इन तेल कंपनियों ने देश के गरीब, मध्य वर्ग, कर्मचारी वर्ग के नाक में दम कर रखा है। हम मांग करते हैं कि इन बड़ी-बड़ी तेल कंपनियों की वित्तीय जांच कराई जाए? आखिर इनके खर्चों का हिसाब क्या है? इनकी अय्याशी की वजह से जनता क्यों पिसे? दरअसल यह नवरत्न ही देश को लूट रही हैं। आज तक सरकार ने यह कभी नहीं बताया कि निजी कमर्शियल क्षेत्र में पेट्रोल की डीजल की कितनी खपत होती है। हमारा अनुमान है कि तेल की कुल खपत में सरकारी व इन नवरत्न कंपनियां, रेलवे, एयर लाइंस इनमें 70 से 80 पतिशत खपत होती है। सरकार अपने कोटे में दस पतिशत कमी क्यों नहीं करती। बार-बार कीमतें बढ़ाकर महंगाई को बढ़ाने से बाज आए। जनता को यह भी अधिकारिक रूप से बताया कि आजकल बिक रहे दिल्ली में 63.37 पैसे पति लीटर पेट्रोल में सरकारी कर कितने हैं? सरकार को कोस्ट क्या आती है जिसे वह 63 रुपए पर बेचती है?
अर्थशास्त्री डा. मनमोहन सिंह से देश को बहुत उम्मीदें थीं पर उन्होंने सब पर पानी फेर दिया। मनमोहन सिंह से तो जयादा संवेदनशील हमारा सुपीम कोर्ट है जिसने हाल ही में एक फैसले में कहा कि मुक्त बाजार समस्याओं का हल नहीं है। सुपीम कोर्ट ने आधुनिक अर्थव्यवस्था के नीतिगत स्तम्भों, उदारीकरण, निजीकरण और वैश्विकरण की जबर्दस्त आलोचना करते हुए कहा कि मुक्त बाजारों की कार्यपणाली पर पुनर्विचार करने की जरूरत है। न्यायाधीश सुदर्शन रेड्डी की पीठ ने साफ कहा कि सरकार मुक्त बाजार के नाम पर अपने उस संवैधानिक दायित्व से नहीं बच सकती जिसके तहत उसे जन कल्याण के लिए काम करना जरूरी है। `बिना नियमन वाली मुक्त व्यवस्था में बाजार व्यापक तौर पर विफलता की ओर जाएंगे।
Tags: Anil Narendra, Daily Pratap, India, Manmohan Singh, Petrol Price, Poor, Poverty, Vir Arjun
Vir Arjun, Hindi Daily Newspaper Published from Delhi |
Published on 2nd June 2011
अनिल नरेन्द्र
हमें लगता है कि यूपीए की मनमोहन सिंह सरकार ने यह नीति बनाई है कि गरीब को ही मार दो, महंगाई अपने आप दूर हो जाएगी। यदि ऐसा न होता तो कमरतोड़ महंगाई पर कुछ तो नियंत्रण लगाने का पयास यह सरकार करती? उलटा अब फिर पेट्रोल के दाम, डीजल व केरोसिन तेल के दाम बढ़ाने की तैयारी चल रही है। यह हाल तब है जबकि अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत पति बैरल घटी है। पेट्रोलियम मंत्री जयपाल रेड्डी ने मंगलवार को देहरादून में कहा कि विदेशी कच्चे तेल के मुकाबले घरेलू बाजार में पेट्रोल की कीमतें अभी भी कम हैं और तेल बेचने वाली कम्पनियों को अभी नुकसान हो रहा है। तेल बेचने वाली कंपनियों को पेट्रोल के हर लीटर पर चार रुपए से ऊपर का नुकसान बता रहे हैं जयपाल रेड्डी। उसी दिन इंडियन आयल कंपनी के अध्यक्ष आरएस बुटाला ने पेस कांपेंस की और बताया कि कम कीमत पर उत्पादन बेचने की वजह से कम्पनी का शुद्ध लाभ 2009-10 की तुलना में घटा है। कंपनी को 2009-10 में 10,221 करोड़ रुपए का लाभ हुआ था जो घटकर समाप्त वित्त वर्ष की अंतिम तिमाही में 3905 करोड़ 16 लाख रुपए रहा। यानि की यह शुद्ध लाभ की बात कर रहे हैं जबकि मंत्री जी कंपनी में घाटे की बात कर रहे हैं। वैश्विक बाजार में अन्य मुद्राओं की तुलना में डॉलर की मजबूती की वजह से कच्चे तेल के दाम 99 डॉलर पति लीटर आ गए। उल्लेखनीय है कि पिछले माह के शुरुआत में कच्चे तेल की कीमतें 34 माह की सर्वाधिक ऊंचाई 115 डॉलर पति बैरल पहुंच गई थी। पाठकों को यह जानकर हैरानी होगी कि पाकिस्तान में इस समय पेट्रोल के दाम कुल 17 रुपए पति लीटर है जबकि इंडोनेशिया जैसे देशों में पेट्रोल की कीमत इससे भी कम है।इन तेल कंपनियों ने देश के गरीब, मध्य वर्ग, कर्मचारी वर्ग के नाक में दम कर रखा है। हम मांग करते हैं कि इन बड़ी-बड़ी तेल कंपनियों की वित्तीय जांच कराई जाए? आखिर इनके खर्चों का हिसाब क्या है? इनकी अय्याशी की वजह से जनता क्यों पिसे? दरअसल यह नवरत्न ही देश को लूट रही हैं। आज तक सरकार ने यह कभी नहीं बताया कि निजी कमर्शियल क्षेत्र में पेट्रोल की डीजल की कितनी खपत होती है। हमारा अनुमान है कि तेल की कुल खपत में सरकारी व इन नवरत्न कंपनियां, रेलवे, एयर लाइंस इनमें 70 से 80 पतिशत खपत होती है। सरकार अपने कोटे में दस पतिशत कमी क्यों नहीं करती। बार-बार कीमतें बढ़ाकर महंगाई को बढ़ाने से बाज आए। जनता को यह भी अधिकारिक रूप से बताया कि आजकल बिक रहे दिल्ली में 63.37 पैसे पति लीटर पेट्रोल में सरकारी कर कितने हैं? सरकार को कोस्ट क्या आती है जिसे वह 63 रुपए पर बेचती है?
अर्थशास्त्री डा. मनमोहन सिंह से देश को बहुत उम्मीदें थीं पर उन्होंने सब पर पानी फेर दिया। मनमोहन सिंह से तो जयादा संवेदनशील हमारा सुपीम कोर्ट है जिसने हाल ही में एक फैसले में कहा कि मुक्त बाजार समस्याओं का हल नहीं है। सुपीम कोर्ट ने आधुनिक अर्थव्यवस्था के नीतिगत स्तम्भों, उदारीकरण, निजीकरण और वैश्विकरण की जबर्दस्त आलोचना करते हुए कहा कि मुक्त बाजारों की कार्यपणाली पर पुनर्विचार करने की जरूरत है। न्यायाधीश सुदर्शन रेड्डी की पीठ ने साफ कहा कि सरकार मुक्त बाजार के नाम पर अपने उस संवैधानिक दायित्व से नहीं बच सकती जिसके तहत उसे जन कल्याण के लिए काम करना जरूरी है। `बिना नियमन वाली मुक्त व्यवस्था में बाजार व्यापक तौर पर विफलता की ओर जाएंगे।
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