Friday 16 March 2018

सोनिया गांधी की डिनर डिप्लोमेसी

लोकतांत्रिक व्यवस्था में जहां यह जरूरी होता है कि सत्तापक्ष मजबूत हो वहीं यह भी जरूरी होता है कि विपक्ष भी मजबूत हो। नहीं तो सत्तापक्ष समझने लगता है कि वह जो चाहे कर सकता है और कोई उसे रोकने-टोकने वाला नहीं है। वर्तमान स्थिति यही है। विपक्ष अत्यंत कमजोर है और सत्तापक्ष निरंकुश होता चला जा रहा है। इस दृष्टि से कांग्रेस पार्टी की वरिष्ठ नेता व संप्रग अध्यक्ष सोनिया गांधी की पहल सराहनीय है। वैसे सोनिया गांधी द्वारा अपने आवास पर दी गई डिनर पार्टी नई नहीं है। पूर्व में भी गठबंधन की मजबूती बनाए रखने के लिए वह इस तरह के आयोजन करती रही हैं। लेकिन इस बार की डिनर पार्टी देश में मोदी-शाह की जोड़ी के विजय रथ को रोकने के लिए विपक्षी एकता की नींव रखने के लिए दी गई। सोनिया गांधी ने कांग्रेस अध्यक्ष पद भले ही छोड़ दिया हो, पर वह न केवल कांग्रेसी संसदीय दल की बल्कि यूपीए की चेयरपर्सन भी हैं। राहुल गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष पद संभालने के बाद यह पहला मौका है जब सोनिया की तरफ से एक बड़ी राजनीतिक पहल की गई है। डिनर डिप्लोमेसी के द्वारा सोनिया ने यह संदेश देने की कोशिश की कि भाजपा के खिलाफ विपक्षी एकता का नेतृत्व करने को कांग्रेस तैयार है। समान विचारधारा वाले राजनीतिक दलों को अपने आवास 10 जनपथ पर निमंत्रण देकर सोनिया ने उस कयासबाजी को भी खत्म करने की कोशिश की जिसमें यह कहा जा रहा था कि राहुल गांधी के नेतृत्व को अन्य दलों के नेता आसानी से स्वीकार नहीं करेंगे। मतलब साफ है कि भाजपा के खिलाफ बनने वाले विपक्ष के किसी भी गठबंधन के केंद्रबिंदु में कांग्रेस ही होगी और खुद सोनिया गांधी विपक्षी एकता की मजबूती के लिए काम करती रहेंगी। डिनर के बहाने सोनिया गांधी ने अगले लोकसभा चुनाव के लिए विपक्ष के महागठबंधन को लेकर उन 17 नेताओं की नब्ज टटोलने की भी कोशिश की जिन्होंने इस डिनर पार्टी में भाग लिया। वैसे यह डिनर पार्टी 2019 के लोकसभा चुनावों से पहले विपक्ष की तमाम पार्टियों के बीच एकजुटता लाने, उनमें सहयोग और समन्वय की भावना मजबूत करने की एक कवायद है। सोनिया की नजर जहां गठबंधन का आकार बढ़ाने पर है वहीं ज्यादा से ज्यादा क्षेत्रीय दलों को साथ लाकर वह यह संदेश देना चाहती हैं कि भाजपा को रोकने के लिए उनके पास रणनीति भी है और राजनीतिक विकल्प भी। यही कारण रहा की जीतन राम मांझी और बाबू लाल मरांडी जैसे नेताओं को भी बुलाया गया। एक के बाद एक लगातार हार और भाजपा के बढ़ते उभार के बीच समान विचारधारा वाले दलों में कांग्रेस की यह पहल कितनी कारगर सिद्ध होगी यह तो आने वाला समय ही बताएगा।

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