मूर्तियां मुहब्बत का नतीजा होती हैं, कुछ आस्था व श्रद्धा के चलते बनती हैं।
कुछ के पीछे वैचारिक प्रतिबद्धता भी होती है। मूर्तियों के बनाए जाने के कई अन्य कारण
भी हो सकते हैं लेकिन इन्हें तोड़ने के पीछे कारण एक ही होता हैöकुंठा। त्रिपुरा में चुनाव नतीजे आने के बाद जिस तरह रूस की साम्यवादी क्रांति
के नायक ब्लादीमिर लेनिन व पेरियार की मूर्ति तमिलनाडु में तोड़ना व कोलकाता में जनसंघ
के संस्थापक श्यामाप्रसाद मुखर्जी की मूर्ति तोड़ने की हम कड़े शब्दों में निंदा करते
हैं। इससे तो हमें अफगानिस्तान में तालिबान की करतूतें याद आती हैं जिसने बामियान प्रांत
में सदियों से खड़ी महात्मा बुद्ध की उस मूर्ति को ढहा दिया था। उस विश्व धरोहर को
किन कलाकारों ने बनाया उनका नाम कोई नहीं जानता पर वह आस्था का प्रतीक थीं। हमें वह
सीन भी याद है जब इराक में अमेरिकी आक्रमण के बाद सद्दाम हुसैन की एक चौराहे पर लगी
मूर्ति तोड़ी गई थी। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि जो लोग सत्ता हासिल होते ही मूर्तियों
और स्मारकों को तोड़ने का काम करते हैं वह कोई नेक काम नहीं कर रहे हैं। याद रहे कि
इतिहास शायद ही उन्हें कभी अच्छी नजर से देखे। इतिहास किसी भी शासक को उसके कामकाज
से याद रखता है। उसके स्मारक और उसकी मूर्तियों से नहीं। इसके विपरीत जो लोग सत्ता
हासिल करते ही मूर्तियां तोड़ने के अभियान पर निकल पड़ते हैं। उन्हें इतिहास शायद ही
कभी अच्छी नजर से देखता हो। भारत का इतिहास ऐसी घटनाओं से भरा पड़ा है जहां हमलावरों
ने न केवल मूर्तियां ही तोड़ीं बल्कि मंदिर भी तोड़े। त्रिपुरा और अन्य जगहों पर मूर्तियां
तोड़े जाने की घटनाओं पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नाराजगी जाहिर की है। पीएम और
केंद्रीय गृहमंत्री ने त्रिपुरा के अफसरों को ऐसी किसी भी घटना पर सख्ती बरतने को कहा
है। सभी राज्यों को मूर्तियों के मामले में एडवाइजरी भी जारी की गई है। चुनाव में कोई
जीतता है तो कोई हारता है। इसका मतलब यह नहीं है कि वह हिंसा के विघटनकारी गतिविधियों
में शामिल हो। फिर त्रिपुरा में मूर्ति तोड़ने वालों को, प्रतिमाओं
को गिराने वाले यह क्यों भूल जाते हैं कि ऐसी हरकतों का बुरा परिणाम हो सकता है। हमने
प्रतिक्रिया स्वरूप पश्चिम बंगाल में इसका एक परिणाम देखा। यह सिलसिला अविलंब बंद होना
चाहिए। ऐसी घटनाएं भारत के लोकतांत्रिक ढांचे को कमजोर करती हैं।
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