Saturday, 30 November 2019

ओम प्रकाश चौटाला की रिहाई

दिल्ली हाई कोर्ट ने जूनियर बेसिक टीचर (जेबीटी) भर्ती घोटाले में 10 साल की सजा काट रहे हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री व इनेलो चीफ ओम प्रकाश चौटाला की रिहाई पर सुनवाई पूरी करते हुए फैसला सुरक्षित रखा लिया है। जस्टिस मनमोहन और जस्टिस संगीता ढींगरा सहगल की बैंच ने सभी दलीलें सुनने के बाद फैसले को सुरक्षित रखा है। हाई कोर्ट बैंच सप्ताह में किसी भी दिन अपना फैसला सुना सकती है। सन 2018 में केंद्र सरकार ने एक नया नियम बनाया था कि 60 साल या उससे अधिक उम्र के ऐसे पुरुष कैदियों जिन्होंने अपनी सजा पूरी कर ली है, उन्हें विशेष योजना के तहत रिहा किया जाएगा। पूर्व सीएम ओम प्रकाश चौटाला ने दिल्ली हाई कोर्ट में इसी का आधार लेकर याचिका दायर की थी कि उनकी सजा सात साल पूरी हो चुकी है और उनकी उम्र भी 84 साल है। ऐसे में उनकी सजा बाकी माफ करने के लिए ही उन्होंने हाई कोर्ट में गुहार लगाई। बता दें कि नवम्बर 1999 में हरियाणा में 3206 शिक्षक पदों का विज्ञापन जारी हुआ। अप्रैल 2000 में रजनी शेखर सिब्बल को प्राथमिक शिक्षा निदेशक नियुक्त किया गया। जुलाई 2000 में रजनी शेखर को पद से हटाकर संजीव कुमार को निदेशक बनाया गया। दिसम्बर 2000 में भर्ती प्रक्रिया पूरी हुई और 18 जिलों में जेबीटी शिक्षक नियुक्त हुए। जून 2003 में संजीव कुमार इस मामले में धांधली होने का हवाला देकर मामले को सुप्रीम कोर्ट में ले गए। नवम्बर 2003 में सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई को जांच करने का आदेश दिया। मई 2004 में सीबीआई ने जांच शुरू की। फरवरी 2005 में संजीव कुमार से पूछताछ हुई। जून 2008 में सीबीआई की स्पेशल कोर्ट में चार्जशीट दाखिल की गई। जुलाई 2011 में सभी आरोपियों के खिलाफ चार्ज फ्रेम कर दिए गए। दिसम्बर 2012 में केस की सुनवाई पूरी हुई। 16 जनवरी 2013 को ओम प्रकाश चौटाला और उनके पुत्र अजय चौटाला समेत 55 दोषी करार दिए गए। 22 जनवरी 2013 को 10-10 साल की सजा सुनाई गई। तब से तिहाड़ जेल में ओम प्रकाश चौटाला सजा काट रहे हैं। न्यायाधीश मनमोहन और संगीता सहगल की पीठ में मंगलवार को मामले की सुनवाई हुई, जिसमें ओम प्रकाश चौटाला के वकीलों ने दलील रखी कि उन्हें नियमों के तहत छूट मिले, उनकी बढ़ती उम्र और विकलांगता को भी ध्यान में रखा जाए। वहीं दिल्ली सरकार की तरफ से तर्प दिया गया कि यह भ्रष्टाचार का मामला है इसलिए इन्हें कोई रियायत नहीं मिलनी चाहिए। दोनों पक्षों की दलील सुनने के बाद कोर्ट ने फैसला सुरक्षित रख लिया है। हालांकि उम्मीद है कि एक सप्ताह के अंदर अदालत फैसला सुना देगी, जिसके बाद स्पष्ट हो जाएगा कि ओम प्रकाश चौटाला जेल से रिहा होंगे या उन्हें शेष बची सजा भी काटनी पड़ेगी। 3206 जेबीटी शिक्षकों की भर्ती घोटाला तत्कालीन प्राथमिक शिक्षा निदेशक संजीव कुमार ने उजागर किया था। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में इसके खिलाफ याचिका भी दायर की। हालांकि बाद में इस मामले में संजीव कुमार को भी शामिल पाया गया था। सीबीआई के अनुसार संजीव भी इस घोटाले में भागीदार थे।

-अनिल नरेन्द्र

बाजवा को सुप्रीम कोर्ट के नोटिस से पाकिस्तान में बवाल

पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट ने मौजूदा सेना प्रमुख जनरल कमर जावेद बाजवा के कार्यकाल विस्तार से जुड़े एक अहम मामले की मंगलवार को सुनवाई की। मंगलवार को बाजवा की सेवा विस्तार अधिसूचना पर रोक लगा दी। इसका फैसला आने से पूरे पाकिस्तान में बवाल मच गया और आपातकाल के आसार बन गए हैं। इस मामले में पाक शीर्ष अदालत का फैसला जनरल बाजवा को और तीन साल इस पद पर रहने से रोक सकता है। प्रधानमंत्री इमरान खान ने 19 अगस्त को एक आधिकारिक अधिसूचना के जरिये जनरल बाजवा को तीन साल का कार्यकाल विस्तार दिया था। इसके पीछे उन्होंने क्षेत्रीय सुरक्षा माहौल का हवाला दिया था। जनरल बाजवा का मूल कार्यकाल 29 नवम्बर को समाप्त हेने वाला है। पाकिस्तान सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश आसिफ सईद खान खोसा की अध्यक्षता वाली तीन न्यायाधीशों की एक पीठ ने मंगलवार को कहा कि अब भी वक्त है। सरकार को अपने कदम वापस लेने चाहिए और यह सोचना चाहिए कि वह क्या कर रही है? वह एक उच्चपदस्थ अधिकारी के साथ कुछ इस तरह की चीज नहीं कर सकती। बहरहाल न्यायालय ने मामले की सुनवाई दो दिन के लिए स्थगित कर दी। प्रधान न्यायाधीश आसिफ सईद खान खोसा ने पाक सेना प्रमुख को एक शटलकॉक के रूप में तब्दील कर देने को लेकर पाक अटॉर्नी जनरल को फटकर लगाई। साथ ही इमरान सरकार ने कहा कि वह जो कुछ कर रही है, उसे फिर से विचार करे। सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर कानून मंत्री फारुख नसीम को इमरान खान की नाराजगी झेलनी पड़ी है। कैबिनेट की बैठक में इमरान कानून मंत्री पर जमकर बरसे। इसके बाद कानून मंत्री ने इस्तीफा दे दिया। इमरान इस बात से नाराज थे कि मामले में कानून मंत्रालय क्या कर रहा था। हालांकि इसी बुधवार को कोर्ट में पेश हुए और जनरल बाजवा के सेवा विस्तार के मामले में सरकार का पक्ष रखा। इमरान मंत्रिमंडल में शामिल 25 सदस्यों में केवल 11 ने सेना प्रमुख बाजवा के कार्यकाल के विस्तार के पक्ष में मतदान दिया था, इसे बहुमत का फैसला नहीं कहा जा सकता है। जनरल बाजवा को 29 नवम्बर 2016 को पाकिस्तानी सेना के 16वें सेनाध्यक्ष के रूप में नियुक्त किया गया था। सुप्रीम कोर्ट का यूं पाकिस्तान सेना प्रमुख के मामले में यह फैसला देना देश में खासकर पाक सेना में रिएक्शन हो सकता है। आने वाले दिनों में शायद तस्वीर और साफ हो। यह बहुत बड़ा कदम है, ऐसा पाकिस्तान में कम ही देखने को मिलता है। फिलहाल पाक सुप्रीम कोर्ट ने जनरल बाजवा को छह महीने का सेवा विस्तार देने पर सहमति भर ली है।

भाजपा ने वर्षों की कमाई को एक मिनट में गंवा दिया

महाराष्ट्र में मिली मात के बाद भाजपा में बवाल हो गया है। पार्टी के कई वरिष्ठ नेता अजित पवार से हाथ मिलाने के फैसले के खिलाफ खड़े हो गए हैं। भारतीय जनता पार्टी के नेता और महाराष्ट्र के पूर्व मंत्री एकनाथ खडसे ने अजित पवार के साथ हाथ मिलाने को लेकर भाजपा हाई कमान और पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस पर निशाना साधते हुए कहा कि जो हमने जिंदगी भर कमाया था, पारदर्शिता, भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ते हैं, अजित दादा पवार के साथ हाथ मिलाकर हमारी पार्टी ने सब गंवा दिया। खडसे ने कहा कि मैंने जिंदगी के 42 साल पार्टी के लिए काम किया है। पार्टी बड़ी हो इसके लिए कठिन समय में भी काम किया, जब अच्छा समय आया तो मुझे टिकट नहीं दिया गया इसका दुख हुआ और रहेगा भी। पर मैं रहूं न रहूं, मेरी सरकार आनी चाहिए थी। एकनाथ खडसे ने विधानसभा चुनाव के दौरान उनकी पार्टी के उम्मीद से खराब प्रदर्शन को लेकर देवेंद्र फड़नवीस पर भी निशाना साधा। उन्होंने कहा कि चुनाव प्रचार के दौरान हमारे मुख्यमंत्री कहते थे कि गठबंधन को 220 से ज्यादा सीटें आएंगी, लेकिन मिली 160। उन्होंने कहा कि जनता ने चुनाव के दौरान और चुनाव के बाद जो कुछ देखा है उसका अर्थ जनता जरूर निकालेगी। खडसे ने हाई कमान और देवेंद्र फड़नवीस पर हमला बोलते हुए कहा कि अगर पार्टी के सभी वरिष्ठ नेताओं को साथ लेकर चुनाव ल़ड़ा होता तो 25 सीटें ज्यादा आतीं और आज यह दिन न देखना पड़ता। गौरतलब है कि चुनाव में पार्टी ने खडसे का टिकट काटकर उनकी जगह बेटी रोहिणी खडसे को टिकट दिया था, लेकिन वह भी अपनी सीट नहीं बचा पाई थीं। खडसे ने कहा कि अगर मुझे, विनोद तावड़े और चंद्रकांत बावनफुले को लेकर भाजपा चुनाव लड़ती तो 25 सीटें ज्यादा आतीं। वास्तव में ऐसे फैसले किसी व्यक्ति की गलती का नतीजा होते हैं। कोई संगठन गलत नहीं होता। खडसे ने कहा कि उन्होंने गठबंधन में तमाम वरिष्ठ नेताओं से पूछा कि आखिर क्या कारण है कि राज्य के सीनियर नेताओं का टिकट चुनाव में कट गया? अब यह दुर्भाग्य की बात है कि महायुति को बहुमत मिलने के बाद भी उसकी सरकार नहीं बनी। फड़नवीस द्वारा अजित पवार के साथ मिलकर सरकार बनाने की कोशिशों को गलत फैसला बताया। कहा, जिस सिंचाई घोटाले में अजित का नाम है उससे जुड़े कागज तो हमने बैलगाड़ियों में भरकर रद्दी में बेच दिए क्योंकि उन दिनों रद्दी का भाव ज्यादा था। महाराष्ट्र में भाजपा सरकार गिरते ही पार्टी के अंदर ब्लेम-गेम शुरू हो गया है। खडसे ने जो आरोप आज पार्टी हाई कमान व पूर्व मुख्यमंत्री पर लगाए हैं, अधिकतर वरिष्ठ पार्टी नेताओं और कार्यकर्ता पूछ रहे हैं। देवेंद्र फड़नवीस ने अजित पवार को क्यों समर्थन दिया, यह सही था या गलत उन्होंने जवाब में कहा कि मैं सही समय पर जवाब दूंगा। लेकिन भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने कहा कि विधायक दल का नेता होने के कारण भाजपा उन (अजित) पर भरोसा किया था। शाह ने एक चैनल से कहा कि जनादेश को धत्ता बताकर धुर विरोधी विचारधारा वाले राजनीतिक दल सिर्प सत्ता हासिल करने के लिए साथ आए हैं। मुख्यमंत्री पद का लालच देकर समर्थन लेना खरीद-फरोख्त नहीं है क्या? मूल प्रश्न का जवाब उन्होंने यह भी फिलहाल टाल दिया।

Friday, 29 November 2019

मोदी मैजिक धीरे-धीरे ढलता जा रहा है

2014 में जो मोदी मैजिक पूरे देश में धूम मचा रहा था वह अब ढलता नजर आ रहा है। मोदी-शाह की जोड़ी को चाणक्य जोड़ी कहा जाता था जिसे हराना अगर असंभव नहीं था तो अत्यंत मुश्किल जरूर कहा जाता था। एक के बाद एक राज्य भाजपा की झोली में चला आता रहा। भाजपा के हाथ से महाराष्ट्र के रूप में एक और राज्य का निकलना साधारण बात नहीं है। महाराष्ट्र देश की आर्थिक राजधानी है। देश के बड़े-बड़े उद्योगपति यहां से आते हैं। फंडिंग का यह सबसे बड़ा राज्य है और यह भाजपा के हाथ से निकल जाए यह पार्टी, मोदी-शाह के लिए बहुत बड़ा आघात है। एक और राज्य भाजपा के हाथ से निकल गया है। स्थिति यह है कि पिछले साल के मुकाबले देश के कई राज्य भाजपा के हाथों से निकल चुके हैं। राजस्थान, मध्यप्रदेश, पंजाब और छत्तीसगढ़ में सरकार गंवाने के बाद अब एक और बड़े सूबे महाराष्ट्र से भी भगवा रंग उतर गया है। कांग्रेस मुक्त भारत का अभियान टांय-टांय फिस नजर होता जा रहा है। अगर ऐसा ही चलता रहा तो लोग कहने लगेंगे कि भाजपा मुक्त भारत। मार्च 2018 की बात करें तो उस दौरान भाजपा देश के कुल 21 राज्यों में शासन कर रही थी और देशभर में ही एक तरह से मोदी लहर की स्थिति थी। फिर 2019 आया और भाजपा ने लोकसभा चुनाव में 2014 से भी बड़ी जीत हासिल की। लेकिन उससे पहले कई राज्यों में वह सत्ता गंवा चुकी थी और फिर उसके बाद यह सिलसिला जारी रहा। राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश जैसे राज्यों में दिसम्बर 2018 में सत्ता गंवाने के बाद अब महाराष्ट्र भी उसके हाथ से फिसल गया है। जबकि हरियाणा में भी वह अपने दम-खम पर सत्ता में नहीं आ सकी और उसे जेजेपी की बैसाखी का सहारा लेना पड़ा। बीते साल जम्मू-कश्मीर से लेकर आंध्र प्रदेश और अरुणाचल प्रदेश तक में शासन करने वाली भाजपा देश के राजनीतिक नक्शे पर तेजी से सिमटी है। मौजूदा स्थिति की बात करें तो उत्तर प्रदेश का एकमात्र ऐसा बड़ा राज्य है, जहां वह अपने दम पर शासन कर रही है। इस मामले में भाजपा का थिंक टैंक खामोश है लेकिन उसके प्रवक्ता को चैनलों पर भी इसका जवाब नहीं मिल रहा क्योंकि यह चैनल इस पर खामोश हैं। महाराष्ट्र परिणामों का आने वाले राज्यों के चुनावों पर भी असर पड़ेगा। झारखंड में चुनाव जल्द होने वाले हैं। संभावना तो इस बात की है कि यहां भी भाजपा अपने दम पर सत्ता में नहीं आ सकेगी। फिर उसके बाद दिल्ली विधानसभा का चुनाव आएगा। दिल्ली में भाजपा बुरी तरह बिखरी हुई है और अरविन्द केजरीवाल और उनकी आम आदमी पार्टी (आप) को हराना असंभव नहीं तो मुश्किल जरूर है। महाराष्ट्र का चुनाव परिणाम भारतीय राजनीति में गेमचेंजर बन सकता है।
-अनिल नरेन्द्र

बाला साहेब ठाकरे का सपना साकार हुआ

शिवसेना सुप्रीमो उद्धव ठाकरे ने बृहस्पतिवार शाम महाराष्ट्र के 18वें मुख्यमंत्री पद की शपथ ग्रहण की। कैबिनेट विस्तार अब तीन दिसम्बर को विश्वास मत हासिल होने के बाद होने की संभावना है। वहीं उद्धव ठाकरे ने शपथ ग्रहण में शामिल होने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी न्यौता भेजा था। प्रधानमंत्री ने खुद उद्धव को फोन कर बधाई दी है। सूत्रों ने कहा कि उद्धव ठाकरे पांच साल के लिए महाराष्ट्र की कमान संभालेंगे। अगर ऐसा हुआ तो अब तक पर्दे के पीछे तक से समय-समय पर राज्य की सत्ता में सहयोग दे रहे ठाकरे परिवार से मुख्यमंत्री बनने वाले उद्धव ठाकरे पहले शख्स होंगे। इससे पहले ठाकरे परिवार रिमोट कंट्रोल वाली राजनीति करता रहा है। उद्धव चुनाव के बाद से ही शिवसेना के लिए मुख्यमंत्री पद की जिद पर अड़े थे। उनका कहना था कि उन्होंने पिता बाला साहेब ठाकरे को शिवसेना का मुख्यमंत्री बनाने का वचन दिया था। चुनाव में उन्होंने बेटे आदित्य ठाकरे को पार्टी का मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया था। तब किसी को पता नहीं था कि राजनीति के ऊंट की करवट उद्धव को ही मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठा देगा। सूत्रों के अनुसार उद्धव के साथ दो उपमुख्यमंत्री भी शपथ ले सकते हैं। अगर ऐसा हुआ तो कांग्रेस की तरफ से बाला साहेब थोराट और एनसीपी की तरफ से जयंत पाटिल हो सकते हैं। बैठक में महाविकास अघाड़ी की घोषणा के बाद एनसीपी विधायक दल के नेता पाटिल ने कहा कि एनसीपी प्रमुख शरद पवार के आदेशानुसार वह नेतृत्व के लिए उद्धव ठाकरे का नाम घोषित कर रहे हैं। इसका सभी ने आम सहमति से स्वागत किया। पाटिल ने कहा कि महाराष्ट्र में सबसे कम समय मुख्यमंत्री का रिकॉर्ड देवेंद्र फड़नवीस के नाम है। लगातार सवाल उठ रहा है कि सरकार आखिर कब तक टिकेगी? जवाब यह है कि हमने न्यूनतम साझा कार्यक्रम तय किया है। उस पर चलते हुए गठबंधन पांच साल नहीं बल्कि 15 साल चलेगा। वहीं पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस ने इस्तीफे से पहले कहा कि तीन पहियों की सरकार ज्यादा दिन तक नहीं टिकेगी। इनकी दिशा व विचारधारा अलग हैं। शिवसेना सत्ता के लिए लाचार हो गई है। सोनिया गांधी के नाम की शपथ ले ली। जो लोग मातोश्री से बाहर नहीं निकलते थे, वह दूसरों की सीढ़ियां चढ़ने लगे हैं। इधर उद्धव ठाकरे के बेटे आदित्य ठाकरे बुधवार को दिल्ली आकर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी व पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह से मिले और उन्हें पिता उद्धव ठाकरे के शपथ ग्रहण में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया। उद्धव ठाकरे के शपथ ग्रहण समारोह मे कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी, पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल और द्रमुक नेता एमके स्टालिन को आमंत्रित किया गया है। शिवसेना नेता एक नाथ शिंदे ने मुंबई में कहा कि शपथ ग्रहण समारोह में हमें उम्मीद है कि कांग्रेस के कुछ अन्य नेता भी कार्यक्रम में शिरकत करेंगे। कांग्रेस शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों को भी आमंत्रित किया गया है। बाला साहेब ठाकरे का सपना साकार हुआ।

Wednesday, 27 November 2019

हांगकांग छात्र डटे बीजिंग के सामने

छह महीने से अशांत चल रहे हांगकांग शहर में तनाव थमने का नाम ही नहीं ले रहा है। अब एक विश्वविद्यालय जंग का मैदान बन गया है। विश्वविद्यालय में एकत्रित लोकतंत्र समर्थक पदर्शनकारियों ने पुलिस को भीतर आने से रोकने के लिए परिषद के मुख्यद्वार पर आग लगा दी। इसके बाद पुलिस ने चेतावनी दी कि इस पदर्शन को रोकने के लिए पुलिस खुलेआम फायरिंग कर सकती है। घायल होने या मारे जाने का भय भी लोकतंत्र समर्थकों के समूहों को शांत करने  में भी सफल नहीं हो रहा है। विरोधियों की पाथमिक मांग को सरकार ने पांच महीने पहले ही मान लिया था। और उस विवादित विधेयक को वापस ले लिया था। इसके बावजूद विरोध के स्तर मजबूत हैं और पदर्शन खत्म होने का नाम नहीं ले रहे हैं। विरोध की यह भावना जहां साहसिक और दिलचस्प है वहीं यह त्रासद भी साबित हो सकती है। बीजिंग पदर्शनकारियों की मुख्य मांग (लोकतांत्रिक चुनाव) के आगे घुटने नहीं टेकेगी। चीन ने चेताया है कि वह सरकार के खिलाफ असंतोष बर्दाश्त नहीं करेगा। बीजिंग सीधे अशांति को खत्म करने के लिए हस्तक्षेप कर सकता है। चीन के राष्ट्रपति सी जिन पिंग ने इस हफ्ते संकट पर तीखी पकिया जताते हुए कहा कि इससे एक देश, दो व्यवस्था को खतरा है। 1997 में ब्रिटेन द्वारा हांगकांग को चीन के हवाले किए जाने के बाद यहां इसी पारूप के तहत शासन चल रहा है। ऐसे में खूनी परिणाम की आशंका बढ़ती जा रही है। चीन ने जबसे कानून लागू करने की कोशिश की है तब से हांगकांग थम-सा गया है। जब यह कानून लागू हो रहा था तब लाखों लोग सड़कों पर उतर आए थे। चीन सरकार कुछ नरम पड़ गई, लेकिन अपनी सफलता स्वीकार करने की बजाए लोगें की मांग उलटा पड़ गई। पदर्शनकारियों ने यह मांग भी की है कि पदर्शन के दौरान पुलिस द्वारा किए गए व्यवहार की स्वतंत्र जांच हो। हांगकांग में लोकतांत्रिक चुनाव हों। यह मांग ऐसी है जिसे पूरा करना शायद चीन के लिए मुमकिन न हो। हाल के दिनों में पदर्शन और संघर्ष का जोर यूनिवर्सिटी में बढ़ गया है। इस महीने की शुरुआत में पुलिस की कार्रवाई में घायल एक छात्र की मौत के बाद संघर्ष और भड़क गया है। पुलिस हांगकांग की नामचीन यूनिवर्सिटी में पदर्शनकारियों की धर पकड़ कर रही है। यूनिवर्सिटी में हो रहे विरोध के संकेत स्पष्ट हैं। अधिकारियों और बीजिंग ने शहर के नागरिकों का विश्वास खो दिया है। पदर्शनकारी अपने संघर्ष को वर्ष 1989 में हुए लोकतंत्र समर्थक संघर्ष के समकक्ष मान रहे हैं, जिसके कारण  वहां नरसंहार हुआ था। उस नरसंहार का भय भी पदर्शनकारियों को रोक नहीं पा रहा है। हालांकि पदर्शनकारियों को समझौते के लिए
कोशिश करते रहना चाहिए। समझौते की जरूरत दिन-पतिदिन बढ़ती जा रही है।

-अनिल नरेन्द्र

महाराष्ट्र को लेकर सुपीम कोर्ट का दूरगामी ऐतिहासिक फैसला

मंगलवार को संविधान दिवस था। माननीय सुपीम कोर्ट ने इस ऐतिहासिक दिन एक ऐतिहासिक फैसला दिया। अदालत ने महाराष्ट्र में देवेन्द्र फडणवीस ने जिस ढंग से सरकार बनाने का पयास किया और जिस ढंग से राज्यपाल ने उन्हें शक्ति परीक्षण के लिए लंबा समय दिया। उसे सुपीम कोर्ट ने पलट कर भारतीय संविधान की रक्षा ही की है। मंगलवार सुबह सुपीम कोर्ट ने जब सदन को शक्ति परीक्षण का आदेश दिया, शायद उसके बहुत पहले ही महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडणवीस को यह समझ आ गया था कि उनके लिए नई सरकार के अपने अफसाने को किसी अंजाम तक पहुंचाना अब मुमकिन नहीं है। इसलिए उन्होंने इस्तीफा देने में ही खैर समझी। शपथ लेने के महज 80 घंटे बाद ही जब वह संवाददाता सम्मेलन में अपने इस्तीफे की घोषणा कर रहे थे, तो उनके उपमुख्यमंत्री अजित पवार उससे पहले ही इस्तीफा देकर एक बार फिर पाला बदल चुके थे। महाराष्ट्र में सरकार बनाने को लेकर महीने भर से जिस तरह की जोड़-तोड़ और गठबंधन वाली गतिविधियां चल रही थीं उन पर मंगलवार को सुपीम कोर्ट के फैसले के बाद अब विराम लग गया है।  सुपीम कोर्ट की बैंच ने सारे विरोधों को दरकिनार कर 27 नवम्बर को फ्लोर टेस्ट का आदेश दिया था। कोर्ट ने साफ कहा कि विधायकों की शपथ के बाद तुरंत फ्लोर टेस्ट होना चाहिए। इसके साथ ही अदालत ने कहा कि फिलहाल यह अंतरिम आदेश है। इसका अर्थ यह है कि आने वाले दिनों में भी सुपीम कोर्ट में इस मसले पर सुनवाई हो सकती है। कोर्ट ने विश्वास मत के पस्ताव पर कही ये बातें ः स्पीकर का चुनाव नहीं होगा। आमतौर पर सबसे वरिष्ठ विधायक ही पोटेम  स्पीकर होता है। शाम को 5 बजे तक फ्लोर टेस्ट पूरा हो जाना चाहिए। विधायकों की शपथ के तुरंत बाद बहुमत परीक्षण हो। इस फ्लोर टेस्ट का लाइव पसारण होगा। गुप्त मतदान नहीं होगा। सीकेट वैलेट से मतदान कराने से इंकार कर सुपीम कोर्ट ने वोटिंग की पकिया को पारदर्शी रखने की पहल का स्वागत किया। कोर्ट ने इन शर्तों को रखने के अलावा महाराष्ट्र के मौजूदा राजनीतिक हालात और विधायकों को  लेकर मची खींचतान पर भी कड़ी टिप्पणी की। जस्टिस एनवी रमण की अध्यक्षता वाली बैंच ने कहा कि एक महीने से ज्यादा वक्त बीत चुका है और विधायकों ने अभी शपथ तक नहीं ली है। कोर्ट ने कहा कि सरकार बनाने के लिए विधायकों की खरीद-फरोख्त न हो, इसके लिए जरूरी है कि अंतरिम आदेश दिया जाए। यही नहीं कोर्ट ने कहा कि विधायकों और न्यायपालिका के अलग-अलग क्षेत्रों का सम्मान किया जाना चाहिए। अदालतों को आखिरी विकल्प के तौर पर ही दखल देना चाहिए। महाराष्ट्र भी एक ऐसा ही मामला है। महाराष्ट्र में जो हुआ वह दर्शाता है कि वह फैसला आखिर में सुपीम कोर्ट में हो यह सूरत किसी भी तरह से ठीक नहीं है। सबसे जरूरी यह सोचना होगा कि सरकार बनाने की पकिया को किस तरह पारदर्शी बनाया जाए ताकि यह सवाल बार-बार न उठे। भारत की राजनीति में ऐसा पहले शायद ही हुआ हो जब विधानसभा चुनाव के बाद सरकार बनाने के लिए किसी राज्य में राजनीतिक दलों ने सारी नैतिकता और मर्यादाओं, परम्पराओं को तार-तार करते हुए विचारधाराओं तक को ताक पर रख दिया और जनादेश का सम्मान नहीं किया। मंगलवार को सुपीम कोर्ट ने अपने फैसले में साफ-साफ कहा कि विश्वासमत हासिल करने में जितनी देरी होगी उतनी ही विधायकों की खरीद-फरोख्त की आशंका बढ़ेगी, इसलिए बुधवार शाम तक मुख्यमंत्री सदन में विश्वास मत हासिल करें। मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री दोनों ही हकीकत से अच्छी तरह वाकिफ थे कि उनके पास बहुमत है या नहीं और बुधवार शाम तक वह इसका जुगाड़ कर भी नहीं पाएंगे। इसलिए उन्होंने पहले ही इस्तीफा देने में अपनी भलाई समझी। सत्ता हासिल करने के लिए महाराष्ट्र में जिस तरह का खेल चला, वह राजनीति में अवसरवाद और सौदेबाजी की नई मिसाल है। महाराष्ट्र मामले में सुपीम कोर्ट का फैसला राज्यपाल के विवेक और भूमिका पर भी पश्नचिह्न लगता है। इस पूरे घटनाकम में महाराष्ट्र के राज्यपाल ने भाजपा की हर तरह से सरकार बनाने का पयास किया। उसकी जितनी निंदा की जाए उतनी कम है। इस मसले पर राष्ट्रपति, पधानमंत्री के साथ राज्यपाल के मंसूबों पर भी पश्नचिह्न लगता है। सुपीम कोर्ट ने न केवल महाराष्ट्र में लोकतंत्र की रक्षा की बल्कि संविधान दिवस पर ऐसा फैसला दिया है जो भविष्य में भी सही मार्गदर्शन करेगा।

अजीत पवार हीरो या विलेन?

सत्ता का लालच ऐसा होता है कि राजनीति में केवल स्याही हित होता है, शुभ या मित्र नहीं। महाराष्ट्र का ड्रामा यह साबित करता है। सत्ता की खातिर सुबह के अखबार की यह सुर्खियों की स्याही अभी सूखी ही नहीं थी कि उद्धव ठाकरे शिवसेना, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और कांग्रेस पार्टी गठबंधन के मुख्यमंत्री बनेंगे कि सुबह आठ बजे पता चला कि तड़के ही राष्ट्रपति शासन हटा लिया गया है और देवेंद्र फड़नवीस मुख्यमंत्री और अजीत पवार उपमुख्यमंत्री बन गए हैं। इस अचानक रातोंरात खेल पर कई सवाल उठने स्वाभाविक ही थे। ऐसी जल्दबाजी आखिर क्या थी कि प्रधानमंत्री को राज्यपाल भगत सिंह कोशियारी की रिपोर्ट पर फैसला लेने के लिए बिना कैबिनेट बैठक के अपने विशेषाधिकार का इस्तेमाल करना पड़ा? जाहिर है कि इस विशेषाधिकार की व्यवस्था किसी बेहद आपातकाल के लिए की गई है। इसके पहले इसका सबसे चर्चित इस्तेमाल इमरजैंसी लगाने के लिए इंदिरा गांधी ने किया था। फिर राज्यपाल महोदय को बिना पर्याप्त जांच के ऐसी कौन-सी जल्दी थी फड़नवीस और अजीत पवार को शपथ दिलाने की? सरकार बनाने के लिए तो छह महीने का समय था। हालांकि भाजपा और फड़नवीस तथा अजीत पवार के उस दावे पर भी सवाल खड़े हो गए हैं कि राकांपा के 54 विधायक वाकई ही उनके साथ हैं? इस पूरे घटनाक्रम में सबसे अहम रोल राकांपा प्रमुख शरद पवार और उनके भतीजे अजीत पवार का रहा। अजीत पवार द्वारा शरद पवार के खिलाफ बगावत कर भाजपा के साथ मिलकर सरकार बना ली। राजनीति के जानकारों के लिए यह अनहोनी नहीं है। इस बात का अंदेशा लोकसभा चुनाव के दौरान ही लगने लगा था कि महाराष्ट्र के इस चर्चित राजनीतिक घराने में से एक पवार परिवार में सब कुछ ठीक-ठाक नहीं चल रहा। यही वजह है कि शरद पवार को जनता के सामने यह कहना पड़ा कि यह सिर्प अजीत पवार का निजी फैसला है, पार्टी का फैसला नहीं है। महाराष्ट्र के सबसे ताकतवर सियासी परिवार में यह पूरी लड़ाई का एक बड़ा कारण मराठा राजनीति के दिग्गज रहे शरद पवार के राजनीतिक उत्तराधिकारी को लेकर है। शरद पवार करीब 80 साल के हो गए हैं। उनका स्वास्थ्य भी ठीक नहीं रहता। शरद पवार की बेटी सुप्रिया सुले और अजीत पवार के बीच राजनीतिक उत्तराधिकारी को लेकर काफी दिनों से शह और मात का खेल चल रहा है। इस साल हुए लोकसभा चुनाव में परिवार के बीच चल रही यह जंग खुलकर सामने आ गई। लोकसभा चुनाव के दौरान एनसीपी प्रमुख शरद पवार ने ऐलान किया था कि वह भावल सीट से चुनाव लड़ेंगे। इसी लोकसभा सीट से बाद में अजीत पवार के बेटे पार्थ पवार ने भी चुनाव लड़ने का दावा ठोक दिया। भावल सीट के लिए अजीत पवार ने दबाव डाला तो शरद पवार पीछे हट गए और उन्होंने कहा कि अगली पीढ़ी को मौका दिया जाएगा। अजीत पवार के बेटे ने इस सीट से चुनाव लड़ा और उन्हें हार का सामना करना पड़ा या यूं कहें कि उन्हें हरवा दिया गया। इसके बाद शरद पवार ने अपने दूसरे भतीजे को ज्यादा तरजीह देना शुरू कर दिया। भाजपा के साथ सरकार बनाने के अजीत पवार के फैसले के बाद से उनके खिलाफ प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) द्वारा केस की चर्चा शुरू न होना स्वाभाविक ही था। हालांकि सच्चाई यह भी है कि खुद शरद पवार समेत राकांपा के कई वरिष्ठ नेता केंद्रीय जांच एजेंसियों के निशाने पर हैं। अजीत पवार के साथ ही शरद पवार के खिलाफ दो महीने पहले ही महाराष्ट्र स्टेट कोऑपरेटिव बैंक घोटाले में ईडी ने मनी लांड्रिंग का केस दर्ज किया था। वहीं राकांपा के वरिष्ठ नेता प्रफुल्ल पटेल विमानन क्षेत्र के कई घोटालों में फंसे हुए हैं। 2007 से 2011 के बीच हुए 25,000 करोड़ रुपए के महाराष्ट्र स्टेट कोऑपरेटिव बैंक घोटाले के बॉम्बे हाई कोर्ट के आदेश पर मुंबई पुलिस की आर्थिक अपराध शाखा ने एफआईआर दर्ज की थी। इनमें शरद पवार और अजीत पवार समेत 70 नामजद आरोपित हैं। कहा तो यह भी जा रहा है कि इरीगेशन केस में भी अजीत पवार फंसे हुए हैं। अपनी जान छुड़ाने के लिए अजीत पवार ने देवेंद्र फड़नवीस का साथ दिया, यह सियासी हलकों में चर्चा गरम है। ड्रामा जारी है। देखते हैं आगे क्या होता है?

-अनिल नरेन्द्र

अब शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस की सरकार बनना तय

मंगलवार को महाराष्ट्र के मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए आदेश में शक्ति परीक्षण कराने का समय बुधवार शाम पांच बजे तक निर्धारित किया गया है। शक्ति परीक्षण में अपने साथ समर्थक विधायकों की संख्या न होने और शरद पवार परिवार के दबाव में अजित पवार ने उपमुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया फिर मुख्यमंत्री पद से देवेंद्र फड़नवीस ने। इस तरह यह निश्चित हो गया कि अब शिवसेना की सरकार एनसीपी और कांग्रेस के समर्थन से बनना तय है। अजीत पवार की राकांपा पार्टी में मौजूदा स्थिति क्या है? क्या वह अब भी वैधानिक रूप से एनसीपी विधायक दल के नेता हैं? इसी एक अहम सवाल के इर्दगिर्द भाजपा और एनसीपी-कांग्रेस-शिवसेना की रणनीति घूम रही है। यदि सुप्रीम कोर्ट ने इस स्थिति को स्पष्ट नहीं किया तो पूरे मामले में विधानसभा अध्यक्ष की भूमिका महत्वपूर्ण होगी। दरअसल अजीत की बगावत के बाद एनसीपी प्रमुख शरद पवार ने शनिवार को उनकी जगह नए विधायक को विधायक दल का नेता चुना। हालांकि अजीत ने राज्यपाल के समक्ष उस समय पार्टी विधायकों का समर्थन पत्र सौंपा था जब वह खुद विधायक दल के नेता थे। ऐसे में सवाल यह है कि भावी स्पीकर शपथ से पहले की स्थिति के आधार पर अजीत को विधायक दल का नेता मानेंगे या शनिवार को एनसीपी द्वारा इस पद के लिए नए नेता के चयन को? यह सवाल इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि अगर अजीत को विधायक दल का नेता माना जाता है तो शक्ति परीक्षण के दौरान उन्हें ही व्हिप जारी करने का अधिकार होगा। ऐसे में अजीत जिसके पक्ष में मतदान करने का निर्देश विधायकों को जारी करेंगे उसे एनसीपी विधायकों द्वारा नहीं मानने पर इसे व्हिप का उल्लंघन माना जाएगा। जाहिर तौर पर ऐसी स्थिति में सियासी बाजी अजीत के हाथों में होगी जो भाजपा के मुफीद है। बहरहाल एनसीपी का कहना है कि चूंकि पार्टी ने नए सिरे से विधायक दल का नेता चुना है इसकी सूचना राज्यपाल को दी गई है, ऐसे में अजीत को विधायक दल का नेता मानना असंवैधानिक होगा। जबकि भाजपा खेमे का कहना है कि चूंकि सरकार के गठन के दौरान अजीत ही विधायक दल के नेता थे, इसलिए इसमें अचानक बदलाव को स्वीकार करना असंवैधानिक होगा। दिलचस्प पहलू यह भी है कि तमाम खटास के बावजूद एनसीपी प्रमुख शरद पवार ने अपने बागी भतीजे अजीत के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई नहीं की है। महाराष्ट्र में भाजपा की सरकार बचेगी या नहीं, इसका फैसला तो सदन में शक्ति परीक्षण से ही होगा। लेकिन तब तक इंतजार करने की जरूरत शायद न पड़े, उससे पहले अध्यक्ष का चुनाव काफी चीजें स्पष्ट कर सकता है। सबसे महत्वपूर्ण यह सामने आ जाएगा कि देवेंद्र फड़नवीस के पास जरूरी बहुमत है? महाराष्ट्र की 288 विधानसभा सीटों में 54 सीटें एनसीपी ने हासिल की थीं, उससे अलग हुए अजीत पवार को इन्हीं 54 में से 36 विधायकों को विश्वास मत के समय अपने साथ भाजपा के समर्थन के लिए प्रस्तुत करना पड़ेगा। इसके साथ ही वह दो-तिहाई विधायकों को अपने साथ प्रस्तुत कर पाएंगे और दल-बदल कानून के तहत सदस्यता गंवाने से बच सकेंगे। हालांकि अजीत ने खुद को एनसीपी में ही बताकर विभिन्न स्थिति पैदा कर दी हैं। यह साफ नहीं है कि वास्तव में कितने विधायक उनके साथ हैं। आज सारी तस्वीर साफ होने की पूरी-पूरी संभावना है।

Tuesday, 26 November 2019

मंत्री जी के बिगड़े बोल

दिल्ली सरकार के मंत्री राजेंद्र पाल गौतम के ट्विटर अकाउंट से हिन्दू देवताओं पर विवादित टिप्पणी से शुक्रवार को दिनभर हंगामा मचा रहा। योगगुरु रामदेव के एक ट्वीट पर गौतम ने कथित रूप से लिखा था कि अगर यह बात प्रमाणित है कि भगवान राम और कृष्ण पूर्वज हैं तो इन्हें इतिहास में क्यों नहीं पढ़ाया जाता? पूर्वजों का इतिहास होता है, जबकि कोई प्रामाणिक इतिहास नहीं है। हालांकि विपक्ष के हमलावर होने के बाद अकाउंट हैक होने की बात कहते हुए मंत्री ने यह विवादित ट्वीट डिलीट कर दिया। पर तब तक हंगामा हो चुका था। भाजपा प्रदेशाध्यक्ष मनोज तिवारी ने लिखा कि आप का यह असली चेहरा है। यह भगवान राम और भगवान श्रीकृष्ण के होने का सबूत मांग रहे हैं? वहीं भाजपा नेता कपिल मिश्रा ने लिखा कि राम और कृष्ण के बारे में ऐसी भाषा, ऐसी गंदी सोच? राजेंद्र पाल गौतम ने करोड़ों हिन्दुओं की आस्था पर सवाल उठाया है। उन्होंने कहा कि मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने गौतम को मंत्री पद से नहीं हटाया तो साबित हो जाएगा कि वह मुख्यमंत्री के इशारे पर बोल रहे हैं। यही नहीं, कपिल मिश्रा शुक्रवार देर शाम गौतम की सदर बाजार स्थित एक सभा में पहुंचे और उनसे सवाल पूछना चाहते थे। कपिल मिश्रा के मुताबिक उनके पहुंचते ही गौतम ने सभा स्थगित कर दी। आप के पूर्व नेता कुमार विश्वास ने राजेंद्र पाल गौतम को घेरते हुए लिखा कि सीमापुरी के यह विधायक देश से राम-कृष्ण के होने का सबूत मांग रहे हैं। उन्होंने कहा कि तुम्हारे आका ने सेना से शौर्य के सबूत मांगे थे तो लोकसभा चुनाव में लोगों ने जवाब दे दिया था। तुमने राम-कृष्ण के मांगे हैं तो प्रतीक्षा करो विधानसभा चुनाव में मिल जाएंगे। यही नहीं, अकाउंट हैक होने के गौतम के दावे पर कुमार विश्वास ने कहा कि यह ऐसे ही हैक हो गया था जैसे कुर्सी पर बैठते ही अन्ना को गाली देते हुए तुम्हारे निर्वीय नयाब का हो गया था? नौ खेल बसंतों खेली, तिन्हें सिखावैं चंदो। हम राजेंद्र पाल गौतम की इस टिप्पणी को कंडेम करते हैं और उन्हें करोड़ों-अरबों हिन्दुओं की आस्था पर किसी भी विवादित प्रश्न उठाने का अधिकार नहीं है। उन्हें इससे बचना चाहिए था। खैर, जो होना था सो हो गया, अब पश्चाताप करते रहो।

-अनिल नरेन्द्र

छह माह में 95,700 करोड़ के बैंक घोटाले

केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने राज्यसभा में बताया कि रिजर्व बैंक के अनुसार सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों द्वारा दी गई रिपोर्ट के अनुसार वर्ष के दौरान एक अप्रैल 2019 से 30 सितम्बर 2019 की अवधि में 95,760.49 करोड़ रुपए की धोखाधड़ी के 5,743 मामले सामने आए। यह बेहद गंभीर है और इससे साफ है कि सरकार द्वारा सख्त कानून बनाने के बावजूद इसे रोकने के लिए बहुत कुछ किया जाना अभी बाकी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी इस गंभीर समस्या पर दुख जताते हुए बृहस्पतिवार को नियंत्रण एवं महालेखा परीक्षक (कैग) से सरकारी विभागों में धोखाधड़ी की जांच-पड़ताल के लिए नए तकनीकी तौर-तरीके विकसित करने का आह्वान किया। उन्होंने कहा कि इस पहल के जरिये भारत को 5,000 अरब डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाने की राह आसान होगी। बैंकों में धोखाधड़ी से संबंधित रिजर्व बैंक की रिपोर्ट ऐसे समय आई है जब एनपीए यानि गैर-निष्पादित परिसम्पत्तियों में आई कमी से ऐसा माना जाने लगा था कि बैंक धीरे-धीरे पटरी पर लौट रहे हैं। रिजर्व बैंक की यह रिपोर्ट साफ बताती है कि मौजूदा वित्त वर्ष के शुरुआती छह महीनों में यानि अप्रैल से सितम्बर तक सार्वजनिक बैंकों से 95,760 करोड़ रुपए की धोखाधड़ी हुई यानि विगत अगस्त में सार्वजनिक बैंकों को पुनर्पूंजीकरण के तहत सरकार ने जो 70,000 करोड़ रुपए बैंकों को दिए थे, उससे कहीं अधिक तो छह महीने में धोखाधड़ी में ही निकल गए। पिछले वित्त वर्ष में बैंकों में 71,543 करोड़ रुपए का घोटाला हुआ था, तो 2017-18 में धोखाधड़ी का आंकड़ा तुलनात्मक रूप में कम 41,167 करोड़ रुपए था। सिर्प यही नहीं कि बैंक घोटाले के 90 प्रतिशत सार्वजनिक बैंकों का है, बल्कि यह आंकड़े बताते हैं कि सरकार, बैंक और जांच एजेंसियों की सतर्पता के बावजूद घोटाले कम होने की बजाय बढ़ते जा रहे हैं। इनका एक बहुत बड़ा कारण है बैंक अधिकारियों का इन घोटालों में शामिल होना। बिना बैंक अधिकारियों की मिलीभगत के यह काम संभव ही नहीं। हमने देखा कि नोटबंदी को भी फेल करने में बैंकों के अधिकारियों का बहुत बड़ा हाथ था। अच्छी से अच्छी स्कीम उसके ठीक ढंग से क्रियान्वयन न होने के कारण फेल हो जाती है और इसका खामियाजा सरकार और देश की जनता को होता है। रिजर्व बैंक भी अपनी जिम्मेदारी से नहीं बच सकता। सार्वजनिक बैंकों पर सख्त निगरानी रखने का काम रिजर्व बैंक का है और इस काम में वह बुरी तरह फेल हो रहा है। इन्हीं कारणों से बैंकों में धोखाधड़ी ही नहीं बढ़ रही बल्कि एनपीए भी बढ़ता जा रहा है। आखिर सरकार कब तक ताजी पूंजी बैंकों को दे सकती है? निश्चित तौर पर सरकार को सख्ती करनी होगी और इन धोखाधड़ी के मामलों पर अंकुश लगाना होगा। रिजर्व बैंक को भी बैंकों के वरिष्ठ अधिकारियों के साथ बैठकर इसका हल निकालना होगा। नहीं तो तेजी से बढ़ता देश का विकास थम जाएगा।

Saturday, 23 November 2019

अब नेपाल ने भारत को आंखें दिखाईं

और अब नेपाल ने भारत को आंखें दिखानी शुरू कर दी हैं। नेपाल के प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली के एक ऐलान से भारत-नेपाल के बीच चली आ रही वर्षों पुरानी दास्तां में तनाव के बादल छंटते नजर आ रहे हैं। नेपाली प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली ने भारत सरकार द्वारा जारी राजनीतिक नक्शे में भारत-नेपाल-तिब्बत के ट्राई जंक्शन पर स्थित काला पानी के चित्रण को लेकर आपत्ति जताई और कहा कि भारत वहां से अपनी सेना तत्काल हटा ले। ओली ने दावा किया कि नेपाल-भारत और तिब्बत ट्राई जंक्शन पर स्थित यह इलाका नेपाल के क्षेत्र में आता है। काला पानी विवाद वैसे तो काफी पुराना है लेकिन इसकी ताजा शुरुआत जम्मू-कश्मीर के बंटवारे के बाद भारत सरकार के नए नक्शे को जारी करने से हुई है। भारतीय गृह मंत्रालय द्वारा हाल ही में जारी किए गए राजनीतिक मानचित्र में काला पानी इलाके को भारतीय सीमाओं के अंदर दिखाया गया है। इस नए नक्शे पर ही नेपाल ने आपत्ति जताई है। क्या है काला पानी विवाद? उत्तराखंड पर नेपाल-भारत और तिब्बत ट्राई जंक्शन पर स्थित काला पानी करीब 3600 मीटर की ऊंचाई पर है। भारत का कहना है कि करीब 35 वर्ग किलोमीटर का यह इलाका उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले का हिस्सा है। उधर नेपाल सरकार का कहना है कि यह इलाका उसके दारमुला जिले में आता है। वर्ष 1962 में भारत-चीन के बीच युद्ध के बाद से इस इलाके पर भारत के आईटीबीपी के जवानों का कब्जा है। दोनों देशों के बीच विवाद महाकाली नदी के उद्गम स्थल को लेकर है। यह नदी काला पानी इलाके से गुजरती है। दरअसल भारत-चीन-नेपाल के ट्राई जंक्शन पर स्थित काला पानी इलाका सामरिक रूप से काफी महत्वपूर्ण है। नेपाल सरकार का दावा है कि वर्ष 1816 में उसके और तत्कालीन ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच हुई सुगौली संधि के मुताबिक काला पानी उसका इलाका है। हालांकि इस संधि के आर्टिकल पांच में कहा गया है कि नेपाल-काली (अब महाकाली) नदी के पश्चिम में पड़ने वाले इलाके पर अपना दावा नहीं करेगा। 1860 में पहली बार इस इलाके में जमीन का सर्वे हुआ था। 1929 में काला पानी को भारत का हिस्सा घोषित किया गया और नेपाल ने भी इसकी पुष्टि की थी। त्रिवेंद्र सिंह रावत (मुख्यमंत्री उत्तराखंड) ने कहा कि काला पानी भारत का हिस्सा है और रहेगा। नेपाल का काला पानी पर बयान दुर्भाग्यपूर्ण है। ऐसा लगता है कि नेपाल की मूल तासीर में कुछ गलत तत्व आ गए हैं। नेपाल भारत का मित्र राष्ट्र है। दोनों देशों की संस्कृति एक है। बातचीत के जरिये इसका समाधान कर लिया जाएगा। पूर्व विदेश सचिव शशांक का कहना है कि इस तरह की खबरें हैं कि नेपाल सीमा के कुछ इलाकों में चीनी सेना की भी मौजूदगी है, उसे लेकर वहां काफी विरोध हो रहा है। इसकी वजह से संतुलन साधने की रणनीति के तहत नेपाल सरकार काला पानी को लेकर सवाल उठा रहा है। उन्होंने इस आशंका से भी इंकार नहीं किया कि नेपाल की ताजा हरकत के पीछे चीन का हाथ हो सकता है। उन्होंने कहा कि नेपाल का रुख निश्चित रूप से चिन्ता का विषय है। भारत और नेपाल के बीच काफी दोस्ताना रिश्ते रहे हैं। पूरी उम्मीद है कि भारत-नेपाल को अपना पक्ष समझाने में सफल रहेगा। सूत्रों का कहना है कि भारत सरकार इस मामले को बहुत गंभीर नहीं मान रहा है। भारत का रुख नया नहीं है लेकिन पहली बार नेपाल की तरफ से इस तरह की आक्रामक बयानबाजी की जा रही है।

-अनिल नरेन्द्र

रघुवर का दाग न तो मोदी का डिटर्जेंट और न ही शाह की लाउंड्री धो पाएगी

झारखंड में विधानसभा चुनाव के लिए मैदान सज चुका है। नेता जमीन पर उतर चुके हैं। वोट के लिए जनता के बीच जा रहे हैं पर इस बार अलग ही नजारा देखने को मिल रहा है। नेता जी कल तक जिस दल की प्रशंसा करते थकते नहीं थे, जिन कार्यकर्ताओं के साथ कल तक नजर आते थे, अब वह बात नहीं दिख रही है। नेता जी पुराने दल को इस चुनाव में बुरा-भला कह रहे हैं। पुराने साथियों से नजरें बचा रहे हैं और नए वादों और नए लोगों के साथ वोट मांगते नजर आ रहे हैं। इस बार झारखंड में कई विधानसभा क्षेत्र हैं जहां दोनों ही प्रमुख प्रत्याशी पाला बदलकर मैदान में आमने-सामने खड़े नजर आ रहे हैं। प्रत्याशी वही हैं, बस पार्टी का चेहरा बदला हुआ है। इधर का माल अब उधर हो चुका है। 25 विधायक पाला बदल चुके हैं। सही मायनों में झारखंड की चुनावी शतरंज की बाजी सोमवार को ही बिछी है। सोमवार को सीएम रघुवर दास और मंत्री सरयू राय ने जमशेदपुर पूर्वी सीट से तो आजसू प्रमुख सुदेश मेहता ने सिल्ली से नामांकन दायर किया। शतरंज की नजर से देखें तो बिसात पर चारों ओर सिर्प एक घर चलने वाले राजा की तरह रघुवर अपने घर में घिरे दिख रहे हैं। सरयू राय बिसात के उस हाथी जैसे हो गए हैं जो बिगड़े तो सारे समीकरण बिगाड़ दे। दोनों के बीच सुदेश, भाजपा के सहयोगी की 19 साल पुरानी छवि तोड़ उस प्यादे की तरह दिखते हैं जो आखिरी खाने तक पहुंच तकदीर और पूरी बिसात पलट सकते हैं। सोमवार को चुनाव के दूसरे चरण की 20 सीटों पर नामांकन का आखिरी दिन था। पूरे राज्य में चुनावी दिग्गज अपने दल-बल के साथ नामांकन करने भी पहुंचे। मगर सबकी नजर जमशेदपुर पूर्वी सीट पर टिकी थी। वजह यह कि मुख्यमंत्री रघुवर दास की पारंपरिक सीट पर उन्हें मंत्री सरयू राय ही चुनौती दे रहे हैं। बिहार-झारखंड के इतिहास में पहली बार किसी मुख्यमंत्री के खिलाफ उसी की कैबिनेट का कोई मंत्री चुनाव में खड़ा हुआ है। सोमवार को दोनों ही दिग्गजों ने नामांकन दायर  किया। दोनों के साथ समर्थकों की भीड़ थी और माहौल में गर्मजोशी भी। दोनों आमने-सामने तो नहीं हुए, मगर बयानों में जरूर एक-दूसरे पर निशाना साधा। इन दोनों के अलावा जिस दिग्गज के नामांकन की चर्चा रही, वह था आजसू प्रमुख सुदेश मेहता का। उन्होंने सिल्ली सीट से नामांकन दायर किया। इस सीट पर यूं तो चुनाव तीसरे चरण में है। मगर सुदेश मेहता ने नामांकन के लिए वही दिन चुना जब सीएम नामांकन कर रहे थे। ऐसा कम ही देखने को मिला है जब किसी सरकार में मंत्री रहा व्यक्ति अपनी ही सरकार व मुख्यमंत्री पर इतने गंभीर आरोप लगा रहा है। सरयू राय का कहना है कि झारखंड सरकार का पांच साल बदनुमा रहा है। हाई कोर्ट में राज्य सरकार के खिलाफ 21 भ्रष्टाचार पीआईएल दायर हैं। भाजपा पर रघुवर दाग हैं, जिसे मोदी का डिटर्जेंट व अमित शाह की लाउंड्री भी नहीं मिटा पाएगी। अब जनता इस दाग की धुलाई कर देगी।

पहले चोरी फिर सीनाजोरी

फर्जी मस्टररोल तैयार कर गौतमबुद्ध नगर में होमगार्डों के वेतन में हुए लाखों का घोटाला सामने आया है। एसएसपी वैभव कृष्ण से इसी साल जुलाई में एक होमगार्ड ने फर्जीवाड़ा कर होमगार्डों के ड्यूटी का फर्जी मस्टररोल तैयार कर लाखों के भुगतान की शिकायत की थी। एसएसपी के निर्देश पर एसपी सिटी विनीत जायसवाल ने प्राथमिक जांच की थी। केवल मई-जून की शहर की सात कोतवाली की हुई जांच में ही बड़े स्तर पर ड्यूटी के मस्टररोल में गड़बड़ियां मिली थीं, सात लाख से अधिक फर्जी भुगतान पकड़ा गया था। फर्जी मस्टररोल तैयार कर हुए भुगतान में करीब 50 प्रतिशत से अधिक फर्जी ड्यूटी पकड़ी गई थी और फर्जी मस्टररोल बनाने में फर्जी मोहरों के इस्तेमाल की बातें सामने आई थीं, जिसके बाद एसएसपी ने इस प्रकरण की शिकायत शासन स्तर पर की थी। फर्जीवाड़े की जांच के लिए शासन स्तर पर एक कमेटी गठित की गई थी व उस कमेटी ने जांच भी की थी। सूरजपुर स्थित होमगार्ड कमांडेंट कार्यालय में सोमवार की रात संदिग्ध हालात में आग लग गई। आग में घोटाले से संबंधित फाइलें जलकर राख हो गईं। एसएसपी वैभव कृष्ण के मुताबिक शुरुआती जांच व छानबीन में पता चला है कि साजिश के तहत सबूत मिटाने के लिए यह आग लगाई गई है। फायर विभाग को आग की सूचना मंगलवार की सुबह दी गई। जब तक फायर विभाग की टीम मौके पर पहुंची तब तक सभी दस्तावेज जलकर राख हो चुके थे। एसएसपी ने बताया कि मंगलवार की सुबह पुलिस को सूचना मिली कि होमगार्ड कमांडेंट के कार्यालय में रखे एक बॉक्स में आग लग गई है। सूचना मिलने पर दमकल कर्मी मौके पर पहुंचे। तब तक आग में होमगार्ड घोटाले से संबंधित अधिकांश दस्तावेज जल चुके थे। सूचना पर पहुंचे अफसरों ने पड़ताल की। इसमें पता चला कि आरोपियों ने मुख्य द्वार फांदकर दफ्तर में प्रवेश किया। इसके बाद दफ्तर का ताला तोड़ा और भीतर रखी अलमारी का ताला तोड़ा। उसके बाद आग लगा दी। इस मामले को लेकर सीएम योगी आदित्यनाथ ने भी गंभीरता से जांच कराने के निर्देश दिए हैं। फिलहाल इस मामले में पुलिस ने शक के आधार पर तीन होमगार्डों को हिरासत में लिया है। उनसे पूछताछ शुरू कर दी गई है। तीन कर्मचारियों से पूछताछ करने के साथ फोरेंसिक टीम की मदद से भी जांच कराई जा रही है। जांच में पता चला कि आरोपियों ने कमांडेंट होमगार्ड कार्यालय के मेन गेट को कूदकर प्रवेश करने के बाद जिस कार्यालय में होमगार्डों की ड्यूटी से संबंधित हाजिरी रजिस्टर व सैलरी से जुड़े दस्तावेज थे, उसी अलमारी को तोड़ा और उसमें आग लगा दी। पूरा मामला कुछ ऐसा हैöनोएडा में होमगार्डों के वेतन निकासी को लेकर करोड़ों के घोटाले में फर्जी मस्टररोल तैयार कर जिन स्थानों पर असल में चार-पांच होमगार्ड तैनात किए जाते थे, वहां 10-15 गार्डों की तैनाती दिखाकर अंजाम दिया गया। थानेदार के नाम की फर्जी मुहर और थाने की मुहरें भी बनाकर प्रयोग किया गया। यह फर्जीवाड़ा 2014 में किए जाने की बात सामने आई है। बुधवार को तत्कालीन कमांडेंट रामनारायण चौरसिया, सहायक कमांडेंट व तीन प्लाटून कमांडरों को पुलिस ने इस मामले में गिरफ्तार किया है, जांच जारी है।

-अनिल नरेन्द्र

संस्कृत पढ़ाने वाले मुस्लिम प्रोफेसर पर दुर्भाग्यपूर्ण बवाल

यह दुख की बात है कि विशेष योग्यता रखने वाले किसी व्यक्ति का विरोध सिर्प इसलिए किया जाए कि उसकी धार्मिक पहचान अलग है। वाराणसी में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय (बीएचयू) में एक ऐसा मामला सामने आया है जो किसी भी संवेदनशील और प्रगतिशील सोच वाले व्यक्ति को असहज करने के लिए काफी है। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय (बीएचयू) के संस्कृत विभाग में नियुक्त हुए एक मुस्लिम प्रोफेसर फिरोज खान को लेकर पिछले एक सप्ताह से ज्यादा समय से छात्रों का धरना-प्रदर्शन चल रहा है। प्रदर्शनकारी छात्र मुस्लिम प्रोफेसर के धर्म की वजह से उनकी नियुक्ति को रद्द करने की मांग कर रहे हैं। ऐसे यह मुद्दा हिन्दुत्व से जुड़ता जा रहा है। वहीं बीएचयू के संस्कृत विभाग में नियुक्त पहले प्रोफेसर फिरोज खान का सवाल है, मैं एक मुस्लिम हूं, तो क्या मैं छात्रों को संस्कृत सिखा नहीं सकता? संस्कृत से मेरा खानदानी नाता है। सवाल उठता है कि मुस्लिमों को भारतीयता को लेकर आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत के दिए गए इन बयानों के बावजूद बीएचयू के संस्कृत विभाग में मुस्लिम प्रोफेसर फिरोज खान की नियुक्ति पर सवाल खड़े करना कहां तक जायज है? हालांकि बीएचयू ने साफतौर पर कह दिया है कि उन्होंने वाइस चांसलर की अध्यक्षता में एक पारदर्शी क्रीनिंग प्रक्रिया के जरिये सर्वाधिक योग्य उम्मीदवार को सर्वसम्मति से नियुक्त किया है। सरसंघ चालक मोहन भागवत ने ओडिशा में बुद्धिजीवियों की सभा में इस साल पिछले महीने ही में संबोधित करते हुए कहा था, दुनिया में सबसे सुखी मुसलमान भारत में मिलेंगे। क्योंकि हम हिन्दू हैं। पूरा देश एक सूत्र में बंधा है। भारत के लोग विविध संस्कृति, भाषाओं, भौगोलिक स्थानों के बावजूद खुद को एक मानते हैं। इस बीच बुधवार को संत समाज फिरोज के घर पहुंचा। फिरोज के पिता रमजान से मुलाकात की और एक सुर में कहाöहम आपके साथ हैं। शिक्षा को धर्म से जोड़ना गलत है। हम इसकी निन्दा करते हैं। फिरोज के पिता रमजान ने कहाöविरोध कर रहे छात्र यदि मेरे परिवार की पृष्ठभूमि समझेंगे तो वह संतुष्ट हो पाएंगे। मेरे पूर्वज सौ साल से राम-कृष्ण के भजन गा रहे हैं। मेरे चारों  बेटे संस्कृत विश्वविद्यालय में पढ़े हैं। मेरी छोटी बेटी दीवाली को पैदा हुई, जिसका नाम लक्ष्मी है। सहायक प्रोफेसर के रूप में फिरोज खान को अन्य सभी अभ्यार्थियों के बीच सबसे योग्य पाया गया और इसी वजह से उनकी बहाली हुई। इस तरह न सिर्प संस्कृत भाषा के विद्वान हेने के नाते, बल्कि संवैधानिक और नागरिक अधिकारों के नाते भी अपनी नियुक्ति वाले पद पर सेवा देने का उनका अधिकार है। लेकिन संस्कृत के अध्यापक के रूप में कुछ लोग स्वीकार नहीं कर सके। जबकि भिन्न धार्मिक पहचान के बावजूद फिरोज खान की संस्कृत में विशेष योग्यता को न केवल इसे स्वीकार करना चाहिए था, बल्कि पारंपरिक जड़ धारणाओं के मुकाबले इसे भाषा के बढ़ते दायरे के रूप में भी देखना च]िहए था। जो हो रहा है वह दुर्भाग्यपूर्ण है और उम्मीद की जाती है कि बीएचयू के छात्र इस नियुक्ति को शालीनता से स्वीकार करेंगे और आंदोलन समाप्त करेंगे।

Thursday, 21 November 2019

अर्श से फर्श तक की अनिल अंबानी की कहानी

बीते दिनों देश की दो बड़े टेलीकॉम कंपनियांöएयरटेल और वोडाफोन-आइडिया की दूसरी तिमाही के नतीजों से बैंकों की टेंशन बढ़ना स्वाभाविक ही है। इन नतीजों में दोनों कंपनियों में 23045 करोड़ रुपए (एयरटेल) और 50921 (वोडाफोन-आइडिया) को अब तक का सबसे बड़ा घाटा हुआ है। ऐसे में इन कंपनियों को कर्ज देने वाले बैंकों की परेशानी और बढ़ गई है। दरअसल पहले से ही नॉन परफार्मिंग एसेट (एनपीए) की वजह से तनाव में चल रहे बैंकिंग सेक्टर को और ज्यादा डिफाल्टर करने की संभावना है। डिफाल्टर से बैंकों का एनपीए बढ़ने का खतरा है, इसके अलावा इससे म्युचल फंड इंडस्ट्री भी प्रभावित होगी। टेलीकॉम कंपनियों की जब बात कर रहे हैं तो अनिल अंबानी की कर्ज में डूबी टेलीकॉम कंपनी रिलायंस यानि आरकॉम की बात भी करना जरूरी है। अनिल अंबानी अकसर सुर्खियों में बने रहते हैं। इस बार वह रिलायंस कम्युनिकेशन (आरकॉम) के निदेशक मंडल से त्यागपत्र देने के कारण चर्चा में हैं। आरकॉम के चेयरमैन अनिल अंबानी और चार निदेशकों ने इस्तीफा दे दिया है। दिवालिया प्रक्रिया से गुजर रही आरकॉम ने शनिवार को रेगुलेटरी फाइलिंग में यह जानकारी दी। कंपनी दिवाला प्रक्रिया के तहत नीलामी का इंतजार कर रही है। आखिर ऐसा क्या हुआ कि 11 साल पहले 2008 में विश्व के छठे सबसे अमीर शख्स रहे अनिल अंबानी का यह हाल हो गया? अनिल अंबानी की अर्श से फर्श तक की कहानी कुछ यूं है। मुकेश अंबानी और अनिल अंबानी में बंटवारे के समय आरकॉम अनिल अंबानी के हिस्से में आई थी। 2010 में आरकॉम एडीएजी ग्रुप की प्रमुख कंपनियों में शुमार होती थी। उस समय दूरसंचार क्षेत्र में आरकॉम की 17 प्रतिशत हिस्सेदारी थी। इस दौरान कंपनी ने विस्तार के लिए बाजार से कर्ज लेना शुरू किया। लेकिन सही प्रबंधन नहीं हो पाने के कारण कंपनी पर कर्ज बढ़ता चला गया। वित्त वर्ष 2010 में आरकॉम पर 25 हजार करोड़ का कर्ज था जो बढ़कर 2019 में 48000 करोड़ रुपए पर पहुंच गया। 2007 में अनिल अंबानी की 3.2 लाख करोड़ रुपए सम्पत्ति आंकी गई थी जो 2018 में 17.9 हजार करोड़ रुपए की सम्पत्ति बची। 2018-19 में अनिल अंबानी ने 35000 करोड़ रुपए चुकाए। एक अनुमान है कि आज की तारीख में अनिल अंबानी की कंपनियों पर 1.03 लाख करोड़ रुपए का कर्ज खड़ा है। दूरसंचार सेक्टर में प्रतिस्पर्धा बढ़ने से आरकॉम की बाजार की हिस्सेदारी तेजी से कम हुई। अनिल अंबानी जैसे-तैसे इससे निपट ही  रहे थे कि उनके बड़े भाई मुकेश अंबानी ने जियो के जरिये दूरसंचार सेक्टर में कदम रखा। जियो के आने से एयरटेल, वोडाफोन जैसी दिग्गज कंपनियां तो जियो की आंधी में घाटे में जाने ही लगीं। अनिल अंबानी के आरकॉम को भी तगड़ा झटका लगा। अनिल का फिसलना और तेज हो गया। कुछ सालों में अनिल अंबानी को बिग सिनेमा, रिलायंस, बिग ब्रॉड कास्टिंग और बिग मैजिक जैसी कंपनियों को  बेचना पड़ा है। सूत्रों का अनुमान है कि आरकॉम समूह का कुल संरक्षित कर्ज करीब 33000 करोड़ रुपए है। ऋणदाताओं ने आरकॉम से 49000 करोड़ रुपए का दावा किया है। आरकॉम ने अपनी सम्पत्तियों को बिक्री में रखा है। आरकॉम की सम्पत्तियों की बिक्री का काम देख रही ऋणदाताओं की समिति इनके लिए बोलियां 24 नवम्बर को खोलेगी। इसके अलावा तीन चीनी बैंकों ने भी 4800 करोड़ रुपए का मुकदमा दर्ज किया है।
-अनिल नरेन्द्र

अयोध्या फैसले पर पुनर्विचार याचिका?

अयोध्या मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड द्वारा पुनर्विचार याचिका दायर करने के फैसले पर हमें कोई हैरानी नहीं हुई। रविवार को बोर्ड कार्यकारिणी की बैठक में मस्जिद के लिए पांच एकड़ जमीन भी नहीं लेने का फैसला हुआ। बोर्ड के सचिव जफरयाब जिलानी ने कहा है कि पुनर्विचार याचिका का फैसला किसी राजनीति के चलते नहीं लिया गया है। यह संविधान प्रदत्त हमारा अधिकार है। बोर्ड ने पुनर्विचार याचिका के लिए यह आधार गिनाएöसुप्रीम कोर्ट ने माना कि बाबर के सेनापति मीर बाकी ने मस्जिद का निर्माण कराया। 1857 से 1949 तक मस्जिद और अंदरूनी हिस्सों पर मुस्लिमों का कब्जा माना। कोर्ट ने माना कि बाबरी मस्जिद में आखिरी नमाज 16 दिसम्बर 1949 को पढ़ी गई। 22-23 दिसम्बर 1949 की रात मूर्तियां रखी गईं। उनकी प्राण प्रतिष्ठा नहीं हुई लिहाजा देवता नहीं माना जा सकता। गुंबद के नीचे पूजा की बात नहीं कही गई, फिर जमीन रामलला के पक्ष में क्यों दी गई? कोर्ट ने राम जन्मभूमि को पक्षकार नहीं माना, फिर उसके आधार पर फैसला क्यों दिया गया? कोर्ट ने कहा कि मस्जिद ढहाना गलत था। इसके बावजूद मंदिर के लिए फैसला क्यों दिया? कोर्ट ने कहा कि हिन्दू सैकड़ों साल से पूजा करते रहे हैं, इसलिए जमीन रामलला को दी जाती है, जबकि मुस्लिम भी इबादत करते रहे हैं। वक्फ एक्ट की अनदेखी की गई, मस्जिद की जमीन बदली नहीं जा सकती। कोर्ट ने माना कि किसी मंदिर को तोड़कर मस्जिद का निर्माण नहीं हुआ था। यह दुख की बात है कि जो मुस्लिम नेता फैसले से पहले कह रहे थे कि जो भी फैसला आएगा वह उसे स्वीकारेंगे, अब वही नेता उसे अस्वीकार करने के लिए तरह-तरह के बहाने गढ़ने लगे हैं। हमारा मानना है कि बेशक यह मुस्लिम नेता पुनर्विचार याचिका दाखिल करना चाहते हों पर इस याचिका के कोर्ट में सफल होने की संभावनाएं बेहद कम हैं। जानकारों का कहना है कि फैसला सर्वसम्मति से है जिसमें विरोध या नाराजगी का कोई सुर नहीं है, इसलिए रिव्यू याचिका का विफल होना तय है। निस्संदेह किसी भी मामले में पुनर्विचार याचिका दायर करने का सभी को अधिकार है। यदि अयोध्या मामले में पक्षकार इस अधिकार का इस्तेमाल करना चाहते हैं तो इसमें कोई हर्ज नहीं, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि एक तो प्रमुख पक्षकार इकबाल अंसारी फैसले को चुनौती देने की जरूरत नहीं समझते और दूसरे जो लोग उनसे अलग रास्ता पकड़ रहे हैं वह यह भलीभांति जान रहे हैं कि अब कुछ हासिल होने वाला नहीं है। इसकी एक बड़ी वजह यही है कि अयोध्या मामले में पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने अपना फैसला सर्वसम्मति से सुनाया है। आखिर यह जानते हुए भी अयोध्या फैसले को चुनौती देने का क्या मतलब जबकि इससे कुछ हाथ लगने वाला नहीं है? यह केवल समय की बर्बादी ही नहीं, कलह के रास्ते पर जानबूझ कर चलने की कोशिश भी है। यदि कोई पुनर्विचार याचिका दाखिल होती है तो उसे फैसला देने वाले जज ही सुनेंगे। इनमें एक जज बदलने की उम्मीद है क्योंकि फैसला देने वाली बेंच के मुखिया जस्टिस रंजन गोगोई 17 नवम्बर को रिटायर हो गए हैं। उनकी जगह कौन जज बैठेगा यह नए मुख्य न्यायाधीश एसए बोबड़े तय करेंगे। पुनर्विचार याचिका बिना वजह कलह बढ़ाने का प्रयास है।

Wednesday, 20 November 2019

महाराष्ट्र सरकार की पुंजी शरद पवार के हाथ में

महाराष्ट्र में नई सरकार के गठन की दिशा में मंगलवार को भी कुछ खास प्रगति नहीं हो पाई और कांग्रेस एवं राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) के बीच प्रस्तावित बैठक आगे हो सकती है। 24 अक्तूबर को महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद से सरकार गठन को लेकर असमंजस की स्थिति बनी हुई है। सत्ता की चाबी एनसीपी नेता शरद पवार के हाथों में लगती है। राज्य में सरकार गठन अधर में लटका है। गठबंधन उलझा हुआ है और फार्मूले पर भी पेच फंसा हुआ है। महाराष्ट्र में किसकी सरकार बनेगी, यह तस्वीर अभी तक साफ नहीं हो पा रही है। ऐसे में लोगों की निगाहें एनसीपी प्रमुख शरद पवार पर टिकी हुई हैं। लेकिन वो जिस तरह से एक के बाद एक बयान दे रहे हैं उसने लोगों को और कंफ्यूजन में डाल रखा है। ऐसे में शरद पवार के मन में क्या है, इसे न तो शिवसेना ही समझ पा रही है और न ही कांग्रेस पार्टी और न ही राजनीतिक पंडित? महाराष्ट्र की सियासत में किंग मेकर बनकर उभरे शरद पवार बार-बार बयान बदल रहे हैं। ऐसे में महाराष्ट्र की राजनीति में आगे क्या होगा, यह कहना मुश्किल हो रहा है। इसका किसी को भी आभास नहीं हो पा रहा। ऐसे में पवार ने कहा था कि भाजपा-शिवसेना को स्पष्ट बहुमत मिला है, उन्हें सरकार बनानी चाहिए। हम नतीजे का सम्मान करते हुए विपक्ष में बैठेंगे। इसके साथ ही उन्होंने यह भी कह दिया कि सरकार बनाने को लेकर शिवसेना से हमें कोई प्रस्ताव नहीं मिला है। मेरे पास नम्बर नहीं हैं कैसे सरकार बनाएं? पिछले दिनों शरद पवार किसानों की हालत जानने के लिए नागपुर पहुंचे थे। इस दौरान उन्होंने मध्यावधि चुनाव की संभावनाओं को सिरे से खारिज करते हुए कहा था, सरकार बनने में थोड़ा विलंब हो सकता है लेकिन प्रदेश में पांच साल के लिए स्थायी सरकार बनाई जाएगी। सोमवार को जब सोनिया गांधी से मुलाकात करने पहुंचे तो उम्मीद थी कि महाराष्ट्र में सरकार गठन पर छाए काले बादल छट जाएंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। मुलाकात के बाद प्रेस कांफ्रेंस में पवार ने कहा कि इस बैठक में सरकार गठन पर कोई चर्चा नहीं हुई है। उन्होंने कहा कि कांग्रेस और एनसीपी ने साथ चुनाव लड़ा था, इसलिए दोनों पार्टी के नेता आगे की रणनीति पर बात कर रहे हैं, लेकिन सरकार को लेकर पवार ने कहा था कि हमारे पास छह महीने का समय है। दिल्ली में रिपोर्टरों ने पवार से पूछाöक्या आपको लगता है कि शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस सरकार बनाएंगी? इस पर जवाब देते हुए पवार ने कहा कि शिवसेना और भाजपा अलग चुनाव लड़ी। उन्हें (भाजपा-शिवसेना) अपना रास्ता खुद तय करना होगा। उन्होंने कहा कि महाराष्ट्र में हमने सपा स्वाभिमानी शेतकरी संगठन से भी समझौता किया था। अब उन्हें अनदेखा नहीं कर सकते। हमें सभी को विश्वास में लेना होगा। शरद पवार मंगलवार को जब संसद भवन पहुंचे तो मीडिया ने उनसे महाराष्ट्र में सरकार गठन को लेकर सवाल पूछा। इस पर पवार ने अपने ही अंदाज में जवाब दिया कि मुझसे यह सवाल मत पूछो, जिसको सरकार बनानी है उनसे सवाल पूछो।
-अनिल नरेन्द्र
��ों पर कड़ी नजर रखेगा।

लिट्टे का सफाया करने वाले चीन समर्थक गोटबाया नए राष्ट्रपति

पड़ोसी देश श्रीलंका में राष्ट्रपति के लिए हुए चुनाव के परिणाम रविवार को आ गए और प्रमुख विपक्षी नेता गोटबाया राजपक्षे को विजयी घोषित किया गया है। गोटबाया का चुनाव जीतना हमारे लिए इसलिए महत्वपूर्ण है कि उनकी छवि भारत विरोधी से ज्यादा चीन समर्थक की रही है। साथ ही गोटबाया ने 2009 में लिट्टे का सफाया किया था। वह उस समय रक्षा सचिव थे और उन पर हजारों निर्दोष तमिल आबादी के खिलाफ कार्रवाई को लेकर मानवाधिकार उल्लंघन के काफी आरोप लगे थे। नेपाल के बाद श्रीलंका इस क्षेत्र का दूसरा देश है जहां हुए चुनाव में किसी ऐसे व्यक्ति या पार्टी की जीत हुई है, जिसकी छवि भारत समर्थक नहीं रही है। नेपाल में भारत विरोधी छवि वाले केपी शर्मा ओली के नेतृत्व में सरकार बनी, लेकिन दोनों देशों के रिश्ते सामान्य गति से ही आगे बढ़ रहे हैं। गोटबाया को लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम (लिट्टे) के साथ तीन दशक से चल रहे गृहयुद्ध को 2009 में समाप्त करने का श्रेय दिया जाता है। इसके लिए उन्हें टर्मिनेटर कहा जाता है। गोटबाया की श्रीलंका में खलनायक एवं नायक दोनों की छवि है। बहुसंख्यक सिंहली बौद्ध उन्हें युद्ध के नायक मानते हैं, वहीं तमिल अल्पसंख्यक उन्हें खलनायक मानते हैं। श्रीलंकाई राष्ट्रपति चुनाव में गोटबाया राजपक्षे की विजय के बाद श्रीलंका में एक बार फिर चीन की गतिविधियों में इजाफा होने की आशंका जताई जा रही है। दरअसल पूरे राजपक्षे परिवार का चीन के प्रति झुकाव जगजाहिर है। ऐसे में एक बार फिर राजपक्षे परिवार के पास सत्ता आने वाली उसी तरह के हालात की उम्मीद की जा रही है, जैसी महिंद्रा राजपक्षे के वक्त पर थी। गोटबाया ने चुनाव प्रचार के दौरान कई बार कहा था कि वह सत्ता में आए तो चीन से रिश्तों को और मजबूत बनाएंगे। गौरतलब है कि उनके बड़े भाई महिंद्रा राजपक्षे के कार्यकाल में श्रीलंका सरकार ने चीन को खूब बढ़ावा दिया। उनकी सरकार ने ही चीन को हबनटोटा बंदरगाह और एयरपोर्ट का ठेका दिया। माना जाता है कि भारत को हिन्द महासागर में चारों तरफ से घेरने की चीन की योजना में श्रीलंका की उक्त परियोजनाएं अहम हिस्सा हैं। गोटबाया की इस जीत के साथ राजपक्षे परिवार की पांच साल बाद सत्ता में वापसी हो रही है। इससे पहले महिंद्रा राजपक्षे 2005 से 2015 तक देश के राष्ट्रपति रहे थे। प्रधानमंत्री मोदी ने गोटबाया को बधाई दी है। जवाब में राजपक्षे ने कहा कि वह मोदी से मिलने को उत्सुक हैं। चुनाव में जीत के बाद 70 वर्षीय लेफ्टिनेंट कर्नल (सेवानिवृत्त) गोटबाया राजपक्षे ने अपने समर्थकों से गरिमा और अनुशासन के साथ जीत की खुशी मनाने का आग्रह किया। वहीं चुनाव में हार के साथ ही प्रेमदासा ने यूएनपी के उपनेता पद से इस्तीफा दे दिया है। इस चुनाव परिणाम के बाद यूएनपी के नेता व प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे पद छोड़ सकते हैं और गोटबाया राजपक्षे अपने बड़े भाई महिंद्रा राजपक्षे को देश का नया प्रधानमंत्री बनाएंगे। 10 वर्षों तक श्रीलंका के रक्षा सचिव रहे गोटबाया ने सिंहली बहुल देश के दक्षिणी इलाकों में एकतरफा जीत दर्ज की लेकिन अल्पसंख्यक तमिल और मुस्लिम बहुल इलाकों में उन्हें हार मिली है। तमिल बहुल उत्तरी प्रांत के सभी पांच जिलोंöजाफना, किलिनोच्ची, मुल्लातिवू, बाबुनिया और मन्नार में वह हारे हैं। मुस्लिम बहुल पूर्वी प्रांत के तीन जिलों त्रिकोमाली, बद्दीकलाओ और अपारा में भी यही स्थिति रही। भारत गोटबाया की नीतियों पर कड़ी नजर रखेगा।

देश हित में किया गया फैसला

भारत ने आसियान देशों के पस्तावित मुक्त व्यापार समझौते आरसीईपी यानी रीजनल कॉम्पिहेंसिव इकोनॉमिक पार्टनरशिप में शामिल नहीं होने के फैसले का स्वागत किया जाना चाहिए। इसे देश के किसानों और छोटे कारोबारियों के हक में एक बड़ी सफलता की तरह देखा जाना चाहिए। आसियान के दस देशों और उसके छह सहयोगी देशों चीन, जापान, दक्षिण कोfिरया, भारत, आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड के बीच इस पस्तावित समझौते के अस्तित्व में आने पर यह दुनिया का सबसे बड़ा मुक्त व्यापार समझौता बन जाएगा, जिसके दायरे में तकरीबन पचास फीसदी वैश्विक अर्थव्यवस्था आ जाएगी। इससे ही आरसीईपी के महत्व और उसके न केवल इसमें शामिल होने वाले देशों, बल्कि वैश्विक स्तर पर पड़ने वाले पभाव को समझा जा सकता है। बैंकाक में हुई बैठक में भारत को छोड़कर 15 देशों ने इस पर वार्ता पूरी कर ली है और भारत के लिए दरवाजे खुले हैं। दरअसल भारत इसमें शामिल होने से पहले अपने हितों को सुनिश्चित करना चाहता है। भारत की आपत्तियां खासतौर से इस बात को लेकर हैं कि इसके मौजूदा स्वरूप के अस्तित्व में आने से 80 से 90 फीसदी वस्तुओं पर आयात शुल्क खत्म हो जाएगा, जिससे चीन अपने सस्ते सामान से भारतीय बाजारों को भर देगा। इससे चीन के साथ व्यापार घाटा और बढ़ सकता है। इस समझौते से बाहर निकलकर पधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने देश हित में बड़ा फैसला लिया है। कांग्रेस ने इसे इस आधार पर अपनी जीत बताई है कि पार्टी इस फैसले के खिलाफ थी। आरसीईपी सम्मेलन के बाद शाम को भारत के विदेश मंत्रालय की सचिव (पूर्व) विजय ठाकुर सिंह ने बताया कि शर्तें अनुकूल न होने के कारण राष्ट्रीय हितों को ध्यान में रखते हुए भारत ने इसमें शामिल नहीं होने का फैसला किया है। उन्होंने सम्मेलन में पीएम मोदी की ओर से दिया गया बयान भी पढ़ा, जिसमें उन्होंने गांधी जी के जंतर और अपनी अंतरात्मा के कारण यह फैसला लेने की बात कही थी। इस विषय पर टिप्पणी करते हुए पधानमंत्री ने बताया कि भारतीयों खासकर समाज के कमजोर वर्गों के लोगों और उनकी आजीविका पर होने वाले पभाव के बारे में सोचकर उन्होंने यह फैसला लिया है और उन्हें महात्मा गांधी की उस सलाह का ख्याल आया, जिसमें उन्होंने कहा था कि सबसे कमजोर  और सबसे गरीब शख्स का चेहरा याद करो और सोचो कि जो कदम उठाने जा रहे हो, उसका उन्हें कोई फायदा पहुंचेगा या नहीं? भारत में लंबे समय से चिंताएं जताई जा रही थीं। किसान और व्यापारी संगठन ने इसका यह कहते हुए विरोध कर रहे थे कि अगर भारत इसमें शामिल हुआ तो पहले से परेशान छोटे व्यापारी और किसान तबाह हो जाएंगे। निसंदेह आसियान और आरसीईपी में पस्तावित देशों के साथ भारत का रिश्ता दोतरफा है, लेकिन जब तक बाजार की पहुंच और सेवाओं में संतुलन नहीं बनता तब तक इस रिश्ते में मजबूती नहीं आ सकती।

-अनिल नरेन्द्र

सहयोगियों के दरकने से परेशान भाजपा

कर्नाटक के बाद हरियाणा और अब महाराष्ट्र के चुनाव नतीजों के बाद राजनीति ने देश के सियासी गठबंधनों को लेकर बहस को नया मोड़ दे दिया है। इसमें विचारधारा और चुनावी मुद्दे गौण हो गए हैं। जनता का समर्थन पाने वाले दल और नकारे गए दल मिलकर नया गठबंधन बना सकते हैं और  अब चुनाव पूर्व के गठबंधनों की जीत पर भी यह जरूरी नहीं कि वही गठबंधन सरकार बनाएं। ऐसे में जनता को किसी गठबंधन को वोट देने से पहले सोचना पड़ सकता है। महाराष्ट्र में भाजपा के साथ गठबंधन में चुनाव जीतने वाली शिव सेना चुनाव हारने के बाद वाली एनसीपी और कांग्रेस के साथ गठबंधन सरकार बनाने की कोशिश में जुटी है। यह तब है जब भाजपा व शिव सेना गठबंधन को पूर्ण बहुमत हासिल हो गया था। ऐसी स्थिति कम आती है कि चुनाव जीतने वाला गठबंधन टूट जाए और हारने वालों के साथ नया गठबंधन बन जाए। चुनाव पूर्व गठबंधन व सबसे बड़े दल की सरकार बचाने के दावे और उनको मौका देने का फार्मूला भी बदल जाएगा। भाजपा के लिए अब यह नई चुनौती उभरकर आई है। दो दर्जन से ज्यादा सियासी सहयोगियों से पहली बार दिल्ली फतह के साथ शुरू हुई भाजपा की सत्ता की यात्रा में पार्टी ने एक दशक से भी कम समय में भले ही अपने अकेले दम पर लगातार दूसरी बार दिल्ली की सत्ता पर काबिज होने में सफलता पा ली हो परंतु पार्टी में इस चरम बिंदु पर उसके एक-एक कर सहयोगियों के दरकने से अब भाजपा शीर्ष नेतृत्व के माथे पर परेशानी की लकीरें साफ दिखने लगी है। बात महाराष्ट्र की हो या झारखंड की दोनों ही जगह भाजपा के सहयोगी दलों ने जिस तरह से भाजपा के साथ ऐन मौके पर अपना नाता तोड़ा है उससे पार्टी के शीर्ष नेतृत्व के भीतर अपनी रणनीति पर पुनर्विचार करने का दबाव बढ़ गया है। पहला झटका भाजपा को झारखंड में लगता fिदख रहा है। झारखंड में 2019 के लोकसभा चुनाव से भाजपा के साथ शुरुआत करने वाली आजसू ने राज्य विधानसभा चुनाव के बीच भाजपा पर सीट बंटवारे में तानाशाही रवैया अपनाने के आरोप में गठबंधन से अलग होने का फैसला किया है। झारखंड में न सिर्प आजसू ने भाजपा का साथ छोड़ा है बल्कि उसकी एक अन्य सहयोगी लोजपा ने भी राजग में रहने के बावजूद भाजपा के खिलाफ राज्य में उम्मीदवार खड़ा करने की घोषणा कर दी। यही हाल महाराष्ट्र में भी है। महाराष्ट्र में भाजपा की पुरानी सहयोगी रही शिव सेना ने भी अपना नाता तोड़ लिया है परंतु आज भी भाजपा के शीर्ष नेता यह तकनीकी की रूप से स्पष्ट करने के लिए तैयार नहीं हैं कि शिवसेना राजग का अंग है कि नहीं? दरअसल भाजपा और शिव सेना को लेकर भ्रम वाली स्थिति इसलिए बनी हुई है क्योंकि भाजपा और शिव सेना ने केन्द्र और राज्य स्तर पर भले ही अपनी राहें जुदा कर ली हों परंतु बीएमसी समेत 7 से ज्यादा नगर निगम जिला पंचायतों से इन दोनों दलों की समर्थन वाली स्थानीय सरकारें हैं। भाजपा एक झटके में बयानबाजी करके स्थानीय स्तर पर अपनी तरफ से यह गठबंधन तोड़ने की गलती नहीं करना चाहती। उसे मालूम है कि यदि वह बाहर आती है तो शिव सेना तुरंत ही भाजपा के विरोधी दलों के साथ या तो सत्ता पर काबिज होने की कोशिश करेगी या फिर भाजपा में तोड़-फोड़ कर सरकार बनाने की कोशिश करेगी। शायद इस खतरे के कारण ही भाजपा नेतृत्व शिव सेना पर बड़े पहार करने से बच रहा है।

Tuesday, 19 November 2019

अमित शाह ने मोदी-उद्धव में दूरी पैदा की

शिवसेना-भाजपा के 35 वर्ष का गठबंधन लगभग समाप्त-सा हो गया है। भाजपा नेता इसके लिए एक प्रमुख कारक माने जा रहे शिवसेना नेता और पार्टी मुखपत्र सामना के कार्यकारी संपादक संजय राउत को मुख्य रूप से जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। दूसरी ओर संजय राउत और शिवसेना अध्यक्ष के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मतभेद कराने के लिए भाजपा राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह को जिम्मेदार ठहराने लगे हैं। उन्होंने अमित शाह पर पीएम मोदी और उद्धव ठाकरे के बीच दूरी पैदा करने का आरोप लगाया है। संजय राउत का रुख शिवसेना को ऐसे मोड़ की ओर ले जाता दिख रहा है जहां से भाजपा की ओर वापसी की संभावना कम ही बची है। अब उन्होंने सीधा प्रहार भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह पर शुरू कर दिया है। अपनी एंजियोप्लास्टी करवाकर अस्पताल से लौटे राउत ने प्रेस से पहली बार बात करते हुए शाह पर सीधा आरोप लगाया कि लोकसभा चुनाव से पहले उद्धव ठाकरे और अमित शाह के बीच एकांत में हुई गठबंधन की शर्तों को शाह ने मोदी तक नहीं पहुंचाया। राउत ने यह बात एक दिन पहले ही शाह के उस बयान के जवाब में कही जिसमें शाह ने साफ किया कि उद्धव से उनकी बातचीत के दौरान ढाई-ढाई साल के मुख्यमंत्री पद पर कोई बात नहीं हुई थी। शाह के अनुसार चुनाव प्रचार के दौरान खुद उन्होंने और प्रधानमंत्री मोदी ने सौ से अधिक बार गठबंधन के बहुमत में आने की स्थिति में देवेंद्र फड़नवीस के ही पुन मुख्यमंत्री बनने की बात कही थी। तब शिवसेना की ओर से एक बार भी इसका विरोध नहीं किया गया था। राउत ने शाह की इस बात का भी जवाब देते हुए कहा कि शिवसेना अध्यक्ष उद्धव ठाकरे भी अपनी हर सभा में शिवसेना का मुख्यमंत्री बनाने की बात कहते आ रहे थे। महाराष्ट्र में बहरहाल कई हफ्तों से चल रहा सियासी नाटक खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा है। एक ओर जहां कांग्रेस-एनसीपी-शिवसेना की सरकार बनती दिख रही है, वहीं सरकार बनाने से एक बार इंकार कर चुकी भाजपा भी अब दावा कर रही है। ऐसे में पूर्व सहयोगी शिवसेना ने अपने मुखपत्र सामना भाजपा पर जमकर हमला बोला है। सामना के संपादकीय में कहा गया है कि राज्य में नए समीकरण बनते दिखते हुए कई लोगों के पेट में दर्द शुरू हो गया है। पार्टी ने कहा है, कौन कैसे सरकार बनाता है देखता हूं, अपरोक्ष रूप से इस प्रकार की भाषा और कृत्य किए जा रहे हैं। ऐसे श्राप भी दिए जा रहे हैं कि अगर सरकार बन भी गई तो कैसे और कितने दिन टिकेगी देखते हैं। ऐसा भविष्य भी बताया जा रहा है कि छह महीने से ज्यादा सरकार नहीं टिकेगी। शिवसेना ने तीखे लहजे में कहा है कि हम महाराष्ट्र के मालिक हैं और देश के बाप हैं, ऐसा किसी को लगता होगा तो वे इस मानसिकता से बाहर आएं। यह मानसिक अवस्था 105 वालों के स्वास्थ्य के लिए खतरनाक है। ऐसी स्थिति ज्यादा समय रही तो मानसिक संतुलन बिगड़ जाएगा और पागलपन की ओर यात्रा शुरू हो जाएगी। शिवसेना और भाजपा में इतने मतभेद हो गए हैं कि अब फिर साथ आना असंभव तो नहीं मुश्किल जरूर लगता है पर राजनीति में कुछ भी हो सकता है।

-अनिल नरेन्द्र

भाजपा के हाथ से कहीं झारखंड भी न खिसक जाए?

झारखंड में एनडीए (राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन) को बचाए रखने के लिए इस्तेमाल किए गए तमाम फार्मूले ध्वस्त होते दिख रहे हैं। गठबंधन टूट चुका है, भाजपा-आजसू की राहें अलग-अलग हो चुकी हैं, लेकिन दोनों ही दल इसके टूटने का ठीकरा अपने सिर लेने को राजी नहीं हैं। शुक्रवार को आजसू ने धारशिला से कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष प्रदीप बलमुमू समेत छह प्रत्याशियों की एक सूची जारी कर भाजपा को एक और झटका दिया है। इधर आजसू से चोट खाई भाजपा ने प्लान बी पर अमल शुरू कर दिया है। खास बात यह है कि इन सीटों पर भाजपा अपने प्रत्याशियों की घोषणा कर चुकी है। अब दोनों दलों में गठबंधन तो व्यावहारिक रूप से खत्म हो गया, मगर दोनों इसकी घोषणा से बच रहे हैं। आजसू की ताजा सूची के बाद अब कुल 19 सीटों पर पार्टी ने प्रत्याशी उतार दिए हैं। अब भाजपा-आजसू 15 सीटों पर आमने-सामने हो गए हैं। इनमें 13 सीटों पर सीधा संघर्ष है जबकि दो सीटों पर दोनों निर्दलीय को अपना समर्थन दिया है। आजसू ने हालांकि अब तक यह स्पष्ट नहीं किया है कि वह कुल कितनी सीटों पर चुनाव लड़ेगी। माना जा रहा है कि अभी पार्टी और प्रत्याशियों की सूची जारी कर सकती है। उधर झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा को सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को आगामी राज्य विधानसभा चुनाव लड़ने की इजाजत देने से इंकार कर दिया है। 2009 का लोकसभा चुनाव लड़ने के खर्च का ब्यौरा दाखिल नहीं करने पर चुनाव आयोग ने 2017 में मधु कोड़ा को तीन साल के लिए चुनाव लड़ने के अयोग्य घोषित कर दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने अयोग्य ठहराए जाने के फैसले का समर्थन किया है। हरियाणा और महाराष्ट्र में सीटें कम होने के बाद भाजपा को झारखंड के भी हाथ से खिसकने का डर सताने लगा है। पार्टी के आंतरिक सर्वे में सीटें कम होने की बात उभर कर सामने आई है। मुखयमंत्री रघुवर दास की व्यक्तिगत छवि, दो महादागी नेताओं को टिकट देने और 19 साल पुराने मित्र ऑल इंडिया स्टूडेंट यूनियन (आजसू) के साथ गठबंधन टूटने से पार्टी को नुकसान होने की संभावना है। इसके बाद पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने खुद कमान संभाली और वह इस प्रयास में हैं कि आजसू से टूटी बात फिर बन जाए। चुनाव के समय भाजपा आंतरिक सर्वे कराती है, उसी हिसाब से चुनाव की रणनीति बनाती है और वर्तमान विधायकों, मंत्रियों के टिकट काटती है। इस बार छह महीने और अब चुनाव के समय कराए गए सर्वे में अंतर आ गया है। भाजपा सूत्रों के अनुसार पार्टी को 2014 के चुनाव के मुकाबले कम सीटें मिल रही हैं। पिछली बार 81 सदस्यीय विधानसभा में भाजपा ने 44 और आजसू ने तीन सीटें जीती थीं। चुनाव के दौरान एक भ्रष्ट नेता और हत्या के आरोपी को टिकट देना भाजपा को भारी पड़ रहा है। आजसू ने 19 सीटें मांगी थीं, लेकिन भाजपा 10 देने को तैयार थी, इससे नाराज होकर आजसू ने अपने प्रत्याशी घोषित कर दिए और अकेले चुनाव लड़ने का फैसला कर लिया। अमित शाह ने मंगलवार को आजसू अध्यक्ष सुदेश महतो को दिल्ली बुलाया और देर रात तक चर्चा की। सूत्रों ने हालांकि दावा किया कि महतो 10 सीटों पर चुनाव लड़ने को तैयार हो गए हैं। वहीं लोकजन शक्ति पार्टी ने पिछली बार भाजपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ा था, लेकिन इस बार वह भाजपा से अलग हो गई है। हरियाणा, महाराष्ट्र के बाद अगर झारखंड भी भाजपा के हाथ से खिसक जाता है तो यह पार्टी के लिए भारी धक्का होगा।

Sunday, 17 November 2019

किसानों से ज्यादा दिहाड़ी मजदूर आत्महत्या कर रहे हैं

चालू वित्त वर्ष की दूसरी तिमाही (जुलाई-सितम्बर) में जीडीपी वृद्धि दर घटकर 4.2 प्रतिशत रहने की आशंका है। भारतीय स्टेट बैंक के आर्थिक शोध विभाग की रिपोर्ट एकोटैप ने यह अनुमान लगाया है। विकास दर में गिरावट के लिए बैंक ने वाहनों की बिक्री में कमी बुनियादी क्षेत्र की वृद्धि पर और निर्माण एवं बुनियादी ढांचे में निवेश की कमी को जिम्मेदार ठहराया है। आठ कोर सेक्टरों में आठ साल में सबसे बड़ी गिरावट आई है। नोटबंदी, जीएसटी की ज्यादा मार दिहाड़ी के मजदूरों पर पड़ी है। साल 2016 में देशभर में रिकॉर्ड 25164 दिहाड़ी मजदूरों ने खुदकुशी की। यह आंकड़ा 2014 से 60 प्रतिशत ज्यादा है, जब दिहाड़ी मजदूरों की आत्महत्या के कुल 15735 मामले दर्ज किए गए थे। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की हालिया रिपोर्ट में यह खुलासा हुआ है। एनसीआरबी के मुताबिक 2016 में किसानों के मुकाबले दिहाड़ी मजदूरों की आत्महत्या के दोगुने मामले सामने आए हैं। 11379 किसानों की तुलना में 25164 दिहाड़ी मजदूरों ने खुदकुशी की। हालांकि किसान आत्महत्या का 2016 का आंकड़ा 2014 के 12360 मामलों से काफी कम है। दो साल देरी से जारी एक्सिडेंटल डैथ्स एंड सुसाइड इन इंडिया रिपोर्ट में यह भी देखा गया कि 2016 में गृहणियों की खुदकुशी के मामले 2014 के 20148 से बढ़कर 21563 हो गए। भारत में गृहणियां सर्वाधिक खुदकुशी करने वाला वर्ग नहीं रही। 2015 के बाद 2016 में लगातार दूसरी बार गृहणियों के मुकाबले दिहाड़ी मजदूरों की आत्महत्या की अधिक घटनाएं रिकॉर्ड की गईं। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के असंगठित प्रोफेसर अनमित्रा रॉय चौधरी दिहाड़ी मजदूरों की दुर्दशा के लिए गैर-कृषि क्षेत्र पर कृषि क्षेत्र की निर्भरता को जिम्मेदार ठहराते हैं। 2014 और 2015 में लगातार दो साल सूखा पड़ने से गैर-कृषि क्षेत्र में श्रमिकों की आपूर्ति बढ़ गई। इसका सीधा असर न सिर्प मजदूरी, बल्कि काम करने की उपलब्धता पर भी पड़ा। रॉय चौधरी यह भी कहते हैं कि 2019 में जारी सामायिक श्रम बल सर्वे रिपोर्ट में साल 2004 से 2011 और 2011 से 2017 के बीच भारत में दिहाड़ी मजदूरी की वृद्धि दर आधी होने का दावा किया गया है। यह भी दिहाड़ी मजदूरों की बढ़ती आत्महत्याओं के लिए जिम्मेदार हो सकता है। फिर दिल्ली-एनसीआर में वायु प्रदूषण की गंभीर स्थिति को देखते हुए निर्माण कार्यों पर पाबंदी लगी हुई है। हॉट मिक्स प्लांट, स्टोन कैशर और कोयला आधारित उद्यमों का संचालन भी फिलहाल बंद है। इससे दिल्ली, गाजियाबाद, नोएडा, ग्रेटर नोएडा, सोनीपत, पानीपत, गुरुग्राम, फरीदाबाद, बहादुरगढ़ और भिवाड़ी जैसे शहरों में बड़ी संख्या में दिहाड़ी मजदूर प्रभावित हुए हैं। उन्हें लेबर चौराहों पर काम के इंतजार में घंटों भटकते देखा जा सकता है। गुरुग्राम में अनुमानित पांच हजार और नोएडा में चार हजार दिहाड़ी मजदूर काम न मिलने से परेशान हैं। गाजियाबाद में बड़ी संख्या में मजदूर घर लौटने लगे हैं। यह सभी के लिए खासतौर पर सरकारों के लिए चिंता का विषय है।

-अनिल नरेन्द्र

सूत न कपास जुलाहों में लट्ठम-लट्ठ

सूत न कपास जुलाहों में लट्ठम-लट्ठ की कहावत अयोध्या में राम मंदिर ट्रस्ट के सिलसिले में शुरू हो गई है। अभी मुश्किल से सुप्रीम कोर्ट के फैसले को आठ दिन नहीं हुए कि अभी से राम मंदिर ट्रस्ट में स्थान पाने के लिए संतों में विवाद छिड़ गया है। केंद्र सरकार जहां अदालत के आदेश पर ट्रस्ट को लेकर अभी मंथन ही कर रही है, वहीं अयोध्या में संतों के बीच नया बखेड़ा खड़ा हो गया है। इस बखेड़े का आधार राम जन्मभूमि न्यास अध्यक्ष महंत नृत्यगोपाल दास की ओर से दिया गया बयान बना है। न्यास अध्यक्ष महंत दास ने अपने बयान में कहा कि नए ट्रस्ट की जरूरत नहीं है। पहले से ही पुराना ट्रस्ट बना है जिसमें कुछ लोगों को जोड़कर मामले को आगे बढ़ाया जाए। उनके इस बयान के विपरीत विश्व हिन्दू परिषद नेतृत्व ने यह कहकर पेंच फंसा दिया कि राम जन्मभूमि न्यास की सम्पत्ति राम मंदिर निर्माण के लिए गठित होने वाले ट्रस्ट को सौंप दी जाएगी। विहिप नेतृत्व ने यह मांग भी रख दी कि उसे अथवा न्यास के पदाधिकारियों को ट्रस्ट में जगह मिले या न मिले लेकिन राम मंदिर आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करने वाले धर्माचार्यों को प्राथमिकता अवश्य दी जाए। इस बीच उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को ही ट्रस्ट का अध्यक्ष बनाने की मांग भी जोर पकड़ने लगी है। इसी के चलते स्वयंभू अध्यक्ष का ख्वाब सजाने वाले संतों की बेचैनी बढ़ गई है। इन्हीं में एक पूर्व सांसद महंत डॉ. रामविलास दास वेदांती भी हैं। वेदांती ने तपस्वी छावनी के उत्तराधिकारी महंत परमहंस दास को फोन कर उसे ट्रस्ट के अध्यक्ष के लिए उनके नाम का प्रस्ताव देने को कहा। इस बातचीत का ऑडियो वायरल हो चुका है। ऑडियो वायरल स्वयं परमहंस दास ने ही किया है। इसमें न्यास अध्यक्ष को कई अशोभनीय बातें कही गई हैं। वायरल ऑडियो को एक निजी चैनल ने प्रसारित भी कर दिया है। उधर अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण की मांग को लेकर आमरण अनशन करने वाले तपस्वी छावनी के उत्तराधिकारी महंत परमहंस दास पर श्रीराम जन्मभूमि न्यास के अध्यक्ष महंत नृत्यगोपाल दास के साधुओं ने गुरुवार को हमला कर दिया। अपने आश्रम के कमरे में छिपे होने के कारण वे बच गए लेकिन आक्रोशित साधुओं की भीड़ ने उनका आवास घेर लिया और खिड़की-दरवाजे तोड़ने का प्रयास किया। इस दौरान मौजूद पुलिस अधिकारियों ने नाराज साधुओं को समझाकर दूर हटाया और परमहंस दास को सुरक्षित बाहर निकाला और दूसरे स्थान पर ले गए। बताया गया कि एक दिन पहले ही निजी चैनल पर डिबेट में शामिल परमहंस दास ने महंत नृत्यगोपाल दास पर अशोभनीय टिप्पणी की थी। इसी के चलते उनके समर्थक खासे नाराज थे। पुलिस की ढिलाई से उनका गुस्सा भड़क गया और उन्होंने तपस्वी छावनी पहुंचकर परमहंस का आवास घेर लिया। इस घटना की जानकारी मिलने पर सीओ अमर सिंह व प्रभारी निरीक्षक सुरेश पांडे पुलिस फोर्स के साथ मौके पर पहुंच गए। तपस्वी छावनी पहुंचकर परमहंस का आवास घेरने वालों से बचते-बचाते उन्हें कमरे से बाहर निकाला और उन्हें सुरक्षित स्थान पर ले गए। परमहंस दास के घर के बाहर निकलते ही नाराज साधु लाठियां लेकर दौड़े पर पुलिस की बैरिकेडिंग नहीं तोड़ सके। जैसा मैंने कहा कि सूत न कपास जुलाहों में लट्ठम-लट्ठ है कि नहीं?

Saturday, 16 November 2019

अध्यक्षों के संवैधानिक कर्तव्य

कर्नाटक के दल-बदलुओं पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद राज्य का सियासी नाटक दिलचस्प हो गया है। सुप्रीम कोर्ट ने विधायकों को अयोग्य करार देने के पूर्व स्पीकर के फैसले को तो रखा पर अनिश्चितकाल तक इन विधायकों के चुनाव लड़ने पर स्पीकर के फैसले को रद्द करते हुए पाबंदी हटा दी है। अब वे 5 दिसम्बर को होने वाले उपचुनाव लड़ सकते हैं। 17 में से 15 सीटों पर उपचुनाव हो रहे हैं क्योंकि दो सीटोंöमस्की और राज राजशेवरी से संबंधित याचिकाएं, कर्नाटक हाई कोर्ट में लंबित है। उधर सुप्रीम कोर्ट के फैसले से राज्य की सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा की टेंशन जरूर बढ़ने वाली है। दरअसल नाटकीय घटनाक्रम के तहत कुछ महीने पहले अपने ही विधायकों के पाला बदलने से कांग्रेस और जेडीएस की गठबंधन सरकार गिर गई थी। विधानसभा में विश्वास मत हासिल करने में विफल रहे कुमारस्वामी सरकार ने इस्तीफा दे दिया था। स्पीकर ने 17 विधायकों को अयोग्य करार दिया तो भाजपा ने आसानी से सरकार बना ली। हुआ यूं कि विधायकों को अयोग्य करार देने के बाद 224 सदस्यों वाली विधानसभा की संख्या 207 हो गई और बहुमत 104 पर आ गया। भाजपा के पास 106 विधायकों का समर्थन था जिसमें उसके 105 थे और एक अन्य ऐसे में उसको सरकार बनाने में कोई दिक्कत नहीं हुई। अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि कर्नाटक की मौजूदा विधानसभा के पूरे कार्यकाल यानि 2023 तक इन विधायकों के चुनाव लड़ने पर रोक के स्पीकर के आदेश को इस आधार पर खारिज कर दिया कि संविधान के प्रावधानों के मुताबिक स्पीकर के पास इसका अधिकार नहीं है। कोर्ट ने कहा कि अयोग्यता का मतलब यह नहीं कि दोबारा होने वाले चुनाव में लड़ने से विधायकों को रोका जाए। उच्चतम न्यायालय ने बुधवार को कहा कि राजनीतिक दलों की खरीद-फरोख्त और भ्रष्ट आचरण में संलिप्त होने के अलावा अध्यक्षों में भी तटस्थ रहने के संवैधानिक कर्तव्य के खिलाफ काम करने की प्रृवत्ति बढ़ रही है। न्यायमूर्ति एन. वीरप्पा, न्यायमूर्ति संजीव खन्ना और न्यायमूर्ति कृष्ण मुरारी की पीठ ने कहा कि अध्यक्ष का एक तटस्थ व्यक्ति होने की वजह से अपेक्षा की जाती है सदन की कार्रवाई के संचालन या याचिकाओं पर निर्णय लेते समय वह स्वतंत्र तरीके से काम करेंगे। न्यायालय ने कहा कि अध्यक्षों को सौंपी गई संवैधानिक जिम्मेदारी का ईमानदारी से पालन करना होगा और न्याय करते समय उसकी राजनीतिक संबद्धता आड़े नहीं आ सकती। न्यायालय ने कहा कि अगर अध्यक्ष अपने राजनीतिक दल से खुद को अलग नहीं करेंगे और तटस्थता तथा स्वतंत्र होकर काम करने की भावना के अनुरूप आचरण नहीं करेंगे तो ऐसा व्यक्ति सार्वजनिक विश्वास और भरोसे के योग्य नहीं है, यही नहीं, स्पीकर के फैसले के खिलाफ विधायकों ने जिस तरह सर्वोच्च न्यायालय का रुख किया अदालत ने उसकी भी आलोचना की है। लिहाजा राजनीतिक हानि-लाभ को परे रखकर इस फैसले को अदालत की टिप्पणी की रोशनी में देखना चाहिए कि राजनीतिक पार्टियों में संवैधानिक नैतिकता की कमी है तथा सत्ता और विपक्ष में रहने पर उनका आचरण अलग-अलग होता है।

-अनिल नरेन्द्र

संवैधानिक लोकतंत्र में कोई भी कानून से ऊपर नहीं

सुप्रीम कोर्ट ने खुद के बारे में ऐतिहासिक प्रतिमान गढ़ा है। कानून से ऊपर कोई नहीं है। यह टिप्पणी सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐसे मामले पर फैसले देते हुए की जिसमें उसके प्रमुख न्यायाधीश के कार्यालय को भी आरटीआई यानि सूचना के अधिकार कानून के दायरे में लाने की मांग की गई थी। सीजेआई रंजन गोगोई की पांच जजों की संविधान पीठ ने बुधवार को फैसला देते हुए कहाöआरटीआई एक्ट के तहत सीजेआई का कार्यालय सार्वजनिक प्राधिकरण है। पीठ ने आगाह भी किया है कि निगरानी के हथियार के तौर पर आरटीआई का इस्तेमाल नहीं किया जाएगा और जब भी पारदर्शिता की बात होगी, उस वक्त न्यायिक स्वतंत्रता को भी ध्यान में रखना होगा। पीठ ने यह भी कहा कि संवैधानिक लोकतंत्र में कोई भी कानून से ऊपर नहीं है। जज भी इससे अलग नहीं हैं। पीठ ने कहा कि सीजेआई दफ्तर को यह बताना होगा कि कोलेजियम द्वारा जजों की नियुक्ति के लिए किन नामों पर विचार किया गया, पर नामों पर विचार करने के पीछे क्या आधार था, इसका खुलासा नहीं किया जा सकता। हालांकि यह आम व्यवस्था है कि संविधान और कानून की कसौटी पर देश के सभी नागरिक और समूची व्यवस्था को संचालित करने वाला हरेक व्यक्ति बराबर है, भले ही वह कितने भी ऊंचे पद पर या विशिष्ट क्यों न हो, मगर यह भी सच है कि कुछ मामलों में महज धारणा और स्थापित परंपराओं की वजह से किसी व्यक्ति या पद को लेकर रियायत का रुख अपनाया जाता है। सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश के कार्यालय को आरटीआई कानून के दायरे में  लाया जाए या नहीं, इसी धारणा की वजह से पिछले कई सालों से ऊहापोह या विचार का विषय बना हुआ था। लेकिन बुधवार को सुप्रीम कोर्ट के पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने यह साफ कर दिया कि शीर्ष अदालत के प्रमुख न्यायाधीश का कार्यालय अब सूचना के अधिकार कानून के दायरे में आएगा। इससे न सिर्प जवाबदेही और पारदर्शिता में इजाफा होगा बल्कि न्यायायिक स्वायत्तता भी मजबूत होगी। यह भी सत्य है कि पिछले कुछ सालों के दौरान ऐसे सवाल भी उठे हैं कि कुछ मामलों में आरटीआई को हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जाता रहा है। इसी के मद्देनजर अदालत ने आगाह किया कि न्यायपालिका के मामले में अगर आरटीआई के जरिये जानकारी मांगी जाती है तो इसमें कुछ भी गलत नहीं है, लेकिन इसका इस्तेमाल निगरानी रखने के हथियार के रूप में नहीं किया जा सकता और पारदर्शिता के मसले पर विचार करते समय न्यायिक स्वतंत्रता को ध्यान में रखना होगा। चूंकि उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश का कार्यालय कुछ शर्तों के साथ ही सूचना के अधिकार कानून के दायरे में आएगा इसलिए यह भी देखना होगा कि उससे क्या जानकारी हासिल की जा सकती है और क्या नहीं? आशा तो यह है कि इस फैसले का असर कोलेजियम के कामकाज को भी पारदर्शी बनाएगा न्यायाधीशों की नियुक्ति, पदोन्नति और स्थानांतरण के मामले में प्रक्रिया संबंधी सूचना देने के सवाल को बहस का विषय माना गया है, यह फैसला एक जरूरी संदेश देता है कि कोई भी कहीं भी और यहां तक कि शीर्ष अदालत के न्यायाधीश भी कानून से ऊपर व परे नहीं हो सकते।

Friday, 15 November 2019

अब मूडीज ने भारत की रेटिंग नेगेटिव की

अंतर्राष्ट्रीय केडिट रेटिंग एजेंसी मूडीज ने भारत को जो आइना दिखाया है, वह देश की अर्थव्यवस्था पर गहरी चोट है और जो बात हम करते रहे हैं कि देश की अर्थव्यवस्था की हालत खराब है उसकी पुष्टि करती है। आर्थिक सुस्ती को लेकर बढ़ती चिंताओं और कर्ज के आधार को देखते हुए मूडीज इंवेस्टर सर्विस ने भारत की रेटिंग स्टेबल से घटाकर नेगेटिव कर दी है। मूडीज का कहना है कि पहले के मुकाबले भारत की ग्रोथ की रफ्तार और गिरने की संभावना है। कारपोरेट टैक्स में कटौती और जीडीपी ग्रोथ की धीमी रफ्तार को देखते हुए मूडीज का अनुमान है कि मार्च 2020 में खत्म होने वाले वित्त वर्ष के दौरान बजट घाटा जीडीपी का 3.7 प्रतिशत रह सकता है, जिसका टारगेट 3.3 प्रतिशत था। अक्तूबर से लगातार भारत की रेटिंग गिराता चला आ रहा है। अक्तूबर 2019 में मूडीज ने 2019-20 में जीडीपी ग्रोथ के अनुमान को घटाकर 5.8 प्रतिशत कर दिया था। पहले मूडीज ने इसके 6.2 प्रतिशत का अनुमान जताया था। इसका मतलब साफ है कि भारतीय अर्थव्यवस्था की साख संतोषजनक नहीं है। अर्थव्यवस्था को लेकर लंबे समय से जो आशंकाएं उठ रही हैं और समय-समय पर देश-विदेश के अर्थशास्त्राr और वैश्विक वित्तीय संस्थान जिस तरह आगाह करते रहे हैं, मूडीज की रेटिंग उस पर एक तरह से उल्ट है। रेटिंग घटाने के पीछे मूडीज ने जो बड़े कारण गिनाएं हैं उनमें आर्थिक मंदी, बढ़ती बेरोजगारी, ग्रामीण परिवारों पर आर्थिक दबाव, गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों में बढ़ती नकदी संकट जैसे कई कारण हैं। मूडीज ने सबसे ज्यादा चिंता इस बात पर जताई है कि आर्थिक मंदी से निपटने के लिए सरकार ने पिछले कुछ महीनों में जो कदम उठाए हैं, वे कारगर साबित होते नहीं दिख रहे हैं। इससे आने वाले दिनों में भारत के आर्थिक परिदृश्य को लेकर जो तस्वीर उभरती है, वह बड़े खतरे का इशारा है और इससे आर्थिक विकास के निचले स्तर पर बने रहने का जोखिम बढ़ सकता है। भारतीय अर्थव्यवस्था में मंदी के लक्षण तो सालभर पहले नजर आने लगे थे, लेकिन सरकार ने तब इसे गंभीरता से नहीं लिया। पर जब इस वित्त वर्ष की पहली तिमाही (अप्रैल-जून) के लिए जीडीपी के आंकड़े आए, तो पता चला कि जीडीपी वृद्धि दर छह साल के न्यूनतम स्तर पर पहुंच गई। किसी भी देश की अर्थव्यवस्था की साख तय करते समय सबसे पहले रेटिंग एजेंसियां आर्थिक सुधारों के लिए उठाए गए कदमों और देश में मौजूदा आर्थिक हालात पर सबसे ज्यादा गौर करती हैं। हालांकि भारत सरकार अभी भी इसे अस्थायी मानकर चल रही है, पर हालात बता रहे हैं कि यह दौर जल्द खत्म होने वाला नहीं है। देश में निवेश, खपत और बचत का जो संतुलन गड़बड़ा गया है, उससे निपटने के उपाय सरकार को सूझ नहीं रहे। जब देश-विदेश में भारत की आर्थिक परिदृश्य की साख खराब होगी तो निवेश करने आएगा कौन? काम-धंधे तभी चलेंगे और लोगों को रोजगार तभी मिलेगा जब देश में निवेश होगा और वह हो नहीं रहा।

-अनिल नरेन्द्र

भंवर में महाराष्ट्र ः राष्ट्रपति शासन लगा

महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद 19 दिनों तक चले सियासी ड्रामे का अंत राज्य में राष्ट्रपति शासन लगने से हुआ। सरकार बनाने का दावा कर रही एनसीपी, कांग्रेस और शिवसेना में आखिरी वक्त तक शर्तें ही तय नहीं हो पाईं। एनसीपी ने मंगलवार सुबह जब राज्यपाल से सरकार बनाने के लिए तीन दिन का समय मांगा तो उन्होंने यह मांग ठुकरा दी। साथ ही राष्ट्रपति शासन की सिफारिश कर दी। भाजपा और शिवसेना के बीच नई सरकार के गठन को लेकर कोई सहमति नहीं बन पाने के बाद ही साफ हो गया था कि यह राज्य राष्ट्रपति शासन की ओर बढ़ सकता है। एक बार तो उम्मीद हुई थी कि शायद एनसीपी-कांग्रेस-शिवसेना की गठबंधन सरकार बन जाए पर सूत्रों के मुताबिक तीनों पार्टियां न तो कॉमन मिनिमम प्रोग्राम और न ही यह तय कर पाई कि सरकार में किसके कितने मंत्री होंगे। हालांकि राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी ने पहले शिवसेना और फिर राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी को सरकार बनाने के लिए अपना दावा पेश करने के लिए मंगलवार रात साढ़े आठ बजे तक का समय दिया था, लेकिन उसके पहले ही उन्होंने राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफारिश कर दी। इसके बाद सिफारिश को मंत्रिमंडल और फिर राष्ट्रपति की मंजूरी मिलने में ज्यादा समय नहीं लगा। महाराष्ट्र के राज्यपाल के मुताबिक राज्य में सरकार गठन की तमाम कवायदों के बीच भी राजनीतिक गतिरोध बरकरार रहा और दावे के बावजूद शिवसेना समर्थन पत्र नहीं दे पाई। इसके अलावा राकांपा और कांग्रेस पार्टी के बीच भी ऊहापोह की स्थिति बनी रही और विधायकों की खरीद-फरोख्त के आरोप सामने आने लगे। संभव है कि राज्यपाल ने सरकार गठन को लेकर संबंधित पार्टियों के ऊहापोह को भविष्य में राजनीतिक अस्थिरता पैदा होने का संकेत माना हो, लेकिन राजनीतिक हलकों में यह उम्मीद थी कि भाजपा के सरकार बनाने में नाकाम रहने के बाद बनती तस्वीर में शिवसेना-राकांपा-कांग्रेस गठबंधन को मौका दिया जाएगा। अब सवाल उठना स्वाभाविक है कि राज्यपाल ने विभिन्न पक्षों को समय देने के मामले में इस तरह का अतार्पिक और भेदभावपूर्ण रवैया क्यों अख्तियार किया? खासतौर पर तब जब शिवसेना और राकांपा-कांग्रेस के नेताओं के बीच आपसी बातचीत निर्णायक दौर में थी। इससे कोई इंकार नहीं कर सकता कि महाराष्ट्र में मतदाताओं ने जनादेश भाजपा-शिवसेना गठबंधन के पक्ष में दिया था, जिसे कुल मिलाकर 161 सीटें (भाजपा 105, शिवसेना 56) मिली थीं। मगर नतीजे आने के बाद शिवसेना ने मान्य राजनीतिक और लोकतांत्रिक परंपराओं को दरकिनार कर मुख्यमंत्री पद का दावा किया। किसी दूसरे नम्बर के दल द्वारा सरकार बनाने का दावा कोई नई बात नहीं है, जैसा कि कर्नाटक में हाल ही में देखा गया था, जहां कम सीटें प्राप्त करने के बावजूद जनता दल (एस) और कांग्रेस की गठबंधन सरकार में जनता दल (एस) के कुमारस्वामी को मुख्यमंत्री बनाया गया था। लेकिन ध्यान रहे, भाजपा-शिवसेना के बीच चुनाव पूर्व गठबंधन था। महाराष्ट्र के इस घटनाक्रम ने 2005 के बिहार के विधानसभा चुनाव की भी याद दिला दी, जब किसी भी दल को बहुमत नहीं मिलने पर राज्यपाल बूटा सिंह की सिफारिश पर राष्ट्रपति शासन लागू किया गया था। इस पर सुप्रीम कोर्ट ने कड़ा ऐतराज करते हुए कहा था कि निर्वाचित विधायकों को नई सरकार के गठन का मौका दिए बिना राष्ट्रपति शासन लागू करना असंवैधानिक है। एनसीपी नेता शरद पवार ने राष्ट्रपति शासन लगाने पर कहा कि हम दोबारा चुनाव नहीं चाहते। अभी कोई जल्दी नहीं है। सरकार कैसे बनेगी, नीति क्या होगी, जब तक कांग्रेस व एनसीपी के बीच तय नहीं होगा तब तक आगे बढ़ने का कोई मतलब नहीं है। वहीं कांग्रेस के वरिष्ठ नेता अहमद पटेल का कहना था कि राष्ट्रपति शासन लागू करना लोकतंत्र और संविधान का मजाक उड़ाने की कोशिश है। हमें न्यौता न देना राज्यपाल की गलती है। एनसीपी से बात किए बिना हम कोई फैसला नहीं लेना चाहते थे। पूर्व मुख्यमंत्री और भाजपा नेता देवेंद्र फड़नवीस ने कहा कि भाजपा-शिवसेना गठबंधन को स्पष्ट जनादेश मिला। इसके बावजूद राष्ट्रपति शासन लगाना दुर्भाग्यपूर्ण है। उम्मीद है कि राज्य को जल्द स्थिर सरकार मिलेगी। भाजपा के वरिष्ठ नेता और केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने स्पष्ट किया कि हमने सभी को छह महीने का समय दे दिया है। जिसे भी सरकार बनानी है, बनाए।