Wednesday 2 October 2013

राइट टू रिजेक्ट का सुप्रीम कोर्ट का फैसला मील का पत्थर है

सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसले में चुनाव सुधार की दिशा में एक महत्वपूर्ण फैसला दिया है जिसका सभी स्वागत करेंगे। सुप्रीम कोर्ट ने मतदाता को उम्मीदवार को नकारने का हक दिया है। अगर चुनाव में खड़ा कोई भी उम्मीदवार पसंद नहीं आता तो मतदाता सबको नकार सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग (ईसी) को निर्देश दिया है कि ईवीएम में उपरोक्त में से कोई नहीं का बटन उपलब्ध कराए। हालांकि सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले का चुनाव प्रक्रिया पर सीधा तो कोई असर नहीं होगा पर हां इससे राजनीतिक दलों पर अच्छे उम्मीदवार उतारने, ईमानदार उम्मीदवारों को खड़े करने का दबाव जरूर बनेगा। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि लोकतंत्र में मतदाता को नकारने का हक मिलना जरूरी है ताकि राजनीतिक दल चुनाव में अच्छे उम्मीदवार उतारने पर  बाध्य हों। मुख्य न्यायाधीश पी. सदाशिवम की अध्यक्षता वाली पीठ ने गैर-सरकारी संगठन पीयूसीएल की याचिका  पर दिए फैसले में कहा कि इससे लोकतंत्र मजबूत होगा। यह फैसला हर दृष्टि से ऐतिहासिक और लोकतंत्र को उसकी ताकत का एहसास कराने वाला फैसला है। इसके सकारात्मक परिणाम सामने आने की उम्मीद तो है ही, उन मतदाताओं में उत्साह का संचार होगा जो मौजूदा राजनीतिक माहौल में निराश होकर मतदान करने ही नहीं जाते। चुनाव में मतदान का ग्राफ बढ़ाने के लिए चुनाव आयोग को हर बार खासी मशक्कत करनी पड़ती है। लोकतंत्र के महापर्व में अधिक से अधिक लोग जब मतदान करने निकलेंगे तभी मत प्रतिशत बढ़ाने का आयोग का सार्थक प्रयास बढ़ सकेगा। यह एक तथ्य है कि मतदाताओं का एक वर्ग यह मानकर चलता है कि इस हमाम में सभी नंगे हैं, सारे प्रत्याशी एक जैसे हैं और कोई भी जीते, हालात बदलने वाले नहीं हैं। सभी प्रत्याशियों को नकारने का अधिकार मिलने से राजनीतिक दलों में यह संदेश जाएगा कि वे मतदाताओं पर प्रत्याशी थोपने का काम नहीं कर सकते। अगर राजनीतिक पार्टियां अड़ंगा न लगाएं तो यह बिल्कुल संभव है कि अगले लोकसभा चुनाव या उससे पहले पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में अपने प्रत्याशियों से नाखुश मतदाता किसी को वोट न डालें और उसका परिचय भी गोपनीय रहे। राइट टू रिजेक्ट नई चीज नहीं है। मतदान करना हमारा संवैधानिक अधिकार है, ऐसे में उम्मीदवारों को नकारने का अधिकार भी अभिव्यक्ति के अधिकार के तहत आता है। चुनाव आयोग ने तो 2001 में ही यह प्रस्ताव केंद्र सरकार के पास भेजा था लेकिन तमाम सरकारें इसे दबाए बैठी रहीं। लोकतंत्र में प्रतिनिधि चुनने का अधिकार जब मतदाता के पास है तो सबको खारिज करने के अधिकार से उसे कैसे वंचित किया जा सकता है? बेहतर हो कि सभी राजनीतिक दल यह समझें कि राजनीति  और चुनाव प्रक्रिया में सुधार लाए बगैर उनका काम अब चलने वाला नहीं है। राजनीतिक दलों और राजनेताओं की छवि लगातार गिरती जा रही है इस बात को उन्हें समझना जरूरी है। कटु सत्य तो यह है कि सभी दल चुनाव सुधार की बात तो करते हैं पर उन्हें लागू करने से कतराते हैं और सभी ऐसे उम्मीदवार चुनते हैं जो बेशक आपराधिक छवि के क्यों न हों पर सीट निकाल सकते हैं। ऐसे में राजनीतिक दलों के लिए बेहतर यही होगा कि इस फैसले का स्वागत और मतदाताओं के प्रति ज्यादा जिम्मेदार और संवेदनशील बनें।

-अनिल नरेन्द्र

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