Wednesday 16 January 2019

नागरिकता विधेयक ऐतिहासिक मूल का सुधार है

गौरतलब है कि केंद्र सरकार की ओर से लोकसभा में पेश नागरिकता (संशोधन) विधेयक, 2016 पारित हो गया है, जिसमें अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश से अल्पसंख्यक यानि हिन्दू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई समुदाय के लोगों को भारत में 12 साल की जगह छह वर्ष निवास करने के बाद ही नागरिकता प्रदान की जा सकेगी। ऐसे लोगों के पास कोई उचित दस्तावेज नहीं होने पर भी उन्हें नागरिकता दी जा सकेगी। उधर राज्यसभा में शीतकालीन सत्र के आखिरी दिन बुधवार को यह बिल पारित नहीं हो सका। यह विधेयक एक दिन पहले लोकसभा ने पारित किया था। राज्यसभा में पेश किए जाने के बाद चर्चा शुरू होने से पहले ही विपक्षी सदस्यों ने हंगामा शुरू कर दिया और गृहमंत्री के बयान की मांग की। इसके बाद गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने विपक्ष की आशंकाओं को खारिज करते हुए कहा कि यह बिल अकेले असम या पूर्वोत्तर के राज्यों के लिए नहीं है, यह पूरे देश के लिए है। वहीं इस बिल के खिलाफ असम और पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों में विरोध प्रदर्शन तेज हो गए हैं। भाजपा की अगुवाई वाले गठबंधन से बाहर हो चुकी असम गण परिषद (अगप) के तीन मंत्रियों ने बुधवार को राज्य मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया। दरअसल लंबे समय से कुछ पड़ोसी देशों और खासतौर पर बांग्लादेश से अवैध प्रवासियों के भारत में आने का सिलसिला चलता रहा है। इस समस्या से निपटने के मद्देनजर असम में जो राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर तैयार किया गया, उसकी सूची में लगभग 40 लाख लोग आ गए। इतनी बड़ी तादाद अपने आपमें एक बड़ी समस्या है। हालांकि इस पर काफी सवाल उठे, लेकिन लोगों को अपनी नागरिकता को लेकर दावा करने और विवादों के निपटारे का मौका भी दिया गया। इससे इतर देखें तो सीमा पर ढिलाई की वजह से बहुत सारे लोग मौके का फायदा उठाकर भारत में दाखिल हो गए और आज भी अवैध प्रवासियों के रूप में रह रहे हैं। आज ऐसे हजारों लोग भारत के विभिन्न प्रांतों में अभिशप्त जिन्दगी जीने को मजबूर हैं। विभाजन के समय भारत की तरह पाकिस्तान और बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों के जानमाल की सुरक्षा की गारंटी दे दी गई होती तो यह नौबत न आती। लेकिन इन पड़ोसी देशों में जिस प्रकार गैर-मुस्लिमों का उत्पीड़न किया जाता रहा उसका नतीजा यह हुआ कि वहां से भारी संख्या में उनका भारत में पलायन हुआ। स्पष्ट है कि यह पलायन आर्थिक से ज्यादा धार्मिक कारणों से हुआ। केंद्र सरकार असम समझौते के मद्देनजर वहां के मूल निवासियों के राजनीतिक-सांस्कृतिक हितों की रक्षा के लिए कई कदम उठा रही है। इसके बाद वहां विरोध का कोई औचित्य नहीं है। लोकसभा में कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस जैसी पार्टियां विरोध में खड़ी हो गईं। इससे उम्मीद थी कि यह वोट बैंक की राजनीति से ऊपर उठकर इतिहास की मूल को दुरुस्त करने में सहायक होगी लेकिन इनका दृष्टिकोण निराशाजनक रहा।
-अनिल नरेन्द्र



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