Thursday, 19 December 2019

अमित शाह ने नरेंद्र मोदी से अलग गढ़ ली अपनी छवि

आज अमित शाह एक चमकते सितारे हैं, लेकिन उन्होंने बुरा वक्त भी देखा है। वह जेल में रहे और उनके गुजरात जाने पर भी अदालत ने रोक लगा दी थी, लेकिन अब वह कांग्रेस के राज में लगे आरोपों से बरी हो चुके हैं। कांग्रेस राज में भाजपा के अंदर भी ऐसे लोगों की कमी नहीं थी जो शाह से दूर रहना चाहते थे। संसदीय बोर्ड की बैठक में एक स्वर्गीय नेता ने तो यहां तक कह दिया था कि आखिर कब तक हम अमित शाह को ढोएंगे? बैठक में नरेंद्र मोदी के धैर्य ने भी जबाव दे दिया। उन्होंने कहाöक्या बात करते हैं जी। पार्टी के लिए अमित के योगदान को कैसे भुला सकते हैं। अरुण जेटली की ओर देखते हुए कहाöअरुण जी आप जेल जाइए और अमित शाह से मिलिए। उन्हें लगना चाहिए कि पार्टी उनके साथ है। उसके बाद इस मुद्दे पर बैठक में कोई नहीं बोला। अरुण जेटली जेल गए और अमित शाह से मिले। जेल से छूटने के बाद जब अदालत  ने उनके गुजरात जाने पर रोक लगा दी थी तो वह दिल्ली आ गए। दिल्ली में अमित शाह ज्यादा लोगों को जानते नहीं थे। राजनीति के अलावा उनकी और कोई रुचि भी नहीं है। अरुण जेटली ने पार्टी के सात-आठ युवा नेताओं को जिम्मेदारी सौंपी कि रोज कम से कम दो लोग दिनभर अमित शाह के साथ रहेंगे। शाह जितने दिन दिल्ली में रहे दोपहर का भोजन अरुण जेटली के यहां तय था। उस समय राजनाथ सिंह की जगह नितिन गडकरी पार्टी अध्यक्ष बन पाए थे। अमित शाह उनसे मिलने जाते थे तो दो-दो, तीन-तीन घंटे बाहर इंतजार करना पड़ता था। पर अमित शाह ने कभी किसी से शिकायत नहीं की। दिल्ली में रहने के बावजूद अमित शाह दिल्ली के राजनीतिक गलियारों में अनजान ही थे। साल 2013 आते-आते राजनाथ सिंह एक बार फिर पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बन गए। मोदी के कहने पर राजनाथ सिंह ने उन्हें राष्ट्रीय महामंत्री बना दिया। जब उन्हें उत्तर प्रदेश का प्रभार दिया गया तो दिल्ली में पार्टी में सवाल उठे कि वह उत्तर प्रदेश  के बारे में जानते क्या हैं? पर उत्तर प्रदेश के भाजपा नेताओं को पहली ही बैठक में समझ आ गया कि अमित शाह क्या चीज हैं। उत्तर प्रदेश में कामयाबी मिलने से पूरा नजरिया ही बदल गया। बैठक शुरू होते ही नेताओं ने बताना शुरू किया कि कौन-कौन सीट (लोकसभा) जीत सकते हैं। अमित शाह ने कहा कि आप लोगों को कोई सीट जिताने की जरूरत नहीं है। यह बताइए कि कौन कितने बूथ जिता सकते हैं? मुझे बूथ जिताने वाले चाहिए, सीट जिताने वाले नहीं। उसके बाद लोकसभा चुनाव के नतीजों ने अमित शाह को राष्ट्रीय फलक पर स्थापित कर दिया। इस कामयाबी ने उनके पार्टी अध्यक्ष बनने का रास्ता साफ कर दिया। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में उन्होंने भाजपा की पूरी संस्कृति ही बदल दी। पार्टी के पदाधिकारियों से ज्यादा अहमियत बूथ कार्यकर्ता की हो गई। राज्यों के प्रभारी राष्ट्रीय महामंत्री अमूमन राज्य की राजधानी या कुछ प्रमुख शहरों तक ही जाते थे। अचानक सबने देखा कि पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बूथ स्तर के कार्यकर्ताओं से न केवल मिलने लगा बल्कि उनके घर भोजन पर जाने लगा। शाह जिस भी राज्य की बैठक में जाते हैं राज्य के पदाधिकारियों के पसीने छूट जाते हैं। वजह यह है कि उन्हें हर चुनाव क्षेत्र, उसके प्रमुख कार्यकर्ताओं और मुद्दों की उनसे ज्यादा जानकारी होती है। इसके लिए उन्हें लैपटॉप या नोटबुक देखने की जरूरत नहीं पड़ती। चुनाव के दौरान वह पार्टी के तंत्र से इतर अपना एक अलग तंत्र खड़ा करते हैं। इसमें बूथ का कार्यकर्ता और कॉल सेंटर तक सब होता है। साल 2019 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी का जब गठबंधन हो गया तो सबने मान लिया कि राज्य में भाजपा का सफाया तय है। लेकिन शाह का कहना था कि लड़ाई और प्रयास का स्तर बढ़ा दो, ज्यादा नुकसान नहीं होगा। सीट के बारे में सोचना छोड़ दो, 50 प्रतिशत वोट का लक्ष्य रखो। उन्होंने सारे राजनीतिक पंडितों को गलत साबित कर दिया। लोकसभा चुनाव की कामयाबी ने उन्हें गृह मंत्रालय में स्थापित कर दिया। आमतौर पर केंद्रीय गृहमंत्री सरकार में नम्बर दो माना जाता है। सवाल था कि क्या राजनाथ सिंह को इस भूमिका से हटा दिया जाए? मोदी और शाह दोनों ने तय किया कि नहीं, इसकी जरूरत नहीं है। पांच अगस्त को जब राज्यसभा में जम्मू-कशमीर की धारा 370 को खत्म करने और दो केंद्र शासित राज्य बनाने का विधेयक पेश हुआ, तो प्रधानमंत्री ने पूरे देश को बता दिया कि उनका राजनीतिक उत्तराधिकारी कौन है? यह विधेयक लोकसभा चुनाव से पहले ही लाने की तैयारी हो चुकी थी। विधेयक के मसौदे से लेकर पीडीपी से रिश्ता कब और कैसे तोड़ना है, इसकी सारी राजनीतिक व्यूह रचना अरुण जेटली, अमित शाह और मोदी ने तैयार की। जेटली ने राजनाथ सिंह को तीन बार बुलाकर पूरे विधेयक का मसौदा समझाया और यह भी कि उन्हें सदन में क्या बोलना है, पर उसी दौरान पुलवामा का हमला हुआ और सरकार ने बालाकोट एयर स्ट्राइक का फैसला किया इसलिए विधेयक टाल दिया गया। प्रधानमंत्री ने संविधान संशोधन विधेयक की कमान अमित शाह को सौंप दी और खुद नेपथ्य में रहे। नागरिकता संशोधन विधेयक संसद में पेश हुआ और पास हुआ तो प्रधानमंत्री संसद में ही नहीं आए। अमित शाह परोक्ष रूप से सदन में पार्टी के नेता की भूमिका में थे। दोनों अवसरों पर अमित शाह ने पार्टी और देश के लोगों को अपने संसदीय कौशल से चौंकाया, सदन के दोनों सदनों में उनके प्रदर्शन से देश को पहली बार परिचय हुआ। जिस ढंग से आज अमित शाह फैसले कर रहे हैं उससे साफ है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपना उत्तराधिकारी चुन लिया है। जिस तरह से शाह राष्ट्रीय पटल पर उभर कर आए हैं, उसे देखकर यह कहना गलत नहीं होगा कि मोदी की छाया से इतर उन्होंने अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व का परिचय दिया है।

-अनिल नरेन्द्र

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