Tuesday, 20 October 2015

सरकार समान नागरिक संहिता कानून लाएगी या नहीं?

समान नागरिक संहिता यानि यूनिफार्म सिविल कोड का मुद्दा अकसर देश में समय-समय पर उठता रहा है। वैसे तो भाजपा का यह सबसे बड़ा एजेंडा भी है पर अब तक इस पर कुछ नहीं हो सका। जैसे ही यह मुद्दा उठता है हमारे अल्पसंख्यक भाई डिफेंसिव मोड में आ जाते हैं। पता नहीं उन्हें यह क्यों लगता है कि इसके जरिये उन्हें कठघरे में खड़ा किया जा रहा है। हम उन्हें दोष भी नहीं दे सकते क्योंकि कुछ सियासी दल इसे इस तरह उठाते हैं मानो अल्पसंख्यक समुदाय ही इसके रास्ते में रोड़ा बना हुआ है। एक बार फिर यूनिफार्म सिविल कोड चर्चा में आया है। अब सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र से रुख साफ करने को कहा है। कोर्ट ने सीधा सवाल पूछा कि समान नागरिक संहिता पर आपको (सरकार) हो क्या गया? अगर इसे लागू करना चाहते हैं तो लाइए। आप इसे फौरन लागू क्यों नहीं करते? सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि देश में कई पर्सनल लॉ हैं। इससे भ्रम की स्थिति बनी हुई है। कोर्ट ने यह  बात क्रिश्चियन डायवोर्स एक्ट की धारा 10(1) को चुनौती देने वाली अर्जी की सुनवाई के दौरान कही। दिल्ली में एलबर्ट एंथोनी ने यह अर्जी लगाई है। उनकी दलील है कि ईसाई दम्पत्ति को तलाक के लिए कम से कम दो साल अलग रहना जरूरी है जबकि हिन्दू मैरिज एक्ट में एक साल अलग रहने पर तलाक दे दिया जाता है एक ही मामले में दो व्यवस्थाएं गलत हैं। बता दें कि क्या है समान नागरिक संहिता? इसके तहत सभी लोगों पर एक-सा कानून लागू होने लगेगा। भले ही वह किसी भी मजहब का, धर्म का क्यों न हो। अभी देश में कई पर्सनल लॉ हैं जो अलग-अलग मजहबों, धर्मों के रीति-रिवाज और परंपरा के आधार पर बने हैं। यह खास तौर पर शादी, तलाक, उत्तराधिकार और विरासत, गुजारा भत्ता जैसे मामलों पर लागू होते हैं। मसलनöहिन्दुओं के लिए तलाक के कानून मुस्लिमों और क्रिश्चियनों के कानूनों से बिल्कुल अलग हैं। देखना अब यह है कि मोदी सरकार इस मामले में क्या रुख अपनाती है, लेकिन यह मौका है जिसका सदुपयोग कर वह समान नागरिक संहिता को लागू कर सकती है। इस मामले में केंद्र को अपना पक्ष रखने के लिए तीन महीने का समय दिया गया है। समान नागरिक संहिता पर बातें तो बहुत लंबे समय से हो रही हैं पर जब इस पर आम सहमति बनाने या लागू करने की बात आती है तो विवाद खड़ा हो जाता है। सियासी दल अपनी-अपनी नीतियों के अनुसार चिल्लाने लगते हैं। विधि मंत्री डीवी सदानंद गौड़ा ने बयान दिया है कि राष्ट्रीय एकता के लिए समान नागरिक संहिता जरूरी है। ऐसे कानून विश्व के अधिकतर विकसित देशों में लागू हैं लेकिन यह हमारा देश ही है जहां तकरीबन हर मजहब का अपना पर्सनल लॉ लागू है। हमारे संविधान निर्माता भारत को एक आधुनिक और धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बनाना चाहते थे जिसके लिए कॉमन सिविल कोड जरूरी था। लेकिन उन्हें इस बात का भी अहसास था कि भारत जैसे विविध सांस्कृतिक-धार्मिक धाराओं वाले देश में इसको यकायक लागू करना असंभव है। पिछले छह दशकों से यही हो रहा है कि जब भी यह मुद्दा उठता है तब कुछ ताकतें इसके विरोध में उतर आती हैं। संविधान लागू होने के बाद हिन्दू कोड बिल तो लाया गया लेकिन अन्य समुदायों से संबंधित पर्सनल लॉ में कहीं कोई बदलाव लाने की कोशिश नहीं की गई। एक हकीकत यह भी है कि इसी के साथ तुष्टिकरण की सियासत ने जन्म लिया। संविधान का अनुच्छेद 44 कहता है कि सरकार को सभी नागरिकों के लिए समान नागरिक कानून लागू करने का प्रयास करना चाहिए। यह व्यवस्था देश में बढ़ रही सांप्रदायिकता से मुकाबला करने में भी कारगर साबित हो सकती है। अब तक सभी के लिए समान कानून न होने से कुछ लोगों को दुप्रचार करने का मौका मिलता है कि सरकार धर्म के आधार पर पक्षपात कर रही है। समान नागरिक संहिता का होना इसलिए भी जरूरी है कि महिलाओं को शादी, तलाक और गुजारा भत्ता जैसे विषयों पर प्रगतिशील और आधुनिक कानूनों का लाभ मिल सके। यदि राजनीतिक दल वोट बैंक और तुष्टिकरण की सियासत का परित्याग करें तो सभी समुदायों की धार्मिक-सांस्कृतिक स्वतंत्रता का सम्मान करते हुए एक सर्वमान्य समान नागरिक संहिता का सपना साकार हो सकता है।

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