Vir Arjun, Hindi Daily Newspaper Published from Delhi |
Published on 15th June 2011
अनिल नरेन्द्र
जिस तरीके से छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा जिले में माओवादियों ने एक बार फिर आतंक मचा रखा है उससे पता चलता है कि केंद्र की माओवादियों के प्रति ढुलमुल नीति का कितना नुकसान हो रहा है। पिछले 25 दिनों में माओवादियों ने विभिन्न वारदातों में 34 निर्दोषों को मौत के घाट उतार दिया है। इनके निशाने पर हैं अर्द्धसैनिक बल और पुलिस बल। छत्तीसगढ़ में फोर्स पर हमले तेज करते हुए इन माओवादियों ने बस्तर में लगातार दूसरे दिन भी जमकर खूनखराबा किया। दंतेवाड़ा से देर रात गश्त से लौट रही पुलिस पार्टी को निशाना बनाते हुए उनकी एंटी लैंड माइन गाड़ी को बारुदी सुरंग विस्फोट से उड़ा दिया। हमले में 15 जवान शहीद हो गए। इनमें सात एमपीओ एवं तीन कांस्टेबल थे। तीन जवानों की हालत गम्भीर है। विस्फोट इतना शक्तिशाली था कि एंटी लैंड माइन व्हीकल के परखचे उड़ गए। 24 घंटे के भीतर सुरक्षाबलों पर यह दूसरा हमला था। इससे पहले गुरुवार को तड़के नारायणपुर जिले में माओवादियों ने बेस कैम्प के पास हमला किया जिसमें पांच जवान शहीद हुए थे। दंतेवाड़ा जिला मुख्यालय से 20 किलोमीटर दूर कटे कल्याण थाने के गाटम के जंगल में नक्सलियों ने आधी रात को वारदात को अंजाम दिया। नक्सलियों द्वारा जवानों पर एक के बाद एक हमले को सेना के जवानों में खौफ पैदा करने की माओवादियों की रणनीति मानी जा रही है। दरअसल जंगल वार की ट्रेनिंग लेने सेना बस्तर पहुंच गई है। पहले चरण में लखनऊ से 500 जवानों की टुकड़ी आई है। बस्तर के नारायणपुर जिले में आर्मी का ट्रेनिंग सेंटर बनाया जा रहा है। दक्षिण बस्तर के जंगलों में छत्तीसगढ़ के अलावा उड़ीसा एवं आंध्र प्रदेश से बड़ी तादाद में नक्सली/माओवादी पहुंच चुके हैं। खुफिया तंत्र की ताजा रिपोर्ट के तहत दंतेवाड़ा के पहाड़ी ठिकानों में करीब 3000 माओवादियों का जमावड़ा हो चुका है।बस्तर में सेना की दस्तक से बौखलाए माओवादियों ने एक बड़े मिशन को अंजाम देने की रणनीति बनाई लगती है। सेना की आमद के बाद से ही बीते एक पखवाड़े में चार बड़ी घटनाओं ने समूचे छत्तीसगढ़ में दहशत का माहौल पैदा कर दिया है। खुफिया विभाग की एक रिपोर्ट यह भी है कि बस्तर में सोची-समझी रणनीति के तहत माओवादी हमलों को अंजाम दे रहे हैं। इनकी अगली योजना शासन तंत्र का ध्यान जंगलों में उलझाकर शहरों में नेटवर्प और मजबूत करना है। शहरों में अपना नेटवर्प बनाने के बाद यह माओवादी कोई न कोई बड़ी वारदात करके अपनी ताकत का अहसास कराने की फिराक में हैं। यह तत्व चुपचाप अपनी गतिविधियों को बढ़ाने में लगे हैं। देश का राजनीतिक नेतृत्व दिल्ली के शोरगुल में उलझा हुआ है और यह गम्भीर समस्या जैसे उसकी प्राथमिकताओं में कहीं पिछड़ चुकी है। माओवादियों के खिलाफ दो साल पहले घोषित बहुचर्चित रणनीति का क्या हुआ, आज यह सवाल पूछने का वैध अधिकार है? तब विद्रोहग्रस्त इलाकों के विकास एवं सुरक्षाबलों की कार्रवाई की दो सूत्रीय रणनीति देश के सामने रखी गई थी। लेकिन आज ये दोनों सूत्र कहीं पहुंचते नहीं दिखते। उन इलाकों की आदिवासी आबादी की भावनाओं पर मरहम लगाने की कोई ठोस योजना कार्यरूप लेती नहीं दिखती है। जरूरत यह सुनिश्चित करने की है कि सरकारी स्तर पर सिर्प रस्म अदायगी न हो बल्कि उन योजनाओं व रणनीतियों को अमली रूप दिया जाए जिनकी घोषणाएं वर्षों से की जाती रही हैं।
No comments:
Post a Comment