Saturday 17 May 2014

क्या राहुल गांधी कांग्रेस की बढ़ती चुनौतियों से निपटने में सक्षम हैं भी?

लोकसभा चुनाव में लग यही रहा था कि कांग्रेस पार्टी की बड़ी दुर्गति होनी तय है और सबसे ज्यादा चिंता की बात कांग्रेसजनों के लिए यह है कि सौ साल से ज्यादा पुरानी पार्टी का राजनीतिक भविष्य और नेतृत्व दोनों ही भंवर में हैं। यह देखकर दुख होता है कि इतनी पुरानी ऐतिहासिक पार्टी का यह हश्र होगा। इसके लिए जिम्मेदार कौन है? पार्टी नेताओं का एक बड़ा धड़ा उपाध्यक्ष राहुल गांधी को बचाने की कोशिशों में जुट गया है। यह नेता चाहते हैं कि हार की जिम्मेदारी राहुल पर न आए। मगर सवाल यहां किसकी गलती है किसकी नहीं यह तो है पर इससे ज्यादा महत्वपूर्ण सवाल शायद यह है कि क्या राहुल गांधी राजनीति में रुचि रखते भी हैं या नहीं? क्या वह कांग्रेस पार्टी का नेतृत्व संभाल पाएंगे? पिछले 10 साल से ऊपर सोनिया गांधी ने यह जिम्मेदारी संभाल रखी थी और उन्होंने तमाम कठिनाइयों के बावजूद पार्टी को सही नेतृत्व दिया। राहुल की दिलचस्पी और बातों पर ज्यादा रहती हैं। बुधवार को सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को विदाई भोज दिया था। इतने महत्वपूर्ण भोज से भी राहुल गायब रहे। रात्रि भोज में राहुल गांधी की गैर मौजूदगी चर्चा का विषय बनी रही। अटकलें तेज रहीं कि राहुल विदेश गए हैं। अजय माकन ने राहुल गांधी की अनुपस्थिति पर सफाई देते हुए कहा कि राहुल शहर से बाहर हैं और वह बृहस्पतिवार को लौट आएंगे। पार्टी के एक तबके का कहना है कि राहुल गांधी की रुचि राजनीति में है ही नहीं और वह अकसर फोन पर बिजी रहते हैं। इनमें से कुछ ने यह भी माना है कि राहुल ने कांग्रेस के ढांचे को ही तोड़कर रख दिया है। कांग्रेस के कुछ नेताओं का मानना है कि राहुल की कथित टीम की अनुभवहीनता, जमीनी राजनीति से दूरी और वरिष्ठ नेताओं के प्रति दुराग्रह ने पार्टी की यह हालत कर दी है। ऐसी हालत कर दी है कि 10 साल तक देश की सरकार चलाने के बावजूद एक राज्य के विवादित मुख्यमंत्री ने उस पार्टी को बेबस कर दिया जिसने अब तक के संघ परिवार के सर्वाधिक लोकप्रिय नेता अटल बिहारी वाजपेयी को सत्ता से हटाया था। यही नहीं, 2009 में भी जीत दर्ज की और राष्ट्रपति व उपराष्ट्रपति चुनाव भी जीते। इस वरिष्ठ नेता का कहना है कि 2009 चुनावों के बाद उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की वापसी की जमीन तैयार हो गई थी। लेकिन राहुल के कथित सलाहकारों की सोशल इंजीनियरिंग व अति पिछड़ावाद ने पहले विधानसभा चुनावों में सब चौपट करा, रही-सही कसर लोकसभा चुनावों में पूरी कर दी। बिहार से जुड़े पार्टी के एक अन्य नेता के मुताबिक 2009 में कांग्रेस ने भले ही अपने दम पर दो सीटें जीतीं लेकिन उनका वोट प्रतिशत बढ़ा। तत्कालीन प्रदेशाध्यक्ष अनिल शर्मा की मेहनत रंग लाने लगी थी लेकिन तभी जगदीश टाइटलर को प्रभारी बना दिया गया, जिससे प्रदेश इकाई में झगड़े बढ़ गए। नतीजा कमान मेहबूब कैसर को सौंपी गई जिन्हें अपने जिले के बारे में भी जानकारी नहीं थी। नतीजा कांग्रेस की दुर्गति हुई और लोकसभा चुनावों से पहले वह लोजपा में शामिल हो गए और चुनाव लड़े। राहुल गांधी के कथित सलाहकारों ने राजनीतिक कार्यक्रमों की बजाय आंकड़ेबाजी और विज्ञापन व पीआर एजेंसियों पर कार्यकर्ताओं से ज्यादा भरोसा किया। कलावती से लेकर भट्ठा पारसौल तक उन्होंने जितने भी अभियान किए पार्टी उन्हें सियासी कार्यक्रमों में नहीं  बदल सकी। राहुल का बार-बार प्रधानमंत्री या मंत्री बनने से इंकार का भी नुकसान हुआ। दिल्ली विधानसभा चुनाव में अरविन्द केजरीवाल और उनकी आम आदमी पार्टी को न केवल कम करके आंका गया बल्कि उससे निपटने की कोई रणनीति बनी ही नहीं। उत्तर प्रदेश से ताल्लुक रखने वाले कांग्रेस के एक दिग्गज नेता के मुताबिक पिछले लोकसभा चुनावों में उत्तर प्रदेश में ब्राह्मणों, मुसलमानों ने कांग्रेस को 22 सीटें जिताने में अहम भूमिका निभाई थी। लेकिन विधानसभा चुनावों में पार्टी में इस बार पिछड़ावाद चला न सिर्प सबसे कम टिकट ब्राह्मण और मुसलमानों को मिले बल्कि मुलायम सिंह पट्टी में कांग्रेस ने यादव उम्मीदवार उतारे, जिनमें ज्यादातर की जमानतें जब्त हो गईं। दूसरी पार्टियों से बुलाकर टिकट बांटने से समर्पित कांग्रेस कार्यकर्ता घर बैठ गए बल्कि कांग्रेस की ब्राह्मण राजनीति की धुरी रहे उत्तर प्रदेश के प्रभारी उन मधुसूदन मिस्त्राr को बनाया गया जो गाजियाबाद और गाजीपुर का फर्प नहीं जानते थे। अब राहुल गांधी, सोनिया गांधी और कांग्रेस पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को यह तय करना होगा कि चुनावों में इस करारी हार से वह कैसे निपटेंगे और भविष्य में पार्टी को किसने, कैसे चलाना है?

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