Friday, 20 December 2019

एक तानाशाह को सजा-ए-मौत

पाकिस्तान के इतिहास में ऐसा पहली बार किसी पूर्व सेनाध्यक्ष और फौजी तानाशाह को फांसी की सजा दी गई है। हालांकि सजा की घोषणा के दौरान मुशर्रफ वहां मौजूद नहीं थे। पूर्व फौजी तानाशाह जनरल परवेज मुशर्रफ को देश का संविधान रद्द करने का अपनी डिक्री को संविधान घोषित कर सुप्रीम कोर्ट के जजों को बर्खास्त करने और जनता की आवाज दबाने के लिए आपातकाल लगाने की सजा आखिरकार अदालत ने दे दी। लंबे समय से देशद्रोह के मुकदमे का सामना कर रहे परवेज मुशर्रफ को मौत की सजा सुनाकर विशेष अदालत ने यह संदेश दिया है कि पाकिस्तान में न्याय अभी जिन्दा है और कानून से ऊपर कोई नहीं है। अदालत का यह फैसला दर्शाता है कि तमाम दबावों और संकटों के बावजूद पाकिस्तान की न्यायपालिका स्वतंत्र और निष्पक्ष रूप से काम करती है। दरअसल यह फैसला यह भी दिखाता है कि कैसे यह पड़ोसी मुल्क अपने अंतर्विरोधों से जूझ रहा है। 1999 में नवाज शरीफ का रक्तहीन तख्ता पलट कर पाकिस्तान की कमान अपने हाथ में लेने वाले मुशर्रफ ने 2001 से 2008 के दौरान राष्ट्रपति का पद संभाला था। विशेष अदालत ने उन्हें 2007 में संविधान को निलंबित करने और गैर-वैधानिक तरीके से देश पर इमरजैंसी थोपने का दोषी पाया। उस दौरान मुशर्रफ के निर्देश पर सुप्रीम कोर्ट सहित विभिन्न  अदालतों के अनेक जजों को नजरबंद कर दिया गया था या गिरफ्तार कर लिया गया था। पाकिस्तान के संविधान के मुताबिक यह राजद्रोह है, जिसमें सजा--मौत या उम्रकैद का प्रावधान है। फांसी की सजा तो दूर, मुशर्रफ को सजा मिलेगी भी या नहीं, इसे लेकर ही पाकिस्तान में संशय बना हुआ था। मुशर्रफ सिर्प देश के राष्ट्रपति नहीं रहे, वह पाकिस्तान के सैन्य शासक, देश के सेना प्रमुख, कारगिल युद्ध के नायक जैसे रूपों में मील का पत्थर गाढ़ते रहे। इसलिए मुशर्रफ की मौत की सजा की खबर चौंकाने वाली जरूर है। पाकिस्तान के इतिहास में वह पहले ऐसे सैन्य शासक और राष्ट्रपति हैं, जिन्हें मौत की सजा सुनाई गई हो। जिस मुल्क में राजनीति से लेकर हर जगह सेना का दबदबा रहता हो और बिना सेना की मर्जी के पत्ता भी नहीं हिल सकता हो, वहां एक पूर्व सैन्य  शासक और राष्ट्रपति को फांसी की सजा दिया जाना स्पष्ट रूप से इस बात का संदेश है कि सेना भी न्यायपालिका से ऊपर नहीं है। यह उन पूर्व और मौजूदा सैन्य अधिकारियों और राजनीतिज्ञों के लिए भी कड़ा संदेश है कि जो अपने को कानून से ऊपर मानकर चलते हैं। मुशर्रफ को सजा दिलाने में सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस आसिफ सईद खान खोसा की अहम भूमिका रही। उनके हाल के फैसलों को सेना के लिए चुनौती माना जा रहा है। हाल ही में खोसा ने आर्मी चीफ जनरल कमर जावेद बाजवा के सेवा विस्तार को तीन साल से घटाकर छह महीने का कर दिया था। सेना ने इस पर नाराजगी भी जताई। हाई कोर्टों में याचिकाएं देकर मुशर्रफ के खिलाफ केस रोकने की कई कोशिशें की गईं। इस पर अप्रैल में खोसा की तीन सदस्यीय बेंच ने आदेश जारी किया था कि अगर आरोपी पेश नहीं होता तो उसकी गैर-मौजूदगी में रोज सुनवाई करके फैसला किया जाए। विशेष अदालत ने आठ महीने में फैसला सुना दिया। खोसा पीएम इमरान खान को भी हद में रहने के लिए हिदायत देते हुए कह चुके हैं कि आप न्यायपालिका पर तंज न कसें। यह 2009 के पहले की न्यायपालिका नहीं है। मुशर्रफ के खिलाफ फैसला देकर न्यायपालिका ने जता दिया कि उससे ताकतवर फौज भी नहीं है। पाक हाई कोर्ट व विशेष अदालत ने मुशर्रफ को कई बार तलब किया। वह हर बार बीमारी का बहाना बनाकर देश लौटने से इंकार करते रहे। हाल में उन्होंने अस्पताल से एक वीडियो भी जारी किया, जिसमें बिस्तर पर लेटे-लेटे कहाöदेशद्रोह का केस बेबुनियाद है। अब ऐसे में मुशर्रफ को पाकिस्तान लाना ही मौजूदा सरकार के लिए बड़ी चुनौती साबित हो सकती है। इसके अलावा पाकिस्तान की दुबई से कोई प्रत्यार्पण संधि भी नहीं है। फिर देखना यह भी होगा कि पाकिस्तान सेना का इस फैसले पर क्या रुख होता है?

-अनिल नरेन्द्र

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