Saturday 3 June 2017

अंतत कितना कारगर सिद्ध हुआ नोटबंदी का कदम?

जब 8 नवंबर 2016 को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 8.15 बजे नोटबंदी की घोषणा की तो सारे भारत में भूकंप सा आ गया। कुछ लोगों को लगा कि प्रधानमंत्री भारत व पाकिस्तान के कड़वे रिश्ते के बारे में बोलेंगे या शायद दोनों देशों के बीच में युद्ध का ऐलान ही न कर दें। लेकिन यह घोषणा तो कुछ लोगों के लिए युद्ध के ऐलान से भी ज्यादा घातक सिद्ध हुई। उनकी रातों की नींद उड़ गई, कुछ के होशोहवास उड़ गए और चारों तरफ अफरातफरी मच गई। अगले दिन से ही बैंक व एटीएम लोगों के स्थायी पता बन गए। लाइनें दिनों दिन बढ़ती हुईं आम जनता के लिए कष्टदायक साबित होने लगीं।  लंबी-लंबी कतारों की वजह से मौते भी हुईं। कभी बैंकों व एटीएम से पैसे निकालने की सीमा घटना व बढ़ाना व कभी पुराने रुपए को जमा करवाने के बारे में नियम में सख्ती करना तो कभी ढील देना। विपक्षी दल पूरी एकजुटता से सरकार के निर्णय को असफल व देश को पीछे ले जाने वाला सिद्ध करने में लग गए। लगभग पूरा विपक्ष सरकार के इस कदम के खिलाफ खड़ा हो गया। मोर्चे, प्रदर्शन, रोष यह आम बात हो गई। पूर्व प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह व कांग्र्रेस के अन्य नेताओं ने चेतावनी दी कि नोटबंदी का भारत की अर्थव्यवस्था पर बुरा असर होगा। डा. मनमोहन सिंह ने भविष्यवाणी कर दी कि देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में गिरावट आएगी और बेरोजगारी बढ़ेगी। दूसरी तरफ सरकार अपने इस निर्णय को सही साबित करने में लगी रही। कभी प्रधानमंत्री व कभी उनकी टीम लोगों को इस नोटबंदी के फायदे गिनाने में लगे रहे व कभी 50 दिन का समय मांगते नजर आए। लोगों के अंदर भी बहुत भाईचारा देखने को मिला। अमीर दोस्तों को उनके गरीब दोस्त याद आए। अमीर रिश्तेदारों ने अपने गरीब रिश्तेदारों के बैंकों में अपना काला धन जमा करवाना शुरू कर दिया। अमीर बेटे की गरीब मां के बैंक एकाउंट जो कि पिता की मौत के बाद मर चुका था अचानक जिंदा हो गया। ऐसा लगा मानो पूरी मानवता जिंदा हो गई। मीडिया वालों का भी बहुत शानदार रोल रहा। कुछ नोटबंदी पर सरकार के पक्ष में खड़े दिखाई दिए व कुछ (मेरे जैसे) विपक्ष में। कुछ न्यूज चैनलों को लोग लाइनों में मजे लेते दिखाई दिए तो दूसरी तरफ कुछ को मरते। कुछ चैनलों के अनुसार लगभग 100 लोगों ने लाइनों में खड़े होकर अपनी जान गंवाई। नोटबंदी की वजह से पुराने  जमाने में सफल बार्टर पद्धति फिर से कारगर सिद्ध हुई। लोगों ने बिना पैसे के भी दिन गुजारने सीख लिए। पहली बार अहसास हुआ कि जीवन कितनी कम जरूरतों से भी चल सकता है। यहां कुछ लोगों की बुद्धिमता भी देखने को मिली। उन्होंने अपने कालेधन को छिपाने के लिए नए-नए तरीके का आगाज किया जैसे गरीब दोस्तों व रिश्तेदारों के बैंक एकाउंट में पैसे डालना। मजदूरों को तीन-चार सौ रुपए देकर एटीएम व बैकों की लाइन में खड़ा करना। 20 से 30 प्रतिशत के लालच पर पुराने नोटों के बदले नए नोट प्राप्त करना। कुछ बैंक व डाक कर्मचारियों की अवैध सेवाएं लेना इत्यादि-इत्यादि।  सरकार का दावा है कि लगभग चार सौ करोड़ से साढ़े चार सौ करोड़ का काला धन बैंक में अपनी जगह बनाने में कामयाब रहा। 8 नवंबर 2016 को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कालेधन के खिलाफ नोटबंदी की घोषणा कर समानांतर अर्थव्यवस्था को ध्वस्त  करने के लिए सबसे बड़ा दांव खेला। इस आक्रामक अभियान का उद्देश्य कालाधन रखने वालों को सबक सिखाना और नशे के कारोबार तथा तस्करी, आतंकवाद की कमर तोड़ना और उग्रवाद की गतिविधियों के लिए अवैध लेन-देन इत्यादि गतिविधियों को समाप्त करना बताया गया।  देश के उज्ज्वल भविष्य के लिए बेशक प्रधानमंत्री का यह कदम निश्चित रूप से सराहनीय था पर क्या राष्ट्रfिहत के लिए उठाए गए इस कठोर कदम के बाद भारत में कालाधन व भ्रष्टाचार समाप्त हो गया? क्या आतंकवाद पर अंकुश लगा? क्या नक्सलवादी गतिविधियां कम हुईं? मेरे ख्याल से जितनी सुरक्षाकर्मियों की शहादत पिछले छह-आठ महीनों में हुई पहले कभी नहीं हुई थी। भ्रष्टाचार आज भी उतना ही है? रूप बेशक बदल गया हो। हमारी आशंकाएं कुछ हद तक सही साबित हुई हैं। देश की जीडीपी में वृद्धि  दर 2016-17 में गिरावट दर्ज की गई है। सरकार की ओर से जारी किए गए आंकड़े इसकी तस्दीक करते हैं। जीडीपी 2016-17 में घटकर 7.1 फीसदी पर आ गई है। कृषि क्षेत्र में काफी अच्छे प्रदर्शन के बावजूद वृद्धि दर नीचे आ गई है। नोटबंदी के बाद नोट बदलने के काम में 87 फीसदी नगद चलन से बाहर हो गए थे। नोटबंदी के तत्काल बाद की तिमाही जनवरी-मार्च में वृद्धि दर घटकर 6.1 फीसदी रही है। विश्लेषकों का मानना है कि पिछले साल नोटबंदी के चलते जीडीपी और अर्थव्यवस्था के अहम सेक्टरों में गिरावट आई है। केंद्र की ओर से बुधवार को जारी किए गए आंकड़ों के मुताबिक वित्त वर्ष 2016-17 में देश की ग्रोथ 7.10 प्रतिशत रही। 2015-16 की तुलना में यह 0.8 फीसदी की गिरावट है। बीते साल यह आकंड़ा 7.9 था। कोयला, कच्चा तेल व सीमेंट उत्पादन में गिरावट के चलते नए वित्त वर्ष में भी 8 बुनियादी उद्योगों की वृद्धि दर अप्रैल में घटकर 2.5 फीसदी रही। इन उद्योगों ने पिछले साल अप्रैल में 8.7 फीसद वृद्धि दर दर्ज की थी। इनमें उद्योग कोयला, कच्चा तेल, प्राकृतिक गैस, रिफाइनरी उत्पाद, उर्वरक, इस्पात, सीमेंट और बिजली शामिल हैं। मोदी सरकार के मंत्रियों को तीन साल पूरे करने के मौके पर बढ़-चढ़कर अपनी उपलब्धियां गिनवाते हुए देखा और सुना जा रहा है। पर देश के युवाओं को सबसे ज्यादा प्रभावित करने वाली बेरोजगारी पर कोई मंत्री अपना मुंह नहीं खोल रहा। नोटबंदी से जो बेरोजगारी बढ़ी वह सिलसिला थमता नजर नहीं आ रहा। यूपीए सरकार के दौरान 2011 में बेरोजगारी दर 3.8 फीसदी, 2012 में 4.7 फीसदी और 2013 में 4.9 फीसदी रही। केंद्रीय कार्मिक एवं प्रशिक्षण राज्यमंत्री जितेन्द्र सिंह ने 30 मार्च को लोकसभा में आंकड़े पेश करते हुए बताया कि रोजगार के मौके पैदा करने के मामले में मोदी सरकार अपने कार्यकाल के सबसे बुरे दौर से गुजर रही है। इन आंकड़ों के मुताबिक साल 2013 की तुलना में सीधी भर्तियों में 89 प्रतिशत कमी आई है। साल 2013 में केंद्र की सीधी भर्तियों में 1,54,841 लोगों को नौकरी मिली। साल 2014 में यह आकड़ा घटकर 1,26,261 रह गया और 2015 में महज 15,877 लोगों को केंद्र की सीधी भर्तियों में नौकरी मिल पाई। सबसे दुर्भाग्य की बात यह है कि इस दौरान अनुसूचित जाति, जनजाति और अन्य पिछड़ी जातियों को दी जाने वाली नौकरियों में 90 फीसदी तक कमी आई है। मैंने दोनों तस्वीरें पेश कर दी हैं, अब आप ही बताएं कि नोटबंदी का कदम कितना कारगर सिद्ध हुआ?  

-अनिल नरेन्द्र

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