Thursday, 31 January 2019

राष्ट्र गौरव से उतरकर आरोपियों की कतार में

चन्दा कोचर बैंकिंग सेक्टर का वैसा ही नाम रहीं जैसा आईटी सेक्टर में सत्यम कम्प्यूटर्स के मालिक बी. रामलिंगा राजू का था। दोनों अपने क्षेत्र में शीर्ष पर होने के बावजूद घपले-घोटालों में लिप्त पाए गए। चन्दा कोचर को 2011 में देश का दूसरा बड़ा सम्मान पद्मभूषण दिया गया, लेकिन काली कमाई के लालच ने उन्हें राष्ट्र के गौरव के पद से उतारकर आरोपियों की कतार में लाकर खड़ा कर दिया है। चन्दा फोर्ब्स और फार्च्यून की दुनिया की सबसे शक्तिशाली महिलाओं की सूची में कई साल तक शामिल रहीं। देश के किसी बैंक की पहली महिला सीईओ बनने वाली चन्दा कोचर राजस्थान के जोधपुर से हैं। 2009 में 48 साल की चन्दा किसी बैंक की सबसे युवा सीईओ थीं। कोचर ने 1984 में बतौर मैनेजमेंट ट्रेनी आईसीआईसीआई बैंक में काम शुरू किया और 2009 में बैंक की एमडी और सीईओ बनीं। पति की कंपनी को फायदे के बदले वीडियोकॉन समूह को 3000 करोड़ का कर्ज देकर बैंक के फंड को दांव पर लगाने के आरोपों से घिरी आईसीआईसीआई बैंक की पूर्व एमडी चन्दा कोचर के अब सितारे गर्दिश में चल रहे हैं। सीबीआई के अनुसार यह वीडियोकॉन समूह को कर्ज देने के एवज में आईसीआईसीआई बैंक की तत्कालीन सीईओ चन्दा कोचर के घूस लेने का मामला है। उनके खिलाफ सीबीआई ने जो एफआईआर दर्ज की है उसमें एजेंसी का कहना है कि नियमों की अनदेखी कर दिए गए लोन से बैंक को कुल 1730 करोड़ रुपए का चूना लगा है। वीडियोकॉन को हर बार मिले कर्ज की 10 प्रतिशत रकम समूह की कंपनियों के जरिये चन्दा के पति दीपक कोचर की कंपनी न्यू पॉवर के खाते में जमा कर दी जाती थी। यह काम कई कंपनियों के आपसी तालमेल से किया जा रहा था ताकि जांच एजेंसियों की निगाह से बचा जा सके। जांच में यह भी पाया गया कि वीडियोकॉन को दिए कई कर्ज डूब चुके थे। इसके बावजूद उसे कर्ज दिया जाता रहा। यही नहीं, वीडियोकॉन समूह की कंपनी स्थायी एप्लाइंसेज को 50 करोड़ की मियादी जमा सिक्यूरिटी को भी मनमाने ढंग से रिलीज कर दिया गया। कितने दुख और चिन्ता की  बात है कि इतनी सीनियर पोजीशन पर पहुंचीं चन्दा कोचर के शानदार कैरियर का यूं अंत हुआ है। दरअसल कई बैंकों के वरिष्ठ अधिकारियों के इसी प्रकार के घोटालों में शामिल होना हमारी व्यवस्था व कंट्रोल प्रणाली पर भी सवाल उठाता है। कई वरिष्ठ बैंक अधिकारियों ने तो नोटबंदी में भी तबाही मचाई। नोटबंदी के फेल होने की एक वजह यह वरिष्ठ बैंक अधिकारी भी हैं। अरुण जेटली जो अमेरिका में इलाज करा रहे हैं, ने चन्दा कोचर मामले में केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआई) को दुस्साहस से बचने तथा सिर्प दोषियों पर ध्यान देने की नसीहत दी। उन्होंने ट्वीट करके कहा कि भारत में दोषियों को सजा मिलने की बेहद खराब दर का एक कारण जांच में कमियां हैं।

-अनिल नरेन्द्र

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का प्लान बी

केंद्रीय मंत्री व पूर्व भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी पिछले कुछ समय से विवादास्पद बयान दे रहे हैं। उनके ताजा बयान पर तो सियासत ही गरमा गई है। गडकरी ने रविवार को मुंबई में कहा कि जो नेता जनता से बड़े-बड़े वादे करते हैं, लेकिन वादे पूरा नहीं कर पाते, जनता उनकी पिटाई करती है। मोदी सरकार में सड़क परिवहन और राजमार्ग, पोत परिवहन और जल संसाधन और नदी विकास मंत्री गडकरी ने कहा कि वे काम करते हैं और अपने वादों को पूरा करते हैं। विपक्षी दलों का दावा है कि गडकरी के निशाने पर प्रधानमंत्री मोदी थे। विपक्ष मोदी पर जनता से झूठे वादे करने का आरोप लगाता रहा है। कांग्रेस नेता मनीष तिवारी ने एक मुहावरेöकहीं पे निगाहें, कहीं पे निशाना का उल्लेख करते हुए कहा कि गडकरी की नजर प्रधानमंत्री की कुर्सी पर है और उनके निशाने पर मोदी थे। तिवारी ने कहा कि गडकरी ने इससे पहले भी कहा था कि पार्टी को सत्ता में आने का अनुमान नहीं था, इसलिए जो भी दिमाग में आया वादे कर दिए। तिवारी ने कहा कि गडकरी के इन दोनों बयानों से साफ है कि उनके निशाने पर कौन था। राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के प्रवक्ता नवाब मलिक का भी कहना था कि गडकरी का बयान भाजपा में मोदी की असफलता को लेकर उठी आवाज को दर्शाता है। वह खुद को प्रधानमंत्री के विकल्प के रूप में भी पेश करने की कोशिश कर रहे हैं। वहीं भाजपा ने अपने मंत्री के बयान को लेकर मचे घमासान पर सफाई देते हुए कहा कि गडकरी ने विरोधी दलों पर निशाना साधा है। केंद्रीय मंत्री और भाजपा नेता प्रकाश जावडेकर ने कहा कि गडकरी ने कांग्रेस पर निशाना साधा था और उसे बेनकाब किया है। उन्होंने यह बताया था कि किस तरह कांग्रेस ने देश का नुकसान किया था और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में देश किस तरह से तरक्की कर रहा है। गडकरी के बयान का जिक्र करते हुए कांग्रेस ने कहा कि लोकसभा चुनावों की तिथियों का ऐलान जल्द होने वाला है और गडकरी अपने लिए जगह बना रहे हैं। गडकरी खुद को मोदी के एक विकल्प के रूप में स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं, क्योंकि भाजपा आगामी लोकसभा चुनाव हारने जा रही है। राकांपा प्रवक्ता ने कहा कि तीन राज्योंöराजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में हुए विधानसभा चुनावों के बाद गडकरी जी जिस तरह से मुखर हुए हैं, उससे संकेत मिलता है कि चुनाव के बाद मोदी या भाजपा की सरकार नहीं रहने वाली है। मलिक ने कहा कि कहीं न कहीं मोदी की नाकामी को लेकर भाजपा के अंदर भी आवाजें उठ रही हैं। सियासत पर पैनी नजर रखने वालों का कहना है कि गडकरी बिना गुप्त समर्थन, बिना किसी बैकिंग के ऐसे बयान नहीं दे सकते। गालिबन उनका इशारा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर है। यह किसी से छिपा नहीं कि संघ मोदी-शाह की जोड़ी से प्रसन्न नहीं है। उनके खुद सारे फैसले लेना संघ को भा नहीं रहा है। इसीलिए संघ कभी तो कश्मीर में सैनिकों के मारे जाने पर बयान देता है तो कभी राम मंदिर के न बनने पर। दरअसल जानकारों का कहना है कि संघ हमेशा एक बैकअप प्लान लेकर चलता है। वह हर हाल में केंद्र में भाजपा की सरकार दोबारा देखना चाहता है। चाहे उसका नेता कोई भी हो। ताजा सर्वेक्षणों से पता चलता है कि भाजपा अपने बूते पर 2019 लोकसभा चुनाव शायद न जीत सके। यानि वह सबसे बड़ी पार्टी तो बनेगी पर स्पष्ट बहुमत शायद न मिले। मान लीजिए कि भाजपा की 180 के लगभग सीटें आती हैं और एनडीए को मिलाकर 233 सीटें मिलती हैं। तब भी यह बहुमत से 39-40 सीटें कम होंगी। उस सूरत में एनडीए को सरकार बनाने के लिए इन सीटों का प्रबंध करना होगा। इस बाहरी समर्थन को जुटाने के लिए भाजपा को ऐसे नेतृत्व की जरूरत पड़ेगी जो विपक्ष में भी गुडबिल रखता हो। उस सूरत में नरेंद्र मोदी-अमित शाह जोड़ी को त्यागना पड़ेगा। क्योंकि इन्होंने विपक्ष से सारे तार तोड़ लिए हैं और इन्हें शायद ही कोई विपक्षी सांसद समर्थन दे? उस सूरत में नितिन गडकरी जैसा नेता भाजपा का नेतृत्व कर सकता है। यह किसी से छिपा नहीं कि गडकरी के कांग्रेस से लेकर तृणमूल कांग्रेस, टीडीपी, सपा-बसपा सभी से मधुर संबंध हैं। गडकरी के लिए एनडीए के बाहर समर्थन जुटाना मोदी के मुकाबले में आसान होगा। यह तभी संभव है जब भाजपा अपने बूते पर बहुमत में नहीं आती। अगर अपने दम-खम पर मोदी पूर्ण बहुमत से आते हैं तब भी संघ खुश रहेगा। उनका प्लान ए मोदी है और प्लान बी नितिन गडकरी है। दोनों ही सूरत में भाजपा और संघ सत्ता में रहेंगे।

Wednesday, 30 January 2019

लोकसभा चुनाव से पहले अंतिम विधानसभा उपचुनाव

हरियाणा में जींद और राजस्थान के रामगढ़ विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनाव में वोटों का डलना समाप्त हो गया है। सोमवार को जींद में हिंसा की छिटपुट घटनाओं के बीच 76 प्रतिशत मतदान हुआ। हलके के कई गांवों में देर शाम तक मतदान प्रक्रिया जारी रही। ईवीएम में खराबी के कारण करीब आधा दर्जन केंद्रों पर मतदान प्रक्रिया बाधित रही और कई तरह की अफवाहें भी उड़ी। 31 जनवरी को पता चलेगा कि जींद की जनता की पसंद कौन है। उधर रामगढ़ (राजस्थान) में सात दिसम्बर को विधानसभा चुनाव से कुछ दिन पूर्व बसपा के प्रत्याशी लक्ष्मण सिंह के निधन के कारण इस सीट पर चुनाव स्थगित कर दिया गया था। सोमवार को यहां भी वोट पड़े हैं। ये दोनों उपचुनाव आगामी लोकसभा चुनाव से पहले आखिरी उपचुनाव हैं। ऐसे में कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) दोनों के लिए प्रतिष्ठा का विषय बन चुके हैं। दोनों सीटों के नतीजे 31 जनवरी को घोषित किए जाएंगे। जींद में इनेलो विधायक डॉ. हरिचन्द मिड्डा के निधन के कारण उपचुनाव हो रहे हैं। इसमें कांग्रेस के रणदीप सुरजेवाला तो भाजपा ने हरिचन्द के बेटे कृष्ण मिड्डा को टिकट दिया है। जननायक जनता पार्टी के दिग्विजय सिंह चौटाला, इनेलो के उम्मेद सिंह रेदू तथा लोकतंत्र रक्षा पार्टी के विनोद आशरी की प्रतिष्ठा दांव पर लगी है। यह उपचुनाव सीएम मनोहर लाल की राजनीतिक साख, देवी लाल व ओम प्रकाश चौटाला की पारिवारिक विरासत तथा कांग्रेस की सत्ता में वापसी की आस के सवालों का जवाब देने वाला साबित होगा। वहीं राजस्थान विधानसभा सीट पर इस उपचुनाव का विशेष महत्व इसलिए है कि राजस्थान में कांग्रेस भले ही सरकार बनाने में कामयाब हो गई हो लेकिन परिणामों में उसके खाते में बहुमत से एक सीट कम रह गई थी। कांग्रेस के पास 99 सीटें हैं। ऐसे में रामगढ़ सीट कांग्रेस के लिए निर्णायक भूमिका निभा सकती है। यहां बसपा ने पूर्व केंद्रीय मंत्री नटवर सिंह के बेटे जगत सिंह, कांग्रेस ने अलवर के पूर्व जिला प्रमुख साफिया जुबैर खान और भाजपा ने पूर्व प्रधान सुखवंत सिंह को उम्मीदवार बनाया है। 2010 से 2015 के दौरान अलवर जिला प्रमुख साफिया ने कहा कि मैं विकास के नाम पर वोट मांग रही हूं। वहीं प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सचिन पायलट ने बताया कि हमें रामगढ़ विधानसभा क्षेत्र से सकारात्मक फीडबैक मिल रहा है और इस सीट पर हमारी जीत पक्की है। भाजपा के प्रदेशाध्यक्ष मदन लाल सैनी ने भाजपा की जीत का दावा करते हुए कहा कि कांग्रेस पार्टी के प्रदर्शन से लोग संतुष्ट नहीं हैं, इसलिए रामगढ़ सीट पर भाजपा प्रत्याशी की जीत होगी वहीं बसपा के प्रदेशाध्यक्ष सीतारम मेघवाल ने बताया कि जातिगत समीकरण बसपा के पक्ष में हैं इसलिए इस सीट पर उनकी पार्टी चुनाव जीतेगी। कुल मिलाकर दोनों जींद और रामगढ़ विधानसभा उपचुनावों का परिणाम कांग्रेस और भाजपा के लिए महत्वपूर्ण है। देखें, 31 जनवरी को मशीनें किसको जिताती हैं।
-अनिल नरेन्द्र


आम चुनाव पानीपत युद्ध जैसा

कोलकाता में विपक्षी एकता रैली पर निशाना साधते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि महागठबंधन की कोशिश देश की जनता के खिलाफ है। इनकी दुनिया अपने परिवार, भाई-भतीजे को आगे बढ़ाने पर केंद्रित है। जिस पश्चिम बंगाल में राजनीतिक दल को उसका कार्यक्रम करने से रोक दिया जाता है, लोकतंत्र का गला घोंटने वाले पंचायत के चुनाव में नामांकन करने वालों को मौत के घाट उतारने वाले जब वहां इकट्ठे होकर लोकतंत्र बचाने की बात करते हैं तो मुंह से निकलता है वाह क्या सीन है। सिलवासा में मेडिकल कॉलेज के शिलान्यास के बाद मोदी ने कहा कि हमारी नीयत देश के विकास की है। परिवार के विकास की न तो हमारी नीति है और न इरादा है। यही साफ नीयत और स्पष्ट नीति इनको (विपक्ष को) जरा खटक रही है। उन्हें दिक्कत है कि मोदी भ्रष्टाचार के खिलाफ इतनी कड़ी कार्रवाई क्यों कर रहे हैं? सत्ता के गलियारों में घूमने वाले बिचौलियों को मोदी ने बाहर क्यों निकाल दिया, गरीबों के राशन, पेंशन और उनको मिलने वाले हर हक पर पुंडली मारे बैठे दलालों को बाहर क्यों कर रहा है। अपने परिवार और सल्तनत को बचाने के लिए वे कितने भी गठबंधन बना लें, वे अपने कुकर्मों से नहीं भाग सकते हैं। पिछले कुछ दिनों से दोनों प्रधानमंत्री और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह काफी आक्रामक रणनीति अपनाए हुए हैं। प्रधानमंत्री जमकर विपक्षी दलों पर हमले कर रहे हैं तो अमित शाह मोदी सरकार की उपलब्धियों को बारीकी से देश की जनता को समझा रहे हैं। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने कहा कि उनकी पार्टी आसन्न लोकसभा चुनाव विकास, रक्षा और देश के आत्मसम्मान जैसे मुद्दों पर लड़ेगी। उन्होंने भरोसा जताया कि भाजपा 300 से अधिक लोकसभा सीटें जीतेगी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सत्ता बरकरार रहेगी। भाजपा ने 2014 के लोकसभा चुनाव में 282 सीटों पर जीत दर्ज की थी, जो सरकार बनाने के लिए जरूरी संख्या से ज्यादा थी। अयोध्या में राम मंदिर बनाने के बारे में पूछने पर उन्होंने कहा कि कांग्रेस नहीं चाहती कि यह मुद्दा जल्दी निपटे। हम राम मंदिर का निर्माण चाहते हैं लेकिन कानून के दायरे में रहकर हम ऐसा चाहते हैं। शाह ने कहा कि पश्चिम बंगाल में काफी बदलाव होंगे जहां भाजपा 42 में से 23 से अधिक सीटें जीतेगी। उन्होंने दावा किया कि पूर्वोत्तर क्षेत्र में 25 में से 21 सीटों पर भाजपा जीत दर्ज करेगी। भाजपा अध्यक्ष ने 2019 के लोकसभा चुनाव को पानीपत युद्ध जैसा बताया। ताजा सर्वे बता रहे हैं कि 2014 के मुकाबले इस बार मोदी लहर फीकी पड़ती दिख रही है। पिछली बार जिन-जिन राज्यों में एनडीए ने शानदार प्रदर्शन किया था वहां इस बार सीटों का बड़ा नुकसान होता दिख रहा है। एबीपी न्यूज-सी वोटर के सर्वे में कहा गया है कि एनडीए को 233 सीटें मिल सकती हैं। यह आंकड़े बहुमत से 39 सीटें कम हैं। वहीं यूपीए को 106 सीटों का इजाफा बताया गया है। सर्वे के अनुसार भाजपा का तीन प्रतिशत वोट घटेगा जबकि यूपीए को 10 प्रतिशत अतिरिक्त वोट मिलेगा पर यह सर्वे गरीब सवर्णों को 10 प्रतिशत आरक्षण से शायद पहले का है। इसलिए फिलहाल इसे पूरी तरह से सही नहीं माना जा सकता। सवर्णों को आरक्षण देना भाजपा का मास्टर स्ट्रोक के तौर पर देखा जा रहा है, क्योंकि एससी/एसटी एक्ट के संशोधन के बाद पूरे देश में सवर्ण समाज बेहद नाराज था। इन्हें मनाने के लिए केंद्र की मोदी सरकार ने सवर्णों को आर्थिक आधार पर 10 प्रतिशत आरक्षण देने का ऐलान किया। सरकार के इस फैसले से लोकसभा की करीब 125 सीटों पर असर पड़ेगा। 2014 के एक अनुमान के मुताबिक 125 लोकसभा सीटें ऐसी हैं, जहां हर जातिगत समीकरणों पर सवर्ण उम्मीदवार भारी पड़ते हैं और जीतते हैं। उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, बिहार, दिल्ली, हरियाणा, पश्चिम बंगाल, हिमाचल, उत्तराखंड और राजस्थान में सवर्ण जातियों का असर वोट बैंक पर दिखता है। एक सर्वे के मुताबिक अब भी देश में 55 प्रतिशत वोटर प्रत्याशी की जाति देखकर वोट देते हैं। बीते लोकसभा में जीती सीटों की इस बार कमी का भाजपा को अहसास है। इसलिए भाजपा की पहुंच से दूर रह गए दक्षिण व पूर्वोत्तर के लिए पार्टी ने इस बार एक लक्ष्य तय किए हैं। इन दोनों क्षेत्रों में पार्टी ने 50 से ज्यादा सीटें हासिल करने का लक्ष्य तैयार किया है। विपक्ष ने बेशक अपना ट्रेलर दिखाकर अपना दम-खम दिखा दिया हो पर दोस्त पिक्चर अभी बाकी है।

Tuesday, 29 January 2019

तीनों प्रमुख अवार्ड पाने वाले दुनिया के पहले खिलाड़ी विराट कोहली

भारतीय क्रिकेट टीम में कप्तान विराट कोहली ऐसे क्रिकेटरों में से एक हैं जिन्होंने मैदान पर तो रिकॉर्ड बनाए ही हैं, मैदान के बाहर भी रिकॉर्ड बना डाला है। विराट कोहली दुनिया के पहले ऐसे खिलाड़ी बन गए हैं, जिन्होंने इंटरनेशनल क्रिकेट काउंसिल यानि आईसीसी के तीन बड़े अवार्ड जीत लिए हैं। वर्ष के सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी का खिताब तो उन्होंने जीता ही है, वह टेस्ट क्रिकेट के भी सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी घोषित किए हैं और एक दिवसीय क्रिकेट के भी। किसी ने अभी तक यह तीनों अवार्ड एक साथ नहीं जीते थे। कोहली के सबसे ज्यादा छह आईसीसी अवार्ड हो गए हैं। कुमार संगकारा ने चार अवार्ड जीते हैं। आईसीसी ने कोहली को वर्ष 2018 में किए गए प्रदर्शन के आधार पर अपनी दोनों टेस्ट और वनडे टीम का कप्तान भी चुना है। विराट ने आईसीसी क्रिकेटर के रूप में सर गारफील्ड सोबर्स ट्रॉफी लगातार दूसरी बार जीती है। टेस्ट क्रिकेट में उन्होंने पिछले साल 13 मैचों में 55.08 की औसत से 1322 और वनडे में 133.55 की औसत से 1202 रन बनाए। तीनों प्रारूपों में विराट ने सालभर में 11 शतक और नौ अर्द्धशतक लगाए। सर गारफील्ड सोबर्स ट्रॉफी के लिए कोहली वोटिंग अकादमी की सर्वसम्मत पसंद थे। दूसरे नम्बर पर दक्षिण अफ्रीका के तेज गेंदबाज कैगिसो रबाडा थे। वनडे प्लेयर ऑफ द ईयर की श्रेणी में अफगानिस्तान के लेग स्पिनर राशिद खान दूसरे नम्बर पर रहे। उदीयमान क्रिकेट ऑफ द ईयर का पुरस्कार 21 वर्षीय भारत के युवा विकेटकीपर-बैट्समैन ऋषभ पंत को मिला, जिन्होंने पिछले साल आठ टेस्टों में 537 रन बनाए, विकेट के पीछे 40 कैच पकड़े और दो स्टपिंग की। कोहली के 39 वनडे शतक हैं। सचिन तेंदुलकर के 49 हैं। उन्हें पछाड़ने के लिए कोहली को 11 शतकों की जरूरत है। कोहली ने पिछले 11 शतक 18 महीनों में लगाए हैं। यही प्रदर्शन रहा तो वह जुलाई 2020 में सचिन को भी पछाड़ देंगे। कोहली कई मामलों में अपने दौर के और पूर्ववर्ती खिलाड़ियों से भिन्न नजर आते हैं। उनकी तुलना अकसर सचिन तेंदुलकर से की जाती है, जो काफी हद तक सही भी है। बल्लेबाज के रूप में जो चीज कोहली की प्रभावित करती है वह है उनकी निरंतरता और लगातार बेहतर करने का जज्बा। इयान चैपल का तो यहां तक कहना है कि एक दिवसीय क्रिकेट में विराट उस स्तर तक पहुंच जाएंगे, जहां टेस्ट क्रिकेट में सर डॉन बैडमैन पहुंचे थे। हमें विराट कोहली को सिर्प भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान और एक बल्लेबाज के रूप में ही नहीं देखना होगा, भारत की उस युवा पीढ़ी के प्रतिनिधि के रूप में भी देखना होगा, जो दुनिया की किसी भी टीम को बराबर की टक्कर देने का आत्मविश्वास रखती है। विराट कोहली से हम यह सीख सकते हैं कि दुनिया में अपनी धमक दिखाने का रास्ता क्या है? हम विराट कोहली को देश का नाम रोशन करने और इतने खिताब एक साथ जीतने वाले अकेले खिलाड़ी को अपनी बधाई देते हैं और उम्मीद करते हैं कि आने वाले समय में वह अपना और टीम का झंडा और ऊपर करेंगे।

-अनिल नरेन्द्र

क्या प्रियंका कांग्रेस के लिए तुरुप का पत्ता साबित होंगी?

कांग्रेस ने लोकसभा चुनाव से ठीक पहले मास्टर स्ट्रोक खेला है। राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के वाराणसी और योगी आदित्यनाथ के गोरखपुर क्षेत्र वाले उत्तर प्रदेश को लक्ष्य करके प्रियंका गांधी वाड्रा को पार्टी का महासचिव बनाकर और पूर्वी उत्तर प्रदेश की लोकसभा सीटों की जिम्मेदारी देकर बहुत दिनों से प्रतीक्षित तुरुप का पत्ता चल दिया है। प्रियंका फिलहाल विदेश में हैं। वह फरवरी के पहले हफ्ते में लौटेंगी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पूर्वी उत्तर प्रदेश से ही चुनाव जीतते हैं। इस इलाके में प्रियंका को प्रभारी बनाने के बाद राहुल ने कहाöहम यूपी में बैकफुट पर नहीं, फ्रंट फुट पर खेलेंगे। प्रियंका के व्यापक राजनीति में सक्रिय होने पर भाजपा ने भले ही यह प्रतिक्रिया दी हो कि यह राहुल गांधी की विफलता है और परिवारवाद का नया प्रमाण है, लेकिन इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि उनके आने से कांग्रेस कार्यकर्ताओं में एक नया जोश आ जाएगा। अटकलें तो अभी से यह भी लगने लगी हैं कि संभव है कि प्रियंका वारारणसी से प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ लोकसभा चुनाव लड़ें। अगर ऐसा होता है तो हमें तो कोई संदेह नहीं कि पूरा विपक्ष प्रियंका के समर्थन में उतर आएगा। काफी समय से पार्टी में इस बात की जरूरत महसूस की जा रही थी कि कांग्रेस में नया जोश पूंकने के लिए प्रियंका बड़ी भूमिका निभा सकती हैं, इसलिए उन्हें सक्रिय राजनीति में आना चाहिए। हालांकि अभी तक वे सोनिया गांधी और राहुल गांधी के संसदीय क्षेत्रöरायबरेली और अमेठी तक सीमित थीं। पार्टी के वरिष्ठ नेताओं और कार्यकर्ताओं के  बीच भी प्रियंका की स्वीकार्यता है और लंबे समय से पार्टीजन उनसे सक्रिय राजनीति में उतरने का आग्रह भी करते रहे थे। लेकिन अब अटकलों का यह दौर खत्म हुआ और प्रियंका सक्रिय राजनीति में आ चुकी हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में दो अंकों में सिमट गई कांग्रेस के लिए 2019 का आम चुनाव बेहद अहम है। 80 लोकसभा सीटों वाले उत्तर प्रदेश में पिछली बार कांग्रेस रायबरेली और अमेठी की सीट ही बचा सकी थी और पिछले विधानसभा चुनाव में महज सात सीटें ही हासिल कर सकी थी। निश्चित ही राहुल गांधी पार्टी अध्यक्ष के रूप में परिपक्व हो चुके हैं और हाल ही में तीन राज्यों में पार्टी की विजय से उन्होंने अपनी क्षमता प्रदर्शित भी की है। दूसरी ओर प्रियंका ने अब तक अपनी राजनीतिक सक्रियता को सीमित रखा था और रायबरेली व अमेठी पर जनता से मिलती-जुलती और वहां की राजनीतिक गतिविधियों पर निगाह रखती रही हैं। अब उन्हें सक्रिय राजनीति में उतारने का निर्णय आम चुनाव के सन्दर्भ में उत्तर प्रदेश के राजनीतिक घटनाक्रम को देखते हुए लिया गया है। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने अपने गठबंधन से कांग्रेस को अलग रखकर उसे यह मौका दे दिया है कि वह अब लोकसभा की सर्वाधिक सीटों वाले इस प्रदेश में अपने बूते पर मैदान में उतरे। प्रियंका अपनी दादी इंदिरा गांधी जैसी दिखती हैं और बोलने में भी आकर्षक प्रभाव छोड़ती हैं। उनके आने से पूर्वांचल के वे युवा जो भाजपा से खिन्न है और वे महिलाएं जो मायावती के प्रति आकर्षित नहीं हैं, प्रियंका के पक्ष में अपनी राय बना सकती हैं। हालांकि प्रियंका के साथ एक ही दिक्कत है और वह है उनके पति की छवि। भाजपा उनके पति रॉबर्ट वाड्रा के बहाने उन्हें घेरने की कोशिश करेगी और संभवत यही कारण है कि कांग्रेस पार्टी ने यह दांव चुनाव के मुहाने पर खेला है। हाल ही में रॉबर्ट वाड्रा पर दर्ज केसों ने प्रियंका को भी मैदान में उतरकर सामना करने को मजबूर किया होगा। प्रियंका को दोहरी चुनौती का सामना करना होगा, जिसमें एक ओर मोदी-शाह की मजबूत जोड़ी है वहीं दूसरी ओर सपा-बसपा की चुनौती। इसके बावजूद यह भी हकीकत है कि प्रियंका के आने से कांग्रेस के आम कार्यकर्ताओं में स्फूर्ति दिखाई दे सकती है। प्रियंका गांधी के सक्रिय राजनीति में उतरने के बाद निश्चित ही कांग्रेस पार्टी और जनता में उनसे बड़ी उम्मीदें हैं। ऐसे में प्रियंका के लिए पार्टी अध्यक्ष, कांग्रेस पार्टी और जनता की उम्मीदों पर खरा उतरना बड़ी चुनौती होगी। ऐसे में देखना यह है कि प्रियंका का सक्रिय राजनीति में उतरना कांग्रेस के लिए कितना कारगार साबित होता है।

Saturday, 26 January 2019

सवाल चोकसी को एंटीगुआ की नागरिकता मिलने का?

देश के बैंकों को भारी-भरकम चूना लगाने वाले, उन्हें डुबाने वाले आर्थिक अपराधी इतनी आसानी से पहले तो देश से भाग जाते हैं, दूसरे मुल्कों में शरण ले लेते हैं और कुछ तो वहां की नागरिकता लेने में भी सफल हो जाते हैं, यह हमारी समझ से तो बाहर है। ऐसे अपराधियों के खिलाफ सरकार द्वारा सख्त कार्रवाई के दावे जमीनी हकीकत से दूर लगते हैं। यह समझना मुश्किल है कि सार्वजनिक रूप से ऐसे भगोड़ों पर अंकुश लगाने के बजाय कार्रवाई के स्तर पर इतने प्रभावी क्यों नहीं हो पाते। इसका ताजा उदाहरण है पंजाब नेशनल बैंक (पीएनबी) से करीब 14 हजार कऱोड़ रुपए लेकर चंपत हुए मेहुल चोकसी का। सरकार पिछले कुछ समय से लगातार देश का पैसा लेकर विदेश भागने वालों को नहीं छोड़ने की बात कर रही थी तभी खबर आई कि मेहुल चोकसी ने तकनीकी रूप से भी भारत की नागरिकता छोड़ दी। उसने एंटीगुआ में भारतीय पासपोर्ट सरेंडर कर दिया। कहा जा रहा है कि नीरव मोदी के मामा चोकसी ने प्रत्यर्पण से बचने के लिए भारतीय नागरिकता छोड़ी है। उसने गुयाना स्थित भारतीय उच्चायोग में जाकर भारतीय नागरिकता छ़ोड़ने का संदेश दिया और अपना भारतीय पासपोर्ट जमा करा दिया। मेहुल चोकसी और उसके संबंधी नीरव मोदी ने मिलकर पंजाब नेशनल बैंक से लेटर ऑफ अंडरस्टैंडिंग हासिल करके बैंक को भारी चूना लगाया है। सीबीआई ने इस मामले में अदालत में चार्जशीट दायर कर दी है और इंटरपोल के माध्यम से नीरव मोदी और मामा मेहुल चोकसी के विरुद्ध रेड कॉर्नर नोटिस भी जारी कर दिया है। इसके बावजूद यह समझना मुश्किल जरूर है कि एंटीगुआ जैसे छोटे देश की अगर यह हिम्मत है कि वह भारत जैसे विशाल देश के आर्थिक अपराधी को नागरिकता देकर और उसके भारतीय पासपोर्ट को सरेंडर करवाकर प्रत्यार्पण के प्रयास को ठेंगा दिखा सकता है तो इसमें भारत की ही कमजोरी साबित होती है। मेहुल चोकसी को जब पिछले साल एंटीगुआ की नागरिकता मिली थी तो उसे मंजूरी देने में मुंबई के क्षेत्रीय पासपोर्ट कार्यालय के पुलिस प्रमाणपत्र का भी योगदान रहा। शायद उसे यह अंदाजा रहा होगा कि जो गड़बड़ियां वह कर रहा है वह एक दिन उजागर होंगी और इससे पहले कोई सुरक्षित ठिकाना ढूंढ लेना चाहिए। सवाल यह है कि हजारों करोड़ की रकम का घोटाला होता है और बैंकों से लेकर सरकारी तंत्र और संबंधित महकमों तक को भनक आखिर क्यों नहीं लगी और फिर अगर इसकी अनदेखी की गई तो इसकी वजह क्या थी? सवाल यह भी उठता है कि नीरव मोदी, मेहुल चोकसी, विजय माल्या जैसे कई कारोबारी इतनी बड़ी रकम डुबाने के बाद कैसे इतनी आसानी से विदेश भाग गए? देश से बाहर जाने वाले हर व्यक्ति की जांच-पड़ताल का जो स्तर होता है उसमें बिना किसी योजना या मिलीभगत से इन सबका भागना इतना आसान नहीं था। यह सत्य है कि मेहुल चोकसी की एंटीगुआ की नागरिकता मिल सकी तो उसमें मुंबई के क्षेत्रीय पासपोर्ट कार्यालय के पुलिस प्रमाणपत्र का भी योगदान रहा। आज मेहुल चोकसी या देश का पैसा लेकर फरार हो गए बाकी लोगों को लेकर अगर सरकार को फजीहत झेलनी पड़ रही है तो उन्हें वापस लाने का भरोसा देना पड़ रहा है तो इसके पीछे खुद सरकार की लापरवाही व मिलीभगत या ऐसे लोगों को मिला संरक्षण है। हालांकि एंटीगुआ मेहुल चोकसी का प्रत्यर्पण करने के लिए बाध्य नहीं है, इसके बावजूद आर्थिक अपराधियों के प्रति भारत की चोकसी का एक महत्व तो होना ही चाहिए। भारत सरकार अगर वेस्टलैंड सौदे से दलाल मिशेल को संयुक्त अरब अमीरात से भारत ला सकती है तो एंटीगुआ से लाने में भी चुस्ती दिखानी चाहिए। जाहिर है कि अपने विवादों में स्वयं उलझी सीबीआई इन प्रयासों को तेज करने में अक्षम है। इसके पास न तो पूर्वाकालिक निदेशक हैं और न ही अधिकारियों के पास आपसी विवाद से फुर्सत। अगर समय रहते इन आर्थिक अपराधी भगोड़ों के खिलाफ सख्ती बरती गई होती तो आज न केवल यह गिरफ्त में होते बल्कि देश को हजारों करोड़ का नुकसान उठाने की नौबत नहीं आती।

-अनिल नरेन्द्र

रहस्यमय हैकर का ईवीएम पर सनसनीखेज दावा?

भारतीय तथाकथित साइबर एक्सपर्ट सैयद शुजा के सनसनीखेज रहस्योद्घाटन से एक बार फिर ईवीएम की विश्वसनीयता पर विवाद खड़ा हो गया है। सैयद शुजा ने सोमवार को स्काइप के जरिये दावा किया कि भारत में 2014 के लोकसभा चुनाव में ईवीएम हैक करके धांधली की गई। लंदन में हुई इंडियन जर्नलिस्ट एसोसिएशन (यूरोप) की प्रेस कांफ्रेंस में अमेरिका के जरिये (मुंह ढके) शुजा ने कहा कि वह 2014 में भारत से भाग आए थे क्योंकि उनकी टीम के कुछ सदस्यों की हत्या कर दी गई थी। उन पर भी हैदराबाद में गोली चलाई गई थी। इससे वह खतरा महसूस कर रहे थे। शुजा ने कहा कि रिलायंस जियो ने फ्रीक्वेंसी सिग्नल कम कर भाजपा को ईवीएम हैक करने में मदद की। भाजपा राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश में भी चुनाव जीतने के लिए ईवीएम हैक करने का प्रयास कर रही थी, लेकिन हमारी साइबर एक्सपर्ट टीम ने हैकिंग रोक दी। भाजपा ऐसे मॉड्यूलर के जरिये ईवीएम हैक कर रही थी जो मिलिट्री ग्रेड फ्रीक्वेंसी को ट्रांसमिट करता है। ईवीएम हैकिंग की जानकारी रखने के कारण भाजपा नेता गोपीनाथ मुंडे की हत्या कर दी गई थी। ईवीएम पर सनसनीखेज दावे करने वाले अमेरिकी हैकर सैयद शुजा ने कहा कि पत्रकार गौरी लंकेश ने ईवीएम हैकिंग से संबंधित हमारी खबर चलाने की सहमति दी थी, लेकिन उनका मर्डर कर दिया गया। लंकेश ने आरटीआई के जरिये यह जानने की कोशिश की थी कि ईवीएम में यूज होने वाले केबल्स का निर्माण किसने किया था। हैकर ने दावा किया कि मशीन की ग्रेफाइट आधारित ट्रांसमीटर की मदद से खोला जा सकता है। 2014 के चुनावों में भी इन ट्रांसमीटरों का इस्तेमाल किया गया। ईवीएम हैक करने के लिए एक टेलीकॉम कंपनी (रिलायंस जियो) भाजपा की मदद करती है। इसके लिए कंपनी लो फ्रीक्वेंसी सिग्नल देती है। भारत में नौ जगह ऐसी फैसिलिटी है। यहां तक कि कंपनी के कर्मचारियों को भी इस बारे में नहीं पता होता। शुजा ने आगे दावा किया कि ईवीएम हैकिंग में भाजपा के साथ ही कांग्रेस, सपा, बसपा और आप भी शामिल रही है। प्रेस कांफ्रेंस में शुजा का चेहरा ढका हुआ था। उन्हें स्काइप के जरिये सक्रीन पर दिखाया गया। सूत्रों ने बताया कि इस प्रेस कांफ्रेंस में चुनाव आयोग और राजनीतिक दलों को भी बुलाया गया था, लेकिन केवल कांग्रेस नेता कपिल सिब्बल ही पहुंचे। भारत के मुख्य चुनाव आयुक्त सुनील अरोड़ा ने इस प्रेस कांफ्रेंस के बाद फिर दोहराया कि भारत में ईवीएम हैकिंग नहीं हो सकती और ईवीएम पूरी तरह से सुरक्षित है। विपक्षी दलों का काफी समय से कहना है कि ईवीएम की विश्वसनीयता पर हमें संदेह है। हाल ही में कोलकाता में सम्पन्न हुई ममता बनर्जी द्वारा आयोजित विपक्षी रैली में सभी विपक्षी दलों ने मिलकर एकजुटता दिखाते हुए संयुक्त प्रेस कांफ्रेंस में ईवीएम पर सवाल उठाए। विपक्ष द्वारा भारतीय जनता पार्टी पर ईवीएम से छेड़छाड़ करने के आरोपों के बीच विपक्षी दलों के नेताओं की चार सदस्यीय समिति बनाई गई है, जो इससे निपटने का सुझाव देगी। सुश्री बनर्जी ने कहा कि ईवीएम की कार्यप्रणाली के मूल्यांकन और किसी भी तरह की गड़बड़ी को रोकने के उपाय ढूंढने के अलावा यह समिति लोकसभा चुनावों से पहले चुनाव आयोग को चुनाव सुधारों के बारे में भी सुझाव देगी। समिति में अभिषेक मनु सिंघवी (कांग्रेस), अखिलेश यादव (सपा), सतीश मिश्रा (बसपा) और अरविन्द केजरीवाल (आम आदमी पार्टी) क्रियान्वयन के लिए अपनी अनुशंसा चुनाव आयोग को देंगे और वीवीपीएटी के व्यापक इस्तेमाल के लिए दबाव बनाएंगे। बेशक सैयद शुजा के दावों को सबूतों के अभाव में खारिज कर दें पर इसमें तो कोई दो राय नहीं हो सकती कि चुनावों को हर लिहाज से निष्पक्ष और स्वतंत्र बनाने का चुनाव आयोग का फर्ज है। निष्पक्ष, स्वतंत्र चुनाव हमारे लोकतंत्र की बुनियाद है। इसमें अगर किसी भी तरह का शक-शुभा रहता है तो उसे दूर करना चुनाव आयोग का काम है। भाजपा का रिएक्शन थाöविपक्ष अगले लोकसभा चुनाव हार जाने का कारण खोज रहा है। ईवीएम हैकिंग का आरोप झूठा है। लंदन में प्रेस कांफ्रेंस में कांग्रेस नेता कपिल सिब्बल का मौजूद रहना संयोग नहीं है। वहीं भाजपा के वरिष्ठ नेता गोपीनाथ मुंडे के भतीजे और एनसीपी नेता धनंजय सिंह मुंडे ने कहा कि शुजा का बयान हैरान करने वाला है। मुंडे साहब की मौत संदिग्ध हालत में हुई थी। रॉ से इसकी जांच कराएं। इसी ईवीएम विवाद के चलते अमेरिका, जर्मनी, इंग्लैंड, आयरलैंड, फ्रांस, इटली व वेनेजुएला जैसे देशों ने ईवीएम बैन कर रखी है और यहां मतपत्र व अन्य तरीकों से चुनाव कराए जाते हैं। ईवीएम भारत में हैक होती है या नहीं, संभव है या नहीं इस विवाद में न जाते हुए सबसे बेहतर विकल्प होगा कि आगामी लोकसभा चुनाव में वीवीपैट की कम से कम 50 प्रतिशत पर्चियों का मिलान सुनिश्चित किया जाए और ईवीएम को फुलप्रूफ बनाया जाए। आम आदमी पार्टी ने भाजपा से पूछा है कि आखिर क्यों वह सिर्प ईवीएम से ही चुनाव कराना चाहती है? जबकि अधिकतर दल इसका विरोध कर रहे हैं।

Friday, 25 January 2019

123 सांसदों और 22 विपक्षी दलों की महारैली...(2)

उत्तर प्रदेश (80), महाराष्ट्र (48) के बाद बिहार 40 लोकसभा सीटों को लेकर 2019 के लोकसभा चुनाव में तीसरा सबसे महत्वपूर्ण राज्य है। कोलकाता की महारैली में बिहार की ओर से शामिल हुए लालू प्रसाद यादव के बेटे तेजस्वी यादव ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ही निशाने पर रखा। उन्होंने विरोधी दलों की एकजुटता पर जोर देते हुए कहा कि हमारी अनेकता में एकता है। हम सब मिलकर देश को तरक्की की राह पर ले जाने का काम करेंगे। तेजस्वी यादव ने कहा कि हमें देश को जोड़ने का काम करना है। अब भाजपा भगाओ, देश बचाओ का वक्त आ गया है। उन्होंने पीएम मोदी को इंगित करते हुए कहा कि चौकीदार जी जान लें कि थानेदार देश की जनता है। अगर चौकीदार ने गलती की है तो देश की जनता उन्हें सजा देने का काम करेगी। उन्होंने पीएम मोदी और अमित शाह पर तंज कसते हुए कहा कि उनसे हाथ मिलाने वाले लोग राजा हरीश चन्द्र हैं। समझौता करने का काम कर लें तो सब ठीक, वरना सब गलत। उन्होंने बंगाल के लोगों को संबोधित करते हुए कहा कि लड़बो-करबो जीतबो। यही बात भोजपुरी में कहते हैं लड़े के बा...कर के बा...जीते के बा...। बिहार के नेता प्रतिपक्ष ने कहा कि हमारी अनेकता में हीं एकता है। यही हमारे देश की खूबसूरती है। दिखने में अलग-अलग हैं। बोलने में अलग हैं। देश को आज टुकड़े-टुकड़े करने का काम किया जा रहा है। देश को तलवार की नहीं सूई की जरूरत है। उन्होंने कहा कि कपड़ा फट जाएगा तो तलवार काम नहीं आएगी, सूई ही काम आएगी। अलग-अलग रंग का धागा लगाएंगे तो देश को तरक्की पर ले जाएंगे। तेजस्वी ने कहा कि मोदी जी झूठ बोलने की फैक्टरी हैं, रिटेलर भी हैं, होल सेलर भी हैं और डिस्ट्रीब्यूटर भी हैं। ऐसे लोगों से सतर्प रहना जरूरी है। रैली में शामिल दिल्ली के मुख्यमंत्री और आप नेता अरविन्द केजरीवाल ने पीएम मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की जोड़ी पर देश में नफरत फैलाने का आरोप लगाया है। रैली में केजरीवाल ने कहा कि कई लोग मुझसे पूछते हैं कि अगर मोदी प्रधानमंत्री नहीं बनते तो कौन बनेगा? मैं आप सभी को कहना चाहता हूं कि 2019 का चुनाव प्रधानमंत्री चुनने के लिए नहीं होगा, बल्कि मोदी-शाह की जोड़ी को हटाने के लिए होगा। बीते 70 वर्षों में पाकिस्तान ने देश को कमजोर करने का लगातार प्रयास किया है। पाकिस्तान इन वर्षों में देश में नफरत फैलाने में नाकाम रहा, लेकिन मोदी-शाह की जोड़ी ने इसे पांच वर्षों में ही कर दिया। डीएमके नेता एमके स्टालिन ने कहा कि यह आम चुनाव भाजपा के कट्टर हिन्दुत्व के खिलाफ भारत के लोगों के लिए आजादी की दूसरी लड़ाई होगी। कर्नाटक के सीएम कुमार स्वामी ने कहा कि आज हम केंद्र के कुल अलोकतांत्रिक लोगों को लोकतांत्रिक सरकार की अगुवाई करते देख रहे हैं। पाटीदार नेता हार्दिक पटेल ने कहा कि नेताजी सुभाष चन्द्र बेस ने गोरों के खिलाफ लड़ने की अपील की थी और हम इन चोरों के खिलाफ लड़ रहे हैं। मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान विधानसभा चुनावों में मिली विजय से बेशक कांग्रेस का मनोबल बढ़ा हो पर आगे का रास्ता कांग्रेस के लिए कठिन है। देखना यह होगा कि उसके नेतृत्व को कितनी स्वीकार्यता मिलती है। फिर लोकसभा और विधानसभा के चुनावों का मिजाज, मुद्दे अलग होते हैं। लोकसभा में वही मुद्दे काम नहीं करते जो विधानसभा चुनावों में करते हैं। इसलिए किसी दल के विधानसभा चुनाव नतीजों के आधार पर लोकसभा में भी उसकी विजय का दावा नहीं किया जा सकता। ज्यादातर दलों जो इस महारैली में शामिल हुए थे की हैसियत क्षेत्रीय स्तर पर सिमटी हुई है। इसलिए वे क्षेत्रीय मुद्दों को किस प्रकार और कितना राष्ट्रीय मुद्दों में बदलने में कामयाब हो पाएंगे, यह भी एक चुनौती है। इन दलों को एकजुटता के साथ-साथ कॉमन मिनिमम प्रोग्राम भी बनाना होगा। पहले गठबंधन की कुछ सरकारों के अनुभव अच्छे नहीं रहे जिनमें ये सभी दल शामिल थे। इसलिए मतभेदों को भुलाकर मतदाता के मन में स्थायी और कारगर सरकार दे पाने का भरोसा जगा पाना इन दलों के सामने बड़ी चुनौती होगी। फिर सभी दल चुनाव मैदान में उतरेंगे तो वे अपने लिए उतरेंगे, इसलिए वे बेशक भाजपा को हराने का नारा दे रहे हों, पर वे उसके जनाधार में कितनी सेंध लगा पाएंगे यह समय ही बताएगा? भाजपा के खिलाफ भले ही विपक्षी नेताओं ने साझा मंच पर एकता दिखाई हो, लेकिन इनमें अंतर्विरोध भी नजर आ रहा है। रैली में ममता बनर्जी एक तरफ तो भजापा के विरोध में साझा मंच बना रही है, वहीं दूसरी ओर ये खुद पश्चिम बंगाल में अकेले चुनाव लड़ने जा रही हैं। वहीं कांग्रेस को भी भरोसा नहीं है कि चुनावों में तृणमूल कांग्रेस समझौता करेगी या नहीं? लेफ्ट से कांग्रेस व तृणमूल कोई भी तालमेल करती नहीं दिख रही। इसी तरह यूपी में भी भाजपा विरोधी दो मोर्चे होंगे। पहला सपा-बसपा और दूसरा कांग्रेस व छोटे दलों का। अखिलेश यादव ने कहा था कि अगला पीएम यूपी से ही होगा लेकिन शनिवार को कोलकाता में उस रैली को संबोधित किया जिसे ममता बनर्जी को बतौर पीएम प्रोजेक्ट करने के लिए आयोजित किया गया था। आंध्र और तेलंगाना की तस्वीर भी ऐसी ही है। तेलंगाना चुनावों में कांग्रेस-टीडीपी ने गठबंधन किया और करारी हार झेली। अब लोकसभा चुनावों में दोनों दल फिर साथ लड़ेंगे इसमें संदेह है। पंजाब व दिल्ली में आप-कांग्रेस साथ लड़ने को तैयार नहीं है। हरियाणा में सिर्प इनेलो-बसपा के बीच समझौता हुआ है, तमिलनाडु में डीएमके, एआईडीएमके भाजपा के खिलाफ लड़ेगी ही लेकिन एमडीएमके, पीएम के जैसे दल भी मोर्चा बना सकते हैं। ओडिशा में बीजेडी और कांग्रेस अलग-अलग लड़ेंगे। जम्मू-कश्मीर में भी पीडीपी-नेकां और कांग्रेस अलग-अलग लड़ेंगे ऐसा नजर आ रहा है। जाहिर है कि सिर्प मोदी के विरोध से काम नहीं चलेगा, विपक्षी मोर्चों के सामने एकजुट होकर अपने-अपने मतभेदों को दरकिनार करके एक साथ आगे बढ़ने की बड़ी चुनौती है। (समाप्त)

-अनिल नरेन्द्र

Thursday, 24 January 2019

123 सांसदों और 22 विपक्षी दलों की महारैली...(1)

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी आम चुनावों से पहले विपक्षी एकता दिखाने में कामयाब रहीं। शनिवार को कोलकाता में भारी जनसैलाब के बीच हुई रैली में 22 विपक्षी दलों के नेता जुटे। उनके अलावा शत्रुघ्न सिन्हा, यशवंत सिन्हा, अरुण शौरी और हार्दिक पटेल जैसे नेता भी शामिल हुए। सभी ने मिलकर नारा दिया कि केंद्र की भाजपा सरकार को हटाना है। सभी ने केंद्र की मोदी सरकार को उखाड़ फेंकने की हुंकार भरी। आयोजकों के रूप में रैली की अगुवाई कर रहीं ममता बनर्जी ने कहा कि मोदी सरकार की एक्सपायरी डेट खत्म हो गई है। उन्होंने बदल दो, बदल दो, दिल्ली में सरकार बदल दो का नया नारा भी दिया। पहली बार नरेंद्र मोदी सरकार के खिलाफ उत्तर से दक्षिण तक के विपक्षी दल एकजुट हुए और उन्होंने असहिष्णुता से लेकर नोटबंदी, जीएसटी, किसानों का असंतोष, बेरोजगारी और राफेल जैसे मुद्दों पर सरकार की नीतियों की जमकर आलोचना की। लोकतंत्र में इस तरह की रैलियां अस्वाभाविक नहीं हैं, इससे पहले भी देश ऐसी रैलियां देख चुका है। पर इस रैली को हल्के से भी नहीं लिया जा सकता। लोकसभा चुनाव से करीब तीन महीने पहले 22 विपक्षी दलों का एक साथ एक मंच पर आना भाजपा के लिए खतरे की घंटी बजाता है। 22 विपक्षी दलों के कुल 123 सांसदों ने एकमत से ऐलान किया कि अगर मोदी सरकार को हटाना है तो सारे मतभेद दूर करके एकजुटता दिखानी होगी। लिहाजा इस जमावड़े को खारिज करना सही नहीं होगा। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भी कहा कि एकजुट विपक्ष आगामी आम चुनाव में जीत हासिल तभी हासिल करेगा जब सभी मिलकर काम करेंगे। उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री कौन होगा, यह हम चुनाव के बाद तय करेंगे। उन्होंने कहा कि मोदी सरकार की एक्सपायरी डेट खत्म हो गई है। मुख्यमंत्री ने इस बात का जिक्र किया कि देश में मौजूदा हालात सुपर इमरजेंसी के हैं और उन्होंने नारा दिया कि बदल दो, बदल दो, दिल्ली में सरकार बदल दो। उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र (48) के बाद पश्चिम बंगाल में 42 लोकसभा सीटें हैं और इस महारैली ने यह साबित कर दिया कि राज्य में सिर्प ममता का ही बोलबाला है। कहते हैं कि दिल्ली का रास्ता उत्तर प्रदेश से निकलता है। 80 सीटों वाला उत्तर प्रदेश देश की राजनीतिक बदलने की क्षमता रखता है और इस रैली में समाजवादी पार्टी के सुप्रीमो अखिलेश यादव जमकर गरजे। अखिलेश ने केंद्र की मोदी सरकार पर जमकर प्रहार किए। उन्होंने कहा कि जो बात पश्चिम बंगाल से चलेगी वो पूरे देश में दिखाई देगी। लोग सोचते थे कि सपा और बसपा का गठबंधन नहीं होगा, लेकिन गठबंधन हो गया। गाहे-बगाहे अकसर भाजपा खेमा के नेता कहते फिरते हैं कि विपक्ष के पास दूल्हे यानि प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बहुत हैं तो जनता जिसे चुनेगी वो ही पीएम होगा। उन्होंने कहा कि गठबंधन का तरीका भाजपा से ही सीखा है। चुनाव को सिर पर आता देख भाजपा ने सीबीआई और ईडी से गठबंधन कर लिया तो हम भी जनता से गठबंधन कर रहे हैं। उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा के गठबंधन के बाद से ही भाजपा भयभीत है। भाजपा ने समाज में जहर घोलने और बंटवारा कराने का काम किया है। बहुजन समाज पार्टी के वरिष्ठ नेता व राष्ट्रीय महासचिव सतीश चन्द्र मिश्रा ने कहा कि केंद्र में भाजपा सरकार ने किसान, मजदूर और दलितों को केवल परेशान किया है। नोटबंदी व जीएसटी जैसे तुगलकी फरमान की वजह से सबसे ज्यादा गरीबों को नुकसान हुआ है। किसी का रोजगार छिन गया तो किसी का उद्योग बंद हो गया। करोड़ों लोगों को इनके कामों की वजह से बेरोजगार होना पड़ा है। केंद्र की सरकार ने कई कारखाने बंद करवा दिए, इसलिए ऐसी सरकार को उखाड़ फेंकना जरूरी है। इसके लिए विपक्ष को एक होना है और सपा-बसपा ने गठबंधन कर इसकी शुरुआत कर दी है। कांग्रेस के अध्यक्ष राहुल गांधी ने विपक्ष की इस रैली के संबंध में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बचाओ-बचाओ टिप्पणी को लेकर रविवार को मोदी पर निशाना साधते हुए कहा कि यह मदद की गुहार उन लोगों की है जो आपके अत्याचार और अक्षमता से मुक्त होना चाहते हैं। राहुल ने कहा कि आने वाले 100 दिनों में लोगों को मोदी सरकार से मुक्ति मिल जाएगी। प्रधानमंत्री ने एक दिन पहले ही कोलकाता में रैली पर तंज कसते हुए कहा था कि पश्चिम बंगाल में भाजपा का सिर्प एक विधायक है लेकिन वे हमसे बहुत डरे हुए हैं, क्योंकि हम सच्चाई के मार्ग पर चलते हैं। इसलिए उन्होंने पूरे देश से पार्टियों को एकत्रित किया और बचाओ, बचाओ, बचाओ चिल्ला रहे हैं। राहुल ने कहा कि महामहिम मदद के लिए गुहार लाखों बेरोजगार युवाओं, संकटग्रस्त किसानों, वंचित, दलितों, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों को बरी किया जा रहा है, भाजपा को यह नहीं भूलना चाहिए कि हाल के विधानसभा चुनाव के बाद हिन्दी बेल्ट की तीन राज्यों में उसे कांग्रेस के हाथों करारी हार मिली है। मध्यप्रदेश की 29 लोकसभा सीटों को अगर राजस्थान की 25 सीटें और छत्तीसगढ़ की 11 सीटें जहां कांग्रेस का राज है का योग करते हैं तो बन जाता है 65 सीटें। इनको अगर उत्तर प्रदेश (80), बिहार (40), पश्चिम बंगाल (42) को ही जोड़ा जाए तो यह टोटल बन जाता है 227 लोकसभा सीटें। इन राज्यों के जो प्रतिनिधि कोलकाता में आए थे वह सब अपने-अपने क्षेत्र में प्रभाव रखते हैं और सभी राज्यों में भाजपा गठबंधन को हराने की क्षमता रखते हैं। बिहार भी 2019 के लोकसभा चुनाव में खासा महत्व रखते हैं। कोलकाता की रैली में बिहार का प्रतिनिधित्व कर रहे नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव ने रैली में क्या कहा यह कल के  लेख में पढ़िए। (क्रमश)

-अनिल नरेन्द्र

Wednesday, 23 January 2019

वरिष्ठता विवाद पर सुप्रीम फैसला

वरिष्ठता पर विवाद के बाद जस्टिस दिनेश महेश्वरी और जस्टिस संजीव खन्ना की सुपीम कोर्ट में नियुक्ति को बुधवार को राष्ट्रपति ने मंजूरी दे दी। कोलिजियम ने इन दोनों नामों की सिफारिश की थी। कर्नाटक हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश दिनेश महेश्वरी वरिष्ठता में 21वें  जबकि दिल्ली हाई कोर्ट के जज संजीव खन्ना वरिष्ठता में 33वें नंबर पर हैं। कोलिजियम ने पहले दो न्यायाधीशों को लाने की सिफारिश की थी। बाद में इसे बदलकर दो जूनियर जज को सुपीम कोर्ट लाने की संस्तुति की गई। इस बात पर न्यायापालिका में उबाल आ गया है। इस फैसले से सुपीम  कोर्ट व हाई कोर्ट के कार्यरत और पूर्व न्यायाधीशों में काफी असंतोष है। हाई कोर्ट के एक पूर्व जज ने तो राष्ट्रपति को पत्र लिखकर सिफारिश मंजूर न करने की मांग तक कर डाली। दोनों जजों की नियुक्ति में आल इंडिया वरिष्ठता की अनदेखी पर बार काउंसिल ऑफ इंडिया ने एतराज जताया है। सुपीम कोर्ट के न्यायाधीश किशन कौल ने भी नियुक्तियों पर निराशा जताई है। उन्होंने इसे गलत परंपरा की शुरुआत बताई है। पूर्व न्यायाधीश (दिल्ली हाई कोर्ट) कैलाश गंभीर ने राष्ट्रपति को पत्र लिखकर ऐतिहासिक भूल न होने देने का आग्रह भी किया था। सुपीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस गोगोई और कोलिजियम के अन्य सदस्यों को पत्र लिखकर नियुक्ति में वरिष्ठता की अनदेखी का सवाल उठाया था। फिलहाल दोनों नामों पर राष्ट्रपति की मुहर लगने के बाद सुपीम कोर्ट में न्यायाधीशों की कुल संख्या 28 हो गई है। सुपीम कोर्ट में न्यायाधीशों के कुल मान्य पद 31 हैं। इन दोनों न्यायाधीशों की नियुक्ति पर उठा विवाद न्यायपालिका की निष्पक्ष छवि पर संदेह जरूर उत्पन्न करता है। इस बारे में जिस तरह से सुपीम कोर्ट के मौजूदा जज संजय कौल, दिल्ली हाई कोर्ट के पूर्व जज एसएन धींगरा और बार काउंसिल के पदाधिकारियों ने पतिरोध जताया है वह चिंताजनक है। आपत्तियां न्यायमूर्ति महेश्वरी और न्यायमूर्ति खन्ना की योग्यता को लेकर नहीं है। आपत्तियां उनकी वरिष्ठता के बारे में हैं। जब उनसे वरिष्ठ जज मौजूद हैं तो उन्हें सुपीम कोर्ट तक लाने में इंतजार करवाया जा सकता था। आपत्ति उससे भी ज्यादा 12 दिसंबर के उस फैसले को पलटे जाने से है जिसमें राजस्थान हाई कोर्ट के मुख्य न्यायधीश राजेन्द्र मेनन और दिल्ली हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश पदीप नदराजोग को सुपीम कोर्ट में लाने का निर्णय लिया गया था। संजीव खन्ना अपने जज होने के साथ उन मशहूर न्यायमूर्ति एमआर खन्ना के भतीजे हैं, जिन्होंने आपातकाल के विरोध का अकेले साहस दिखाया था। इन नामों की तत्काल अंतिम रूप देने के पीछे न्यायपालिका में जजों की कमी बताई जा रही है। इसके बावजूद लगता है कि सारी आपत्तियों का समुचित उत्तर मिलना बाकी है। इसके पहले भी मुख्य न्यायाधीश टीएस ठाकुर और कार्यपालिका में विवाद में  कोलिजियम की लाचारी दिख चुकी हैं। ऐसे में संवैधानिक संस्थाओं का दायित्व बनता है कि वे निष्पक्षता और स्वयत्तता बरकरार रखें।

-अनिल नरेन्द्र

वर्ल्ड कप से सिर्फ 10 मैच पहले धोनी रिटर्न्स

आस्ट्रेलियाई सरजमीं पर भारतीय टीम ने टेस्ट के बाद एक दिवसीय सीरीज में भी जीत हासिल कर इतिहास रचा दिया। तीन मैचों की एक दिवसीय श्रृंखला में भारत ने अंतिम मैच में सात विकेट से जीत दर्ज की। इसके साथ ही आस्ट्रेलियाई सरजमीं पर पहली बार भारत ने किसी द्विपक्षीय श्रृंखला में फतह हासिल की है। दरअसल टीम इंडिया के आस्ट्रेलियाई दौरे से पहले कई तरह के कयास लगाए जा रहे थे। कुछ इसे भारतीय टीम के घरेलू शेर होने का दाग मिटाने का मौका मान रहे थे तो कुछ विश्व कप की तैयारी।  टीम इंडिया दानां ही मामलों में कामयाब रही। उसने विदेशी जमीन पर जीत के साथ विश्व कप की तैयारी भी की और अपने दाग भी धो डाले। भारत को एक दिवसीय सीरीज फतह करने में टीम के पूर्व कप्तान और मिस्टर फिनिशर महेन्द्र सिंह धोनी का अहम योगदान रहा। महेन्द्र सिंह धोनी से ज्यादा इंडियन किकेट में कोई समर्पित नहीं है। वे दुनिया के सबसे चतुर खिलाड़ियों में से एक हैं, यह उन्होंने कई बार साबित कर दिखाया है। धोनी अपने बैटिंग के नंबर पर कहते हैं कि  मैं नंबर 4 से लेकर 6 तक किसी भी कम पर खेल सकता हूं। हमें यह देखने की जरूरत है कि टीम का संतुलन कैसे सही रखा जा सकता है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि मुझे वहां बल्लेबाजी करनी है जहां मेरी सबसे ज्यादा जरूरत है। मैं छठे नंबर पर भी खुश हूं। मशहूर शायर राहत इंदौरी के इस शेर - अभी गनीमत है सब्र मेरा, अभी लबालब भरा नहीं हूं, वह मुझको मुर्दा समझ रहा है, उसे कहो मैं मरा नहीं हूं, इसका एक-एक शब्द भारतीय टीम में बूढ़े शेर महेन्द्र सिंह धोनी पर पूरी तरह मुफीद बैठता है। जब पूरी दुनिया धोनी की धीमी बल्लेबाजी की आलोचना कर रही थी और विश्व कप में युवा विकेट कीपर  रिषभ पंत को शामिल करने की मांग की जा रही थी तब धोनी ने बताया कि वह अभी चूके नहीं हैं। वह सिर्प बल्ले से ही नहीं दिमाग से भी टीम इंडिया के लिए सबसे मुफीद किकेटर हैं। मैन ऑफ दा सीरीज धोनी की यही खूबी उन्हें 37 साल में भी जवान रखे हुए है और यही कारण है कि टीम इंडिया के कप्तान और खुद किकेट के सम्राट विराट कोहली और कोच रवि शास्त्राr उन पर भरोसा करते हैं। विराट कोहली ने तो यहां तक कह दिया कि महेन्द्र सिंह धोनी इस समय पूरी दुनिया के सबसे बेहतर फिनिशर हैं। बेशक यह सही है कि बढ़ती उमर के कारण धोनी की टाइमिंग पहले जैसी नहीं रही है। लेकिन इसके बावजूद वह अब भी लक्ष्य का पीछा करते हुए टीम को जिताने की क्षमता रखते हैं। वह जब विकेट के पीछे रहते हैं तो उन्हें पता होता है कि कौन-सा बल्लेबाज कैसे खेलेगा। वह गेंदबाज को बताते रहते हैं कि कैसी  गेंद फेंकनी है। स्टपिंग, लेग बिफोर और रन आउट पर जब धोनी इशारा करते हैं कि आउट है तो अमूमन रिव्यू लेने पर भी वह सही साबित होते हैं। हम महेन्द्र सिंह धोनी की इस दौरे में शानदार वापसी पर बधाई देते हैं और उम्मीद करते हैं कि कोहली के साथ वह वर्ल्ड कप जिताएंगे।

Tuesday, 22 January 2019

टेरेसा ब्रेक्जिट मुद्दे पर बुरी फंसी

ब्रिटेन में एक बार फिर ब्रेक्जिट मुद्दे पर टेरेसा मे की सरकार संकट में आ गई जब ब्रेक्जिट डील यानि यूरोपीय यूनियन से बाहर होने की योजना को संसद ने भारी बहुमत से खारिज कर दिया। ब्रेक्जिट डील जिसको ब्रिटेन की प्रधानमंत्री टेरेसा मे ने अपनी प्रतिष्ठा का सवाल बनाया हुआ था उसके विरोध में संसद में 432 वोट पड़े और पक्ष में सिर्प 202 वोट मिले। यानि 230 मतों से सरकार की हार हुई। यहां तक कि टेरेसा की कंजर्वेटिव पार्टी के 118 सांसदों ने भी डील के खिलाफ वोट दिया। ब्रिटेन की संसद में किसी बिल या मसौदे पर यह किसी भी मौजूदा सरकार की सबसे बड़ी हार है। ब्रिटेन के 311 साल के संसदीय इतिहास में कभी भी कोई सरकार इतने बड़े अंतर से नहीं हारी। पर इतनी बड़ी हार के बावजूद फिलहाल टेरेसा मे ने अपनी सरकार गिरने से  बचा ली है। टेरेसा मे की सरकार ने गत बुधवार को ब्रिटिश संसद में 19 वोट ज्यादा हासिल करते हुए विश्वास मत साबित कर दिया, उससे उनके लिए ब्रेक्जिट समझौते पर सांसदों के बीच आम सहमति बनाने का रास्ता साफ हो गया। ब्रेक्जिट समझौते पर हुए मतदान में गत मंगलवार को बुरी तरह हारने के महज 24 घंटे के अंदर पेश हुए विश्वास मत प्रस्ताव पर 325 सांसदों ने मे की सरकार को समर्थन दिया, जबकि 306 वोट उनके विरोध में पड़े। इससे ब्रिटेन के यूरोपियन संघ से बाहर होने का रास्ता अब भी खुला है। ब्रेक्जिट के लिए कानूनन तय की गई 29 मार्च की तारीख की तरफ बढ़ती घड़ी की टिक-टिक के बीच ब्रिटेन आधी सदी के सबसे गहन संकट में फंस गया है। जबकि 1973 में यूरोपियन संघ का हिस्सा बने ब्रिटेन को बाहर निकलने के लिए कैसे और कहां तक, जैसे सवालों से जूझना है। अविश्वास प्रस्ताव के गिरने से सरकार जरूर बच गई है, पर उन्हें अब एक साथ कई मोर्चों पर जूझना होगा। ब्रिटेन ने जून 2016 में रायशुमारी के जरिये 28 देशों के यूरोपीय संघ से अलग होने का फैसला किया था, जिसकी वजह से तत्कालीन प्रधानमंत्री डेविड कैमरन को सत्ता गंवानी पड़ी थी। अभी यह स्पष्ट नहीं है कि टेरेसा मे क्या संसद में दोबारा बिल लेकर आएंगी या फिर यूरोपीय संघ से बात कर समझौते में कोई बदलाव करेंगी या फिर नया प्रस्ताव संसद में लेकर आएंगी? यूरोपीय संघ में दोबारा जाने का मतलब यह भी है कि उन्हें संघ के 27 देशों को नए प्रस्ताव के लिए राजी करना होगा और इसके लिए समय कम है। यूरोपीय संघ ने टेरेसा मे को ब्रेक्जिट पर अपना रुख जल्द स्पष्ट करने को कहा है। यूरोपीय संघ के अध्यक्ष जीन क्लाउड जकर ने कहा कि मैं ब्रिटेन से अपील करता हूं कि वह जल्द से जल्द अपनी मंशा स्पष्ट  करें। टेरेसा विश्वास मत हासिल करने के बाद फिर दोबारा जनमत संग्रह करवा सकती हैं या फिर वह गतिरोध खत्म करने के लिए आम चुनाव का भी फैसला ले सकती हैं। समय कम है देखें वह क्या करती हैं।

-अनिल नरेन्द्र

कोलकाता विपक्षी रैली में भाजपा नेताओं के ताबड़तोड़ हमले

कोलकाता के ब्रिगेड मैदान में शनिवार को 41 साल बाद विपक्षी दलों का इतना बड़ा जमावड़ा दिखा। 1977 में ज्योति बसु ने यहीं से कांग्रेस के खिलाफ बिगुल बजाया था। अब चार दशक बाद विपक्ष का ऐसा जमावड़ा देखने को मिला। नया प्रधानमंत्री लाना है के नारे से कोलकाता में ममता बनर्जी के आह्वान पर 22 दल एकजुट हुए। कुल 22 विपक्षी दलों के बड़े नेता इसमें शामिल हुए और सबके निशाने पर भाजपा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी थे। बाकी नेताओं का इस आयोजन में शामिल होना कोई आश्चर्यजनक बात नहीं थी, इनको तो अपनी-अपनी मजबूरी के कारण शामिल होना ही था, पर भाजपा के बड़े नेताओं का ममता की इस रैली में शामिल होना कुछ प्रश्न जरूर उठाता है। यशवंत सिन्हा, अरुण शौरी और शत्रुघ्न सिन्हा ने रैली में प्रधानमंत्री और सरकार की जमकर आलोचना की। यशवंत सिन्हा ने कहा कि आजादी के बाद यह पहली सरकार है जो जनता को मूर्ख बनाने के लिए विकास के झूठे आंकड़े पेश कर रही है। अगर आप सरकार की तारीफ करते हैं तो देशभक्ति है और अगर आलोचना करते हैं तो वह देशद्रोह है। अरुण शौरी ने कहा कि राफेल जैसा घोटाला इससे पहले किसी सरकार में नहीं हुआ। शौरी ने आगे कहा कि ऐसी झूठ बोलने वाली सरकार पहले कभी नहीं आई। सबसे तीखा हमला शत्रुघ्न सिन्हा ने किया। उन्होंने कहा कि यह समय एक होने का है। मतभेद हो सकते हैं पर मनभेद नहीं होना चाहिए। लोकसभा चुनाव का वक्त है, अब फिर वादों का दौर शुरू होगा। जो वादे किए थे अगर उन पर सवाल किया जाए तो अयोध्या में राम मंदिर का मुद्दा उठाया जाएगा। पहले खुद विरोध किया लेकिन बाद में लगा दिया जीएसटी। शत्रुघ्न ने नरेंद्र मोदी पर हमला बोलते हुए कहा कि जनता अभी नोटबंदी से उबरी भी नहीं थी कि मोदी ने जीएसटी थोप दिया, बिना तैयारी के जीएसटी लगा दिया। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने इसे गब्बर सिंह टैक्स कहा। पहले खुद मोदी जब मुख्यमंत्री थे तो उन्होंने इसका विरोध किया लेकिन अब उन्होंने खुद जीएसटी लगा दिया। शत्रुघ्न सिन्हा ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का नाम लिए बगैर कहा कि आज के दौर में जो तानाशाही है वो नहीं चलेगी। रातोंरात नोटबंदी की घोषणा कर दी। यह फैसला करते वक्त यह भी नहीं सोचा कि मजदूरों, रेहड़ी वालों और आम लोगों का क्या होगा? नोटबंदी का फैसला पार्टी का नहीं था, अगर पार्टी का होता तो लाल कृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी और अरुण शौरी को पता होता। कहा जाता है कि देश के वित्तमंत्री को भी इस बारे में जानकारी नहीं थी। बागी हूं सच कहना बगावत है तो समझो मैं बागी हूं। देश बदलाव चाहता है। मुझसे लोग कहते हैं कि मैं भाजपा के खिलाफ बोलता हूं  लेकिन अगर सच कहना बगावत है तो समझो मैं भी बागी हूं। शत्रुघ्न ने राहुल गांधी और आरजेडी के तेजस्वी यादव की तारीफ की। साथ ही राफेल डील पर कांग्रेस के अंदाज में तीन सवाल पूछते हुए कहा कि इनका जवाब देने तक पीएम को सुनना पड़ेगा। चौकीदार चोर है। देखें कि इन नेताओं पर भाजपा नेतृत्व अब क्या एक्शन लेता है? शत्रुघ्न सिन्हा तो अब भी भाजपा के सदस्य हैं।

Sunday, 20 January 2019

एक नहीं दो ट्रेनों में यात्रियों से लूटपाट अत्यंत चिन्ताजनक है

पिछले कुछ समय से रेलों में लूटपाट जैसी आपराधिक घटनाओं का बढ़ना सभी के लिए चिन्ता का विषय होना चाहिए। रेलवे के आंकड़ों के मुताबिक भी दिल्ली सीमा में ट्रेनों और स्टेशनों पर लूट की घटनाओं में बढ़ोतरी हुई है। जीआरपी के रिकॉर्ड के मुताबिक साल 2018 में लूट के 14 मामले दर्ज किए गए जबकि 2017 में 10 मामले दर्ज हुए थे। हालांकि जीआरपी का दावा है कि 2018 में  दर्ज सभी मामलों को सुलझा लिया गया। लूटपाट का ताजा केस चौंकाने वाला है। दिल्ली के बादली स्टेशन के आउटर पर गुरुवार तड़के बेखौफ नकाबपोशों ने एक नहीं दो ट्रेनों में यात्रियों के साथ लूट की वारदात को अंजाम दिया। पहली घटना रात दो बजे हुई, जिसमें बदमाशों ने टाटा-जम्मूतवी ट्रेन को बादली-हौलंबी कलां रेलवे स्टेशन के बीच निशाना बनाया। बदमाशों ने चेन पूलिंग कर ट्रेन रोकी, यात्रियों पर चाकू अड़ाया। एक यात्री ने विरोध किया तो उसे चाकू मारकर घायल कर दिया। इसके बाद तड़के 3.30 बजे नरेला से बादली के बीच सिग्नल फेल कर जम्मू-सराय रोहिल्ला दुरन्तों एक्सप्रेस को आउटर पर रोक लिया। बी-3 और बी-7 कोच में घुसकर बदमाशों ने तीन यात्रियों से चाकू की नोंक पर मोबाइल, कैश और ज्वैलरी, कपड़े, बैग छीने और फरार हो गए। बादली स्टेशन मास्टर ने दुरन्तों को ग्रीन सिग्नल दिया हुआ था, पर आउटर पर बदमाश पहले से जाल बिछाए हुए थे। बदमाशों ने जैसे ही ट्रेन को आते देखा, सिग्नल फेल कर दिया। सिग्नल के अचानक रेड हो जाने से 3.24 बजे ट्रेन बादली आउटर पर रुक गई, इसके बाद लूटपाट की गई। निराशाजनक बात यह है कि दिल्ली की ट्रेनों में लूटपाट की घटनाएं अकसर सामने आने के बाद भी इन पर रोक लगाने के लिए कोई उल्लेखनीय प्रयास नजर नहीं आते। रेलवे लाइनों के किनारे बनी झुग्गियों के कारण ट्रेनों की गति धीमी होती है, जिससे बदमाश उसमें चढ़ जाते हैं। लूटपाट करते हैं और फरार हो जाते हैं। इन झुग्गियों में अपराधियों को छिपने का आसान ठिकाना भी मिल जाती है। यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है कि रेलवे लाइनों के किनारे बनी झुग्गियों को हटाने के लिए किसी भी स्तर पर कोई प्रयास होता दिखाई नहीं देता। जब राष्ट्रीय राजधानी में ही रेलयात्री सुरक्षित नहीं हैं तो दूरदराज के इलाकों में स्थिति का अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है। दिल्ली में रेलयात्रियों की सुरक्षा के मद्देनजर यह अत्यंत आवश्यक है कि रेलवे लाइनों के किनारे से झुग्गियां हटाई जाएं। चिन्ता का विषय रेलवे के लिए यह भी होना चाहिए कि कैसे अपराधियों ने ग्रीन सिग्नल को रेड में बदल दिया? क्या रेलवे के कर्मचारी भी इन  लूट की घटनाओं में शामिल हैं? इस वारदात को चुनौती के रूप में लेते हुए हम उम्मीद करते हैं कि रेलवे पुलिस को ऐसे पुख्ता इंतजाम करने होंगे ताकि भविष्य में सिग्नल फेल करना संभव न हो। साथ ही यात्रियों की ट्रेनों में कैसे सुरक्षा की जाए इस पर भी गंभीरता से विचार करे रेलवे।

-अनिल नरेन्द्र

बीमारी के चलते प्रभावित होती भाजपा की चुनावी तैयारियां

सर्दी में स्वाइन फ्लू की बीमारी अकसर सामने आती है, क्योंकि इसमें इसके वायरस एच1एन1 सक्रिय हो जाते हैं। वैसे तो विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) इस बीमारी को महामारी की श्रेणी से अलग रख चुका है। फिर भी बच्चों, बुजुर्गों, गर्भवती महिलाओं व अन्य बीमारियों से पीड़ित मरीजों के लिए यह जानलेवा साबित हो सकती है। इसलिए डाक्टर सलाह देते हैं कि मेट्रो व अधिक भीड़भाड़ वाली जगहों पर जाने से परहेज करें। यह बीमारी एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में फैलती है। इसलिए भीड़भाड़ वाली जगहों पर संक्रमण होने का खतरा अधिक होता है। बच्चों व बुजुर्गों को अधिक सतर्प रहने की जरूरत है। इसके अलावा जिन लोगों को पहले से मधुमेह, रक्तचाप या अन्य कोई बीमारी हो उन्हें भी अधिक सतर्प रहना चाहिए। आम चुनाव से ठीक पहले भाजपा अध्यक्ष अमित शाह भी स्वाइन फ्लू की चपेट में आ गए हैं। स्वाइन फ्लू के इलाज के लिए दिल्ली के एम्स में भर्ती भाजपा अध्यक्ष की सेहत अब बेहतर बताई जा रही है। उन्हें एक या दो दिन में छुट्टी मिल सकती है। पार्टी ने गुरुवार को यह जानकारी दी। शाह ने बुधवार को एक ट्वीट के माध्यम से लोगों को बीमारी की जानकारी दी थी। पार्टी के मीडिया प्रमुख और राज्यसभा सदस्य अनिल बलूनी ने कहा कि भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह जी का स्वास्थ्य बेहतर है। अस्पताल ने बताया कि एम्स के निदेशक रणदीप गुलरिया के नेतृत्व में डाक्टरों का एक दल उनकी स्थिति पर नजर रखे हुए है। सूत्रों के अनुसार भाजपा अध्यक्ष को सीने में जकड़न और सांस लेने की दिक्कत की शिकायत के बाद अस्पताल के पुराने निजी वार्ड में भर्ती कराया गया था। उधर कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता और सांसद बीके हरिप्रसाद के अमित शाह पर की गई टिप्पणी से विवाद खड़ा हो गया है। कर्नाटक में कांग्रेस-जेडीएस सरकार को अस्थिर करने के आरोप में कांग्रेस ने बेंगलुरु में विशेष आयोजन किया था। उसी में हरिप्रसाद ने कहा कि कुछ विधायकों के लौटने से अमित शाह हिल गए हैं और उन्हें जुकाम हो गया है। यह सामान्य जुकाम नहीं है। यह सूअर का जुकाम है। इस पर भाजपा भड़क गई। भाजपा नेता और केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल ने कहा कि भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के स्वास्थ्य को लेकर कांग्रेस नेता ने जो गंदा और अशिष्ट बयान दिया है, वह कांग्रेस के स्तर को दर्शाता है। बुखार का तो इलाज है, लेकिन कांग्रेस नेता की मानसिक बीमारी का इलाज कठिन है। आम चुनाव से ठीक पहले अमित शाह समेत पार्टी के शीर्ष नेताओं की अस्वस्थता चुनावी तैयारियों पर असर डाल रही है। अरुण जेटली, रविशंकर प्रसाद, राम लाल, नितिन गडकरी व मनोहर पर्रिकर भी अस्वस्थ हैं। इलाज के लिए अमेरिका गए अरुण जेटली को लौटने में दो हफ्ते लग सकते हैं। कयास है कि वह फरवरी को अंतरिम बजट नहीं पेश कर सकेंगे। केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद को भी एक हफ्ते के बैड रेस्ट पर रहना होगा। वहीं शूगर लेवल बढ़ने के कारण नितिन गडकरी भी स्वस्थ नहीं हैं। राम लाल एम्स में हैं। इन नेताओं की बीमारी के कारण भाजपा की चुनावी तैयारियां प्रभावित हो रही हैं।

Saturday, 19 January 2019

एक पखवाड़े में ठंड से 96 की मौत

कड़ाके की ठंड से बचने के लिए नोएडा में एक ओला कैब चालक ने मंगलवार देर रात सवारी छोड़कर अंगीठी कैब में ही जला दी। नींद आने पर कैब में ही अंगीठी रख ली और दरवाजे को लॉक कर सो गया। इससे दम घुटने से उसकी मौत हो गई। मृत कैब चालक की पहचान सतेन्द्र (25) के रूप में हुई। दिल्ली में चलने वाली सर्द हवाओं का असर सबसे ज्यादा खुले आसमान के नीचे सोने वालों, बेसहारा और बेघर लोगों पर देखने को मिल रहा है। ठंड के कारण एक जनवरी 2019 से लेकर 14 जनवरी 2019 तक के ऐसे 96 लोगों की मौत हो चुकी है। सेंटर फॉर हॉलिस्टिक डेवलपमेंट (सीएचडी) नाम की एक संस्था ने यह दावा किया है। संस्था का मानना है कि अकेले दिल्ली में ही ठंड ने 96 लोगों की जान ले ली है। सबसे ज्यादा मौतें उत्तरी दिल्ली इलाके में हुई हैं। इसमें सिविल लाइंस, सराय रोहिल्ला और कश्मीरी गेट का इलाका शामिल है। इन इलाकों में 14 दिन के अंदर 23 लोगों की मौत हुई है। उत्तर-पश्चिम से आ रही सर्द हवाओं से दिल्ली-एनसीआर को राहत नहीं मिल रही है। सर्द हवाओं व आंशिक रूप से बादल छाए रहने से जनवरी के मध्य तक शीत लहर का प्रकोप जारी रहेगा। बुधवार को बीते सात साल में सबसे सर्द सुबह रही। न्यूनतम तापमान सामान्य से लगभग तीन डिग्री कम 4.5 डिग्री सेल्सियस दर्ज किया गया। यह जनवरी में तीसरी बार है जब न्यूनतम तापमान में इतनी गिरावट हुई है। इससे पहले एक जनवरी 2019 को 4.8 डिग्री सेल्सियस दर्ज किया गया था। मौसम विभाग की मानें तो उत्तर-पश्चिम से आ रही हवाएं जनवरी में दिल्ली को सामान्य से ज्यादा ठंडा बना रही हैं। विभाग ने बृहस्पतिवार को दिल्ली, चंडीगढ़, पंजाब, हरियाणा, यूपी व राजस्थान में भी शीत लहर के जारी रहने का अलर्ट जारी किया है। विभाग की मानें तो अभी तीन-चार दिन तक ऐसे ही सर्द हवाएं परेशान करेंगी। उसके बाद मौसम गरम होना शुरू होगा। मौसम विभाग के मुताबिक हाल ही में जम्मू-कश्मीर, हिमाचल और उत्तराखंड में हिमपात हुआ है। वहीं पंजाब, हरियाणा व राजस्थान में बारिश दर्ज की गई। मौसम पूर्वानुमान केंद्र के प्रमुख ने बताया कि 18 जनवरी से पश्चिमी विक्षोभ के सक्रिय होने की संभावना है इससे तापमान बढ़ेगा। वहीं 21 22 जनवरी को बूंदाबांदी हो सकती है। इस कड़ाके की ठंड से सबको बचने के लिए पर्याप्त कपड़े पहनने चाहिए और बच्चों का खास ख्याल रखना होगा। सुबह-सुबह बच्चे जब स्कूल जाते हैं तो कभी-कभी स्कूल ड्रेस के चलते वह पर्याप्त गरम कपड़े नहीं पहन सकते।

-अनिल नरेन्द्र

तीन साल बाद चुनाव से तीन महीने पहले चार्जशीट

जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में कथित तौर पर राष्ट्र विरोधी नारे लगाने के आरोप में तीन साल बाद और लोकसभा चुनाव के तीन महीने पहले जेएनयू छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार समेत 10 लोगों के खिलाफ दिल्ली पुलिस ने चार्जशीट दाखिल की है। आरोपियों के खिलाफ ट्रकों में भरकर लाए गए 1200 पन्नों की भारी-भरकम आरोप पत्र दाखिल किया तो शायद ही किसी को पुलिस की इस स्लो मोशन कार्रवाई पर आश्चर्य हुआ। हां आरोप पत्र के टाइमिंग पर जरूर सवाल खड़े हो रहे हैं। छात्र नेताओं के खिलाफ दाखिल आरोप पत्र को कुछ लोग आगामी लोकसभा चुनावों के साथ जोड़कर देख रहे हैं। बेशक इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि हाल के वर्षों के दौरान विश्वविद्यालय परिसर राजनीति का अखाड़ा बनते जा रहे हैं। अभिव्यक्ति की आजादी की आड़ में यह कुछ ऐसी गतिविधियां भी हो रही हैं, जिनका अध्ययन-अध्यापन से कोई रिश्ता नहीं है। मसलन नौ फरवरी 2016 को आतंकी अफजल गुरु और मकबूल भट्ट की फांसी को न्यायिक हत्या बताने वाले छात्रों के एक समूह ने साबरमती ढाबे के पास एक कार्यक्रम का आयोजन किया था जिसमें कुछ छात्रों ने भारत विरोधी नारे लगाए, ऐसा आरोप पत्र में कहा गया है। कन्हैया कुमार और उमर खालिद ने उन पर लगे आरोपों से इंकार किया है और इसे राजनीति से प्रेरित बताया है। यह मामला अब अदालत पहुंच चुका है, लिहाजा उनके पास खुद को निर्दोष साबित करने का पूरा अवसर है। चूंकि यह मामला एक आतंकवादी के कथित महिमामंडन और देश की अखंडता को चुनौती देने से जुड़ा है। इसलिए इसकी संवेदनशीलता को समझा जा सकता है। इस सन्दर्भ में 124ए के संबंध में माननीय सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देश पर भी गौर किया जाना चाहिए, जिसने 2017 में केदारनाथ सिंह बनाम बिहार सरकार केस से संबंधित 1962 के पांच सदस्यीय संविधान पीठ के फैसले में देशद्रोह को स्पष्ट किया था। इसमें संविधान पीठ ने कहा थाöदेशद्रोही भाषणों और अभिव्यक्ति को सिर्प तभी दंडित किया जा सकता है, जब उसकी वजह से किसी तरह की हिंसा, असंतोष या फिर सामाजिक विद्रोह बढ़े। पुलिस ने आरोप पत्र के साथ कुछ वीडियो भी नत्थी की हैं, जिन्हें वह विरोधी नारेबाजी का साक्ष्य मान रही है। यह सच है कि जेएनयू परिसर में कुछ बाहरी तत्वों ने नारेबाजी की, लेकिन कन्हैया कुमार ने देश विरोधी नारे लगाए हैं, इसका कोई वीडियो पुलिस के पास नहीं है। पुलिस के पास कुछ गवाह हैं जो कन्हैया के नारे लगाने की पुष्टि कर रहे हैं पर क्या पर्याप्त साक्ष्य हैं? पुलिस को अब अदालत में इन साक्ष्यों को पेश करना है और वहां दूध का दूध, पानी का पानी हो जाएगा।

Friday, 18 January 2019

कर्नाटक में शह-मात का खेल ः जीतेगा कौन?

कर्नाटक की राजनीति में इस समय जो कुछ घटित हो रहा है उसे नाटक कहें तो कोई आश्चर्यजनक नहीं है। इसका अंदेशा तभी उभर आया था जब विधानसभा चुनाव परिणाम आए थे और तीसरे नम्बर पर आई पार्टी जनता दल-एस ने दूसरे नम्बर पर रही कांग्रेस के समर्थन से सरकार बनाई थी। पहले नम्बर पर आई और साधारण बहुमत से दूर रही भारतीय जनता पार्टी ने भी जोड़तोड़ से सरकार बनाने की कोशिश की थी, लेकिन एचडी कुमारस्वामी ने कांग्रेस से मिलकर भाजपा को मात देते हुए सरकार बना ली। तभी से कर्नाटक में शह-मात का खेल चल रहा है। ताजा नाटक में मंगलवार को तब नया मोड़ आया जब सात माह पुरानी कांग्रेस-जेडीएस सरकार को झटका देते हुए दो निर्दलीय विधायकों ने समर्थन वापस ले लिया। आर. शंकर व एम. नागेश के सरकार से समर्थन वापसी के बाद राजनीतिक स्थिति रोचक हो गई है। इससे सरकार पर ज्यादा असर तो नहीं पड़ेगा, पर कांग्रेस जेडीएस का अंदरूनी असंतोष बाहर आया तो सत्ता समीकरण बदल सकते हैं। कर्नाटक की 224 सदस्यीय विधानसभा में एक मनोनीत विधायक को मिलाकर संख्या 225 हो जाती है। ऐसे में बहुमत का आंकड़ा 113 पर है। भारतीय जनता पार्टी के पास 104 विधायक हैं जबकि कांग्रेस के 79 व जनता दल-एस के 37 विधायकों के साथ फिलहाल उनका पूर्ण बहुमत है यानि की बहुमत (113) से तीन ज्यादा (116) का टोटल बनता है। अगर तीन-चार विधायक अपना समर्थन वापस ले लेते हैं तो सरकार गिर जाती है। भाजपा को सरकार गिराने के लिए कम से कम नौ विधायकों के समर्थन की जरूरत है। भाजपा अपने सभी 104 विधायकों के साथ दिल्ली के पास हरियाणा के नूंह के एक पांच स्टार रिसोर्ट में डेरा डाले हुए है। वह अपने कुनबे को दूर से बचाए रखने व राज्य की सारी संभावनाओं को टटोल रही है। भाजपा और सत्तारूढ़ कांग्रेस-जेडीएस गठबंधन के नेताओं ने मंगलवार को भी एक-दूसरे पर तोड़फोड़ का आरोप लगाया। हालांकि टूट-फूट से बचाए रखने के लिए दोनों पक्ष अपने-अपने दावें कर रहे हैं। भाजपा नेता बीएस येदियुरप्पा ने अपने विधायकों के साथ बैठक में कहा कि जल्दी ही खुशखबरी आने वाली है। भाजपा को यह टीस तो है ही कि वह सबसे बड़े दल होने के बावजूद सरकार से बाहर है और एक-दूसरे के खिलाफ लड़ने वाली पार्टियां एक होकर सरकार चला रही हैं। इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि कुमारस्वामी सरकार में असंतोष है। उनके विधायकों को लगता है कि उन्हें मंत्री न बनाया जाना नाइंसाफी है। वह हो सकता है कि पाला बदलना चाहते हों। किन्तु भाजपा उन्हें ऐसा करने को प्रोत्साहित करे, यह भी उचित नहीं है। यह राजनीतिक अनैतिकता होगी। इसी तरह अगर कुमारस्वामी भाजपा विधायकों को तोड़ने का प्रयास कर रहे हैं तो वह भी अनैतिक माना जाएगा। कुमारस्वामी कांग्रेस के व्यवहार के प्रति कई बार अपना दुख सार्वजनिक रूप से प्रकट कर चुके हैं। अगर कर्नाटक में नए सिरे से राजनीतिक समीकरण बनते-बिगड़ते हैं और उसके फलस्वरूप वहां नई सरकार बनती है तो इसे जोड़तोड़ व हॉर्स ट्रेडिंग के आरोपों को ही बल मिलेगा। फिर इस बात की कोई गारंटी नहीं कि जोड़तोड़ से बनी सरकार राज्य में स्थिरता लाएगी। दरअसल भाजपा कांग्रेस-जेडीएस गठबंधन में झगड़ा करवाकर इसे कमजोर दिखाना चाहती है ताकि उसे 2014 की तरह 2019 के चुनाव में भी 28 सीटों में से 17 या उससे ज्यादा सीटें जीतने का अवसर मिले। यह शह-मात का खेल एक कोड 2019 लोकसभा चुनाव भी है। राजनीति जब सिद्धांत और नैतिकता से पतित होती है तो इसी तरह के नाटकीय दृश्य उपस्थित होना स्वाभाविक ही है।

-अनिल नरेन्द्र

हत्या के 16 साल बाद अंतत इंसाफ

पत्रकार राम चन्द्र छत्रपति हत्याकांड में 16 साल बाद फैसला आया है। साल 2002 से मामले की सुनवाई चल रही थी। अब जाकर छत्रपति के परिजनों का लंबा इंतजार खत्म हुआ है। पंचकूला की विशेष सीबीआई कोर्ट ने गत शुक्रवार को हत्या के मुख्य आरोपी डेरा प्रमुख गुरमीत राम रहीम सहित तीन अन्य किशन लाल, निर्मल सिंह और कुलदीप सिंह को दोषी करार दिया है। कोर्ट ने चारों दोषियों को उम्रकैद की सजा सुनाई है व 50-50 हजार रुपए का जुर्माना भी लगाया है। कोर्ट में सुनवाई के दौरान इस बार पुलिस का कड़ा पहरा रहा। राम रहीम की पेशी सुनारिया जेल से वीडियो कांफ्रेंस के जरिये हुई, जहां वह साध्वियों के यौन शोषण के मामले में सजा काट रहा है। बता दें कि डेरा सच्चा सौदा से जुड़ा मामला साल 2002 में एक पत्र के रूप में सामने आया था, जिसमें साध्वियों ने अपने साथ हो रहे यौन शोषण का खुलासा करते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और पंजाब-हरियाणा हाई कोर्ट में मदद की गुहार लगाई थी। उन दिनों पत्रकार राम चन्द्र छत्रपति अखबार `पूरा सच' प्रकाशित करते थे। साध्वी द्वारा लिखा गया एक पत्र लोगों में चर्चा का विषय बना तो छत्रपति ने साहस दिखाया और 30 मई को अपने अखबार में `धर्म के नाम पर किया जा रहा साध्वियों का जीवन बर्बाद' शीर्षक से खबर छाप दी। खबर से तहलका मच गया क्योंकि अब अखबार द्वारा खुलकर लोगों को इस बात की जानकारी हुई कि डेरे में साध्वियों के साथ यौन शोषण किया जा रहा है। इसके बाद पत्रकार राम चन्द्र छत्रपति को लगातार राम रहीम द्वारा धमकियां भी दी जाने लगीं। इस बारे में छत्रपति के बेटे अंशुल छत्रपति बताते हैं कि पिता लगातार मिल रही धमकियों से नहीं डरे और इस मामले को आगे भी लगातार प्रकाशित करते रहे। 24 अक्तूबर 2002 को छत्रपति घर पर अकेले थे कि तभी कुलदीप और निर्मल सिंह ने उन्हें घर के बाहर बुलाया। कुलदीप ने छत्रपति पर पांच फायर किए और दोनों मौके से फरार हो गए। हालांकि पुलिस ने उसी दिन कुलदीप को गिरफ्तार कर लिया था। पत्रकार छत्रपति को पहले रोहतक पीजीआई में भर्ती करवाया गया था। बाद में उनकी गंभीर हालत को देखते हुए दिल्ली स्थित अपोलो अस्पताल में लाया गया था। लेकिन 20 दिनों बाद 21 नवम्बर 2002 को पत्रकार राम चन्द्र छत्रपति ने दम तोड़ दिया। बाद में जांच में सामने आया कि जिस रिवॉल्वर से फायर किए गए थे, वह डेरा सच्चा सौदा के मैनेजर कृष्ण लाल की थी। इस मामले में तत्कालीन ओम प्रकाश चौटाला सरकार ने जांच के आदेश दिए। छत्रपति की हत्या के बाद परिवार ने हार नहीं मानी। बेटे अंशुल आर्थिक परेशानियों से टूटे नहीं और खेती-किसानी करते हुए न्याय के लिए जंग लड़ते रहे। इस लड़ाई में कई लोगों ने सहयोग किया। उन पर कई बार समझौता करने का दबाव भी आया पर वह डटे रहे। अंशुल कहते हैं कि कोर्ट के इस फैसले के बाद उनका संघर्ष अंजाम तक पहुंचा है।

Thursday, 17 January 2019

क्या भाजपा यूपी में 2014 को दोहरा पाएगी?

वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में अब बहुत थोड़े से दिन बचे हैं और इसके मद्देनजर अब गठबंधन बनाने के पयास तेज होते जा रहे हैं। लखनऊ में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के बीच गठबंधन के ऐलान से आगामी लोकसभा चुनावों की लड़ाई का अनौपचारिक आरंभ हो गया है। भारतीय जनता पार्टी का रथ रोकने के लिए उत्तर पदेश के दो धुर विरोधी राजनीतिक दल सपा और बसपा साथ आ गए हैं। दोनों ही पार्टियों का पदेश में अपना-अपना ठोस जनाधार है। ढाई दशक के कड़वाहट भरे दौर को पीछे छोड़ते हुए सपा और बसपा ने जो एक-दूसरे का हाथ पकड़ने का फैसला किया है वह सिर्प मोदी को रोकने हेतु किया गया है। मायावती ने पत्रकार वार्ता में कहा कि यह गठबंधन मोदी और शाह की नींद उड़ाने वाला है। यह उनकी भाषा है, बहरहाल इतना तो तय है कि भाजपा के लिए चुनौतियां काफी बढ़ गई हैं। अगर 2014 के लोकसभा एवं 2017 विधानसभा चुनावों के मतों के अनुसार विचार करें तो इन दोनों पार्टियों का संयुक्त मत और भाजपा का मत लगभग बराबर है। अगर ये पार्टियां अलग-अलग चुनाव लड़ती तो हो सकता था कि भाजपा के लिए 2014 दोहराना आसान हो जाता। अब चुनौतियां बढ़ गई हैं। मायावती ने कहा कि सपा और बसपा 38-38 लोकसभा सीटों पर चुनाव लड़ेंगी। जबकि कांग्रेस के लिए सिर्प अमेठी और रायबरेली की सीटें छोड़ी गई हैं। दोनों मायावती और अखिलेश ने कांग्रेस के साथ किसी भी तरह के गठबंधन से फिलहाल इंकार किया है। उधर कांग्रेस ने घोषणा की है कि वह राज्य की सभी 80 लोकसभा सीटों पर अपने बलबूते पर चुनाव लड़ेगी। हालांकि उसने गठबंधन के दरवाजे अब भी खुले रखते हुए कहा कि अगर कोई धर्मनिरपेक्ष पार्टी कांग्रेस पार्टी के साथ चलने को तैयार हो तो उसे अवश्य समायोजित किया जाएगा। पार्टी को लगने लगा है कि सपा-बसपा के साथ गठबंधन नहीं होने के कारण कुछ छोटे दलों को साथ लाकर धर्मनिरपेक्ष मतों के बंटवारे में कमी लाई जा सकती है। इसलिए यह कहा जा सकता है कि सपा-बसपा का साथ छूटने से कांग्रेस ने अन्य छोटे दलों की तरफ हाथ बढ़ा दिया है। कांग्रेस के उत्तर पदेश के पभारी गुलाम नबी आजाद ने रविवार को लखनऊ में घोषणा की कि उनकी पार्टी राज्य की सभी 80 सीटों पर चुनाव लड़ेगी और भाजपा को हराएगी। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने दुबई में कहा कि कांग्रेस के पास यूपी के लोगों को देने के लिए बहुत कुछ है। दुबई में शुकवार को कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के आकामक अंदाज और स्टेडियम में मौजूद 50 हजार लोगें की मौजूदगी में जोर देते हुए कहा कि हम यूपी में अपनी पूरी ताकत से लड़ेंगे और लोगों को सरपाइज देंगे। जब पत्रकारों ने उनसे पूछा कि कांग्रेस को गठबंधन से अलग रखा गया है तो उन्होंने कहा कि अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग धर्मनिरपेक्ष दल गठबंधन कर सांपदायिक ताकतों को चुनौती देने के लिए कमर कस चुके हैं। कई राज्यों में गठबंधन हो चुका है और कुछ में  इसकी पकिया अभी चल रही है। सपा-बसपा गठबंधन भी उसकी कड़ी का हिस्सा है। मायावती जी और अखिलेश जी का जो गठबंधन अलग लड़कर भी भाजपा को हराने में मददगार साबित होगा। उन्होंने कहा कि हम विचारधारा की लड़ाई लड़ रहे हैं। उन्होंने दावा किया कि कांग्रेस पूरे दम-खम के साथ चुनाव लड़ेगी और मैं विश्वास दिलाता हूं कि 2019 लोकसभा चुनाव के नतीजे चौंकाने वाले होंगे। बेशक सपा-बसपा का गठबंधन तो हो गया है पर देखना यह भी होगा कि सीटों के बंटवारे में दोनों पार्टियों ने अपने नेताओं का ध्यान रखा होगा, क्योंकि गठबंधन में जितने अधिक दल शामिल होते हैं उतनी ही सीटें कम हो जाती हैं। कई बार नेताओं का तो मिलन हो जाता है पर कार्यकर्ताओं का मिलन नहीं होता और कभी-कभी एक-दूसरे के वोट ट्रांसफर भी नहीं होते। सपा-बसपा गठबंधन की चुनौती से पार पाने के लिए भाजपा ने अपनी कमर कस ली है। अपना दल के साथ पाप्त 73 सीटें केंद्र में भाजपा नेतृत्व वाली सरकार का मुख्य आधार है। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह 50 पतिशत की लड़ाई की बात कर रहे हैं, लेकिन कहने और करने में अंतर होता है। हालांकि 1993 में दोनों पार्टियां साथ लड़कर भी भाजपा को साफ  करने में सफल नहीं हुई थी। सीटें लगभग बराबर थीं पर भाजपा को वोट ज्यादा मिले थे। जहां तक 2014 लोकसभा चुनाव की बात है तो भाजपा ने 43.63 पतिशत वोट लेकर 73 सीटें जीती थीं। सपा को 22.35 पतिशत वोट शेयर और सिर्प 5 सीटें हासिल हुई। बसपा को हालांकि 19.77  पतिशत वोट मिले थे और वह अपना खाता तक नहीं खोल सकी थी। कांग्रेस को 7.53 पतिशत वोट और 2 सीटें हासिल हुई थी। अगर सपा (22.35 पतिशत, बसपा 19.77 पतिशत) के कुल वोट शेयर का जोड़ करें तो यह लगभग 42.12 पतिशत बन जाता है और अगर कांग्रेस का वोट शेयर (7.53 पतिशत) इसमें जोड़ दिया जाए तो कुल योग बन जाता है 49.65 पतिशत। भाजपा के 43.63 पतिशत से यह कहीं ज्यादा बन जाता है। 2014 में मोदी की लहर थी जो अब धीमी पड़ गई है। कहने का तात्पर्य यह है कि उत्तर पदेश का चुनाव परिणाम किसी भी दिशा में जा सकता है। भाजपा जातियों के समीकरणों पर विश्वास करके आगे की रणनीति बनाने में जुट गई है। भाजपा गोरखपुर और फूलपुर उपचुनाव को भूली नहीं है। उसने देख लिया है कि सपा-बसपा अगर वन टू वन फाईट देने में कामयाब हो जाते हैं तो उत्तर पदेश में भाजपा की राह आसान नहीं होगी। वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में अब 80 दिन से कम का समय बचा है जबकि कयास यह भी लगाए जा रहे हैं कि यूपी से इस बार तीन चेहरे होंगे जो दिल्ली के तख्त पर कब्जा करने की तैयारी में हैं। भाजपा में पीएम मोदी के नाम पर एक और बार मुहर लग चुकी है। वाराणसी से वह पुन उम्मीदवार होंगे। मोदी इस बार फिर भाजपा के स्टार पचारक होंगे और पीएम पद के पबल दावेदार। इसके विपरीत सपा-बसपा गठबंधन में अखिलेश ने बसपा पमुख मायावती का नाम पीएम के लिए पेश करके विपक्ष की ओर से मोदी को चुनौती दी है। चर्चा यह भी है कि एक खास दांव के जरिए बबुआ ने बुआ को पीएम का चेहरा पेश किया जबकि उसके पिता मुलायम सिंह यादव सदा से मायावती के विरोधी रहे हैं। उत्तर पदेश से जब हम तीन दावेदारों की बात करते हैं तो उसमें चौथा नाम राहुल गांधी का भी शामिल होगा। वह भी यूपी से ही लड़ते हैं। कुल मिलाकर भाजपा के लिए अपनी 2014 की जीत दोहराने की जबरदस्त चुनौती होगी। देखते हैं कि भाजपा इस चुनौती का क्या तोड़ निकालती है।
-अनिल नरेन्द्र


Wednesday, 16 January 2019

नागरिकता विधेयक ऐतिहासिक मूल का सुधार है

गौरतलब है कि केंद्र सरकार की ओर से लोकसभा में पेश नागरिकता (संशोधन) विधेयक, 2016 पारित हो गया है, जिसमें अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश से अल्पसंख्यक यानि हिन्दू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई समुदाय के लोगों को भारत में 12 साल की जगह छह वर्ष निवास करने के बाद ही नागरिकता प्रदान की जा सकेगी। ऐसे लोगों के पास कोई उचित दस्तावेज नहीं होने पर भी उन्हें नागरिकता दी जा सकेगी। उधर राज्यसभा में शीतकालीन सत्र के आखिरी दिन बुधवार को यह बिल पारित नहीं हो सका। यह विधेयक एक दिन पहले लोकसभा ने पारित किया था। राज्यसभा में पेश किए जाने के बाद चर्चा शुरू होने से पहले ही विपक्षी सदस्यों ने हंगामा शुरू कर दिया और गृहमंत्री के बयान की मांग की। इसके बाद गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने विपक्ष की आशंकाओं को खारिज करते हुए कहा कि यह बिल अकेले असम या पूर्वोत्तर के राज्यों के लिए नहीं है, यह पूरे देश के लिए है। वहीं इस बिल के खिलाफ असम और पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों में विरोध प्रदर्शन तेज हो गए हैं। भाजपा की अगुवाई वाले गठबंधन से बाहर हो चुकी असम गण परिषद (अगप) के तीन मंत्रियों ने बुधवार को राज्य मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया। दरअसल लंबे समय से कुछ पड़ोसी देशों और खासतौर पर बांग्लादेश से अवैध प्रवासियों के भारत में आने का सिलसिला चलता रहा है। इस समस्या से निपटने के मद्देनजर असम में जो राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर तैयार किया गया, उसकी सूची में लगभग 40 लाख लोग आ गए। इतनी बड़ी तादाद अपने आपमें एक बड़ी समस्या है। हालांकि इस पर काफी सवाल उठे, लेकिन लोगों को अपनी नागरिकता को लेकर दावा करने और विवादों के निपटारे का मौका भी दिया गया। इससे इतर देखें तो सीमा पर ढिलाई की वजह से बहुत सारे लोग मौके का फायदा उठाकर भारत में दाखिल हो गए और आज भी अवैध प्रवासियों के रूप में रह रहे हैं। आज ऐसे हजारों लोग भारत के विभिन्न प्रांतों में अभिशप्त जिन्दगी जीने को मजबूर हैं। विभाजन के समय भारत की तरह पाकिस्तान और बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों के जानमाल की सुरक्षा की गारंटी दे दी गई होती तो यह नौबत न आती। लेकिन इन पड़ोसी देशों में जिस प्रकार गैर-मुस्लिमों का उत्पीड़न किया जाता रहा उसका नतीजा यह हुआ कि वहां से भारी संख्या में उनका भारत में पलायन हुआ। स्पष्ट है कि यह पलायन आर्थिक से ज्यादा धार्मिक कारणों से हुआ। केंद्र सरकार असम समझौते के मद्देनजर वहां के मूल निवासियों के राजनीतिक-सांस्कृतिक हितों की रक्षा के लिए कई कदम उठा रही है। इसके बाद वहां विरोध का कोई औचित्य नहीं है। लोकसभा में कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस जैसी पार्टियां विरोध में खड़ी हो गईं। इससे उम्मीद थी कि यह वोट बैंक की राजनीति से ऊपर उठकर इतिहास की मूल को दुरुस्त करने में सहायक होगी लेकिन इनका दृष्टिकोण निराशाजनक रहा।
-अनिल नरेन्द्र



आलोक वर्मा को हटाने की प्रक्रिया पर उठे कई सवाल

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली उच्च स्तरीय समिति द्वारा बहुमत फैसले से आलोक वर्मा को सीबीआई डायरेक्टर पद से हटाए जाने और बाद में खुद आलोक वर्मा के इस्तीफा देने के फैसले फौरी तौर पर चाहे जितने भी नाटकीय लगें, यह वस्तुत इस संस्था के क्षरण के ही दुखद सबूत तो हैं हीं। साथ-साथ कई सवाल भी खड़े कर गए हैं। डीजी फायर सर्विस का चार्ज लेने से इंकार कर इस्तीफा देने वाले सीबीआई के पूर्व निदेशक आलोक वर्मा ने कार्मिक व प्रशिक्षण विभाग (डीओपीटी) के सचिव को भेजे त्यागपत्र में सरकार पर सवाल खड़े करने वाली भाषा का इस्तेमाल किया। उन्होंने त्यागपत्र में कहा कि यह सामूहिक आत्ममंथन का क्षण है। वर्मा ने कहा कि मैंने सीबीआई की साख बनाए रखने की कोशिश की, लेकिन मेरे मामले में पूरी प्रक्रिया को ही उलटा करते हुए मुझे निदेशक पद से हटा दिया गया। सीबीआई डायरेक्टर पद से आलोक वर्मा को हटाए जाने को लेकर कांग्रेस ही नहीं, शिवसेना ने सरकार की आलोचना की है। कांग्रेस ने सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जस्टिस एके पटनायक के बयान का हवाला देते हुए वर्मा को बहाल करने की मांग भी की है। कांग्रेस जिन जस्टिस पटनायक के बयान का हवाला दे रही है, उन्हीं की निगरानी में वर्मा पर लगे करप्शन के आरोपों की जांच सीवीसी ने की थी। जस्टिस पटनायक ने कहा है कि आलोक वर्मा के खिलाफ भ्रष्टाचार के सबूत नहीं हैं। जस्टिस पटनायक ने शुक्रवार को कहा कि वर्मा के खिलाफ भ्रष्टाचार का कोई सबूत नहीं था और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली समिति ने उन्हें हटाने के लिए बहुत जल्दबाजी में फैसला लिया। मालूम हो कि सुप्रीम कोर्ट ने एके पटनायक को आलोक वर्मा मामले में सीवीसी जांच की निगरानी के लिए चुना था। कोर्ट द्वारा आलोक वर्मा की सीबीआई निदेशक पद पर बहाली के बाद बीते गुरुवार को नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली चयन समिति समिति ने 21 के फैसले से उनका तबादला कर दिया था। समिति में मोदी के अलावा सुप्रीम कोर्ट जज एके सीकरी और विपक्ष नेता मल्लिकार्जुन खड़गे थे। कांग्रेस नेता खड़गे ने वर्मा को पद से हटाने के खिलाफ विरोध पत्र दिया था। उनका कहना था कि वर्मा को कम से कम एक बार अपना पक्ष रखने का मौका दिया जाना चाहिए। चयन समिति के तीन सदस्यों में से पीएम मोदी और जस्टिस सीकरी द्वारा सीवीसी जांच के आधार पर आलोक वर्मा को उनके पद से हटा दिया गया और उन्हें गृह मंत्रालय के अग्निशमन विभाग, नागरिक सुरक्षा और होम गार्ड्स का निदेशक नियुक्त किया गया था। जस्टिस पटनायक ने इंडियन एक्सप्रेस को बताया कि भ्रष्टाचार को लेकर वर्मा के खिलाफ कोई सबूत नहीं था। पूरी जांच सीबीआई के विशेष निदेशक राकेश अस्थाना की शिकायत पर की गई थी। मैंने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि सीवीसी की रिपोर्ट में कोई भी निष्कर्ष मेरा नहीं है। मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली सुप्रीम कोर्ट की बेंच को दी गई दो पेज की रिपोर्ट में जस्टिस पटनायक ने कहा था कि सीवीसी ने मुझे 9.11.2018 को एक बयान भेजा था जोकि राकेश अस्थाना द्वारा हस्ताक्षरित यह बयान मेरी उपस्थिति में दर्ज नहीं किया गया था। सीवीसी ने जो कहा, वह अंतिम शब्द नहीं हो सकता। अपने लंबे बयान के अंत में जस्टिस पटनायक ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने मुझे निगरानी का जिम्मा सौंपा था। इसलिए मैंने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई और मैंने सुनिश्चित किया कि प्राकृतिक न्याय का सिद्धांत लागू किया जाए। बीते आठ जनवरी को जब सुप्रीम कोर्ट ने आलोक वर्मा को छुट्टी पर भेजने के सरकार के और 23 अक्तूबर के आदेश को खारिज किया था तो आदेश में जस्टिस पटनायक के निष्कर्षों का कोई उल्लेख नहीं किया गया। आलोक वर्मा की इस दलील से सभी सहमत होंगे कि उन्हें सीबीआई निदेशक पद से हटाने के लिए प्राकृतिक न्याय का गला घोंट दिया गया और कायदे-कानून को ताक पर रख दिया गया। कांग्रेस पार्टी के वरिष्ठ नेता आनंद शर्मा ने मीडिया से बात करते हुए कहा कि आखिर सरकार को किस बात की घबराहट है? आखिर क्यों सरकार आलोक वर्मा को जबरन हटाकर अपने पसंद के अधिकारी को सीबीआई की जिम्मेदारी देना चाहती है? इस पूरे क्रम में सीवीसी की विश्वसनीयता भी कम हुई है। सीवीसी को रिपोर्ट का हवाला देते हुए उन्होंने कहा कि सीवीसी ने अपनी रिपोर्ट में 10 बिन्दु बताए हैं। इनमें से छह पूरी तरह गलत पाए गए हैं। बाकी चार बिन्दुओं पर कोई भी सीधा साक्ष्य नहीं है। सैलेक्शन कमेटी से न्याय की उम्मीद की जाती है, पर कमेटी न्याय करने में नाकाम रही। आनंद शर्मा ने कहा कि कमेटी ने आलोक वर्मा पर लगे आरोपों के बारे में उनका पक्ष सुना तक नहीं। साथ ही उन्होंने कहा कि वर्मा के बारे में सीवीसी की रिपोर्ट में दम होता तो अदालत उस पर कार्रवाई करती। पार्टी का कहना था कि सरकार राफेल विमान सौदे की जांच से डरी हुई थी। इसलिए सरकार ने आलोक वर्मा को 20 दिन भी सीबीआई प्रमुख के पद पर नहीं रहने दिया। मूल बात यह है कि इस केस से सैलेक्शन कमेटी और सीबीआई दोनों की विश्वसनीयता घटी है। सीबीआई की विश्वसनीयता और कार्यकुशलता की पुनर्स्थापना अब जरूरी हो गई है।

Tuesday, 15 January 2019

शीला के आने से कांग्रेस का पुराना युग फिर लौटेगा

दिल्ली कांग्रेस अध्यक्ष बनाए जाने के साथ ही शीला दीक्षित ने अपने पुराने दम-खम का परिचय देना शुरू कर दिया है। उन्होंने गुरुवार को कहा कि दिल्ली में कांग्रेस का पुराना दौर फिर से लौटेगा। पार्टी फिर से खड़ी होगी। दिल्ली में पार्टी की कमान मिलने पर खुशी जाहिर करते हुए शीला जी ने कहा कि वह खुद को बहुत सम्मानित महसूस कर रही हैं। पार्टी ने जो भूमिका सौंपी है, उसको वह बाखूबी अदा करेंगी। उम्र ज्यादा होने के चलते कुछ क्षेत्रों में सवाल उठाए गए पर आज भी भारत की राजनीति में कई उम्रदराज नेता सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं। 80 की उम्र पार कर चुकीं शीला दीक्षित राजनीति में अकेली सक्रिय उम्रदराज नेता नहीं हैं, बल्कि पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह से लेकर कई मुख्यमंत्री उम्र की इस दहलीज पर पहुंचने के बाद भी अपने दल और क्षेत्रीय राजनीति की अगुवाई कर रहे हैं जैसे फारुक अब्दुल्ला उम्र 81, एचडी देवेगौड़ा उम्र 85, प्रकाश सिंह बादल उम्र 91, शरद पवार उम्र 79 और मुलायम Eिसह उम्र 79 वर्ष इसके उदाहरण हैं। लोकसभा चुनाव सिर पर हैं और राजधानी में कांग्रेस की स्थिति किसी से छिपी नहीं है। खोई जमीन की तलाश में कांग्रेस की कमान 20 साल बाद एक बार फिर शीला जी के हाथों में सौंप दी गई है, लेकिन उनके सामने चैलेंज बहुत बड़े हैं। शीला और उनकी टीम के सामने सबसे बड़ी चुनौती सबको साथ लेकर चलने की तो है ही, इससे भी बड़ी चुनौती चुनावी साल में सुस्त पड़े नेताओं और कार्यकर्ताओं को एक्टिव करना उनमें पुन जोश भरना है। दो या तीन महीने के अंदर चुनाव होने हैं और इस दरम्यान नई टीम को न केवल तैयार करना बल्कि प्रभावी बनाना बड़ी चुनौती होगी। दिल्ली की राजधानी में धमाकेदार वापसी करने वाली शीला दीक्षित का राजनीतिक सफर तमाम उपलब्धियों से भरा रहा है। पंजाब के कपूरथला में पंजाबी खत्री परिवार में जन्मी शीला देश की सबसे सफल मुख्यमंत्रियों में से एक मानी जाती हैं। 15 वर्षों तक दिल्ली की मुख्यमंत्री रहने के दौरान शीला जी द्वारा कराए गए विकास कार्यों के चलते आम लोगों में उनकी सकारात्मक छवि बनी हुई है। पार्टी आलाकमान एक ऐसे अध्यक्ष की तलाश में थी जिसकी आम लोगों में सकारात्मक छवि हो और वह पार्टी के अलग-अलग धड़ों को साथ लेकर चल सके। इसी के चलते पार्टी ने अनुभवी और काम कराने वाली नेता के रूप में शीला जी को चुना है। शीला जी हमेशा से ही गांधी परिवार के साथ जुड़ी रहीं। जैसा मैंने कहा है कि सबसे बड़ी चुनौती दिल्ली में कांग्रेस को फिर से खड़ा करने की है। इस बार उन्हें बतौर मुख्यमंत्री नहीं बतौर कांग्रेस अध्यक्ष संगठन को खड़ा करना होगा। वर्तमान में कांग्रेस का एक भी विधायक नहीं है। मतदाताओं को पुरानी कांग्रेस से किस प्रकार जोड़ा जाए? आम आदमी पार्टी में गया वोट बैंक किस प्रकार वापस लाया जाए, जहां तक दिल्ली में टीम की  बात है तो तीन बार मुख्यमंत्री व एक बार प्रदेशाध्यक्ष रहने के कारण उन्हें कोई विशेष परेशानी तो नहीं होनी चाहिए। अधिकांश नेता उनके अधीन काम कर चुके हैं। माना वोटरों को वापस कांग्रेस में  लाना व विश्वास को पुन जगाना ही एक चुनौतीपूर्ण कार्य है। दिल्ली में आम आदमी पार्टी से गठबंधन के सवाल पर शीला जी ने कहा कि पार्टी दिल्ली में अकेले ही मजबूत है। पार्टी लोकसभा चुनाव 2019 के लिए पूरी तरह से अकेले ही तैयार है। हम शीला जी को नए पद मिलने पर बधाई देते हैं और उम्मीद करते हैं कि वह इस चुनौतीपूर्ण समय में खरी उतरेंगी।

-अनिल नरेन्द्र