Saturday, 12 March 2016

कर्ज में डूबे माल्या हो गए उड़न-छू

हजारों करोड़ रुपए के डिफॉल्टर उद्योगपति विजय माल्या द्वारा तमाम चेतावनियों के बावजूद बैंकों का कर्ज न चुकाना जितना स्तब्ध करने वाला था, अब उनके चुपचाप देश छोड़कर भाग जाने की जानकारी उतनी ही हैरत भरी है। विजय माल्या का नाम जब भी जेहन में आता है तो एक ऐसे व्यक्ति की तस्वीर उभरती है जो भोगविलास को जीवन का अहम हिस्सा बना चुका है और हर तरह के भौतिक सुख भोगने में ही जीवन की सार्थकता मानता है। उसी माल्या के बारे में सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को बताया है कि वह कहां है, इसकी जानकारी नहीं है। भारतीय बैंकिंग के इतिहास में संभवत यह पहला उदाहरण है, जब पूरा तंत्र एक डिफॉल्टर के सामने लगभग विवश है। एक समय उद्योगपतियों और कारोबारियों का आइकॉन माने जाने वाले माल्या पारिभाषिक रूप से कंगाल हो चुके हैं। किन्तु हैरानी की बात तो यह है कि अभी तक बैंकों के बयानों, कदमों, आयकर विभाग, प्रवर्तन निदेशालय आदि से आ रहीं जानकारियां बता रही हैं कि उनके द्वारा कर्ज की किश्त न चुकाने के बावजूद बैंकों ने कर्ज देना जारी रखा। उनकी किंगफिशर एयरलाइंस पर ही 7800 करोड़ रुपए का कर्ज है। उन्हें कुल 9000 करोड़ रुपए का बकायादार माना जा रहा है। इस मामले में अहम सवाल है कि किंगफिशर एयरलाइंस को हजारों करोड़ रुपए का कर्ज मंजूर करने से पहले इन 17 बैंकों ने कंपनी की माली हालत और मुनाफे की संभावनाओं की गहन पड़ताल की जरूरत क्यों नहीं समझी? अगर सही ढंग से पड़ताल की गई थी तो पड़ताल करने वालों की जवाबदेही तय कर उनके विरुद्ध कार्रवाई सुनिश्चित करना आवश्यक है। जो बैंक दो-चार हजार रुपए के मामूली कर्ज के लिए भी गारंटिड या रेहन रखने के लिए कुछ सिक्यूरिटी मांगते हैं उनका हजारों करोड़ रुपए खैरात की तरह मंजूर कर देना कई प्रश्नों को जन्म देता है। एक तरफ Eिकगफिशर कंपनी दम तोड़ती रही, उसके कर्मचारी महीनों से बकाया वेतन को तरसते रहे तो दूसरी तरफ माल्या अपनी आलीशान नौकाओं में खूबसूरत मॉडलों के साथ फोटो खिंचवाते, मौजमस्ती करते नजर आते रहे। इस सबसे बैंक अधिकारी और उनके लेखापरीक्षक आंखें क्यों मूंदे रहे? कर्ज देने के नियम-कायदों का पालन नहीं हुआ यह साफ है। माल्या को इसके लिए राजनीतिक संरक्षण जरूर मिला हुआ था, बगैर राजनीतिक संरक्षण के इतना बड़ा कर्ज नहीं मिल सकता। बैंकों के निजीकरण के खिलाफ सबसे बड़ा तर्प यही दिया जाता था कि उनके कर्ताधर्ता अपने लोगों को कर्ज देते हैं, पर बैंकों के राष्ट्रीयकरण के साढ़े चार दशक बाद भी जब अपने लोगों को उपकृत करते हुए अर्थव्यवस्था को चूना लगाने का काम जारी है, तब सरकारी बैंकों के प्रबंधन में सुधार के बारे में सोचना ही होगा। सिर्प बैंकिंग व्यवस्था नहीं, विजय माल्या की फरारी बताती है कि ठीक इन्हीं परिस्थितियों में आईपीएल के पूर्व कमिश्नर ललित मोदी के विदेश भागने के प्रसंग से भी सरकार ने कोई सबक नहीं लिया। माल्या के विदेश चले जाने की आशंका के बावजूद ट्रिब्यूनल द्वारा भी आश्चर्यजनक रूप से मार्च के आखिर में इस मामले की सुनवाई की तारीख रखना भी प्रश्नचिन्ह लगाता है। किंग ऑफ गुड टाइम्स के अच्छे दिन तो बहुत पहले खत्म हो गए थे, पर जब तक माल्या को जानबूझ कर किए गए कारनामों के लिए पकड़ा और दंडित नहीं किया जाता, तब तक हमारी समूची व्यवस्था भी अपनी निक्रियता के शर्म से शायद ही उभर सके। अंत में सुब्रत राय और विजय माल्या की कहानी एक जैसी है। दोनों अपनी आलीशान और महंगी लाइफस्टाइल की वजह से चर्चा में रहे। स्पोर्ट्स, एविएशन और होटल कारोबार में दोनों की खासी दिलचस्पी। लेकिन दोनों के बिजनेस करने के तौर-तरीकों पर सवाल? दोनों ही बेहद महंगी पार्टियां देने, सिलेब्स का जमावड़ा करने और मेहमानों के लिए एयरलाइंस का इस्तेमाल करने के लिए चर्चित। फिलहाल दोनों का बुरा दौर चल रहा है। राय ने 1978 में सहारा की स्थापना की तो माल्या ने 1983 में यूबी ग्रुप संभाला। फर्प इतना ही है कि राय ने एनबीएफसी बिजनेस से दौलत कमाई तो माल्या ने शराब किंग का दर्जा हासिल किया। शराब पीने से बहुत को तबाह होते देखा है पर शराब बनाने वाले को पहली बार देख रहे हैं।

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