Sunday, 25 May 2014

मोदी के भय से 20 साल बाद धुर विरोधी लालू से हाथ मिलाया

राजनीति में न तो कोई स्थायी दोस्त होता है और न ही स्थायी दुश्मन। स्थायी होता है तो वह है स्वार्थ। राजनीति में खासकर भारत में कुछ भी हो सकता है। नरेन्द्र मोदी की बढ़ती ताकत के भय से करीब दो दशक तक एक-दूसरे के धुर विरोधी रहे लालू प्रसाद यादव से नीतीश कुमार ने हाथ मिला लिया है। लालू प्रसाद यादव के राज के खिलाफ ही नीतीश कुमार ने जनता दल (यू) ने भारतीय जनता पार्टी के साथ मोर्चा बनाया था और राष्ट्रीय जनता दल के कुशासन को मुद्दा बनाकर लालू प्रसाद यादव को अपदस्थ किया था। किसी वक्त में लालू और नीतीश दोनों जनता दल में साथ थे, उसके बाद दोनों विरोधी खेमों में चले गए और अब करीब 20 साल बाद फिर दोनों साथ हो गए हैं। लालू के समर्थन से नीतीश के उत्तराधिकारी बिहार के नए मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी ने विधानसभा में विश्वास मत जीत लिया है। माना तो यह जा रहा है कि लोकसभा चुनावों के बाद अपनी राजनीतिक जमीन बचाने के लिए दोनों दलों के पास बेहद सीमित विकल्प बचे थे। ऐसे में भाजपा को रोकने और अपने-अपने कुनबों को सुरक्षित रखने के लिए दोनों के पास साथ आने के अलावा कोई चारा नहीं था। दोनों दलों के साथ आने की चर्चा तो चुनाव बाद ही शुरू हो गई थी, लेकिन इसका रास्ता निकाला नीतीश ने। उन्होंने इस्तीफा देकर महादलित समुदाय के जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री घोषित कर दिया। दलित समुदाय के नेता को समर्थन देने के नाम पर राजद ने भी तुरन्त दोस्ती का हाथ आगे बढ़ा दिया। ऐसी भी खबरें आ रही थीं कि लोकसभा चुनावों में तगड़ी हार के बाद जनता दल (यू) के कई विधायक विद्रोह के मूड में हैं। पार्टी में ऐसे नेताओं की संख्या काफी है जो यह मानती है कि नीतीश ने भाजपा के साथ गठबंधन तोड़कर एक गलत फैसला किया। जनता दल (यू) और भाजपा की मिलीजुली सरकार में तीन-चौथाई बहुमत प्राप्त था और शायद लोकसभा चुनाव साथ में लड़ते तो भी अच्छी सीटें मिल सकती थीं। लेकिन नीतीश कुमार ने नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करने के खिलाफ अच्छा-भला चलता गठबंधन तोड़ दिया। लालू यह जानते हैं कि उनके समर्थन के बिना जनता दल (यू) की सरकार के ज्यादा दिन चलने की संभावना नहीं थी। अगर यह गिरती है तो तुरन्त चुनाव होते हैं तो मोदी लहर के असर में भाजपा सबसे बेहतर प्रदर्शन कर सकती है। यह गठबंधन सियासी मजबूरी की वजह से बना है। यही नीतीश कुमार ने लालू के कथित `जंगलराज' के खिलाफ मोर्चाबंदी करके ही कामयाबी हासिल की थी। दोनों दलों में समाज के कुछ वर्गों खासकर मुस्लिम वोटों के लिए प्रतिस्पर्धा भी है, लेकिन नीतीश कुमार ने भाजपा से रिश्ता तोड़कर अपनी भावी राजनीति की दिशा साफ कर दी है कि वे अतिपिछड़ों, महादलितों और अल्पसंख्यकों में अपनी पैठ बनाना चाहते हैं। ऐसे में लालू और नीतीश एक-दूसरे के पूरक भी हो सकते हैं और प्रतिद्वंद्वी भी। यह गठबंधन महज स्वार्थ और अस्तित्व बचाने के लिए बना है और यह कितने दिन टिक पाता है, यह देखने की बात होगी। 237 सदस्यीय बिहार विधानसभा में जद (यू) के 117 विधायक, राजद 21, कांग्रेस चार, माकपा एक, निर्दलीय दो और भाजपा के 88 विधायक हैं। इससे नीतीश कुमार के नैतिकता व सिद्धांतों की पोल तो खुल हो गई है साथ-साथ वह अकेले मोदी से नहीं लड़ सकते, यह संकेत भी साफ हैं।

-अनिल नरेन्द्र

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