Thursday 28 January 2016

कांटों भरी राह है भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की

पधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के भरोसेमंद अमित शाह को रविवार को दोबारा भारतीय जनता पार्टी का अध्यक्ष चुना गया। उनका निर्वाचन जैसी उम्मीद थी निर्विरोध हुआ। हालांकि अमित शाह के मुकाबले अध्यक्ष पद की दावेदारी के लिए किसी और नेता ने नामांकन पत्र तो दाखिल नहीं किया लेकिन शाह की कार्यशैली से पहले ही नाखुश भाजपा के बुजुर्ग नेताओं ने उनके निर्वाचन कार्यकम का बहिष्कार कर अपना विरोध एक तरह से जता ही दिया। शाह को दोबारा बीजेपी की कमान देने के पीछे क्या उनकी काबिलियत थी या फिर नरेन्द्र मोदी की निकटता? हालांकि मोदी-शाह खेमे का मानना है कि शाह के राजनीतिक कौशल और उनकी संगठनात्मक विशेषज्ञता की बदौलत ही उन्हें अध्यक्ष पद की कमान मिली। अमित शाह मई 2014 में उस समय भाजपा अध्यक्ष बने थे जब तत्कालीन अध्यक्ष राजनाथ सिंह सरकार में शामिल हो गए थे। 51 वर्षीय शाह का ताजा कार्यकाल 3 वर्ष का होगा। भले ही नरेन्द्र मोदी के भरोसे की बदौलत बीजेपी की कमान एक बार फिर मिली हो लेकिन उनके लिए भविष्य की राह न केवल चुनौतीपूर्ण है बल्कि आसान नहीं है। इसकी वजह यह भी है कि शाह और मोदी सरकार दोनों की परफॉरमेंस का असर पार्टी के भविष्य पर सीधा पड़ेगा। इस साल जिन पांच राज्यों और केंद्र शासित पदेश में चुनाव होने हैं, उनमें असम को छोड़कर बाकी राज्यों में भाजपा को ज्यादा बड़ी उम्मीदें नहीं हैं। ऐसे में शाह के लिए पहली चुनौती असम की है, जहां से भाजपा नेताओं ने उम्मीदें बांध रखी हैं और लगातार दावे किए जा रहे हैं। अगले साल भी भाजपा की राह आसान नहीं होने वाली क्योंकि अगले साल 7 राज्यों में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। सबसे बड़ी चुनौती अगले साल होने वाले उत्तर पदेश विधानसभा चुनाव की होगी। शाह को भाजपा के सर्वोच्य पद पर लाने व उनकी पबंधकीय क्षमता पर पहली मुहर उत्तर पदेश ने ही बीते साल लोकसभा चुनाव में लगाई थी। अब शाह पर उत्तर पदेश को लेकर ज्यादा दबाव रहेगा क्योंकि दिल्ली व बिहार के नतीजों ने विरोधियों को शाह की रणनीति व चुनाव पबंधन पर सवाल खड़े करने का मौका दिया है। अभी तक भाजपा केंद्र में सरकार बनने की खुशी व नरेन्द्र मोदी की व्यक्तिगत लोकपियता का फायदा उठाती रही है। पर जहां एक तरफ मोदी की लोकपियता का ग्राफ गिर गया है वहीं सरकार की कारगुजारी पर भी पश्न चिन्ह लग रहे हैं। केंद्र सरकार लगातार नई योजनाओं की घोषणा कर रही है। विकास के वादों की गूंज है। पधानमंत्री विदेश यात्राओं के जरिए रोज नई दोस्ती के समीकरण रच रहे हैं मगर जमीनी हकीकत यह है कि आम लोगों में सरकार के कामकाज को लेकर उत्साह नहीं है। अच्छे दिन आने की उम्मीद धूमिल पड़ गई हैं। इस साल पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं। इनमें से केरल, तमिलनाडु जैसे राज्यों में भाजपा की ताकत सिर्प अपने दम खम पर मुकाबले में रहने की नहीं लगती। शाह के सामने एक चुनौती यह भी होगी ऐसे राज्यों में सहयोगियों की तलाश करने की। करीब साल भर बाद उत्तर पदेश विधानसभा चुनाव होगा शाह की अग्निपरीक्षा। उसी से अगले लोकसभा चुनाव के रुझान भी तय होंगे। भाजपा और राष्ट्रीय स्वयं सेवक स्ंाघ में समन्वय बनाए रखना भी पार्टी और सरकार के लिए जरूरी होगा। पार्टी के अंदर भी असंतोष है। भाजपा पर जब कभी संघ हावी होता है तो कुछ नेताओं व कार्यकर्ताओं में निरंकुश व्यवहार हमें हाल देखने को मिला। जिस नेता के मुंह में जो कुछ आता है बोल देता है चाहे उसका दुष्परिणाम सरकार व पार्टी के लिए कुछ भी हो। अगर इस पर नियंत्रण नहीं लगा तो पार्टी और सरकार दोनें मुश्किल में आती रहेंगी। दिल्ली व बिहार की सबसे करारी हार के बाद भी अमित शाह को अध्यक्ष पद पर बरकरार रखने का फैसला किया गया है क्योंकि शाह पीएम के सबसे विश्वस्त हैं और संघ नहीं चाहता कि अध्यक्ष बदलने के बाद सरकार व संगठन में कोई अंतर दिखे। अमित शाह को बधाई।

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