर जवां हो जाती है। 2019 के आम चुनावों से पहले सहयोगियों का भाजपा से अलग होने और कांग्रेस के कमजोर पड़ने के बीच तीसरा मोर्चा एक बार फिर से अपने लिए संभावना तलाशने लगा है। तमाम क्षेत्रीय दलों में गैर कांग्रेसी, गैर भाजपा मोर्चा बनाकर अगले चुनाव में विकल्प देने की बात उठ रही है। इसकी शुरुआत पश्चिम बंगाल की सीएम ने की और खुद को राष्ट्रीय विकल्प के रूप में  पेश किया। दो दिन पहले ही वह तेलंगाना के सीएम चंद्रशेखर राव से भी नए राजनीतिक समीकरण बनाने में जुट गई हैं। भाजपा और कांग्रेस से इतर समान विचारधारा वाले दलों को लेकर तीसरा मोर्चा बनाने की कवायद में जुटे नेताओं की नजर कांग्रेस और भाजपा से जुड़े दलों पर है। इसका अनुमान खुद कांग्रेस को भी न रहा होगा कि उसके डिनर पर आई पार्टियां फेडरल फ्रंट (संघीय मोर्चा) की कवायद के साथ उसके ही विरुद्ध मोर्चा खोल देंगे। दरअसल यह पार्टियां गैर कांग्रेस और गैर भाजपा दलों को साथ लेकर एक तीसरा फ्रंट बनाने की संभावनाएं तलाश रही हैं। इसके साकार होने का विश्वास बड़ा सादा है। यूपीए एक-दो के दौरान किए गए गुनाहों के बोझ से कांग्रेस अभी तक दबी पड़ी है। उत्तर प्रदेश और बिहार में हुए ताजा उपचुनाव परिणामों में वह शून्य रही है। वहीं नरेंद्र मोदी सरकार की अहमियत के चलते उसके साथी खिसकने लगे हैं। पिछले दिनों संप्रग अध्यक्ष सोनिया गांधी द्वारा यूपीए तीन बनाने के प्रयासों के बाद तीसरे मोर्चे को लेकर गतिविधियां तेज हो गई हैं। क्षेत्रीय क्षत्रपों का यह प्रयास उस राजनीति का हिस्सा है जिसमें उनका मानना है कि मौजूदा समय में भाजपा को रोकने में कांग्रेस अप्रासंगिक हो चुकी है। तीसरे मोर्चे की कवायद में वह नेता लगे हैं जिन्हें यह स्वीकार नहीं है कि भाजपा के खिलाफ बनने वाले किसी भी मोर्चे की अगुआई कांग्रेस करे। सोनिया गांधी द्वारा दिए गए डिनर में कांग्रेस ने यह साफ संदेश देने की कोशिश की थी कि भाजपा को रोकने के लिए समान विचारधारा वाले दलों के गठबंधन का नेतृत्व कांग्रेस करने को तैयार है। लेकिन तीसरे मोर्चे के गठन में लगे नेताओं को लगता है कि मौजूदा राजनीतिक माहौल में सोनिया गांधी का यूपीए का फार्मूला व्यवहारिक नहीं है क्योंकि राज्यों में परस्पर राजनीतिक विरोधियों को एक साथ आने में राजनीतिक दिक्कतें हैं। इसके अलावा कांग्रेस के साथ आने से एनडीए से जुड़े कुछ धर्मनिरपेक्ष दलों को भी परहेज हो सकता है। अब यह तो समय बताएगा कि तीसरे मोर्चे का भविष्य क्या होता है लेकिन इस प्रयास ने कांग्रेस और भाजपा दोनों के लिए खतरे की घंटी जरूर बजा दी है।

-अनिल नरेन्द्र

लिंगायत को अलग धर्म के मुद्दे पर सियासी घमासान

कर्नाटक विधानसभा चुनाव से ठीक पहले एक बड़ा राजनीतिक दांव चलते हुए कांग्रेस की सिद्धारमैया सरकार ने लिंगायत और वीर शैव समुदाय को अलग धर्म की मान्यता देने का फैसला किया है। बता दें कि लिंगायत समुदाय के अलग धर्म का दर्जा देने की मांग धर्मगुरु कर रहे थे। अब चुनावों से पहले इस पर मुहर लगाते हुए कांग्रेस ने चुनाव से पहले नाममोहन दास समिति की सिफारिशें मानने का फैसला किया है। कर्नाटक में चुनाव के मद्देनजर इस फैसले को काफी महत्वपूर्ण माना जा रहा है। बता दें कि कर्नाटक खासकर राज्य के उत्तरी हिस्से में  लिंगायत समुदाय का काफी प्रभाव है। राज्य में लिंगायत समुदाय की 18 प्रतिशत आबादी है। यह कर्नाटक की अगड़ी जातियों में शामिल है। 224 सदस्यों वाली कर्नाटक विधानसभा में इस समुदाय के 52 विधायक हैं। राज्य में भाजपा के मुख्यमंत्री पद के दावेदार वाईएस येदियुरप्पा भी इसी समुदाय से आते हैं। ऐसे में यह खेमा भाजपा के पक्ष में था, लेकिन कांग्रेस सरकार के इस कदम के  बाद भाजपा के लिए राज्य में बड़ी मुश्किल खड़ी हो सकती है। सिद्धारमैया का मकसद साफ है कांग्रेस येदियुरप्पा के जनाधार को कमजोर करने की कोशिश कर रही है। इस फैसले से राजनीतिक तूफान खड़ा होना ही था। केंद्रीय संसदीय मंत्री अनंत कुमार ने मुख्यमंत्री सिद्धारमैया की तुलना 1760 के ईस्ट इंडिया कंपनी के राबर्ट क्लाइव से की है, जिन्होंने भारत में फूड डालो-राज करो की नीति अपनाई थी। भाजपा ने इसे हिन्दुओं को बांटने वाली बेहद खतरनाक राजनीति बताते हुए कहा कि अलग धर्म का दर्जा देने से वीर शैव-लिंगायत के तहत आने वाले अनुसूचित जाति के लोग अपना आरक्षण का संवैधानिक अधिकार खो देंगे। उधर संघ और वीएचपी का कहना है कि कांग्रेस चुनावी फायदे के लिए केंद्र की मोदी सरकार को बदनाम करने के लिए यह षड्यंत्र कर रही है। यह हिन्दू धर्म को तोड़ने की साजिश है। भाजपा ने कहा कि कर्नाटक सरकार को 14 नवम्बर 2013 को  लिखे गए एक पत्र में डॉ. मनमोहन सिंह ने कहा था कि भारत के महापंजीयक ने इसमें कहा था कि वीर शैव-लिंगायत हिन्दू धर्म में एक संप्रदाय है। यह स्वतंत्र धर्म नहीं है। इसलिए 2011 की जनगणना के दौरान वीर शैव-लिंगायत को अपना धर्म बताने वाले लोगों के लिए अलग कॉलम का प्रस्ताव नहीं दिया गया था। केंद्रीय मंत्री अर्जुन राम मेघवाल ने कहा कि वीर शैव-लिंगायत धर्मावलंबियों को हिन्दू धर्म से अलग मानने की कर्नाटक सरकार की सिफारिश को केंद्र स्वीकार नहीं करेगा। यह मामला संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के दूसरे कार्यकाल में महापंजीयक के समक्ष आया था और उसने 14 नवम्बर 2013 को गृह मंत्रालय को भेजी अपनी सिफारिश में कहा था वीर शैव-लिंगायत हिन्दू धर्म से अलग नहीं है और तत्कालीन मनमोहन सरकार ने इसे स्वीकार किया था।

Thursday, 22 March 2018

राम सेतु को कोई नुकसान नहीं पहुंचाया जाएगा

लाखों हिन्दुओं की आस्था से जुड़े राम सेतु को फिलहाल कोई खतरा नहीं है। समुद्र में जहाजों की आवाजाही को सुगम बनाने के लिए प्रस्तावित सेतु समुद्रम परियोजना के लिए राम सेतु को कोई नुकसान नहीं पहुंचाया जाएगा। केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में शुक्रवार को बताया कि देशहित को ध्यान में रखते हुए पौराणिक राम सेतु को किसी भी तरह का नुकसान नहीं पहुंचाया जाएगा। सरकार सेतु समुद्रम परियोजना के लिए पहले तय किए गए एलाइनमेंट का विकल्प तलाश करेगी। सरकार ने यह हलफनामा भाजपा नेता डॉ. सुब्रह्मण्यम स्वामी की याचिका पर दाखिल किया है। पिछले साल नवम्बर में सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को अपना पक्ष रखने के लिए आखिरी मौका दिया था। सरकार की ओर से पेश एडिशनल सॉलिसिटर जनरल पिंकी आनंद ने प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पीठ से कहा कि चूंकि अब मंत्रालय की ओर से हलफनामा दाखिल किया जा चुका है। ऐसे में स्वामी की याचिका का निपटारा कर देना चाहिए। अपनी  जनहित याचिका में स्वामी ने अपील की थी कि केंद्र को यह निर्देश दिया जाए कि वह इस परियोजना के लिए पौराणिक राम सेतु को न छूएं। इस परियोजना का राजनीतिक दलों, पर्यावरणविद् समेत कई हिन्दू संगठन लगातार विरोध कर रहे हैं। बता दें कि कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार के समय वर्ष 2005 में सेतु समुद्रम परियोजना का ऐलान हुआ था। उस वक्त इसकी लागत करीब 2500 करोड़ थी जोकि अब बढ़कर 4000 करोड़ हो गई है। इस परियोजना के तहत बड़े जहाजों के परिवहन के लिए करीब 83 किलोमीटर लंबे दो चैनल बनाए जाने थे। इनके बन जाने से जहाजों के आने-जाने में लगने वाले समय में 30 घंटे की कमी आएगी। इन चैनलों में से एक को राम सेतु से भी गुजरना है। इसे एडम्स ब्रिज भी कहा जाता है। श्रीलंका और भारत के बीच इस रास्ते पर समुद्र की गहराई कम होने से जहाजों को लंबे रास्ते से होकर गुजरना पड़ता है। यूपीए सरकार ने राम सेतु को तोड़ने को सही कदम ठहराने के लिए बाकायदा शपथ पत्र दायर कर कहा था कि बाल्मिकी रामायण और रामचरित मानस प्राचीन भारत के महत्वपूर्ण साहित्य हैं, लेकिन इन्हें ऐतिहासिक रिकार्ड नहीं माना जा सकता जो बिना शक के इसके पात्रों और दर्शाई गई घटनाओं को सिद्ध करें। केंद्र में सत्ता परिवर्तन के बाद आई भाजपा की अगुवाई वाली राजग सरकार ने शुरू में ही साफ कर दिया था कि लोगों की आस्था को ध्यान में रखते हुए सेतु समुद्रम परियोजना के लिए राम सेतु नहीं तोड़ा जाएगा। लेकिन शुक्रवार को पहली बार सरकार ने खुलकर लिखित तौर पर सुप्रीम कोर्ट में इस बारे में अपना रुख साफ किया है। केंद्र सरकार के इस फैसले का हम स्वागत करते हैं।

-अनिल नरेन्द्र

पुतिन नहीं तो रूस भी नहीं

पुतिन नहीं तो रूस नहीं, यह मानना है कैमलिन के डिप्टी चीफ ऑफ स्टाफ का। ब्लादिमीर पुतिन को रूस की जनता ने चौथी बार देश की सत्ता संभालने के लिए भारी जनादेश देकर यह संकेत दिया है कि उनके नेतृत्व को लेकर रूसी जनता के दिलोदिमाग में कोई संशय नहीं है। पुतिन ने लोगों को यकीन दिला दिया है कि उनकी जगह कोई और नहीं ले सकता। आधिकारिक नतीजों के मुताबिक उन्हें 76 प्रतिशत से ज्यादा वोट मिले हैं और यह प्रतिशत साल 2012 के चुनावों से भी ज्यादा है। पुतिन एक ऐसा मायो मैन है जो किसी से डरता नहीं। पुतिन ने राष्ट्रपति चुनाव ऐसे वक्त में जीता है, जब अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अमेरिका सहित पश्चिमी मुल्कों के साथ उनकी एक तरह से स्पष्ट और जबरदस्त टकराव की स्थिति चल रही है। लेकिन उनके रुख से साफ है कि वह किसी भी ताकत के सामने झुके नहीं हैं, न कोई ऐसा समझौता किया है जो दुनिया में रूस के कमजोर पड़ने का संकेत देता हो। इसी से पुतिन की छवि एक कठोर और दृढ़ निश्चय वाले वैश्विक नेता की बनी है। ऐसे समय में पुतिन चुनाव जीते हैं जब रूस और पश्चिमी देशों के संबंध खराब दौर से गुजर रहे हैं, रूस की जनता ने पुतिन को ही अगले छह सालों के लिए राष्ट्रपति चुना है। अब वह 2024 तक इस पद पर रहेंगे। पुतिन 2024 में अपना कार्यकाल खत्म होने के समय 71 साल के होंगे और उस समय सोवियत शासक जोसेफ स्टालिन के बाद सबसे लंबे समय तक नेता रहने वाले शख्स भी होंगे। सन 2000 में जब पुतिन पहली बार देश के राष्ट्रपति बने थे तब उन्हें 53 प्रतिशत वोट मिले थे। जाहिर है, रूस में पुतिन की लोकप्रियता में लगातार इजाफा ही हुआ है। सोवियत संघ के विखंडन के बाद लंबे समय तक रूस में जो उथल-पुथल की स्थिति रही, उससे रूस को बाहर निकालने में पुतिन का बड़ा योगदान माना जाता है। इस बीच पुतिन ने न सिर्प घरेलू मोर्चों, बल्कि वैश्विक स्तर पर भी अपनी धाक कायम की है। इसीलिए वे रूसी जनता के लिए एक बार फिर नायक बने हैं। इसमें कोई शक नहीं कि राष्ट्रपति के तौर पर चौथा कार्यकाल पुतिन के लिए बड़ा चुनौतीपूर्ण होगा। इस वक्त सीरिया, अमेरिका और रूस के बीच प्रतिस्पर्धा का केंद्र बना हुआ है। सीरिया को लेकर कोई भी पक्ष झुकने को तैयार नहीं है। अमेरिका को लग रहा है कि अगर सीरिया मामले में वह रूस के सामने कमजोर पड़ा तो सारी दुनिया की नजर में रूस फिर से महाशक्ति का दर्जा हासिल कर सकता है। फिर पुतिन ऐसे वक्त चौथी बार राष्ट्रपति चुने गए हैं जब पड़ोसी देश चीन में राष्ट्रपति शी जिनपिंग के जीवनभर के लिए अपने पद पर बने रहने का रास्ता साफ कर दिया गया है। रूस और चीन के बीच बढ़ती नजदीकी से सबसे ज्यादा चिंतित अमेरिका है। 2014 में क्रीमिया के विलय के जरिये पुतिन ने पश्चिम से लोहा लिया ही था और उसके बाद लगे आर्थिक प्रतिबंधों को उन्होंने देश के मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र को मजबूत करने के अवसर में बदल दिया। उनकी जीत का वैश्विक राजनीति पर असर पड़ना तय है। खासतौर से इसलिए भी क्योंकि पश्चिमी देशों के साथ रूस के रिश्ते शीतयुद्ध के खात्मे के बाद आज सबसे निचले स्तर पर हैं। जहां तक भारत से रिश्तों की बात है तो उसके मजबूत होने के ही आसार हैं, अलबत्ता यह देखना होगा कि पुतिन सैन्य और रणनीतिक रिश्ते को मजबूती देते हुए द्विपक्षीय व्यापार को किस ऊंचाई तक ले जाते हैं। हालांकि यह भी सच है कि पिछले साल रूस ने पाकिस्तान के साथ सैन्य अभ्यास किया। ऐसे में पुतिन एशिया में क्षेत्रीय संतुलन बनाए रखते हुए रूस को फिर से महाशक्ति के रूप में कैसे स्थापित कर पाते हैं यह तो समय ही बताएगा। राष्ट्रपति पुतिन को इस शानदार जीत पर बधाई।

Wednesday, 21 March 2018

सुकमा हमला सुनियोजित था

छत्तीसगढ़ के सुकमा जिले में हाल में सुरक्षाबलों पर बड़ा हमला कर माओवादियों ने एक बार फिर अपनी मौजूदगी का संदेश देने का प्रयास किया है। इस हमले में सीआरपीएफ यानि केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल की कोबरा बटालियन के नौ कमांडो शहीद हो गए। धमाके के लिए 75 किलोग्राम विस्फोटक इस्तेमाल किया गया। विस्फोट इतना ताकतवर था कि वाहन हवा में 40 फुट उछल गया और गिरने के बाद उसके परखच्चे उड़ गए। सुकमा के किस्ताराम में जिस सुनियोजित तरीके से एंटी माइंस व्हीकल (एएमवी) यानि बारूदी सुरंग रोधी वाहन को उड़ाया गया यह उनके संगठित होने का ही नतीजा माना जा रहा है। इस हमले में करीब 100 नक्सली/माओवादी शामिल थे। सीआरपीएफ प्रमुख आरआर भटनागर ने कहा है कि यह नक्सली हमला टाला जा सकता था। भटनागर ने कहा कि वह मामले के विवरण में नहीं जाना चाहेंगे। उन्होंने इन क्षेत्रों में अर्द्धसैनिक बलों से कहा कि वह अहतियात बरतें और अपना अभियान जारी रखें। भटनागर ने कहाöयह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण घटना थी। इसे टाला जा सकता था। हम अब उन परिस्थितियों की जांच कर रहे हैं और अभियान को आगे चलाया जाए। उन्होंने कहा कि किस्ताराम और पलौड़ी के बीच पांच किलोमीटर लंबी निर्माणाधीन सड़क पर आईईडी विस्फोट करके नक्सलियों द्वारा पहले एमपीवी को उड़ाने के बाद दूसरे एमपीवी में सवार जवानों ने नक्सली दस्ते को मुंहतोड़ जवाब दिया। यह दस्ता फंसे हुए या घायल जवानों को सहायता पहुंचने के लिए जंगल में मौजूद था। इस साल की शुरुआत में छत्तीसगढ़ में अभियान की कमान संभालने वाले पुलिस महानिदेशक ने बस्तर को जल्द ही नक्सलियों से मुक्त कर देने की बात कही थी। लेकिन 24 जनवरी को नक्सलियों ने नारायणपुर में हमला कर चार जवानों को मार डाला था। उसके बाद दंतेवाड़ा में मुख्यमंत्री ने अगले पांच साल में प्रदेश को नक्सलमुक्त कर देने का दावा किया। अब सुकमा हमले ने उनके इस दावे पर सवालिया निशान लगा दिया है। एक साल में यह पांचवां बड़ा हमला है। पिछले साल सुकमा जिले में ही एक महीने के भीतर दो बड़े हमले कर नक्सलियों ने 36 जवानों को मार डाला था। सुकमा हमले के बाद केंद्रीय गृह राज्यमंत्री हंसराज अहीर ने माना कि नक्सलियों से निपटने के लिए हमारे जवानों को अत्याधुनिक हथियारों की जरूरत है। सरकार सुरक्षाबलों को नए साजो-सामान से लैस करना चाहती है। जाहिर है कि कहीं न कहीं हमारे सुरक्षाबलों के पास जरूरी हथियार और प्रशिक्षण की कमी है, जिसकी वजह से नक्सली आसानी से हमलों को अंजाम देते हैं।

-अनिल नरेन्द्र

बेशक अविश्वास से निपटने में सरकार सक्षम है तब भी...

संसद के दोनों सदनों में कायम गतिरोध लगातार 11वें दिन भी सोमवार को जारी रहा। इसके चलते तेदेपा और वाईएसआर कांग्रेस द्वारा सरकार के खिलाफ लाए गए अविश्वास प्रस्ताव पर सदन में हंगामे के चलते कोई कार्यवाही नहीं हो सकी। हालांकि सरकार की ओर से स्पष्ट तौर पर कहा गया कि उसे अविश्वास प्रस्ताव सहित किसी भी मुद्दे पर चर्चा से कोई परहेज नहीं है। यह बात शीशे की तरह साफ है कि तेलुगूदेशम, वाईएसआई के अविश्वास प्रस्ताव से नरेंद्र मोदी की सरकार नहीं गिरने वाली है पर इससे एनडीए की दरार जरूर उजागर होगी और विपक्षी एकता का माहौल जरूर निर्मित होगा। तेदेपा के एनडीए से नाता तोड़ लेने के बावजूद अभी भाजपा के ही 274 सांसद हैं। एनडीए सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव का कोई असर भले ही न पड़े, लेकिन हालिया उपचुनाव के नतीजों, खासकर उत्तर प्रदेश के गोरखपुर और फूलपुर तथा बिहार के अररिया में भाजपा की करारी हार के बाद आगामी चुनावों के मद्देनजर इसने विपक्ष को माहौल गरमाने का सामान तो दे ही दिया है। आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू खासी जल्दबाजी में हैं और विशेष राज्य के मामले में वह किसी और को कोई मौका नहीं देना चाहते। तब तो और भी नहीं, जब वाईएसआर कांग्रेस के रूप में एक मजबूत प्रतिद्वंद्वी सामने हो, जिसके नेता जगनमोहन रेड्डी पहले से नाराज राज्य की जनता को यह बताने में सक्रिय हों कि चार साल तक केंद्र और राज्य, दोनों की सत्ता में रहने के बावजूद नायडू राज्य को कुछ नहीं दिला सके। रेड्डी की यह सक्रियता नायडू के गले की फांस बन गई है। पिछले लोकसभा चुनावों में उनके गठबंधन के वोट शेयर और वाईएसआर कांग्रेस के वोट शेयर में महज ढाई फीसदी का अंतर उन्हें बेचैन कर रहा है। जाहिर है कि नायडू न तो वाईएसआई को कोई मौका देना चाहते हैं, न ही जनता को यह सवाल पूछने का मौका देना चाहते हैं कि केंद्र का पिछलग्गू बनने के बावजूद वे राज्य को कुछ दिला क्यों नहीं सके? ऐसे में सरकार और गठबंधन से नाता तोड़ना ही सबसे आसान तरीका था। उधर तृणमूल कांग्रेस और माकपा ने भी अविश्वास प्रस्ताव का समर्थन करने का वादा करके पश्चिम बंगाल की अपनी प्रतिद्वंद्विता को किनारे कर दिया है। देखना है कि समाजवादी पार्टी जिसके लोकसभा सदस्यों की संख्या अब सात हो गई है वह क्या फैसला लेती है? अब सवाल यह है कि शिवसेना, शिरोमणि अकाली दल और उपेन्द्र कुशवाहा की पार्टी आरएलएसपी का रुख क्या है। यह पार्टियां एनडीए का हिस्सा होते हुए भी प्रधानमंत्री मोदी के रवैये से नाराज हैं। इस बीच अन्नाद्रमुक ने कावेरी प्रबंधन बोर्ड की मांग उछालते हुए सरकार को चेतावनी दी है कि अगर उसने बोर्ड का गठन नहीं किया तो वह भी विरोध में मतदान करेगी। देखा जाए तो टीडीपी-वाईएसआर, सीपी और अन्नाद्रमुक की मांगें एक प्रकार से चुनावी मौके पर की जाने वाली सौदेबाजी की रणनीति ही है। दूसरी ओर केंद्र सरकार का यह कहना सैद्धांतिक रूप से ठीक हो सकता है कि 14वें वित्त आयोग में विशेष राज्य के दर्जे जैसा कोई प्रावधान ही नहीं है, लिहाजा वह तेदेपा की मांग पूरी नहीं कर सकती। होना तो यह चाहिए कि राज्य इतने सक्षम और आत्मनिर्भर बने कि उन्हें केंद्र की बैसाखी की जरूरत ही न हो और इसके लिए केंद्र और राज्य दोनों के बीच बेहतर तालमेल जरूरी है तभी सहकारी संघवाद व्यावहारिक रूप से हो सकेगा। संसदीय कार्यमंत्री मुख्तार अब्बास नकवी ने ठीक ही कहा है कि यह चुनावी वर्ष है और ऐसा विरोध व अविश्वास प्रस्ताव परंपरा का एक हिस्सा है। जाहिर है कि भाजपा अपने संख्याबल और संगठन के माध्यम से ऐसी चुनौतियों से निपटने में सक्षम है। यह एनडीए के घटक दलों की ओर से लगाए जाने वाले आरोप मोदी सरकार की छवि ज्यादा तेजी से बिगाड़ेंगे। मौजूदा सरकार के चार साल के कार्यकाल के इस पहले अविश्वास प्रस्ताव से कई दलों की झिझक टूटेगी और वे आगामी चुनाव के लिए अपने दोस्त और दुश्मन का फैसला कर सकेंगे। यह सब इसलिए भी हो रहा है क्योंकि अपने चार साल के कार्यकाल में उपचुनावों में भाजपा की हार से सभी को उछलने का मौका मिल गया है।

Tuesday, 20 March 2018

केजरीवाल की माफी पर मचा बवाल

आम आदमी पार्टी और उसके शीर्ष नेता अरविन्द केजरीवाल को इसलिए दिल्ली की जनता ने भारी बहुमत के साथ विधानसभा चुनाव में जिताया था क्योंकि वह ईमानदारी और स्वच्छता के नए प्रयोग के दावे और वादे के साथ राजनीति में उतरे थे। जनता को यह उम्मीद नहीं थी कि केजरीवाल किसी झूठ या अफवाह के सहारे अपनी सियासत चमकाने में विश्वास रखते हैं। लेकिन केजरीवाल ने सत्ता में आते ही आनन-फानन में दूसरे नेताओं पर आरोप लगाने शुरू कर दिए। अरविन्द केजरीवाल ने पार्टी स्थापना के पहले दिन से ही तत्कालीन मुख्यमंत्री शीला दीक्षित पर बड़ा जुबानी हमला किया था। वहीं बाद में रॉबर्ट वाड्रा, भाजपा नेता नितिन गडकरी जैसे बड़े नेताओं व उद्योगपतियों पर आरोप लगा दिए। मीडिया ने भी केजरीवाल के सनसनीखेज आरोपों को तवज्जो दी थी। इसका नतीजा मानहानि के मुकदमों के तौर पर रहा। पंजाब और दिल्ली विधानसभा के लिए चुनाव प्रचार के दौरान केजरीवाल ने इसी रणनीति पर काम किया। ताजा मामला पंजाब में शिरोमणि अकाली दल के नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री बिक्रम सिंह मजीठिया से अरविन्द केजरीवाल के माफी मांगने से जुड़ा है। गौरतलब है कि उन्होंने पंजाब विधानसभा चुनाव के दौरान मजीठिया को मादक पदार्थों के तस्करों का सरगना कहा था। हालांकि उस समय उनके पास इस आरोप के क्या आधार थे, यह साफ नहीं। अब केजरीवाल ने मजीठिया से गुरुवार को बाकायदा लिखित में माफी मांगी है। लिखित माफीनामे में केजरीवाल ने मजीठिया से कहा है कि वे सभी आरोप बेबुनियाद निकले और इसलिए वे माफी मांगते हैं। इसमें कोई शक नहीं कि गलती का अहसास होने पर माफी मांग लेना शालीनता का परिचय देता है। पर अगर केजरीवाल को अन्य नेताओं से भी माफी मांगनी पड़ी तो यह बहुत लंबी सूची है। मजीठिया को भेजा गया माफीनामा उस सीरीज की शुरुआत है, जिसमें आगे केजरीवाल माफीनामे की झड़ी लगाएंगे। फिलहाल केजरीवाल के खिलाफ केंद्रीय वित्तमंत्री अरुण जेटली, नितिन गडकरी, पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित समेत 36 लोगों ने मानहानि के मुकदमे दर्ज कर रखे हैं। इसमें से कई मामलों में केजरीवाल को अपनी बात साबित करने के लिए प्रमाण देना होगा। मजीठिया से माफी मांगने के बाद उनकी अपनी पार्टी में बगावत की स्थिति बन गई है। पार्टी के बागियों  में शुमार किए जाने वाले कुमार विश्वास और कपिल मिश्रा के अलावा पार्टी सांसद संजय सिंह ने भी केजरीवाल की माफी का विरोध किया है। आप सांसद भगवंत मान ने शुक्रवार को पंजाब इकाई के अध्यक्ष पद और विधानसभा के विधायक अमन अरोड़ा ने उपाध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया है। लोक इंसाफ पार्टी ने भी आम आदमी पार्टी के साथ पंजाब में गठबंधन तोड़ लिया है। गौरतलब है कि आम आदमी पार्टी के कई नेताओं पर मानहानि सहित कई तरह के मामले दर्ज हैं और उसमें केजरीवाल सहित कई नेताओं को इन मुकदमों में काफी वक्त बर्बाद करना पड़ रहा है। इसलिए पार्टी ने इन मामलों को निपटाने का फैसला किया है। सवाल यह है कि वैकल्पिक राजनीति की दुहाई देकर जनता के बीच लोकप्रिय होने वाले अरविन्द केजरीवाल या उनके सहयोगी अगर अपने ही आरोपों को लेकर स्पष्ट और ठोस नहीं होते हैं, तब उन्हें ऐसे आरोप लगाने की हड़बड़ी क्यों होती है। शायद यह पहला मौका है जब किसी भी राज्य के मुख्यमंत्री ने इस तरह अनर्गल आरोप लगाकर सार्वजनिक रूप से माफी मांगी हो? अभी तो माफीनामों की शुरुआत है।

-अनिल नरेन्द्र

नीतीश बनाम तेजस्वी ः पहला राउंड तेजस्वी के नाम

बिहार में अररिया लोकसभा सीट और जहानाबाद विधानसभा सीट का परिणाम बुधवार को आया वह जुलाई में सत्ता समीकरण बदलने के आठ माह बाद के पहले चुनाव का है। बड़ी जीत हासिल कर आरजेडी नेता और बिहार के पूर्व डिप्टी सीएम तेजस्वी यादव ने न सिर्प राज्य की राजनीति में बहुत बड़ी सफलता हासिल की बल्कि नीतीश कुमार से गठबंधन टूटने के बाद दोनों के बीच सीधी लड़ाई के पहले राउंड में भी जीत हासिल कर ली। अब तेजस्वी के नेतृत्व पर संदेह नहीं होगा और 2019 से पहले आरजेडी के लिए यह एक बड़ी राहत की बात है। पिछले चुनाव में जहानाबाद विधानसभा और अररिया लोकसभा सीट पर राजद का कब्जा था। इस बार के उपचुनाव में वह अपनी दोनों सीटें बचाने में कामयाब रहा। इसी तरह भभुआ विधानसभा सीट भी फिर भाजपा की झोली में गई। इस तरह दलवार देखें तो राजद और भाजपा अपनी-अपनी सीटें बचाने में कामयाब रहे हैं। वहीं सियासी गठजोड़ के लिहाज से देखें तो उपचुनाव में प्रचार के मोर्चे पर एक ओर जहां एनडीए की ओर से मुख्यमंत्री नीतीश कुमार थे तो दूसरी ओर महागठबंधन की ओर से चारा घोटाले के मामले में जेल में होने के बावजूद राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव की प्रतिष्ठा दांव पर थी। सामने से लालू प्रसाद के पुत्र तेजस्वी यादव प्रचार की बागडोर संभाले हुए थे। इसमें अररिया लोकसभा सीट पर प्रतिष्ठा की लड़ाई थी। कहने को राजद के सरफराज आलम और भाजपा के प्रदीप सिंह मैदान में थे लेकिन वहां मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी ने काफी जोर लगाया। बिहार के इस उपचुनाव को तेजस्वी के लिए मेक या ब्रेक माना गया था। उन्होंने लालू प्रसाद यादव के जेल जाने के बाद पूरे चुनाव को अपने दम-खम पर लड़ा। दोनों सीटों पर कैंप कर चुनाव प्रचार को लीड किया। उनके सामने भाजपा और जेडीयू का मजबूत गठबंधन था और नीतीश कुमार और सुशील कुमार मोदी के अलावा तमाम मंत्री दोनों सीटों पर एनडीए को जिताने के लिए जीतोड़ मेहनत कर रहे थे। एनडीए का मानना था कि इस उपचुनाव में आरजेडी को हराने के बाद 2019 की चुनौती बहुत आसान हो जाएगी। लेकिन नतीजा ठीक उलट हो गया। यह परिणाम न सिर्प आरजेडी के लिए ऑक्सीजन का काम करेंगे बल्कि अब एनडीए के लिए कई चुनौतियां सामने लाएंगे। तेजस्वी ने इस उपचुनाव का उपयोग आरजेडी के लिए सोशल इंजीनियरिंग को दुरुस्त करने के लिए किया था। मुस्लिम-यादव की पार्टी के ब्रैकेट से निकलने के लिए तेजस्वी ने इस बार नीतीश के दलित-अतिपिछड़े वोट में सेंध लगाने के लिए कई दांव खेले थे। पहला राउंड तेजस्वी के नाम।

Sunday, 18 March 2018

1765 सांसदों-विधायकों पर 3045 मुकदमे लंबित

भारतीय राजनीति का आईना दिखाते हुए हमारे जनपतिनिधि कितने साफ हैं इन आंकड़ों से पता चलता है। माननीयों के अपराध का लेखा-जोखा राजनीति को अपराध मुक्त बनाने की उम्मीद को धाराशाही करता दिख रहा है। देशभर में 1765 सांसदों- विधायकों के खिलाफ 3045 आपराधिक मुकदमे लंबित हैं। इस संख्या से ज्यादा हैरान करने वाली बात यह है कि इन सभी पर दर्ज मामले 3045 हैं। इसका सीधा मतलब है कि इनमें से कई सांसद-विधायक ऐसे हैं जिन पर एक से अधिक मामले दर्ज हैं। सरकार ने इन आंकड़ों के साथ सुपीम कोर्ट में हलफनामा दाखिल कर इनका निपटारा फास्ट ट्रेक अदालतों में एक साल के अंदर करने की वचनबद्धता दोहराई है। इस मामले में उत्तर पदेश पहले,  तमिलनाडु दूसरे, बिहार तीसरे, पश्चिम बंगाल चौथे और आंध्र पदेश पांचवें नम्बर पर हैं। वैसे कुल आपराधिक मामले 3816 थे जिनमें से 771 निपट चुके हैं। कोर्ट ने केन्द्र से 2014 में नामांकन भरते समय आपराधिक मुकदमे लंबित होने की घोषणा करने वाले सांसदों- विधायकों के मुकदमे की स्थिति पूछी थी, साथ ही सुपीम कोर्ट के 10 मार्च 2014 के आदेश के मुताबिक एक वर्ष में निपटाए गए केसों की जानकारी मांगी थी । कोर्ट ने यह निर्देश भाजपा नेता और वकील अश्वनी उपाध्याय की याचिका पर दिए थे, जिसमें सजायाफ्ता जनपतिनिधियों के चुनाव लड़ने पर आजीवन रोक लगाने की मांग की गई थी। अभी सजा के बाद जेल से छूटने के 6 साल तक चुनाव लड़ने की अयोग्यता है। पिछले चार सालों में सांसदों न सही विधायकों की संख्या कुछ और बढ़ी ही होगी जिनके खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं। यह सही है कि इस तरह के सांसदों-विधायकों के मामले निपटाने के लिए कुछ राज्यों में विशेष अदालतों का गठन हो गया है और कुछ राज्यों में होना शेष है, लेकिन बात तब बनेगी जब एक निश्चित समयसीमा में इन मामलों का निपटारा किया जा सके। यह हमारा दुर्भाग्य है कि हमारे शासन तंत्र की बागडोर जिन जनपतिनिधियों के हाथ में है, sउनका चयन योग्यता पर नहीं बल्कि जाति वर्ग, धन-बल और बाहुबल के आधार पर होता है। जेल जाने और बेल पर बाहर आने पर जश्न मनता है। जो जितना धन-बलशाली हो, उतना ही बड़ा जश्न। यही उसकी ताकत का पैमाना बनता है। कभी राजनीति की सुचिता का सपना पूरा होगा, इसमें संदेह है। सवाल यह भी है कि क्या यह केवल कानून से खत्म होगा? यह काम दरअसल राजनीतिक दलों का है। उन्हें सोचना होगा कि वे क्या सही मायने में देश की राजनीति को स्वच्छ करना चाहते हैं? पर जब तक उम्मीदवार का चयन उसकी दबंगता, धन-बल, बाहुबल पर होता रहेगा  तब तक यह सिलसिला थमने वाला नहीं है।

-अनिल नरेन्द्र

अपने ही घर में घिरती जा रही भाजपा

लोकसभा उपचुनावों में मिली सफलता के बाद विपक्ष अब मोदी सरकार के खिलाफ अविश्वास पस्ताव की तैयारी में है। वाईएसआर कांग्रेस ने सरकार के खिलाफ अविश्वास पस्ताव का नोटिस दिया है। उधर तेलुगु देशम पार्टी (तेदेपा) ने शुकवार को भाजपा के साथ अपने चार साल पुराने गठबंधन को खत्म कर लिया और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन से अलग हो गया। मुख्यमंत्री चन्द्रबाबू नायडू द्वारा भाजपा-नीत गठबंधन से अलग होने की घोषणा करने के कुछ घंटे वाद ही तेदेपा ने लोकसभा में मोदी सरकार के खिलाफ अविश्वास पस्ताव पेश किया। एनडीए सरकार से तेलुगु देशम पार्टी का नाता तोड़ लेने का फैसला क्या भाजपा सहयोगियों में बढ़ रही बेचैनी का संकेत दे रहा है? भाजपा के सबसे पुरानी सहयोगी शिवसेना तो यही मानती है। शिवसेना ने आगामी आम चुनाव में महाराष्ट्र में भाजपा से तालमेल के लिए इंकार कर दिया है। यही नहीं शिवसेना ने अब गोवा के संघ पमुख रहे सुभाष वेलिंगकर के साथ दोनों सीटों पर चुनाव लड़ने का इरादा जताया है। बिहार में हाल तक भाजपा के सहयोगी रहे जीतन राम मांझी ने तीन दिन पहले ही अपनी पार्टी हम का विलय राजद में कर दिया। इसी राज्य में भाजपा के एक और सहयोगी रालोसपा भी उससे नाराज चल रही है। ऐसी ही हालत यूपी में सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी की है। जिसके अध्यक्ष ओमपकाश राजभर हैं, पहले उन्होंने गुजरात विधानसभा चुनाव में आठ सीटों पर लड़ने की घोषणा की थी फिर उन्होंने यूपी सरकार पर नकली मुठभेड़ कराने का आरोप लगाया। हाल ही में उन्होंने 2019 का लोकसभा चुनाव भाजपा से अलग होकर लड़ने का ऐलान किया। आज एनडीए के कुल 48 सदस्य दल हैं जिनमें से केवल 13 दलों का लोकसभा में पतिनिधित्व है। उनके लोकसभा सांसदों की संख्या 331 है यानि 35 दल ऐसे हैं जिनका एक भी सांसद नहीं है। यदि नाराज शिवसेना और टीडीपी को हटा दिया जाए तो एनडीए में शामिल भाजपा के अलावा अन्य किसी दल के लोकसभा सांसदों की संख्या दहाई में भी नहीं है। लगातार उपचुनाव हार रही भाजपा के लिए अब यह भी मुश्किल आ रही है कि पार्टी के अंदर भी असंतोष होता जा रहा है। भाजपा के भीतर ही पार्टी के खिलाफ स्वर उठने  लगे हैं। कई नेताओं का कहना है कि पार्टी बड़बोलेपन का शिकार हो गई है, जमीनी हकीकत से दूर होती जा रही है। पार्टी के वरिष्ठ नेता एवं आजमगढ़ से पूर्व सांसद रमाकांत यादव ने कहा कि उपचुनाव में हार के लिए दलित और पिछड़ों की अनदेखी को जिम्मेदार ठहराते हुए चेतावनी दी कि पार्टी  अगर समय रहते नहीं चेती तो 2019 में भी उसे करारी हार मिलेगी। भाजपा के दो सांसदो ने भी सरकार और पार्टी की कार्यशैली पर सवाल उठाए। सांसद ब्रजभूषण शरण सिंह ने कहा कि हार पर वह ज्यादा कुछ नहीं कहेंगे, मगर नेताओं को यह सोचना चाहिए कि हार से कार्यकर्ता खुश क्यों हैं? ओड़ीसा के सीएम नवीन पटनायक ने कहा कि भाजपा बहुत तेजी से रसातल में जा रही है। भविष्य में हमारे किसी मोर्चे में शामिल होने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है। उपचुनाव में करारी हार के बाद शिवसेना ने फिर भाजपा पर तंज कसा है। शिवसेना ने कहा कि यह सिर्प टेलर है, फिल्म अभी बाकी है। तेजस्वी यादव का कहना है कि जनता ने केन्द्र और बिहार में दो इंजन वाली एनडीए सरकार को खारिज कर दिया है। नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे देना चाहिए। भाजपा सांसद शत्रुघ्न सिन्हा ने कहा अहंकार, गुस्सा व अति आत्मविश्वास लोकतांत्रिक राजनीति के हत्यारे हैं। चाहे वह मित्र हों या विपक्ष के नेता ही क्यों ने हों। शिवसेना ने तो अगले आम चुनाव के बाद लोकसभा में भाजपा-कांग्रेस के संख्या बल की भविष्यवाणी कर दी। पार्टी ने कहा, उत्तर पदेश और बिहार उपचुनावों के परिणाम विपक्ष में उत्साह का संचार करेंगे। हालांकि भाजपा को टक्कर देने के लिए विपक्ष के पास कोई योग्य व्यक्ति नहीं है।         

Saturday, 17 March 2018

उपचुनाव का संदेश ः विपक्ष एकजुट हो तो भाजपा को हरा सकता है

 लोकसभा की तीन सीटों के परिणाम भाजपा और उत्तर पदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के लिए खतरे की घंटी है। ये चुनाव परिणाम भाजपा के लिए संदेश है कि केवल अधिनायकवादी पचार से चुनाव नहीं जीते जा सकते। जातीय, सामाजिक समीकरण, विनम्रता और कार्यकर्ताओं व जनता की उम्मीदों पर खरा उतरना उतना ही जरूरी होता है। उत्तर पदेश में भाजपा भले ही दो सीटें हारी है लेकिन यह पधानमंत्री, मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ व उपमुख्यमंत्री केशव पसाद मौर्य की हार है। मुख्यमंत्री योगी के लिए तो गोरखपुर व्यक्तिगत हार है। गोरखपुर सीट पिछले तीस सालों से गोरख मठ के पास है। यह कहा जाता है कि यहां से योगी हार ही नहीं सकते। आदित्यनाथ खुद पांच बार से गोरखपुर संसदीय क्षेत्र से चुनाव जीतते आ रहे थे और 1991 से वहां भाजपा का कब्जा रहा है। नतीजे बता रहे हैं कि भाजपा के चुनावी पबंधकों ने सपा और बसपा के हुए गठबंधन को सही से नहीं आंक सके। भाजपा यह नहीं समझ पाई कि उत्तर पदेश की इन दो बड़ी पार्टियों के मतों का साझा भाजपा के लिए बड़ी चुनौती बन सकता है। नतीजों से  साफ है कि सपा अपने उम्मीदवारों के पक्ष में बसपा के मतों को स्थानांतरित करवाने में सफल रही। उत्तर पदेश की फूलपुर लोकसभा सीट भाजपा के पास चार साल भी नहीं रही। देश को आजादी मिलने के बाद 1952 में पहली बार आम चुनाव के 62 साल बाद भाजपा को 2014 में फूलपुर  में जीत नसीब हुई थी। पूर्व पधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के क्षेत्र फूलपुर से केशव पसाद मौर्य ने 2014 में रिकार्ड 3.08 लाख मतों से जीत हासिल की थी। यह पहला मौका था जबकि भाजपा का कमल इस सीट से खिला था। उपचुनाव की सभाओं में निवर्तमान सांसद केशव पसाद मौर्य इस बात का जिक करना नहीं भूलते थे कि जितने मतों के अंतर से नेहरू कभी नहीं जीते उससे अधिक अंतर से जनता ने उन्हें जिताकर देश की सबसे बड़ी पंचायत में भेजा था। 19 फरवरी को शैलेन्द्र सिंह पटेल को उम्मीदवार बनाए जाने के बाद केशव पसाद मौर्य लगातार इलाहाबाद में टिके रहे और संसदीय क्षेत्र का शायद ही कोई इलाका बचा होगा जहां उनकी रक्षा न हुई हो। यहां भी सपा और बसपा के समर्थन ने  भाजपा का समीकरण बिगाड़ दिया। भाजपा नेता पचार के दौरान भले ही खुलकर गठबंधन को नकारते रहे हों लेकिन उन्हें भी अंदर-अंदर सपा-बसपा के साथ आने का डर सता रहा था। भाजपा की हार के लिए कम मतदान भी बड़ा कारण है। शहर उत्तरी और पश्चिमी में 2014 के आम चुनाव और 2017 के विधानसभा चुनाव की अपेक्षा कम वोटिंग हुई। पार्टी नीतियों से नाराज भाजपा कार्यकर्ता वोट डालने ही नहीं निकले। यह हार योगी की हैं या केन्द्र की नीतियों के खिलाफ जन आकोश। आज सभी वर्ग के लोग केन्द्र की नीतियों से परेशान हैं। पधानमंत्री मोदी और मुख्यमंत्री योगी दोनों की कार्यशैली से भाजपा का कार्यकर्ता नाराज है। नाराजगी का परिणाम है कि गोरखपुर और फूलपुर में वोंटिग पतिशत कम हुआ। शहरों में लोग वोट डालने ही नहीं आए। भाजपा कार्यकर्ता आम जनता के काम नहीं करा पाए।  केन्द्राrय स्कूलों में एडमिशन का मामला हो, गैस कनेक्शन का, नकल पर पाबंदी का मामला हो या कोई अन्य समस्या हो उन्हें न तो मुख्यमंत्री से मिलने की इजाजत है और न ही पीएम से। इस हार से भाजपा को इस बात का अंदाजा लग गया है कि उत्तर पदेश में बसपा और सपा का गठबंधन होने से दोनों पार्टियों के वोट बैंक एकजुट हो सकता है। बुधवार को तीन लोकसभा सीटों पर हुए उपचुनाव में भाजपा को मिली हार के पीछे एक राजनीतिक ट्रेंड भी है जो पार्टी के लिए चिंता का सबब बन सकता है। 2014 में बीजेपी ने 282 लोकसभा सीटें जीती थी। लेकिन बुधवार को निकले तीन लोकसभा चुनाव नतीजों के बाद अब तक पार्टी 6 सीटें गंवा चुकी है। 2014 लोकसभा चुनाव के बाद 11 राज्यों में 19 लोकसभा सीटों पर उपचुनाव हुए हैं। इनमें आठ सीटें भाजपा के पास थी। पर भाजपा सिर्प दो सीटें ही बरकरार रख सकी है। 6 सीटों पर उसे हार मिली है। भाजपा सिर्प बड़ोदरा और शहडोल सीट ही जीत पाई है। 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को 282 सीटें मिली थी, अब उसके पास 274 रह गई है। कहने को तो मात्र दो राज्यों की पांच सीटों पर उपचुनाव है लेकिन इन नतीजों ने देश की भविष्य की राजनीति की पटकथा लिखने का भी काम किया है। नरेन्द्र मोदी और अमित शाह के जीत के अश्वमेघ के घोड़े को रोकने की कोशिश में जुटे विपक्ष के लिए उत्तर पदेश और बिहार के इन पतिष्ठापूर्ण उपचुनावों के नतीजों ने संजीवनी का काम किया है। विपक्षी एकता के लिए ये नतीजे बेहद महत्वपूर्ण है। विपक्ष को अब समझ आने लगा है कि उसका बिखराव ही भाजपा की जीत का एक बड़ा कारण है। इन उपचुनाव में भाजपा से विपक्ष ने सीधी लड़ाई लड़ी और नतीजे सामने हैं। फूलपुर और गोरखपुर तथा अररिया तीनों ही लोकसभा सीटों पर विपक्ष का एक ही उम्मीदवार था। तीनों ही जगह भाजपा के साथ उसकी सीधी लड़ाई& थी और तीनों में ही भाजपा हार गई। इन तीनों सीटों के परिणाम से यह साफ संदेश निकलता है कि यदि विपक्ष एकजुट होकर चुनाव लड़े तो 2019 में भाजपा को रोका जा सकता है। भाजपा नेतृत्व के लिए अभी भी समय है अपने व्यवहार को बदलने का। यह अहंकार भी टूटना जरूरी है।   

                                                            öअनिल नरेन्द्र

Friday, 16 March 2018

सर्वशक्तिमान शी जिनपिंग

चीन में एकदलीय राजनीति में सबसे बड़े बदलाव के तहत रबड़ स्टाम्प संसद ने दूरगामी व कई मायनों में ऐतिहासिक संविधान संशोधन मंजूर करके राष्ट्रपति शी जिनपिंग के दो बार के कार्यकाल की अनिवार्यता समाप्त करके शी जिनपिंग को आजीवन सत्ता में बने रहने पर मुहर लगा दी है। 64 वर्षीय शी इस महीने ही दूसरी बार अपने पांच वर्ष के कार्यकाल की शुरुआत करने वाले हैं और हाल के दशकों में सर्वाधिक शक्तिशाली नेता हैं जो सत्तारूढ़ कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ चाइना (सीपीसी) और सेना प्रमुख हैं। वह संस्थापक अध्यक्ष माओ त्से तुंग के बाद पहले चीनी नेता हैं जो आजीवन सत्ता में बने रहेंगे। कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ चाइना ने इस बदलाव के पीछे देश को महाशक्ति बनाने का तर्प दिया है। पार्टी के मुताबिक शी के पास देश को आर्थिक-सैन्य महाशक्ति बनाने की योजना है और इस पद पर रहकर वह योजनाओं को अमली जामा पहना पाएंगे। शी जिनपिंग वर्ष 2012 में राष्ट्रपति बने। वर्ष 2017 में वह दूसरे कार्यकाल के लिए निर्वाचित हुए जिसके तहत वह 2023 तक राष्ट्रपति पद पर बने रह सकते हैं। कम्युनिस्ट चीन के संस्थापक माओ त्से तुंग से जिनपिंग की तुलना की जा रही है। इसके पीछे पुख्ता आधार हैं। माओ की तरह जिनपिंग के पास भी राष्ट्रपति, सीपीसी के महासचिव और सैन्य आयोग का अध्यक्ष पद है। जिनपिंग के विचारों को भी माओ के विचारों की तरह पार्टी संविधान में शामिल किया गया है। आजीवन राष्ट्रपति बने रहने की आजादी से जिनपिंग को असीमित ताकत मिल जाएगी। हाल में चीन फॉरेन पॉलिसी इंडो पैसेफिक या हिन्द महासागर क्षेत्र और लाइन ऑफ कंट्रोल पर वह भारत को अपनी ताकत दिखा सकता है। यह भारत की सुरक्षा के लिए खतरा हो सकता है। जिनपिंग के राष्ट्रपति बने रहने से चीन-पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरिडोर को बढ़ावा मिलेगा, जिसका भारत शुरू से विरोध करता आया है। इसके अलावा बीआरआई प्रोजेक्ट पहले से ही भारत की चिन्ता है जिसमें वन बेल्ट-वन रोड के जरिये चीन दुनियाभर के देशों को आपस में जोड़ने में लगा है। जिनपिंग के प्रेसिडेंट बने रहने पर इसे और बढ़ावा मिलेगा। शी जिनपिंग अब दुनिया के सबसे ताकतवर नेता बन सकते हैं। जिनपिंग वास्तव में माओ से भी अधिक ताकतवर बन गए हैं। अभूतपूर्व भ्रष्टाचार विरोधी अभियान चलाकर अपने राजनीतिक विरोधियों को पहले ही साफ कर चुके जिनपिंग राष्ट्रपति के फैसले लेने की प्रक्रिया को अपने हाथ तक सीमित करने में सफल रहे हैं।

-अनिल नरेन्द्र

सोनिया गांधी की डिनर डिप्लोमेसी

लोकतांत्रिक व्यवस्था में जहां यह जरूरी होता है कि सत्तापक्ष मजबूत हो वहीं यह भी जरूरी होता है कि विपक्ष भी मजबूत हो। नहीं तो सत्तापक्ष समझने लगता है कि वह जो चाहे कर सकता है और कोई उसे रोकने-टोकने वाला नहीं है। वर्तमान स्थिति यही है। विपक्ष अत्यंत कमजोर है और सत्तापक्ष निरंकुश होता चला जा रहा है। इस दृष्टि से कांग्रेस पार्टी की वरिष्ठ नेता व संप्रग अध्यक्ष सोनिया गांधी की पहल सराहनीय है। वैसे सोनिया गांधी द्वारा अपने आवास पर दी गई डिनर पार्टी नई नहीं है। पूर्व में भी गठबंधन की मजबूती बनाए रखने के लिए वह इस तरह के आयोजन करती रही हैं। लेकिन इस बार की डिनर पार्टी देश में मोदी-शाह की जोड़ी के विजय रथ को रोकने के लिए विपक्षी एकता की नींव रखने के लिए दी गई। सोनिया गांधी ने कांग्रेस अध्यक्ष पद भले ही छोड़ दिया हो, पर वह न केवल कांग्रेसी संसदीय दल की बल्कि यूपीए की चेयरपर्सन भी हैं। राहुल गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष पद संभालने के बाद यह पहला मौका है जब सोनिया की तरफ से एक बड़ी राजनीतिक पहल की गई है। डिनर डिप्लोमेसी के द्वारा सोनिया ने यह संदेश देने की कोशिश की कि भाजपा के खिलाफ विपक्षी एकता का नेतृत्व करने को कांग्रेस तैयार है। समान विचारधारा वाले राजनीतिक दलों को अपने आवास 10 जनपथ पर निमंत्रण देकर सोनिया ने उस कयासबाजी को भी खत्म करने की कोशिश की जिसमें यह कहा जा रहा था कि राहुल गांधी के नेतृत्व को अन्य दलों के नेता आसानी से स्वीकार नहीं करेंगे। मतलब साफ है कि भाजपा के खिलाफ बनने वाले विपक्ष के किसी भी गठबंधन के केंद्रबिंदु में कांग्रेस ही होगी और खुद सोनिया गांधी विपक्षी एकता की मजबूती के लिए काम करती रहेंगी। डिनर के बहाने सोनिया गांधी ने अगले लोकसभा चुनाव के लिए विपक्ष के महागठबंधन को लेकर उन 17 नेताओं की नब्ज टटोलने की भी कोशिश की जिन्होंने इस डिनर पार्टी में भाग लिया। वैसे यह डिनर पार्टी 2019 के लोकसभा चुनावों से पहले विपक्ष की तमाम पार्टियों के बीच एकजुटता लाने, उनमें सहयोग और समन्वय की भावना मजबूत करने की एक कवायद है। सोनिया की नजर जहां गठबंधन का आकार बढ़ाने पर है वहीं ज्यादा से ज्यादा क्षेत्रीय दलों को साथ लाकर वह यह संदेश देना चाहती हैं कि भाजपा को रोकने के लिए उनके पास रणनीति भी है और राजनीतिक विकल्प भी। यही कारण रहा की जीतन राम मांझी और बाबू लाल मरांडी जैसे नेताओं को भी बुलाया गया। एक के बाद एक लगातार हार और भाजपा के बढ़ते उभार के बीच समान विचारधारा वाले दलों में कांग्रेस की यह पहल कितनी कारगर सिद्ध होगी यह तो आने वाला समय ही बताएगा।

Thursday, 15 March 2018

देश का अन्नदाता आत्महत्या करने पर मजबूर

यह संतोषजनक बात है कि देश का ध्यान उन 40 हजार किसानों की ओर जा रहा है जो महाराष्ट्र के नासिक शहर से 160 किलोमीटर पैदल मार्च कर मुंबई पहुंचते हैं और महाराष्ट्र सरकार पर उनकी मांगों को मानने का दबाव डालते हैं। महाराष्ट्र की देवेंद्र फड़नवीस सरकार को शायद उम्मीद नहीं थी कि जिस किसान वर्ग की मांगों को वह हल्के से लेते रहे हैं, आज वही किसान वर्ग ने सरकार की ही नींव हिलाते हुए मुंबई कूच किया। नासिक कृषि उत्पादों की बहुत बड़ी मंडी है और मुंबई देश की आर्थिक राजधानी है। अगर इसके बीच किसान दुखी और नाराज है तो जरूर हमारी व्यवस्था में कहीं कुछ गड़बड़ है। पिछले साल मध्यप्रदेश के मंदसौर, रतलाम और इंदौर से लेकर भोपाल तक किसानों ने उक्त प्रदर्शन किया था। संयोग से उस आंदोलन का नेतृत्व राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के ही एक किसान नेता कर रहे थे। इस आंदोलन का नेतृत्व अखिल भारतीय किसान सभा के हाथ में है और वह मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी वाली शाखा है। इसके बावजूद उसे कांग्रेस महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना और शिवसेना का समर्थन प्राप्त है। मार्च 2017 में किसानों ने सरकार से मोटे तौर पर कर्जमाफी, फसलों के उचित मूल्यों, बिजली का दाम कम करने और स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशें लागू करने की मांग की थी। तब इन मांगों के लिए मुख्यमंत्री फड़नवीस नासिक गए थे। जून 2017 में महाराष्ट्र सरकार ने 34 हजार करोड़ रुपए की कर्जमाफी की घोषणा कर तो दी लेकिन यह दिखावा ही बनी रही। इस घोषणा के बाद भी महाराष्ट्र में हजारों किसानों ने आत्महत्या की। ऐसा होना लाजिमी था क्योंकि महाराष्ट्र में यह कर्जमाफी इंटरनेट पर है, जिसके बारे में किसानों को पता नहीं अब वे खेती करें या इंटरनेट चलाना सीखकर अपनी कर्जमाफी कराएं? किसानों का कहना है कि वे किसी तरह यह सब कर भी लें, लेकिन उनकी फसल तो बाजार में सिर्प लुटने के लिए जाती है। यह शिकायत अकेले महाराष्ट्र की ही नहीं है। गुजरात, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, कर्नाटक और तमिलनाडु तक में किसान अंतहीन हताशा के कगार पर खड़े हैं। किसानों की विडंबना यह है कि वह देश का अन्नदाता होने के बावजूद अपना पेट नहीं भर पाता। अगर उसका पेट भर भी जाता है तो शिक्षा, स्वास्थ्य और दूसरी जरूरतें पूरी नहीं होतीं। यही वजह है कि वह आत्महत्या करने को मजबूर हैं। प्रधानमंत्री मोदी अपनी जनसभाओं में यह बोल चुके हैं कि वर्ष 2022 तक किसानों की आय दोगुनी कर देंगे। लेकिन यह तभी संभव हो सकता है जब किसानों की जायज मांगें और समस्याएं हल होंगी।

-अनिल नरेन्द्र

पीएम से लेकर देवताओं पर टिप्पणी करने वाला नरेश अग्रवाल

बहुत दुख से कहना पड़ता है कि भारतीय जनता पार्टी सत्ता में बने रहने के लिए कुछ भी कर सकती है, किसी को भी पार्टी में शामिल कर सकती है। हमने अटल जी, आडवाणी जी का युग भी देखा जहां एक वोट कम रहने पर अटल जी ने सत्ता छोड़ दी थी। अब पार्टी को सत्ता की इतनी भूख हो गई है कि वह यह भी नहीं देखती कि कौन-सा नेता पार्टी में शामिल हो रहा है। उसका इतिहास, व्यवहार क्या रहा है? मैं बात कर रहा हूं अपने बेतुके, बकवास बयान देने वाले नरेश अग्रवाल की। हवा का रुख भांपकर सियासी डगर तैयार करने वाले नरेश अग्रवाल ने घाट-घाट का पानी पिया है। कांग्रेस से सियासी सफर शुरू करके लोकतांत्रिक कांग्रेस, सपा व बसपा में सत्ता का स्वाद चखने के बाद अब वह भाजपा की शरण में आ गए हैं। विवादित बयानों से चर्चा में रहने वाले नरेश अग्रवाल चन्द दिन पहले तक पानी पी-पीकर भाजपा व उसके शीर्ष नेताओं को कोस रहे थे। पीएम मोदी से लेकर हिन्दू देवी-देवताओं को गाली देने वाले को आखिर भाजपा ने क्यों शामिल किया? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शादी न करने पर चुटकी लेते हुए नरेश अग्रवाल ने कहा था, उन्होंने शादी तो की नहीं, वह परिवार का मतलब क्या जानेंगे। वहीं लखनऊ में वैश्य समाज की बैठक में मोदी के लिए जातिसूचक शब्द का इस्तेमाल करते हुए उन्हें वैश्य समाज का हिस्सा मानने से इंकार कर दिया था। नेताओं को तो छोड़िए नरेश अग्रवाल ने तो हिन्दू देवी-देवताओं को भी नहीं बख्शा। नरेश अग्रवाल ने राज्यसभा में कहा था, व्हिस्की में विष्णु बसें, रम में श्रीराम, जिन में माता जानकी और ठर्रे में हनुमान। सियावर रामचन्द्र की जय। भगवानों की तुलना व्हिस्की व रम से करने वाले और भाजपा आईटी सेल द्वारा चन्द दिन पहले ही पाकिस्तानी प्रवक्ता करार दिए गए पूर्व सांसद नरेश अग्रवाल को भाजपा में शामिल करना अत्यंत दुखद है। सपा से अपनी टिकट कटने से गुस्साए नरेश अग्रवाल ने भाजपा में शामिल होते ही अपनी आदत अनुसार विवादास्पद बयान दे डाला। नरेश ने कहा कि फिल्म में काम करने वालों से उनकी तुलना की जा रही है। फिल्मों में डांस करने वालों के नाम पर उनका टिकट काटा गया है। हालांकि इस बयान पर सुषमा स्वराज ने उनके बयान की आलोचना की। जाहिर है कि नरेश अग्रवाल जया बच्चन की बात कर रहे थे। इससे यही साबित होता है कि उन्हें भाजपा की नीति-रीति से कोई मतलब नहीं। यह वही नरेश अग्रवाल हैं जिन्होंने पूर्व नौसेना अधिकारी कुलभूषण जाधव के मामले में कहा था कि अगर पाकिस्तान ने कुलभूषण जाधव को अपने देश में आतंकवादी माना है तो वो उस हिसाब से जाधव के साथ व्यवहार करेगा। हमारे देश में भी आतंकवादियों के साथ ऐसा ही व्यवहार करना चाहिए। यह वही नरेश अग्रवाल हैं जिन्होंने यूपी के बाद बदायूं में हुए गैंगरेप पर कहा थाöआप एक बछिया को भी जबरदस्ती घसीटकर नहीं ले जा सकते। पता नहीं कि उत्तर प्रदेश में जहां भाजपा का झंडा गड़ चुका है वहां के इस बद्दिमाग, बद्जुबान नेता को क्यों लिया गया? ऐसे लोगों से पार्टी की छवि बिगड़ती है और यह भी साबित होता है कि ऐसा व्यक्ति जो आपके देवी-देवताओं को गाली दे, प्रधानमंत्री को गाली दे वह भी पार्टी में सत्ता की खातिर स्वीकार्य है।

Wednesday, 14 March 2018

सीता ही सुरक्षित नहीं ः मंदिर बनाने का क्या मतलब?

बच्चियों से रेप रोकने के लिए बृहस्पतिवार को दिल्ली के सेंट्रल पार्प में अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर बच्चों-बड़ों और हस्तियों ने हाथ से हाथ मिलाया। दिल्ली महिला आयोग के आह्वान पर पूरे देश में बढ़ते रेप के मामलों में सेंट्रल पार्प में मानव श्रृंखला बनाई गई। आयोग ने रेप रोको अभियान के तहत बनाई गई मानव श्रृंखला में शामिल होने वाले लोगों ने बच्चियों से दुष्कर्म करने वालों को छह माह के अंदर फांसी की सजा देने की मांग की। रेप रोको आंदोलन के समर्थन में दिल्ली महिला आयोग ने एक हस्ताक्षरयुक्त पत्र प्रधानमंत्री को भेजने की अपील की थी। इस पर 35 दिन में करीब पांच लाख 55 हजार पत्र आए। इसमें लोगों ने प्रधानमंत्री से अपनी पीड़ा बताते हुए सख्त कानून बनाने की अपील की ताकि महिलाओं और बच्चियों के प्रति लोगों का नजरिया बदले। एक पत्र में एक महिला ने लिखा है कि दिल्ली में महिलाओं के खिलाफ अपराध लगातार बढ़ रहे हैं। अपराधियों को कोई भय नहीं है। हमारी संस्कृति में महिलाओं को देवी का स्थान दिया गया है। इसके बावजूद महिलाएं शारीरिक, मानसिक अपराध से लगातार पीड़ित हो रही हैं। इनमें से कई मामलों में तो कोई शिकायत तक नहीं करने जातीं। इसका कारण है कानून व्यवस्था का पुख्ता न होना। कुछ समय पहले मैंने आपको राम मंदिर निर्माण के पक्ष में बोलते सुना था। मेरा अनुरोध है कि यदि सीता ही सुरक्षित नहीं रहेगी तो फिर मंदिर बनाने का क्या मतलब है? मैं उत्तम नगर में रहती हूं। यहां आए दिन महिलाओं के साथ अपराध होता है। मेरा आपसे अनुरोध है कि छोटी बच्चियों के साथ होने वाले अपराध को रोकने और कठोर कानून बनाने के लिए जल्द से जल्द कार्रवाई करें। प्रधानमंत्री जी (एक अन्य पत्र) मैं आपको आसपास के माहौल के बारे में बताना चाहती हूं। मेरी दो बेटियां हैं। जब वह घर से निकलती हैं और शाम को लौट नहीं आतीं मन में डर लगा रहता है। बस प्रार्थना करती रहती हूं कि वह सही सलामत घर लौट आएं। मेरी बेटी कई बार बताती है कि बस में कैसे उसके शरीर पर हाथ फेरा जाता है। सड़कों पर उसके करीब से बाइक पर निकलते हुए लड़के गंदी बातें बोलते हैं। मैं जब घर से बाहर अकेली होती हूं तो रात आठ बजे बाद डर लगता है। हर आदमी ऐसे घूरता है जैसे किसी औरत को कभी देखा न हो। आज हम बेटी को पढ़ाने-बचाने या उनके दहेज या उनके लालन-पालन से नहीं डरते। आज हम उनकी इज्जत जाने से डरते हैं। हम महिला आयोग को बलात्कार के खिलाफ प्रभावी ढंग से आवाज उठाने की सराहना करते हैं और उम्मीद करते हैं कि सरकार इस ओर ठोस कदम उठाएगी।

-अनिल नरेन्द्र

लगातार जारी सीलिंग ने जनता को सड़क पर ला दिया

दिल्ली में जारी सीलिंग से व्यापारियों को अपनी रोजी-रोटी की चिन्ता सता रही है। सीलिंग की वजह से छोटे व्यापारियों की परेशानियां बढ़ती ही जा रही हैं। उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती अब खुद का रोजगार बन गया है। जबकि कुछ समय पहले तक यह लोग दूसरों को रोजगार दे रहे थे। सीलिंग की वजह से कई लोग सड़क पर आ गए हैं। सीलिंग के खिलाफ दुकानदारों का विरोध भी तेज हो गया है। अब तो पुरुषों के साथ महिलाओं को भी सड़कों पर विरोध प्रदर्शन करते देखा जा रहा है। व्यापारी और आम नागरिक परेशान हैं तो राजनीतिक पार्टियां इसे लेकर सियासत में व्यस्त हैं। दिल्ली में बसी हुईं अवैध मार्पिटें, कॉलोनियों और अन्य अवैध निर्माण के लिए भी काफी हद तक यही राजनीतिक पार्टियां जिम्मेदार हैं। सत्ता में जो दल रहता है वह अपनी वोटों की खातिर अवैध निर्माण को रोकने की जगह इसे बढ़ावा देता है। इसके पीछे भ्रष्टाचार और वोट बैंक की सियासत निहित है। नेताओं और अधिकारियों की मिलीभगत से अवैध निर्माण को बढ़ावा दिया जा रहा है। यही कारण है कि एक ओर सीलिंग की कार्रवाई चल रही है वहीं दूसरी ओर आज भी कई इलाकों में धड़ल्ले से अवैध निर्माण जारी हैं। चिन्ताजनक बात यह है कि कई नेताओं पर अवैध निर्माण के कारोबार से जुड़े होने या इसे संरक्षण देने के आरोप समय-समय पर लगते रहे हैं। इस तरह के निर्माण में न तो सुरक्षा मानकों का ख्याल रखा जाता है और न ही नागरिक सुविधाओं का। दिल्ली के अमर कॉलोनी में पुलिस के लाठीचार्ज के बाद से तीनों ही प्रमुख राजनीतिक पार्टियां एक-दूसरे को घेरने में जुट गई हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि अनधिकृत निर्माण करवाने वालों पर कोई कार्रवाई नहीं होने पर सवाल उठना स्वाभाविक है। सर्वविदित है कि राजधानी में अवैध निर्माण एक बड़ा मुद्दा है। सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट कई वर्षों से सरकार को अनधिकृत निर्माण को बंद कराने के लिए आदेश दे चुका है। बावजूद इसके अवैध निर्माण जारी हैं। दोनों शीर्ष अदालतें स्पष्ट कर चुकी हैं कि जिस क्षेत्र में भी अनधिकृत निर्माण हुआ है वहां के अधिकारियों यानि पुलिस, डीडीए, एमसीडी के अधिकारियों के खिलाफ भी मुकदमा दर्ज कर कार्रवाई की जाए। हाई कोर्ट ने तो सैनिक फार्म हाउस कॉलोनी में अनधिकृत निर्माण को लेकर पिछले 10 वर्षों में इलाके में तैनात एमसीडी, दिल्ली पुलिस व अन्य संबंधित विभागों के कनिष्ठों से लेकर वरिष्ठ अधिकारियों के नाम की सूची भी तलब की थी ताकि उनके खिलाफ मुकदमा दर्ज कर कार्रवाई की जा सके। लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुई। अगर समय रहते यह सरकारी एजेंसियां अपनी जिम्मेदारियों के प्रति सजग रहतीं तो आज दिल्लीवासियों को सीलिंग की यह मार नहीं झेलनी पड़ती। मुख्यमंत्री भी इस मुद्दे को लेकर भूख हड़ताल करने और प्रधानमंत्री व राहुल गांधी को पत्र लिखकर सियासी दांव ही आजमाने की कोशिश कर रहे हैं। नेताओं के इसी सियासती दांव पेच की वजह से अदालत को सख्त रुख अपनाना पड़ा है और जनता में आक्रोश बढ़ता जा रहा है। दिल्ली में जारी सीलिंग से व्यापारियों को अपनी रोटी-रोजी की चिन्ता सता रही है तो उनकी नाराजगी भी बढ़ती जा रही है। वहीं दिल्ली सरकार, आम आदमी पार्टी और कांग्रेस सीलिंग को लेकर भाजपाशासित नगर निगमों और केंद्र सरकार को इसके लिए जिम्मेदार ठहराकर लगातार हमला बोल रही हैं। इससे भाजपा नेताओं को भी नुकसान की चिन्ता सता रही है। संभावित नुकसान को देखते हुए सीलिंग की समस्या से व्यापारियों को राहत दिलाने के लिए दिल्ली प्रदेश भाजपा के नेता पार्टी हाई कमान व शहरी विकास मंत्री के पास जाकर गुहार लगा रहे हैं। दिल्ली विकास प्राधिकरण (डीडीए) के मास्टर प्लान में संशोधन के प्रस्ताव को भी मंजूरी दी गई। इससे व्यापारियों को कुछ राहत मिलने की उम्मीद थी लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस पर रोक लगा दी। पता नहीं यह तबाही कब और कैसे रुकेगी?

Tuesday, 13 March 2018

इच्छामृत्यु का ऐतिहासिक फैसला

वेंटिलेटर पर महीनों तक जिन्दगी और मौत से जूझते मरीजों को अपनी जीवन-लीला समाप्त करने का अब एक विकल्प मिल गया है। गंभीर बीमारी होने पर पहले से इच्छा-पत्र लिखकर बता सकता है कि असाध्य रोग से ग्रस्त होने पर उसे जीवन रक्षक उपकरणों (लाइफ सपोर्ट) के सहारे रखा जाए या नहीं। वह अपने किसी नजदीकी को इस संवेदनशील मसले पर निर्णय लेने के लिए नियुक्त कर सकता है। लेकिन डाक्टरों का मेडिकल बोर्ड ही अंतिम निर्णय लेने के लिए सक्षम होगा। यह अहम फैसला सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने दिया है। इच्छामृत्यु या दयामृत्यु के पक्ष में शुक्रवार को आया सर्वोच्च न्यायालय का फैसला ऐतिहासिक भी है और दूरगामी महत्व का भी। इस फैसले ने उस बहस पर विराम लगा दिया है जिसकी शुरुआत 1986 में कार दुर्घटना के बाद सिजोफ्रेनिया और मानसिक रोगों का शिकार हुए कांस्टेबल मारुति श्रीपति दुबल की खुद को जलाकर मारने की कोशिश और फिर 2009 में 42 साल से अस्पताल में अचेत पड़ी अरुणा शानबाग के लिए शांतिपूर्ण मृत्यु की विनती वाली याचिका से हुई थी। हमारे संविधान के अनुच्छेद-21 ने जीने के अधिकार की गारंटी दे रखी है। लेकिन जीने का अर्थ गरिमापूर्ण ढंग से जीना होता है। और जब यह संभव रह जाए तो मृत्यु के कारण की अनुमति दी जा सकती है। गौरतलब है कि ताजा फैसला सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाले पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने सुनाया है, जिसके मुताबिक दयामृत्यु की इजाजत कुछ विशेष परिस्थितियों में दी जा सकती है। इजाजत के लिए अदालत ने उचित ही कई कठोर शर्तें लगाई हैं और कहा है कि जब तक इस संबंध में संसद से पारित होकर कानून लागू नहीं हो जाए तब तक यह दिशानिर्देश लागू रहेंगे। एक शख्स जो अपने परिजनों को पहचान सकता है, चल-फिर, खा-पी सकता है, सुन-बोल सकता है, जिसे अपने अस्तित्व का बोध नहीं है और जिसे तमाम चिकित्सीय उपायों से स्वस्थ करना तो दूर, होश में नहीं ला सकते, उसका जीना एक जिन्दा लाश की तरह ही होता है। ऐसी स्थिति में उसे लाइफ सपोर्ट सिस्टम यानि जीवन रक्षक प्रणाली के सहारे केवल टिकाए रखना मरीज के लिए भी यातनादायी होता है और उसके परिजनों के लिए भी। अलबत्ता इच्छामृत्यु का अधिकार सशर्त है। साफ है कि शीर्ष अदालत का फैसला केवल उन लोगों को पूर्ण गरिमा के साथ मृत्यु का चुनाव करने का अधिकार देता है जिनके लिए जीवित रहने की सारी संभावनाएं खत्म हो चुकी हों।

-अनिल नरेन्द्र