Saturday 10 June 2017

कट्टरवादी सुन्नी आतंकी संगठन आईएस का शिया ईरान पर हमला

ईरान में 38 साल पहले हुई 1979 की क्रांति के बाद बुधवार को पहली बार बड़ा आतंकी हमला हुआ। दुनिया के सबसे खूंखार माने जाने वाले कट्टर सुन्नी आतंकवादी संगठन इस्लामिक स्टेट ने बुधवार को एक साथ ईरान की संसद और अयातुल्लाह खोमैनी के मकबरे पर हमला बोलकर ईरान में भी अपनी उपस्थिति दर्ज करा दी। चार हमलावर फायरिंग करते हुए संसद में घुस गए। सुरक्षा बलों ने करीब एक घंटे के संघर्ष के बाद चारों को मार गिराया। जब संसद पर हमला हो रहा था तभी खोमैनी मकबरे में तीन अन्य आतंकियों ने हमला किया। एक महिला आतंकी ने कमर में बंधे विस्फोटक से खुद को उड़ा लिया। खोमैनी मेट्रो पर भी बड़ा धमाका हुआ। इन हमलों में 12 लोग मारे गए, 42 जख्मी हुए। दो आतंकियों को जिन्दा पकड़ लिया गया पर उनमें से एक ने सायनाइड खाकर जान दे दी। पहली बार अयातुल्ला खोमैनी के मकबरे को निशाना बनाया गया है। शिया धर्मगुरु आयतुल्ला खोमैनी ने ही 1979 की ईरान क्रांति का नेतृत्व किया था जिसमें ईरान से राजवंश खत्म हुआ था और शाह रजा पहलवी को देश छोड़ना पड़ा था। उसके बाद से ईरान में शिया सरकार है। बेशक ये हमले मैनचेस्टर और फिर लंदन ब्रिज पर हुए हमले के ठीक बाद हुए हैं, इसलिए इन्हें इस्लामिक स्टेट की बढ़ती विश्वव्यापी सक्रियता से भी जोड़कर देखा जाएगा, लेकिन ईरान में आतंकी हमले का इस्लामिक स्टेट के लिए एक अलग ही अर्थ है। यह ठीक है कि पश्चिमी देशों समेत दुनिया की कई ताकतें इस्लामिक स्टेट से लोहा लेने का दावा कर रही हैं लेकिन उसके खिलाफ सबसे ज्यादा सक्रिय ईरान ही है। एक तरफ वह सीरिया में असद की शिया सरकार को आईएस के खिलाफ लड़ाई में सीधा समर्थन दे रहा है तो दूसरी तरफ कहा जाता है कि उसने एक शिया मिलिशिया खड़ा कर दिया है। इस उग्रवादी संगठन का एक ही मकसद है इराक में शिया आबादी को सुरक्षा देना और आईएस के दांत खट्टे करते रहना। कतर को लेकर इन दिनों पश्चिमी एशिया में जो राजनीति चल रही है उसका तेहरान में बुधवार को हुए आतंकी हमले का भले ही कोई सीधा संबंध न हो, लेकिन ये दोनों चीजें मिलकर एक बात तो बताती हैं कि खाड़ी के देशों की समस्या लगातार उलझती और जटिल होती जा रही है। अमेरिका के राष्ट्रपति की हाल की सऊदी यात्रा में ईरान को कोसना भी इसी कड़ी से जुड़ता है। यह अजब इत्तेफाक है कि इधर ट्रंप ईरान को निशाना बनाते हैं और उधर इस्लामिक स्टेट ईरान पर आतंकी हमला कर देता है? कुछ समय पहले जब पश्चिमी देशों ने ईरान का बहिष्कार खत्म किया था तो एक उम्मीद बनी थी कि पुराने दुराग्रह खत्म होने से कई समीकरण बदलेंगे परन्तु ट्रंप के ताजा स्टैंड ने इन पर पानी फेर दिया। सऊदी अरब तो पहले से ही ईरान को अपनी राजशाही के लिए अव्वल दुश्मन मानता है और रही बात अमेरिका की दोहरी नीति की तो अमेरिका यह तय नहीं कर पा रहा उसकी पहली प्राथमिकता इस्लामिक स्टेट को खत्म करने की है या सीरिया की असद सरकार को सत्ता से बेदखल करने की। आज कटु सत्य यह है कि इस्लामिक स्टेट इस समय पूरी दुनिया के लिए खतरा बन चुका है। यह सोचना गलत है कि ईरान खुद इससे निपटे। आईएस को मदद कौन कर रहा है? यही अरब देश उसकी फंडिंग के सबसे बड़े स्रोत हैं। दुख इस बात का भी है कि कई इस्लामिक देश आईएस के खिलाफ खड़े होने की बजाय अपने-अपने चन्द निजी स्वार्थों के लिए एक-दूसरे के खिलाफ खड़े ज्यादा दिखाई दे रहे हैं। अगर पश्चिमी एशिया में एक तरफ ईरान और अमेरिका, दूसरी तरफ रूस और अमेरिका एक-दूसरे के खिलाफ खड़े दिखाई देते रहे, तो इससे सिर्फ इस्लामिक स्टेट को फायदा होगा और हो रहा है। शिया-सुन्नी लड़ाई तो हजारों साल पुरानी है, तेहरान में आतंकी हमला इसी का एक एक्सटेंशन है। वक्त का तकाजा है कि सभी देश मिलकर साझा रणनीति के साथ आईएस से टक्कर लें। और  जब तक यह नहीं होगा, न लंदन सुरक्षित है और न ही फ्रांस, जर्मनी व मध्य-पूर्व एशिया। इस हमले से ईरान जो अपनी कड़ी सुरक्षा पर गर्व करता था उसकी भी पोल खुल गई है।

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