Tuesday 6 June 2017

ट्रंप की दादागिरी से पर्यावरण संकट गहराएगा

अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के व्हाइट हाउस पहुंचने के बाद से ही दुनिया अमेरिका की भावी विदेश नीति को लेकर असमंजस में थी। एक तरफ सारी दुनिया विश्व पर्यावरण दिवस मना रहा है तो दूसरी तरफ ट्रंप ने पेरिस जलवायु समझौतों को ठुकरा कर यह प्रदर्शित किया कि अंतर्राष्ट्रीय मामलों में उन पर भरोसा करना ठीक नहीं है। डेढ़ साल पहले हुए पेरिस पर्यावरण समझौते ने यह आश्वासन दिया था कि दुनिया की सभी बड़ी ताकतें, यहां तक कि छोटे-छोटे देश भी तपती धरती पर राहत के छींटे डालने के लिए कमर कस रहे हैं। इस समझौते में एक तरफ अगर अमेरिका, चीन, यूरोपीय संघ व भारत जैसे देश थे तो दूसरी तरफ सीरिया और निकारगुआ जैसे देश भी। लेकिन अचानक ही अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने यह उम्मीद तोड़ दी। उन्होंने पेरिस पर्यावरण समझौते से अमेरिका को अलग करने की घोषणा कर दी है। उन्होंने समझौते से अलग होने की दलील दी कि समझौते से 2025 तक अमेरिका में 27 लाख नौकरियां चली जाएंगी। नौकरियां बचाने के लिए हमें इस समझौते से हटना होगा। अमेरिका के अलग होने की घोषणा से डेढ़ साल पुराने पर्यावरण समझौते पर ही आशंका के बादल नहीं मंडराए, बल्कि दो दशक से ज्यादा राजयनिक प्रयासों का वह सिलसिला भी खतरे में पड़ गया, जिसने ऐसे किसी समझौते तक पहुंचने के लिए ऐड़ी-चोटी का जोर लगा दिया था। जलवायु परिवर्तन को लेकर राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के संकीर्ण नजरिये का आंकलन अब सिर्फ आने वाली पीढ़ियां करेंगी, क्योंकि वही समुद्री जल स्तर के बढ़ने और गंभीर सूखे से प्रभावित होंगी। वैज्ञानिकों का कहना है कि यदि हमने जीवाश्म ईंधन से होने वाले उत्सर्जन को संजीदगी से नहीं थामा तो फिर हमें बाढ़ और सूखे से त्रस्त भविष्य के लिए तैयार रहना चाहिए। अलबत्ता अब यह पूरी तरह से साफ हो गया है कि राष्ट्रपति ट्रंप की नीतियां अमेरिका के मित्र राष्ट्रों के लिए काफी निराशाजनक हैं, अमेरिकी कारोबारी तबके के लिए छलावा है। महत्वपूर्ण उद्योगों में रोजगार सृजन व अमेरिकी प्रतिस्पर्द्धा के लिए बड़ा खतरा है और वैश्विक महत्व के मुद्दों पर अमेरिका के नेतृत्व संबंधी दावों को पलीता लगाने वाली है। अच्छी बात यह है कि अमेरिका को छोड़कर दुनिया के बाकी देश अभी भी अपने संकल्प पर कायम हैं। उन्हें अभी भी यकीन है कि वे धरती का बढ़ते तापमान में दो डिग्री सेल्सियस की कमी ले आएंगे। लेकिन इससे जलवायु परिवर्तन के दुप्रभाव से बचना इसलिए मुश्किल हो सकता है क्योंकि एक तो अमेरिका पर्यावरण के लिए हानिकारक गैसों के उत्सर्जन मामले में अग्रणी है और दूसरी ओर जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए जरूरी कदम उठाने में पहले ही देर हो चुकी है।

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