Saturday, 16 November 2019

संवैधानिक लोकतंत्र में कोई भी कानून से ऊपर नहीं

सुप्रीम कोर्ट ने खुद के बारे में ऐतिहासिक प्रतिमान गढ़ा है। कानून से ऊपर कोई नहीं है। यह टिप्पणी सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐसे मामले पर फैसले देते हुए की जिसमें उसके प्रमुख न्यायाधीश के कार्यालय को भी आरटीआई यानि सूचना के अधिकार कानून के दायरे में लाने की मांग की गई थी। सीजेआई रंजन गोगोई की पांच जजों की संविधान पीठ ने बुधवार को फैसला देते हुए कहाöआरटीआई एक्ट के तहत सीजेआई का कार्यालय सार्वजनिक प्राधिकरण है। पीठ ने आगाह भी किया है कि निगरानी के हथियार के तौर पर आरटीआई का इस्तेमाल नहीं किया जाएगा और जब भी पारदर्शिता की बात होगी, उस वक्त न्यायिक स्वतंत्रता को भी ध्यान में रखना होगा। पीठ ने यह भी कहा कि संवैधानिक लोकतंत्र में कोई भी कानून से ऊपर नहीं है। जज भी इससे अलग नहीं हैं। पीठ ने कहा कि सीजेआई दफ्तर को यह बताना होगा कि कोलेजियम द्वारा जजों की नियुक्ति के लिए किन नामों पर विचार किया गया, पर नामों पर विचार करने के पीछे क्या आधार था, इसका खुलासा नहीं किया जा सकता। हालांकि यह आम व्यवस्था है कि संविधान और कानून की कसौटी पर देश के सभी नागरिक और समूची व्यवस्था को संचालित करने वाला हरेक व्यक्ति बराबर है, भले ही वह कितने भी ऊंचे पद पर या विशिष्ट क्यों न हो, मगर यह भी सच है कि कुछ मामलों में महज धारणा और स्थापित परंपराओं की वजह से किसी व्यक्ति या पद को लेकर रियायत का रुख अपनाया जाता है। सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश के कार्यालय को आरटीआई कानून के दायरे में  लाया जाए या नहीं, इसी धारणा की वजह से पिछले कई सालों से ऊहापोह या विचार का विषय बना हुआ था। लेकिन बुधवार को सुप्रीम कोर्ट के पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने यह साफ कर दिया कि शीर्ष अदालत के प्रमुख न्यायाधीश का कार्यालय अब सूचना के अधिकार कानून के दायरे में आएगा। इससे न सिर्प जवाबदेही और पारदर्शिता में इजाफा होगा बल्कि न्यायायिक स्वायत्तता भी मजबूत होगी। यह भी सत्य है कि पिछले कुछ सालों के दौरान ऐसे सवाल भी उठे हैं कि कुछ मामलों में आरटीआई को हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जाता रहा है। इसी के मद्देनजर अदालत ने आगाह किया कि न्यायपालिका के मामले में अगर आरटीआई के जरिये जानकारी मांगी जाती है तो इसमें कुछ भी गलत नहीं है, लेकिन इसका इस्तेमाल निगरानी रखने के हथियार के रूप में नहीं किया जा सकता और पारदर्शिता के मसले पर विचार करते समय न्यायिक स्वतंत्रता को ध्यान में रखना होगा। चूंकि उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश का कार्यालय कुछ शर्तों के साथ ही सूचना के अधिकार कानून के दायरे में आएगा इसलिए यह भी देखना होगा कि उससे क्या जानकारी हासिल की जा सकती है और क्या नहीं? आशा तो यह है कि इस फैसले का असर कोलेजियम के कामकाज को भी पारदर्शी बनाएगा न्यायाधीशों की नियुक्ति, पदोन्नति और स्थानांतरण के मामले में प्रक्रिया संबंधी सूचना देने के सवाल को बहस का विषय माना गया है, यह फैसला एक जरूरी संदेश देता है कि कोई भी कहीं भी और यहां तक कि शीर्ष अदालत के न्यायाधीश भी कानून से ऊपर व परे नहीं हो सकते।

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