Tuesday, 6 December 2011

मुस्लिम आरक्षण पर शह-मात का खेल शुरू

उत्तर प्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड आदि राज्यों के विधानसभा चुनाव निकट आते ही प्रमुख राजनीतिक दल अपना मुस्लिम कार्ड खेलने की तैयारी कर रहे हैं। केंद्रीय कानून मंत्री सलमान खुर्शीद ने कहा कि सरकार अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के लिए निर्धारित 27 फीसदी आरक्षण के अन्दर ही पिछड़े मुसलमानों को आरक्षण देने पर विचार कर रही है और इस संबंध में शीघ्र ही निर्णय लिया जाएगा। उन्होंने कहा कि यह मुद्दा दो साल से सरकार के एजेंडे में था और इस पर फैसला लम्बित था, जो शीघ्र किया जाएगा। उत्तर प्रदेश के दृष्टिकोण से मुस्लिम आरक्षण एक महत्वपूर्ण कदम हो सकता है। यूपी विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को कितना फायदा होगा, वह तो नतीजे बताएंगे लेकिन उसके बहाने देश के मुस्लिम समुदाय को बहरहाल कुछ फायदा जरूर हो सकता है। सरकार और कांग्रेस के रणनीतिकार मान रहे हैं कि उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव भी आगामी फरवरी में उत्तराखंड एवं पंजाब राज्यों के साथ हो सकते हैं। ऐसे में मुस्लिम आरक्षण के मामले में अब देरी नहीं होनी चाहिए। उत्तर प्रदेश चुनाव के दृष्टिगत मुसलमानों को आरक्षण अब चुनावी मुद्दा बन गया है। बहुजन समाज पार्टी भी इस मुद्दे को पूरी शिद्दत के साथ भुनाना चाहती है। इसी के दृष्टिगत मुख्यमंत्री मायावती ने 14 सितम्बर को प्रधानमंत्री को एक पत्र लिखा था। इसमें कहा गया था कि मुसलमानों को आबादी के अनुपात में अवसर उपलब्ध कराने के लिए आरक्षण की व्यवस्था बहुत जरूरी है। यदि आवश्यकता पड़े तो इसके लिए संविधान में संशोधन किया जाए और बसपा लोकसभा में इसका समर्थन करेगी। बसपा यह मानकर चल रही थी कि कांग्रेस के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार के लिए यह मुमकिन नहीं होगा। ऐसे में वह मुसलमानों से कह सकेगी कि हम तो संविधान में संशोधन तक के लिए तैयार हैं। हम तो अपना समर्थन पत्र भी प्रधानमंत्री को दे चुके हैं पर कांग्रेस बहन जी को इसका केडिट कैसे लेने देती। उत्तर प्रदेश सरकार के तमाम पत्रों पर कतई चुप्पी साध लेने वाले प्रधानमंत्री मुस्लिम आरक्षण वाली मायावती की चिट्ठी का जवाब देना नहीं भूले। चिट्ठी का जवाब भी दिया नेहले पर देहला जैसा। प्रधानमंत्री ने लिखा कि कानून के तहत और स्वप्रेरणा से आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और केरल की सरकारों ने मुसलमानों को काफी समय से सरकारी नौकरियों में आरक्षण दिया है। वह उम्मीद करेंगे कि मुख्यमंत्री इन राज्यों के उदाहरणों पर गौर करेंगी और अपने राज्य में उसी तरह कदम उठाने पर विचार करेंगी। एक तरह से उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री को बगैर कहे प्रधानमंत्री का जवाब था कि अगर आप मुसलमानों की इतनी ही हितैषी हैं तो आंध्र, कर्नाटक और केरल की तरह उत्तर प्रदेश में मुसलमानों को आरक्षण दे सकती हैं, संविधान में संशोधन की प्रतीक्षा करे बगैर। दरअसल बसपा 18 दिसम्बर को लखनऊ में मुसलमानों का बड़ा सम्मेलन कर रही है। उसकी तैयारी यहां मुसलमानों को आरक्षण न मिल पाने का ठीकरा कांग्रेस पर फोड़ने की है। मुसलमानों के बीच कांग्रेस को लेकर कोई भ्रम पैदा हो, इससे पहले ही पीएमओ आक्रामक तेवर में आ गया।
इसमें कोई सन्देह नहीं कि मुसलमानों में ऐसे लोग हैं जो आर्थिक दृष्टि से बहुत पिछड़े हुए हैं और इन्हें हर सम्भव मदद की जरूरत है पर क्या चुनाव के समय आरक्षण ही इसका एकमात्र समाधान है? मुस्लिम समुदाय के पिछड़ेपन के कई कारण हैं। एक बहुत बड़ी वजह इनमें शिक्षा की कमी है। पिछले दिनों नई दिल्ली के विश्व उर्दू दिवस पर दिल्ली विश्वविद्यालय में एक सम्मेलन हुआ था। मुस्लिम समुदाय के शिक्षाविदों ने इस सिलसिले में सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित किया और कहा है कि सरकारी स्कूलों में पिछले 17 साल से उर्दू शिक्षक नहीं नियुक्त हुए। इस सम्मेलन में दिल्ली के विभिन्न कोनों से 500 से अधिक लोगों ने शिरकत की। समारोह के संयोजक डॉ. एएस खान ने बताया कि स्कूलों में उर्दू के करीब 750 पद खाली पड़े हैं। इसे भरने की बार-बार मांग की गई है लेकिन इस पर कोई ध्यान नहीं दिया गया। जब राजधानी दिल्ली में मुसलमानों की शिक्षा क्षेत्र में इतनी दयनीय स्थिति है तो पूरे देश का क्या हाल होगा। शिक्षा एक ऐसा हथियार है जिससे मुसलमानों में हर तरह की तरक्की होगी। एक और बड़ा कारण है मुसलमानों के पास सही व सक्षम नेतृत्व न होना और जो नेता खुद को इसका प्रतिनिधि अथवा हितैषी बताते हैं उनकी दिलचस्पी सिर्प इस समुदाय के वोटों में है। यह एक सच्चाई है कि मुस्लिम समुदाय पिछड़ेपन से ग्रस्त है। लेकिन इसके आधार पर उसे मुख्य धारा से बाहर करार देना उसे जानबूझ कर एक समुचित दायरे में सीमित करना है। मुस्लिम समाज के हित के लिए यह आवश्यक है कि उन्हें किसी खांचे-दायरे में न बांधा जाए। जो लोग आज आरक्षण की बात कर रहे हैं उनके पास इस सवाल का जवाब शायद ही कोई हो कि उन्हें अभी तक इस समुदाय का पिछड़ापन क्यों नहीं दिखा? क्यों चुनाव आते ही उन्हें मुसलमानों की दुर्दशा की याद आ जाती है? जो लोग आज मुसलमानों की तरक्की की दुहाई दे रहे हैं उन्हें इस पर विचार करना चाहिए कि जिस समुदाय के लोग लम्बे अरसे तक देश के शासक रहे वे पिछड़ेपन से आज ग्रस्त क्यों हैं? एक सर्वे में पता चला है कि देश के करीब एक-तिहाई मुसलमान 550 रुपये प्रतिमाह से भी कम आमदनी पर जीवन काटने को मजबूर हैं। नेशनल काउंसिल फॉर एप्लाइड इकोनॉमिक रिसर्च (एनसीएआईआर) के अनुसार वर्ष 2004-05 में हर 10 में से तीन मुसलमान गरीबी रेखा के नीचे गुजर-बसर कर रहे हैं। गरीब मुसलमानों में भी जो शहरों में रहते हैं, उनकी स्थिति गांवों में रहने वाले मुसलमानों से कुछ बेहतर है। गांवों में रहने वालों की आमदनी महज 338 रुपये प्रतिमाह की थी। यह सर्वे ऐसे समय पर आया है, जब सुप्रीम कोर्ट ने एक अंतरिम आदेश में आंध्र प्रदेश के पिछड़े मुसलमानों को रोजगार व शिक्षा संस्थानों में चार फीसदी आरक्षण देने को जायज ठहराया है। बहरहाल इस बात का वक्त आ चुका है कि सभी धर्मों के उन लोगों को जो पिछड़े, दलित तथा आदिवासी व मुस्लिम समुदाय से आते हैं, को कानूनी रूप से मान्य सभी सुविधाएं बेशक यह आरक्षण ही क्यों न हो पर इसे वोट बैंक से जोड़ने पर हमें सख्त एतराज है।

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