दो राज्यों हरियाणा और महाराष्ट्र के विधानसभा
चुनाव परिणाम कम से कम यह तो संकेत देते हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी
भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) अजेय नहीं है और जनता राज्य सरकारों की गलतियों के लिए सजा देने को तैयार है।
दूसरा संदेश भी उतना ही स्पष्ट है कि मतदाता अब लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव में
अलग-अलग तरीके से स्थितियों को देखता है। हालांकि महाराष्ट्र
में शिवसेना के गठबंधन के साथ उसकी सरकार बन गई वहीं हरियाणा विधानसभा में उसे करारी
हार मिली है। बेशक ज़ोड़तोड़ से भाजपा सरकार बना रही है पर हकीकत यह है कि राज्य में
बहुमत वोट उसके खिलाफ पड़ा है। महज पांच महीने पहले लोकसभा चुनाव में भाजपा ने अपने
दम पर 300 से अधिक सीटें जीती थीं। लेकिन इन दोनों राज्यों के
नतीजे उसके अपने पैमाने पर खरा नहीं उतरते। 288 सीटों वाले महाराष्ट्र
में भाजपा-शिवसेना गठबंधन ने इस बार 220 से अधिक सीटें जीतने का दावा किया था, लेकिन उसे पिछली
बार की तुलना में करीब 20 सीटें कम मिली हैं। वहीं हरियाणा में
भाजपा ने ़75 पार का दावा किया था, लेकिन
टारगेट से बहुत दूर रह गई। सच कहा जाए तो यह उसके लिए बहुत बड़ा धक्का है। दोनों राज्यों
में लग नहीं रहा था कि कांग्रेस पूरे मन से चुनाव लड़ रही है। कांग्रेस के केंद्रीय
नेतृत्व की ओर से चुनाव की मोर्चाबंदी की कोई झलक भी नहीं थी। बावजूद इसके हरियाणा
में कांग्रेस का प्रदर्शन इतना अच्छा हुआ है तो निश्चित है कि यह भाजपा की प्रदेश सरकार
के खिलाफ असंतोष का परिचायक है। मनोहर लाल खट्टर सरकार के ज्यादातर मंत्रियों की पराजय
बता रही है कि सरकार को लेकर आम जनता के साथ-साथ पार्टी के अंदर
भी असंतोष था। चुनाव में मतदाता जब वोट देते हैं तो वह सिर्प उम्मीदवारों को जिताते
या हराते नहीं हैं। वह उम्मीदवारों और राजनीतिक दलों को स्पष्ट संदेश भी देते हैं।
पूरे चुनाव के दौरान और मतदान के बाद तक यह माना जा रहा था कि दोनों ही राज्यों में
भारतीय जनता पार्टी जोरदार ढंग से सत्ता में वापसी करेगी। यहां तक कि मतदान बाद के
तमाम सर्वेक्षण (एक को छोड़कर) भी यही कह
रहे थे। ऐसे नतीजों पर पहुंचना सबके लिए बहुत आसान भी था। सभी यही संकेत दे रहे थे
कि दोनों राज्यों में भाजपा की जबरदस्त वापसी होगी। एक और स्पष्ट संकेत यह भी मिला
कि मोदी के करिश्मे पर अकेले अब विधानसभा चुनाव नहीं जीते जा सकते। मोदी मैजिक घटने
का यह स्पष्ट संकेत है। विधानसभा चुनावों में और लोकसभा चुनावों में एक बुनियादी फर्प
है, वह है अलग-अलग मुद्दे होना। उदाहरण
के तौर पर हरियाणा जहां लगभग हर गांव से सैनिक आते हैं में राष्ट्रवाद मुद्दा नहीं
चला। राज्य सरकार ने पिछले पांच साल में क्या काम किया है उस पर वोट पड़े हैं। खुद
प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने महाराष्ट्र व हरियाणा दोनों ही जगह
जम्मू-कश्मीर में धारा 370 को निप्रभावी
करने और राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे मुद्दों को जोरदार तरीके से, जोरशोर से उठाया था। लेकिन नतीजे बताते हैं कि मतदाताओं के लिए आर्थिक मंदी,
बेरोजगारी और कृषि क्षेत्र की हताशा जैसे मुद्दे ज्यादा अहम रहे। विपक्ष
और खासकर देश की सबसे पुरानी और अभी दो चुनाव पहले तक (यानि 2009
तक) सबसे बड़ी जनाधार वाली पार्टी कांग्रेस के
लिए यह नतीजे क्या संदेश देते हैं? क्या वह अपने जनाधार को वापस
लाने पर कुछ विचार करेगी और अगर करेगी तो क्या जो संदेश जनता ने दिया है, सही करने का। छिपा संदेश यह भी है कि आने वाले दिनों में युवा आदित्य ठाकरे,
दुष्यंत चौटाला के नेतृत्व में शिवसेना और जेजेपी को अपना आधार बढ़ाना
होगा, क्योंकि सहयोगी भाजपा अपने ही सहयोगियों का आधार आत्मसात
करने में माहिर रही है। मुकाबले में जो राजनीतिक दल हैं वह आज भले ही एकल नेतृत्व वाला
हो गया हो, मूल रूप से विचारधारा, कैडर
और प्रतिबद्धता वाला दल रहा है। लोकसभा चुनाव में भाजपा से मिली करारी हार से हताशा
में चले गए विपक्ष को महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा चुनावों तथा कई राज्यों के उपचुनावों
के नतीजों से न केवल संजीवनी मिली है, बल्कि यह संदेश देने में
भी सफल रहे हैं कि यदि विपक्षी पूरी तैयारी से चुनाव में उतरे तो भाजपा के किलों को
भेद सकते हैं। हरियाणा, महाराष्ट्र और कई राज्यों के उपचुनावों
में विपक्ष चुनाव मैदान में तो था, लेकिन आधी-अधूरी तैयारी से। हाल में ही हुए लोकसभा चुनाव की करारी हार के सदमे से विपक्ष
पूरी तरह उबर नहीं पाया था। रही-सही कसर चुनाव से पहले कांग्रेस
समेत अन्य विपक्षी दलों में भाजपा की सेंधमारी, सीबीआई,
ईडी द्वारा की गई कार्रवाई से पूरी तरह हताशा में धकेल कर नैतिक रूप
से बढ़त हासिल कर ली थी। लेकिन चुनाव में जिस तरह के नतीजे आए हैं, वह यह संदेश दे रहे हैं कि स्थानीय स्तर पर लोगों का विश्वास भाजपा से उठ रहा
है और उसे ठोस विकल्प की जरूरत महसूस होने लगी है। यदि यह ऐसे आने वाले राज्यों के
चुनाव में विपक्ष एकजुट होकर पूरी शिद्दत से चुनाव मैदान में कूदा तो निश्चित रूप से
भाजपा को मात दी जा सकती है। नतीजों से हमें कई अहम संदेश मिलते हैं। राष्ट्रवाद और
धार्मिक मुद्दे पर हर चुनाव में जीत की गारंटी नहीं हो सकती है। स्थानीय मुद्दों को
नजरंदाज नहीं किया जा सकता और अगर करेंगे तो वह भारी पड़ सकता है, खासकर विधानसभा चुनावों में। मंदी, महंगाई और बेरोजगारी
से पैदा निराशा और नाराजगी कहीं न कहीं जनमानस में जगह बना रही है। इन तीनों को झुठलाना
गलत साबित हुआ। नतीजों से यह नहीं कहा जा सकता कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता
में कमी आई है, लेकिन भाजपा शासित राज्य सरकारों के खिलाफ सत्ता
विरोधी लहर भी है। जातिगत गोलबंदी सियासी सूरत बदल सकती है। हरियाणा में जाट बनाम गैर-जाट, महाराष्ट्र में ब्राह्मण बनाम मराठी के बीच खेमेबंदी
ने नतीजों को काफी प्रभावित किया है। महाराष्ट्र और हरियाणा में भाजपा को हुए नुकसान
की कुछ वजहें साफ हैं। स्थानीय मुद्दों के बजाय कश्मीर, राष्ट्रवाद,
पाकिस्तान, सुरक्षा आदि मुद्दे उठाए। न तो राज्य
सरकार की उपलब्धियों और न ही एंटी इनकंबैंसी फैक्टर पर ध्यान दिया गया। बढ़ते सेल्फ
कॉन्फिडेंस ने भी भाजपा को नुकसान पहुंचाया। यह ताजा नतीजे भाजपा को अपनी रणनीति पर
फिर से विचार करने की तरफ संकेत दे रहे हैं।
-अनिल नरेन्द्र
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