Sunday 28 May 2017

मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के हल्फनामे पर सहमति?

सर्वोच्च न्यायालय में तीन तलाक के मसले पर चल रही सुनवाई की सार्थकता दिखने लगी है। न्यायालय में सुनवाई पूरी हो चुकी है, फैसला क्या होगा, यह तो बाद में ही पता चलेगा पर सुनवाई के दौरान तीन तलाक को खत्म करने का विरोध करने वाले मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने जिस तरह तलाक के इस तरीके के खिलाफ निकाहनामे में एक शर्त दर्ज कराने पर सहमति दिखाई है उससे लगता है कि उसे यह हकीकत समझ आ गई है कि जागरूक मुस्लिम समाज और खासकर मुस्लिम महिलाओं ने अब फैसला कर लिया है कि वह पुराने तरीके को बर्दाश्त करने के लिए तैयार नहीं हैं। याद रहे कि अभी मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने तीन तलाक के मुद्दे को अदालत के न्यायाधिकार क्षेत्र से बाहर बताया था। यह भी कहा था कि इस मामले में दखल देना, संविधान-प्रदत्त धार्मिक स्वायत्तता का हनन होगा। बोर्ड की एक और प्रमुख दलील यह भी थी कि तीन तलाक कुरान और शरीयत से ताल्लुक रखने के कारण आस्था से जुड़ा मामला है। लेकिन अब बोर्ड के सुर बदल गए हैं। सोमवार को सर्वोच्च न्यायालय में दाखिल अपने नए हल्फनामे में बोर्ड ने कहा है कि महिलाओं को तीन तलाक न मानने का अधिकार भी मिलेगा। दुल्हन निकाहनामे में संबंधित शर्त जुड़वा सकेंगी। यही नहीं, काजी दुल्हा-दुल्हन को समझाएगा कि तीन तलाक न कहने की शर्त निकाहनामे में शामिल करें। बोर्ड तीन तलाक का बेजा इस्तेमाल रोकने के लिए अपनी वेबसाइट, सोशल मीडिया समेत सभी माध्यमों का इस्तेमाल करेगा। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के ताजे हल्फनामे की भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन ने कड़ी आलोचना की है। संगठन का कहना है कि बोर्ड मुस्लिमों के बीच केवल भ्रम पैदा कर रहा है। भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन ने बोर्ड की सख्त आलोचना की कि तीन तलाक का सहारा लेने वालों का सामाजिक बहिष्कार किया जाएगा। संगठन ने कहा कि यह सलाह पर्याप्त नहीं है। सुप्रीम कोर्ट में तीन तलाक का विरोध करने वाली अधिवक्ता फराज फैज ने कहा कि बोर्ड काजियों को परामर्श या दूल्हों को ऐसी सलाह देने वाला कोई पक्ष नहीं है। यह एक पंजीकृत एनजीओ है जो काजियों को न तो संचालित करता है और न ही उन्हें नौकरी पर रखता है। यह केवल मुस्लिमों के बीच भ्रम पैदा कर रहा है। फैज ने कहा कि बोर्ड को ऐसा परामर्श देने का कोई कानूनी या धार्मिक अधिकार नहीं है क्योंकि उसका काम केवल सामाजिक सुधार के लिए काम करना है, देश के मुस्लिमों पर शासन करना नहीं है। दरअसल बोर्ड की सहसा जगी सदाश्यता के पीछे अपने हाथ से कमान छूटने का अहसास सता रहा है। अगर अदालत ने फैसला कर दिया तो फिर उसके पास कौन जाएगा? वैसे भी पर्सनल लॉ बोर्ड समूचे मुस्लिम समाज की नुमाइंदगी नहीं करता। अब अदालत को तय करना है कि फैसले से पहले वह नए हल्फनामे को गौरतलब मानती है या नहीं।

-अनिल नरेन्द्र

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