Wednesday 14 May 2014

भ्रष्ट नौकरशाहों के खिलाफ जांच से पहले मंजूरी का प्रावधान असंवैधानिक

चुनावों की हलचल में सुप्रीम कोर्ट का एक दूरगामी असर छोड़ने वाला कुछ मायनों में ऐतिहासिक फैसला ही छूट गया। यह फैसला भ्रष्ट नौकरशाहों से संबंधित है। सुप्रीम कोर्ट ने गत मंगलवार को व्यवस्था दी कि भ्रष्टाचार के मामले में संयुक्त सचिव या उससे ऊपर के अधिकारी के खिलाफ जांच से पहले सक्षम अधिकारी से मंजूरी लेने का कानूनी प्रावधान अवैध और असंवैधानिक है। अदालत ने कहा कि हममें भ्रष्ट व्यक्ति को संरक्षण देने की प्रवृत्ति है। प्रधान न्यायाधीश आरएम लोढ़ा की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने दिल्ली पुलिस इस्टेबेलिशमेंट कानून की धारा 6-ए के प्रावधान पर विचार के बाद यह व्यवस्था दी। शीर्ष कुर्सियों पर बैठ कर भ्रष्टाचार से घर भरने वालों को बड़ा झटका है देश की सर्वोच्च अदालत का। सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने उस कवच को ध्वस्त कर दिया है जिसकी आड़ में आला अफसर अपने भ्रष्ट कारनामों को ढिठाई से छिपा लिया करते थे। कोर्ट ने दिल्ली पुलिस स्पेशल इस्टेबेलिशमेंट एक्ट सेक्शन 6ए को भेदभावपूर्ण और अन्यायपूर्ण व्यवस्था बताया है जो न केवल भ्रष्टाचारियों के लिए कवच का काम करता था बल्कि संविधान के आर्टिकल 14 की मर्यादा का उल्लंघन भी करता था  जिसमें कानून की नजर में सभी के लिए समानता की गारंटी दी गई है। बड़े नौकरशाहों के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला सीबीआई को सरकारी नियंत्रण से मुक्त करने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम तो है ही इसका असर सरकार नीतिगत फैसलों पर भी दिखाई पड़ सकता है। सरकार की ओर से तर्प दिया जाता रहा है कि चूंकि संयुक्त सचिव और उसके ऊपर के अधिकारी नीति निर्धारण की प्रक्रिया और फैसलों से जुड़े रहते हैं, इसलिए उनके खिलाफ किसी भी तरह की जांच के लिए अनुमति जरूरी है। मगर सवाल है कि जिन नीतियों के कारण बड़े घोटालों के रास्ते खुलते हैं, उसके लिए जिम्मेदार अधिकारियों के खिलाफ बिना किसी दबाव के जांच क्यों नहीं होनी चाहिए? सरकार का यह भी तर्प था कि कई बार अधिकारियों के खिलाफ थोथी शिकायत होती है। इस तर्प को भी निराधार तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन आखिर थोथी शिकायतों से केवल वरिष्ठ अधिकारी ही क्यों महफूज रहें? क्या ऐसे प्रावधान समानता के अधिकार की खिल्ली नहीं उड़ाते? वरिष्ठ नौकरशाहों के खिलाफ जांच में आड़े आ रहे गैर कानूनी प्रावधान को तय करने में जिस तरह डेढ़ दशक से भी ज्यादा लम्बा समय लगा वह भी कोई शुभ संकेत नहीं है। इस सन्दर्भ में समय रहते फैसला आ गया होता तो भ्रष्टाचार से लड़ने में कहीं अधिक सहायता मिली होती। वास्तव में जब तक सीबीआई को राजनीतिक दखलअंदाजी से मुक्त नहीं किया जाता तब तक यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वह निष्पक्ष होकर भ्रष्टाचार या दूसरे आपराधिक मामलों की जांच कर पाएगी। मौजूदा आम चुनाव में भी भ्रष्टाचार एक बड़ा मुद्दा बनकर उभरा है, मगर लाख टके का सवाल है कि क्या नई सरकार चाहे वह किसी भी दल या गठबंधन की हो, सीबीआई को अपने नियंत्रण से मुक्त करना चाहेगी। जिस तरह से यूपीए ने अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों को उसके हर उलटे-सीधे काम में समर्थन करने के लिए सीबीआई का इस्तेमाल किया, सब जानते हैं।

-अनिल नरेन्द्र

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