Sunday 18 October 2015

एक सियासी मुहिम का हिस्सा बनते हमारे महान साहित्यकार

उत्तर प्रदेश में दादरी कांड का मामला जितना दुखद है उससे भी अधिक दुर्भाग्यपूर्ण है इसकी आड़ में राजनीति खेलने की कोशिश। मैं सरकार का पक्ष नहीं ले रहा पर मुझे इस बात का दुख है कि केंद्र सरकार और खासकर प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ कुछ लेखक बंधुओं ने एक माहौल खराब करने का अभियान-सा चला रखा है। मैं इन लेखकों द्वारा पुरस्कार व सम्मान लौटाने की मुहिम की बात कर रहा हूं। कहने को तो कहा जा रहा है कि केंद्र में नरेंद्र मोदी की अगुआई में जो सरकार जब से बनी है उसके बाद से देश में असहिष्णुता का माहौल बना है और इसके विरोध में यह बुद्धिजीवी अपने सम्मान लौटा रहे हैं। असल में कुछ स्यूडो सेक्यूलरिस्ट, छद्म धर्मनिरपेक्ष लोगों की आंखों पर खास किस्म का चश्मा चढ़ा हुआ है। जो कुछ  दादरी में हुआ वह निश्चित रूप से निंदनीय है किन्तु उस घटना को हमारे सेक्यूलर बुद्धिजीवियों की ओर से यह तथाकथित धर्मनिरपेक्ष मीडिया जिस ढंग से पेश कर रहा है वह गलत है। पंजाबी लेखिका दिलीप कौर तिवाना ने इसलिए पद्मश्री लौटा दी क्योंकि 1984 के सिख दंगे और मुस्लिमों के खिलाफ हिंसा हो रही है और इसका विरोध होना चाहिए। हम तिवाना जी से पूछना चाहते हैं कि 1984 के दंगों का पद्म सम्मान से क्या लेना-देना? अगर उन्हें इतना ही विरोध  करना था तो सम्मान लेने से मना क्यों नहीं किया? आज की केंद्र सरकार को 84 के दंगों से क्या लेना-देना? इन बुद्धिजीवियों ने तब इस्तीफा क्यों नहीं दिया जब मुजफ्फरनगर और सहारनपुर के दंगे हुए थे? इन्होंने तब क्यों नहीं इस्तीफा दिया जब सेना के जवान वेदमित्रा चौधरी को मेरठ के पास हरदेव नगर में पीट-पीट कर मार डाला गया, इन्होंने तब क्यों नहीं इस्तीफा दिया जब मार्च में एक मुस्लिम लड़की के साथ शादी करने पर बिहार के हाजीपुर में एक हिन्दू की हत्या कर दी गई? इनमें से किसने तब खुला विरोध किया जब इसी महीने उत्तर प्रदेश के एक पत्रकार हेमंत यादव को मौत के घाट उतार दिया गया? ये लोग तब कहां थे जब उत्तर प्रदेश में एक पत्रकार को जिन्दा जलाया गया? तब तो किसी ने विरोध में एक शब्द नहीं कहा। लेखकों के पास सबसे बड़ा हथियार उनकी कलम है। वह कुछ भी कभी भी किसी के विरोध में अपने विचार प्रकट कर सकते हैं। फिर न तो इन्हें आज की केंद्र सरकार ने नियुक्त किया था और न ही वह दादरी कांड की जिम्मेदार है। फिर ऐसा भी नहीं कहा जा सकता कि इस प्रकार की सांप्रदायिक घटना सिर्प केंद्र में ही हो रही है, कई राज्यों में जिनमें कांग्रेस सरकार है, वाम सरकार है वहां भी तो ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएं हुई हैं। हम मान सकते हैं कि यह सब सेक्यूलरवाद के लिए लड़ रहे हैं पर क्या यह जरूरी है कि हत्याएं केवल एक वर्ग विशेष की हो रही हैं? ये वामपंथी कांग्रेसी परस्त लेखक उन राज्यों के शासन पर अंगुली नहीं उठाते जहां ऐसी घटनाएं हो रही हैं। पश्चिम बंगाल में चर्च के अंदर ननों पर हमला किया गया, एमएम कलबर्गी की हत्या कांग्रेस शासित राज्य कर्नाटक में हुई पर सबका दोष केंद्र सरकार पर लगा दिया गया। धर्मनिरपेक्षता का भाव हमारे संविधान के सबसे मजबूत पायों में से एक है और चाहे किसी भी राजनीतिक विचारधारा वाले देश की सत्ता पर काबिज क्यों न हो, वह भी इस बुनियाद को छोड़ने की हिम्मत नहीं कर सकता। देश की सत्ता पर काबिज एनडीए गठबंधन का नेतृत्व भले ही भाजपा कर रही हो जो अपने प्रखर हिन्दुत्व विचारधारा के लिए जानी जाती है, लेकिन उसकी भी मति नहीं मारी गई है कि वह देश की प्रगतिशील सोच को फिर से दकियानूसी रास्ते पर धकेलने की भी सोचे। कहा जा सकता है कि इन घटनाओं को शह उस सोच से मिल रही है जो मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद से उभर नहीं पा रही है। साहित्यकार बुनियादी रूप से अधिक संवेदनशील होते हैं इसलिए ऐसी दुखद घटनाओं पर उनकी प्रतिक्रिया होनी स्वाभाविक है पर जिस प्रकार लाइन लगाकर एक के बाद एक इस प्रतिक्रिया में सम्मान फेंके जा रहे हैं उसका संदेश अच्छा नहीं जा रहा है। ऐसा  लगता है कि केंद्र सरकार के खिलाफ एक मुहिम चलाई जा रही है जिसका शिकार हमारे यह महान साहित्यकार भी हो रहे हैं।

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