Tuesday, 13 March 2018

इच्छामृत्यु का ऐतिहासिक फैसला

वेंटिलेटर पर महीनों तक जिन्दगी और मौत से जूझते मरीजों को अपनी जीवन-लीला समाप्त करने का अब एक विकल्प मिल गया है। गंभीर बीमारी होने पर पहले से इच्छा-पत्र लिखकर बता सकता है कि असाध्य रोग से ग्रस्त होने पर उसे जीवन रक्षक उपकरणों (लाइफ सपोर्ट) के सहारे रखा जाए या नहीं। वह अपने किसी नजदीकी को इस संवेदनशील मसले पर निर्णय लेने के लिए नियुक्त कर सकता है। लेकिन डाक्टरों का मेडिकल बोर्ड ही अंतिम निर्णय लेने के लिए सक्षम होगा। यह अहम फैसला सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने दिया है। इच्छामृत्यु या दयामृत्यु के पक्ष में शुक्रवार को आया सर्वोच्च न्यायालय का फैसला ऐतिहासिक भी है और दूरगामी महत्व का भी। इस फैसले ने उस बहस पर विराम लगा दिया है जिसकी शुरुआत 1986 में कार दुर्घटना के बाद सिजोफ्रेनिया और मानसिक रोगों का शिकार हुए कांस्टेबल मारुति श्रीपति दुबल की खुद को जलाकर मारने की कोशिश और फिर 2009 में 42 साल से अस्पताल में अचेत पड़ी अरुणा शानबाग के लिए शांतिपूर्ण मृत्यु की विनती वाली याचिका से हुई थी। हमारे संविधान के अनुच्छेद-21 ने जीने के अधिकार की गारंटी दे रखी है। लेकिन जीने का अर्थ गरिमापूर्ण ढंग से जीना होता है। और जब यह संभव रह जाए तो मृत्यु के कारण की अनुमति दी जा सकती है। गौरतलब है कि ताजा फैसला सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाले पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने सुनाया है, जिसके मुताबिक दयामृत्यु की इजाजत कुछ विशेष परिस्थितियों में दी जा सकती है। इजाजत के लिए अदालत ने उचित ही कई कठोर शर्तें लगाई हैं और कहा है कि जब तक इस संबंध में संसद से पारित होकर कानून लागू नहीं हो जाए तब तक यह दिशानिर्देश लागू रहेंगे। एक शख्स जो अपने परिजनों को पहचान सकता है, चल-फिर, खा-पी सकता है, सुन-बोल सकता है, जिसे अपने अस्तित्व का बोध नहीं है और जिसे तमाम चिकित्सीय उपायों से स्वस्थ करना तो दूर, होश में नहीं ला सकते, उसका जीना एक जिन्दा लाश की तरह ही होता है। ऐसी स्थिति में उसे लाइफ सपोर्ट सिस्टम यानि जीवन रक्षक प्रणाली के सहारे केवल टिकाए रखना मरीज के लिए भी यातनादायी होता है और उसके परिजनों के लिए भी। अलबत्ता इच्छामृत्यु का अधिकार सशर्त है। साफ है कि शीर्ष अदालत का फैसला केवल उन लोगों को पूर्ण गरिमा के साथ मृत्यु का चुनाव करने का अधिकार देता है जिनके लिए जीवित रहने की सारी संभावनाएं खत्म हो चुकी हों।

-अनिल नरेन्द्र

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