Monday 21 March 2016

किसकी बंसी पर नाचेंगे कन्हैया?

जेएनयू छात्र संघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार का नाम देश के काफी हिस्सों में पहुंच गया है। एक तरह से वह रातोंरात कुछ लोगों और नेताओं की नजरों में हीरो बन गए हैं जिनके चेहरे को भुनाया जा सकता है। खासतौर पर कांग्रेस और वामदल समझते हैं कि उनके विचारों को कन्हैया आगे बढ़ा सकता है। हमारे कामरेड भाई समझते हैं कि पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में कन्हैया का इस्तेमाल किया जा सकता है। वैसे भी उनकी नैया डूब रही है। कहावत है न डूबते को तिनके का सहारा। हालांकि युवाओं के बीच इस राजनीतिक अंगड़ाई की शुरुआत हैदराबाद विश्वविद्यालय में रोहित बेमुला की आत्महत्या की घटना से हुई थी पर आज युवाओं के एक हिस्से में बेमुला नहीं कन्हैया कुमार को वामदलों ने अपनी नर्सरी से ढूंढ निकाला। इसे आप चांस बाई मिस्टेक भी कह सकते हैं, क्योंकि नौ फरवरी का कार्यक्रम का आयोजन तो उमर खालिद ने किया, पर वामदलों ने कन्हैया को केंद्र में लाकर नायक बना दिया। इस बीच देशद्रोह की घटना को लेकर बवाल मचा रहा और जब 21 दिन बाद तिहाड़ जेल से कन्हैया छूटा तो अपने पहले भाषण में ही उसने नए तेवर दिखा दिए। इस बात को तवज्जो देने की अब इसलिए भी जरूरत है कि जेएनयू छात्र संघ चुनाव के दौरान प्रेसिडेंशियल डिबेट के दौरान वह बार-बार कहता रहा कि मेरी दुल्हन तो आजादी है, जो एक देश के बहुत बड़े तबके को पूंजीवादी ताकतों व उनके समर्थकों से दिलानी है। क्या लीडरशिप क्राइसिस से गुजर रही लेफ्ट के लिए जेएनयू में चल रहे विवाद को अगली पीढ़ी के लीडर मिल रहे हैं? इस उठापटक के बीच वामदलों को उम्मीद है कि उसकी लीडरशिप में कन्हैया सरीखे युवा नेता ताजगी लाएंगे जिसकी उसे सख्त दरकार थी। 2004 आम चुनाव में 60 सीट जीतने के साथ 2014 में मात्र 10 सीटों तक सिमट कर रहने वाली लेफ्ट अब जेएनयू की युवा पीढ़ी पर अपनी सारी उम्मीदें बांधे हुए है। लेफ्ट के बड़े घटकों की बात करें तो सीपीएम के जनरल सैकेटरी सीताराम येचुरी के हाथ में कुछ दिनों पहले ही नेतृत्व आया है। 63 वर्षीय येचुरी ने पद संभालने के बाद सबसे पहले पार्टी के इसी संकट पर बात की थी। मंथन हुआ कि पार्टी की विचारधारा के साथ किस तरह नए लोगों को जोड़ें और लीडरशिप में जगह दें। सीपीआई लीडर डी. राजा ने तो यहां तक कहा कि इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि किसी भी संगठन या राजनीतिक दल की मजबूती या आगे बढ़ने की ताकत युवाओं से ही है। उन्होंने कहा कि कन्हैया जैसे युवा आगे आकर पार्टी में सक्रिय योगदान देते हैं तो निश्चित तौर पर इसका सकारात्मक असर पड़ेगा। अगले महीने होने वाले पांच राज्यों के चुनाव में लेफ्ट के लिए सियासी अस्तित्व की लड़ाई सी है। हाल के वर्षों में राजनीतिक जमीन पर लेफ्ट अपनी प्रासंगिकता खोती जा रही है। ऐसे में इन पांच राज्यों के चुनाव में लेफ्ट के सामने खुद के राजनीतिक तौर पर एक बची ताकत रहने का साबित करने का सुनहरा मौका है। सवाल यह है कि कन्हैया क्या राजनीति में आएंगे और अगर आएंगे तो क्या वामदलों के साथ आएंगे? हो सकता है कि कन्हैया भी यह समझ रहे हों कि विधानसभा चुनाव में प्रचार के लिए जाना आसान फैसला नहीं है। जिन नेताओं ने उन्हें समर्थन दिया है वे एक हद के बाद अलग-अलग हैं। दिल्ली के सीएम केजरीवाल बिहार के सीएम नीतीश कुमार को तो पसंद हैं लेकिन पश्चिम बंगाल की सीएम ममता बनर्जी के भी सम्पर्प में रहते हैं। बंगाल में चुनाव हैं। लेफ्ट पार्टियां और कांग्रेस एक तरह से तालमेल बिठाकर बंगाल में ममता बनर्जी की पार्टी के खिलाफ चुनाव लड़ने की तैयारियों में हैं यानि लेफ्ट पार्टियां और जेडी, जेडीयू बंगाल में कांग्रेस के साथ खड़े हैं। केजरीवाल की दिक्कत यह है कि जहां राहुल गांधी या कांग्रेस है वहां जाकर कैसे खड़े हों? कहा जा रहा है कि कन्हैया के समर्थन में जब येचुरी, डी. राजा, आनंद शर्मा आदि नेता राहुल गांधी के साथ जेएनयू गए, केजरीवाल ने वहां आने का अपना कार्यक्रम इसलिए कैंसिल कर दिया था कि वहां राहुल भी हैं। बहरहाल इस हालत में कन्हैया को तय करना है कि किसके साथ, कहां खड़ा होंगे?

-अनिल नरेन्द्र

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