Thursday 15 October 2015

राष्ट्र निर्माण के साथ-साथ विभाजित नेपाल में एकता लानी होगी

खड़ग पसाद शर्मा ओली की नेपाल के 38वें पधानमंत्री के रूप में ताजपोशी के बाद उम्मीद की जानी चाहिए कि हिमालय की गोद में बसे इस देश में जल्द ही स्थिरता कायम होगी। चीन समर्थक वामपंथी पार्टी के सबसे बड़े नेता के तौर पर उनका पधानमंत्री चुना जाना जितना स्वाभाविक माना जा रहा है उतना ही स्वाभाविक है उनसे भारत और दुनिया को बड़ी अपेक्षाएं हैं। उन्हें पचंड के नेतृत्व वाले अन्य वामपंथी दल, कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (माओवादी) के साथ ही एक दर्जन से अधिक छोटी-बड़ी पार्टियों का समर्थन हासिल होने का सीधा मतलब है कि संसद में उनका रास्ता आसान होगा। अपने लंबे राजनीतिक और संघर्षपूर्ण जीवन में 14 वर्ष जेल में बिताने वाले इस कम्युनिस्ट नेता के लिए यह एक निर्णायक क्षण है। उन्होंने नेपाली कांग्रेस के पूर्व पधानमंत्री सुशील कुमार कोइराला को पराजित कर संसद के भीतर अपनी पकड़ साबित की है। इसके साथ ही यह भी सच है कि राजशाही के खत्म होने के बाद विगत एक दशक से नेपाल राजनीतिक रूप से बेहद उथल-पुथल के दौर से गुजरा है और बची-खुची कसर इस वर्ष आए भीषण भूकंप ने पूरी कर दी। अब ओली के राजनीतिक पबंध-कौशल की परीक्षा की घड़ी आ गई है। एक तरफ भारत तो दूसरी तरफ चीन, एक तरफ मधेशी और दूसरी ओर पहाड़ की जनता इनमें कैसे समन्वय बैठाते हैं अब पहले से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया है। ओली ने देश की बागडोर ऐसे समय संभाली है जब नया संविधान बनने के बाद देश मधेशी और थारू जनजाति के हिंसक आंदोलन का सामना कर रहा है। संविधान बनाते समय उनकी अपेक्षाओं का ध्यान नहीं रखे जाने का आरोप है। भारत से नेपाल की 1750 किमी. लंबी सीमा लगती है। तराई का पूरा इलाका भारत से सटा है। मधेशियों के सांस्कृतिक  संबंध नेपाल के पहाड़ी इलाकों से अधिक भारत से हैं। आंदोलन के हिंसक होने के कारण भारत से जाने वाली सामग्री और पैट्रो पदार्थ नेपाल नहीं पहुंच पा रहे हैं। मधेशी नाकेबंदी इसका सबसे बड़ा कारण है। इंकार के बाद भी वहां के अधिकतर दल भारत को ही दोषी मान रहे हैं। मधेशियों की सहानुभूति भारत के साथ है, उनकी इससे अपेक्षाएं भी अधिक हैं, वे चाहते हैं कि भारत पत्यक्ष रूप से हस्तक्षेप करे। ओली के सामने राष्ट्र के पुनर्निमाण के साथ-साथ मधेशियों और थारू जनजाति सहित अन्य असंतुष्टों को नेपाल के 67 साल के इतिहास में सातवें संविधान मंजूरी के बाद एक साथ मिलकर देश को आगे बढ़ाने की जबरदस्त चुनौती होगी। जहां तक भारत का सवाल है फिलहाल हमें यह मानना होगा कि नेपाल ने हमारी जगह चीन के करीब आना बेहतर समझा। नेपाल पर चीन की गिद्ध दुष्टि लगी हुई है, वह तो चाहता है कि येन-केन पकोरण भारत को नेपाल से दूर करके तिब्बत की तरह नेपाल में भी मनमानी कर सके। देखें, ओली इन समस्याओं का समाधान कर सकते हैं या नहीं।

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