Saturday 23 November 2019

संस्कृत पढ़ाने वाले मुस्लिम प्रोफेसर पर दुर्भाग्यपूर्ण बवाल

यह दुख की बात है कि विशेष योग्यता रखने वाले किसी व्यक्ति का विरोध सिर्प इसलिए किया जाए कि उसकी धार्मिक पहचान अलग है। वाराणसी में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय (बीएचयू) में एक ऐसा मामला सामने आया है जो किसी भी संवेदनशील और प्रगतिशील सोच वाले व्यक्ति को असहज करने के लिए काफी है। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय (बीएचयू) के संस्कृत विभाग में नियुक्त हुए एक मुस्लिम प्रोफेसर फिरोज खान को लेकर पिछले एक सप्ताह से ज्यादा समय से छात्रों का धरना-प्रदर्शन चल रहा है। प्रदर्शनकारी छात्र मुस्लिम प्रोफेसर के धर्म की वजह से उनकी नियुक्ति को रद्द करने की मांग कर रहे हैं। ऐसे यह मुद्दा हिन्दुत्व से जुड़ता जा रहा है। वहीं बीएचयू के संस्कृत विभाग में नियुक्त पहले प्रोफेसर फिरोज खान का सवाल है, मैं एक मुस्लिम हूं, तो क्या मैं छात्रों को संस्कृत सिखा नहीं सकता? संस्कृत से मेरा खानदानी नाता है। सवाल उठता है कि मुस्लिमों को भारतीयता को लेकर आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत के दिए गए इन बयानों के बावजूद बीएचयू के संस्कृत विभाग में मुस्लिम प्रोफेसर फिरोज खान की नियुक्ति पर सवाल खड़े करना कहां तक जायज है? हालांकि बीएचयू ने साफतौर पर कह दिया है कि उन्होंने वाइस चांसलर की अध्यक्षता में एक पारदर्शी क्रीनिंग प्रक्रिया के जरिये सर्वाधिक योग्य उम्मीदवार को सर्वसम्मति से नियुक्त किया है। सरसंघ चालक मोहन भागवत ने ओडिशा में बुद्धिजीवियों की सभा में इस साल पिछले महीने ही में संबोधित करते हुए कहा था, दुनिया में सबसे सुखी मुसलमान भारत में मिलेंगे। क्योंकि हम हिन्दू हैं। पूरा देश एक सूत्र में बंधा है। भारत के लोग विविध संस्कृति, भाषाओं, भौगोलिक स्थानों के बावजूद खुद को एक मानते हैं। इस बीच बुधवार को संत समाज फिरोज के घर पहुंचा। फिरोज के पिता रमजान से मुलाकात की और एक सुर में कहाöहम आपके साथ हैं। शिक्षा को धर्म से जोड़ना गलत है। हम इसकी निन्दा करते हैं। फिरोज के पिता रमजान ने कहाöविरोध कर रहे छात्र यदि मेरे परिवार की पृष्ठभूमि समझेंगे तो वह संतुष्ट हो पाएंगे। मेरे पूर्वज सौ साल से राम-कृष्ण के भजन गा रहे हैं। मेरे चारों  बेटे संस्कृत विश्वविद्यालय में पढ़े हैं। मेरी छोटी बेटी दीवाली को पैदा हुई, जिसका नाम लक्ष्मी है। सहायक प्रोफेसर के रूप में फिरोज खान को अन्य सभी अभ्यार्थियों के बीच सबसे योग्य पाया गया और इसी वजह से उनकी बहाली हुई। इस तरह न सिर्प संस्कृत भाषा के विद्वान हेने के नाते, बल्कि संवैधानिक और नागरिक अधिकारों के नाते भी अपनी नियुक्ति वाले पद पर सेवा देने का उनका अधिकार है। लेकिन संस्कृत के अध्यापक के रूप में कुछ लोग स्वीकार नहीं कर सके। जबकि भिन्न धार्मिक पहचान के बावजूद फिरोज खान की संस्कृत में विशेष योग्यता को न केवल इसे स्वीकार करना चाहिए था, बल्कि पारंपरिक जड़ धारणाओं के मुकाबले इसे भाषा के बढ़ते दायरे के रूप में भी देखना च]िहए था। जो हो रहा है वह दुर्भाग्यपूर्ण है और उम्मीद की जाती है कि बीएचयू के छात्र इस नियुक्ति को शालीनता से स्वीकार करेंगे और आंदोलन समाप्त करेंगे।

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