Sunday, 28 May 2017

कानून-व्यवस्था योगी आदित्यनाथ की सबसे बड़ी चुनौती

कानून-व्यवस्था के नाम पर पूर्ववर्ती अखिलेश यादव की सरकार को घेरकर करीब दो महीने पहले नए तेवर के साथ सत्ता में आई योगी आदित्यनाथ सरकार के सामने यही सबसे बड़ा मुद्दा बनकर उभरा है, यही सबसे बड़ी चुनौती है योगी आदित्यनाथ के सामने। मैंने इसी कॉलम में बिगड़ती कानून-व्यवस्था पर चेताया था। योगी सरकार अपने शुरुआती 100 दिनों के कार्यकाल का रिपोर्ट कार्ड अगले महीने के अंत तक जारी करेगी मगर बिगड़ी कानून-व्यवस्था को पटरी पर लाना सबसे बड़ी चुनौती है। प्रदेश भाजपा का कहना है कि योगी सरकार बनने के बाद से प्रदेश की तस्वीर में बदलाव शुरू हो चुका है, बेशक यह कई क्षेत्रों में सही भी है। कहा जा रहा है कि गुंडागर्दी खत्म हो रही है और अपराध का ग्राफ गिर रहा है। सरकार में जनता का विश्वास बहाल हो रहा है। मगर सहारनपुर में जातीय संघर्ष, बुलंदशहर, सम्भल और गोंडा में हाल में हुई सांप्रदायिक घटनाओं ने सरकार के लिए चिन्ता खड़ी कर दी है। ज्यादा चिन्ता की बात यह है कि इन वारदातों में भाजपा और कथाकथित हिन्दुवादी संगठनों के लोगों की संलिप्तता के आरोप लगे हैं। पिछले महीने सहारनपुर के शब्बीरपुर में भड़के जातीय संघर्ष के बाद राजपूतों और दलितों के बीच सद्भावना कायम करने में अब तक के प्रयास नाकाफी साबित हुए हैं। इसके उलट उनमें टकराव खत्म होता नहीं दिख रहा है। सहारनपुर जिला पिछले 10 दिनों से जातीय हिंसा में जल रहा है। दो लोग मारे जा चुके हैं और छह से ज्यादा लोग घायल हैं। हिंसा प्रभावित गांवों में दहशत इस कदर हावी है कि पुलिस के जवानों की गश्त के बावजूद रात में कोई भी ठीक से सो तक नहीं पा रहा है, ज्यादातर लोग तो काम पर भी नहीं निकल पा रहे हैं। यमुना एक्सप्रेस-वे के पास चलती कार को रोककर हत्या और सामूहिक दुष्कर्म की खौफनाक वारदात ने उत्तर प्रदेश में कानून-व्यवस्था के सवाल को इसलिए कहीं अधिक गंभीर बना दिया है, क्योंकि पश्चिमी उत्तर प्रदेश तो पहले से ही अप्रिय कारणों से चर्चा में है। योगी सरकार इसकी अनदेखी नहीं कर सकती कि एक ओर सहारनपुर में न थमती जातीय हिंसा उसके लिए सिरदर्द बनी हुई है तो दूसरी ओर कानून-व्यवस्था को चुनौती देने वाली घटनाएं थमने का नाम ही नहीं ले रही हैं। सुशासन के दावे को मुंह चिढ़ाने वाली घटनाएं तब हो रही हैं जब राज्य सरकार लगातार इस पर जोर दे रही है कि कानून के खिलाफ काम करने वालों को बख्शा नहीं जाएगा। आज जनता पूछ रही है कि क्या अब हम रात को घरों से निकलना बंद कर दें? तब भी न निकलें जब हमारा कोई अस्पताल में भर्ती हो और उसे हमारी सख्त जरूरत हो? तब भी न निकलें, जब हमारा कोई प्रिय अचानक किसी मुश्किल में पड़ जाए? अगर ये सारी चिन्ताएं सही हैं, तो यह सवाल भी सही है कि आखिर किस समाज में हम जी रहे हैं? ग्रेटर नोएडा एक्सप्रेस-वे से उतरते ही जेवर से बुलंदशहर के रास्ते में जो कुछ हुआ, वह ऐसे कई सवाल छोड़ता है। एक परिवार मुश्किल में पड़े अपने परिजनों का कष्ट बांटने अस्पताल जा रहा था। साथ में चार महिलाएं इसलिए थीं कि अस्पताल में भर्ती मरीज भी एक महिला थी और इसको इनकी तत्काल मदद की दरकार थी। जेवर से थोड़ा आगे बढ़ने पर लुटेरों ने सड़क पर कोई नुकीली चीज फेंककर पहले उनकी गाड़ी पंचर की और जब तक ये कुछ समझ पाते, इन महिलाओं को लेकर चले गए। इनके साथ गैंगरेप हुआ और विरोध करने वाले युवक को गोली मार दी गई। हाल की कुछ घटनाएं बता रही हैं कि सख्त और संदेश देने वाली कार्रवाई की कमी से हालात कैसे बिगड़ते हैं। इस घटना के बाद पुलिस-प्रशासन के साथ राज्य सरकार को कठघरे में खड़ा किया जाना स्वाभाविक है। इस नतीजे पर पहुंचने के पर्याप्त कारण हैं कि पुलिस ने बुलंदशहर की घटना से जरूरी सबक सीखने से इंकार किया। आखिर वह कथित घुमंतू गिरोहों की कमर तोड़ने के साथ अपराध बहुल इलाकों की निगरानी के बुनियादी काम क्यों नहीं कर सकी? कहीं ऐसा तो नहीं कि बुलंदशहर की घटना के बाद जो दावे किए गए थे, वे आधे-अधूरे थे? इन सवालों का जवाब जो भी हो, यह ठीक नहीं कि उत्तर प्रदेश में कानून एवं व्यवस्था की साख एक ऐसे समय संकट में है जब मोदी सरकार अपने कार्यकाल के तीन साल पूरे होने को लेकर जश्न मना रही है।

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