Friday 30 December 2011

लोकपाल बिल का यह हश्र होगा, सभी को मालूम था

Vir Arjun, Hindi Daily Newspaper Published from Delhi
Published on 30th December 2011
अनिल नरेन्द्र
हकीकत तो यह है कि लोकपाल बिल को लेकर न तो मनमोहन सरकार गम्भीर थी और न ही विपक्ष। हमें तो लगता यह है कि सरकार और कांग्रेस पार्टी लोकपाल बिल को सिर्प लोकसभा और राज्यसभा में पेश करना चाहती थी। पारित हो जाता तो भी ठीक था, न होता तो भी ठीक था। जोर-जबरदस्ती से लोकसभा में पारित तो करवा लिया पर उसे संवैधानिक दर्जा दिलवाने में फेल हो गई। उधर विपक्ष का कभी भी इरादा इसे पास कराने व संवैधानिक दर्जा देने का नहीं था। इसलिए उसने बहस में हिस्सा तो लिया पर वोट करने के समय बटन नहीं दबाया। भारतीय जनता पार्टी और मार्क्सवादी पार्टी को लोकपाल के वर्तमान स्वरूप पर ऐतराज था और उसने लोकपाल के मूल रूप में कुछ संशोधन चाहे। पर सरकार इन संशोधनों को मानी नहीं इसलिए विपक्ष ने बिल के समर्थन में वोट नहीं दिया। कांग्रेस अब यह कह रही है कि हमने तो लोकपाल बिल पारित करवा दिया है पर भाजपा ने बटन न दबाकर अपने आपको एक्सपोज कर दिया है। भाजपा का कहना है कि ऐसे अपभावी लोकपाल बिल का समर्थन करके हमने अपनी नाक नहीं कटानी थी। हम ऐसे खोखले लोकपाल बिल का समर्थन कैसे कर सकते हैं? कांग्रेस का मकसद पभावी लोकपाल लाने का कभी था ही नहीं वह तो बस संसद में इसे पेश करना चाहती थी ताकि आगामी पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में इसकी पार्टी को लाभ मिल सके ताकि वह जनता के बीच यह कह सके कि देखो हम तो ले आए पर भाजपा ने बटन नहीं दबाया और अपने आपको एक्सपोज कर दिया है। लोकसभा में जिस तरह सरकार की इस बिल को संवैधानिक दर्जा देने की कोशिश में किरकिरी हुई उससे भी ज्यादा किरकिरी राज्सभा में होगी। राज्यसभा में तो विपक्ष का बोलबाला है। कांग्रेस और उनके सारे सहयोगी दलों की संख्या 99 होती है। नामित 8 और निर्दलीय 6 को भी अगर सरकार अपने पक्ष में जोड़ ले तब भी हार का सामना करना पड़ेगा, क्योंकि विपक्ष की कुल संख्या 131 सांसदों की है और इनमें ऐसे दल हैं जो किसी भी हालत में सरकार का साथ नहीं दे सकते। इसलिए राज्यसभा में भी सरकार इस बिल को संवैधानिक दर्जा नहीं दिलवा सकती। इस पूरे पकरण को कैसे आंका जाए? एक दृष्टि से सिवाय दो-तीन बिन्दुओं के बाकी में तो सफलता मिली ही है, जो काम पिछले 40 सालों में नहीं हो सका वह पहली बार यहां तक पहुंचा है। इसके साथ यह भी ठीक है कि जिस मकसद से अन्ना हजारे ने अपना आंदोलन किया वह मकसद पूरा नहीं हुआ। लोकसभा में आंकड़ों की अग्निपरीक्षा के बाद सरकारी लोकपाल की तस्वीर भी बदल चुकी है। संशोधनों के साथ राज्यसभा की मुहर का इंतजार कर रहा लोकपाल अब न तो संवैधानिक संस्था होगा और न ही इसके जरिए लोकायुक्त की स्थापना राज्यों के लिए बाध्यता होगी। लोकपाल में सांसदों के खिलाफ शिकायत पर कार्रवाई को लेकर लोकसभा अध्यक्ष या राज्यसभा सभापति की रिपोर्ट का पावधान तीखे विरोध के बाद सरकार ने ही वापस ले लिया। बदले हुए पावधानों के मुताबिक पधानमंत्री के विरुद्ध किसी शिकायत की जांच शुरू करने के लिए नौ सदस्यों वाले लोकपाल में अब दो-तिहाई सदस्यों की सहमति जरूरी है। पहले इसके लिए तीन-चौथाई सदस्यों की मंजूरी निर्धारित की गई थी। लोकपाल विधेयक में टकराव का सबसे बड़ा बिंदु रहा लोकायुक्त स्थापना के राज्यों के अधिकार का अतिकमण। सूबों में लोकायुक्त स्थापना की बाध्यता खत्म कर इसे वैकल्पिक बनाने की बात भी सरकार को माननी पड़ी। लोकपाल के दायरे में सशस्त्र सेनाओं को भी बाहर कर दिया गया है। गोया चालीस वर्षों से देश के साथ आंख मिचौली खेल रहा यह ब्रह्मास्त्र अब भी फायरिंग मूड में नहीं दिख रहा है। वह तो भला हो अन्ना हजारे और उनके अनशन आंदोलन का कि भ्रष्टाचार पर पहली बार आम आदमी की त्योरियां चढ़ीं और लोकपाल कानून जन-जन का संवाद बन पाया। अब सरकार लोकपाल बिल राज्यसभा में लाने के बजाए उसे पारित कराने के लिए संसद का संयुक्त सत्र आयोजित कर सकती है। यह रास्ता भी आसान नहीं होगा। क्योंकि एक तो संवैधानिक तौर तरीकों का सवाल सतह पर है और दूसरे सरकार के सहयोगी दलों की नाराजगी खत्म होने का नाम नहीं ले रही। यह विचित्र है कि खुद सत्ता में साझीदार राजनीतिक दल लोकपाल के मौजूदा पावधानों से सहमत नहीं। तृणमूल कांग्रेस को अब भी लग रहा है कि यह विधेयक राज्यों के अधिकारों का अतिकमण करने वाला है। लोकपाल को संवैधानिक दर्जा न हासिल हो पाने के लिए विरोधी दलों पर उबल रहे सत्तापक्ष को पहले इस सवाल का जवाब देना चाहिए कि क्या उसके सहयोगी दल पूरी तरह इस मुद्दे पर उसके साथ हैं? लोकसभा में बहसों के रंग देखकर आश्चर्य भी हुआ कि देश की बुनियाद खोद रहे भ्रष्टाचार के खात्मे को लेकर हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था की शीर्षस्थ संस्था इतने तनाव में क्यों है? ऐसे तर्प गढ़े जा रहे हैं कि एक असरदार लोकपाल हमारे लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटी है। जो ऊर्जा भ्रष्टाचार के खात्मे के उपाय ढूंढने में लगानी चाहिए उसे अन्ना या नागरिक समाज को निशाना बनाने में क्यों खर्च किया जा रहा है? यह भी आश्चर्य हुआ कि कड़े निर्देश, व्हिप जारी करने के बावजूद सत्ताधारी गठबंधन के दो दर्जन से अधिक सांसद कैसे ऐन मौके पर गायब मिले और अपनी ही सरकार की किरकिरी करवाने के जिम्मेदार बने। इनमें खुद कांग्रेस के करीब डेढ़ दर्जन सांसद शामिल थे। देश जिस मुद्दे पर उबल रहा है उस पर हमारे जन पतिनिधि क्या इतने असंवेदनशील हैं। इस लोकसभा में लोकपाल विधेयक पारित हो जाने का दबाव कहें या फिर अपेक्षा के अनुरूप समर्थकों की भीड़ न जुटा पाने का असर कि बुधवार को अन्ना हजारे ने अपना अनशन बीच में ही तोड़ दिया। यही नहीं उन्होंने 30 दिसम्बर से सांसदों के आवासों पर पस्तावित धरना और जेल भरो अभियान भी स्थगित कर देने का ऐलान किया है। आंदोलन से इस तरह पीछे हटने को टीम अन्ना का हौसला टूटने के तौर पर देखा जा रहा है। अन्ना मुंबई में तीन दिन ही अनशन पर बैठे, हालांकि उन्हें पहले से ही बुखार की शिकायत थी मगर वे अनशन के अपने फैसले पर अडिग रहे। इसके बाद कई बार उनकी हालत काफी बिगड़ी और डाक्टर सहयोगियों ने उनको उपवास खत्म करने की सलाह भी दी, लेकिन वे इंकार करते रहे। बुधवार की शाम अन्ना ने मंच पर आकर लोगों को संबोधित किया और इसी दौरान अनशन तोड़ने की घोषणा की। अन्ना ने कहा संसद में जो कुछ हुआ वह दुखद है। अब हमारे पास एक ही रास्ता है। हम नया कार्यकम बनाएंगे और राज्यों में जाकर भ्रष्टाचार के खिलाफ जनजागरण चलाएंगे। लोगों को बताया जाएगा कि मौजूदा केन्द्र सरकार ने किस तरह देश की जनता के साथ विश्वासघात किया। लोकपाल बिल का यही हश्र होगा इस पर हमें शुरू से अंदाजा था।
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