केंद्रीय कैबिनेट ने गुरुवार को अल्पसंख्यकों के लिए आरक्षण का रास्ता साफ कर दिया। अब पिछड़े वर्गों के लिए तय 27 फीसदी आरक्षण में साढ़े चार फीसदी हिस्सा अल्पसंख्यकों का होगा। इसे आगामी विधानसभा चुनावों में कांग्रेस का जनाधार के तौर पर देखा जा रहा है। भ्रष्टाचार, लोकपाल, ब्लैक मनी जैसे ज्वलंत मुद्दों से घिरी संप्रग सरकार ने विपक्ष में विभाजन और देश का ध्यान ज्वलंत समस्याओं से हटाने के लिए यह कदम उठाया लगता है। गुरुवार को भोजन का अधिकार देने वाले बिल को संसद में पेश करने वाली मनमोहन सरकार ने राज्य में शिक्षा संस्थानों और नौकरी में अल्पसंख्यकों को आरक्षण का रास्ता साफ करके एक तीर से कई निशाने साधने का प्रयास किया है। कुछ साल पहले रंगनाथ मिश्र आयोग ने मुसलमानों की हालत को बेहतर करने के लिए आरक्षण की सिफारिश की थी। लेकिन संविधान धर्म के आधार पर आरक्षण देने की इजाजत नहीं देता। इसलिए पिछले वर्ग की सूची में अल्पसंख्यकों को आरक्षण देकर मुसलमानों को लाभ देने की कोशिश कितनी कारगर होगी, यह तो भविष्य ही बताएगा। राजनीतिक मजबूरियों के चलते सरकार ने मुस्लिम आरक्षण बेशक कर दिया हो या करने की नीयत साफ कर दी हो पर सुप्रीम कोर्ट में यह मामला ठहर पाता है या नहीं? सुप्रीम कोर्ट 10 साल पहले उत्तर प्रदेश की तत्कालीन भाजपा सरकार की ऐसी पहल पर रोक लगा चुका है। उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री रहने के दौरान राजनाथ सिंह ने पिछड़ों के 27 फीसदी कोटे में से ही अतिपिछड़ों को अलग से आरक्षण के लिए सामाजिक न्याय समिति बनाई थी। समिति की ही सिफारिश पर उत्तर प्रदेश सरकार ने विधानसभा से पारित उत्तर प्रदेश लोक सेवा (अनुसूचित जाति/जनजाति व अन्य पिछड़ा वर्ग आरक्षण) संशोधन अधिनियम 2001 लागू तो कर दिया, लेकिन उसी सरकार के पर्यटन मंत्री रहे अशोक यादव ने उसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे दी जबकि कुछ अन्य संगठन भी सरकार के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट गए थे। उस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने राजनाथ सिंह सरकार के उस फैसले पर रोक लगा दी थी। इस बीच पिछड़ों के ही कोटे से मुसलमानों को आरक्षण की पहल पर यादव ने कहा, `चूंकि कोटे के भीतर एक और कोटे' पर सुप्रीम कोर्ट 10 साल पहले रोक लगा चुका है। ऐसे में केंद्र सरकार मुस्लिम आरक्षण को लेकर यदि वाकई गम्भीर है तो संविधान में संशोधन कराए। हकीकत तो यह है कि अलग-अलग पार्टियों की अगुवाई करने वाले पिछड़े वर्गों के कई नेता जिनमें मुसलमान भी शामिल हैं, पिछड़ों के कोटे से मुस्लिम आरक्षण के खिलाफ है, लेकिन मुस्लिम वोट के चलते वे खुलकर इसका विरोध नहीं करना चाहते। राजनीतिक दल ऐसा सिर्प इसलिए कर रहे हैं, क्योंकि वह आने वाले चुनावों में मुस्लिम समुदाय के थोक वोट हासिल करना चाहते हैं। मुस्लिम आरक्षण की वकालत करने वाले दलों के पास इस सवाल का शायद ही कोई जवाब हो कि उन्हें अभी तक इस सप्रदाय का पिछड़ापन क्यों नहीं दिखा? क्या आरक्षण से मुस्लिम समुदाय की समस्याएं खत्म हो जाएंगी? हमारे मुसलमान भाइयों की एक बड़ी समस्या यह भी रही है कि इतने सालों के बाद भी उन्हें सही नेतृत्व नहीं मिल सका और जो नेता खुद को इनका हितैषी बताते हैं उनकी दिलचस्पी सिर्प उनके वोट लेने में है। यह एक सच्चाई है कि मुस्लिम समुदाय पिछड़ेपन से ग्रस्त है, लेकिन इस आधार पर उसे मुख्यधारा से बाहर करार देना उसे जानबूझ कर संकुचित दायरे में सीमित करना है। तालीम की एक बहुत बड़ी समस्या है। पिछले दिनों एक सम्मेलन हुआ था उसमें बताया गया कि दिल्ली के मदरसों में सैकड़ों पद खाली पड़े हुए हैं, इन्हें भरने की किसी ने कोई कोशिश नहीं की। सच्चर कमेटी की सिफारिशें भी मुस्लिम समुदाय का स्तर बढ़ा सकती हैं पर अफसोस से कहा जाएगा कि उस पर कोई अमल नहीं हुआ। जब तक मुस्लिम समाज में तालीम नहीं बढ़ाई जाती, हमें तो उसका उद्धार होता मुश्किल लग रहा है। आवश्यकता तो आज इस बात की है कि ऐसी कोई व्यवस्था बनाएं जिसमें भारतीय समाज के जो भी वंचित निर्धन हैं उन सभी का उत्थान हो भले ही वह किसी भी जाति, समुदाय, क्षेत्र अथवा मजहब के हों।
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