Friday 12 June 2015

लालू-नीतीश मिलन से बढ़ी भाजपा की परेशानी

राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव के चेहरे से दबाव साफ झलक रहा था। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की अगुवाई में विधानसभा चुनाव लड़ने का ऐलान करते हुए सोमवार को उन्होंने कई बार चेहरे से पसीना साफ किया। शायद मौजूदा स्थिति में उनके पास और कोई विकल्प भी नहीं था। क्योंकि गठबंधन नहीं होने पर सेक्यूलर मतों का बंटवारा होता और चुनाव में इसका फायदा भाजपा को मिल सकता था। दरअसल राहुल गांधी के मास्टर स्ट्रोक से लालू चारों खाने चित हो गए। वह चाह कर भी यह इल्जाम अपने सिर पर नहीं लेना चाहते थे कि मुख्यमंत्री पद के लिए जद (यू) के साथ गठबंधन नहीं किया। वहीं सीएम पद के उम्मीदवार के तौर पर कांग्रेस के समर्थन के बाद नीतीश का पलड़ा काफी भारी हो गया था। राहुल ने नीतीश से मिलकर साफ कह दिया था कि वह बिहार विधानसभा चुनाव नीतीश के नेतृत्व में गठबंधन करने के इच्छुक हैं। नीतीश कुमार के नाम पर लालू प्रसाद की सहमति बनने के बाद अब बिहार के चुनाव में भी दोनों राष्ट्रीय गठबंधनों की सीधी टक्कर का माहौल बन गया है। अब जद (यू) और राजद के साथ कांग्रेस व वामपंथी पार्टियां भी मिलकर भाजपा के नेतृत्व वाले गठबंधन को टक्कर देती दिखेंगी। इससे भाजपा की सियासी चुनौतियां बढ़ गई हैं। भाजपा को यह फैसला करना है कि वह दिल्ली विधानसभा चुनाव की तरह किसी को चेहरा बनाकर चुनाव मैदान में उतरने का खतरा उठाएगी या फिर बिना चेहरे के मैदान में उतरकर फिर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चेहरे पर दांव लगाएगी? पार्टी के सामने अगड़ी जाति के वोट बैंक को सहेजे रखने के साथ-साथ लालू-नीतीश के मिलन के बाद पिछड़ी जाति के वोट बैंक में सेंध लगाना बड़ी चुनौती होगी। इसे मुलायम सिंह यादव की मध्यस्थता का असर कहें या लालू यादव और नीतीश की मजबूरी कि दोनों दल एक साथ मिलकर चुनाव लड़ने पर सहमत हो गए हैं। फिलहाल यह स्पष्ट नहीं कि राजद और जद (यू) में सीटों का बंटवारा कैसे होगा। लेकिन जब तक यह हल न हो जाए तब तक यह कहना ठीक नहीं कि नीतीश और लालू के बीच सब कुछ सामान्य हो गया है। बिहार का यह चुनाव अगर लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार के लिए राजनीतिक अस्तित्व का मामला है तो इसमें यह तय भी हो जाएगा कि नरेंद्र मोदी के अच्छे दिनों का कितना भरोसा यहां  लोगों में लग रहा है। यह चुनाव यह संकेत भी देगा कि विकास की दौड़ में बुरे तरीके से पिछड़ चुका यह राज्य बदलाव के लिए आकुल है या आज भी जाति और समुदाय की स्मृतियां उसके राजनीतिक फैसलों का कारण बन रही है। इससे भी इंकार नहीं किया जा सकता कि पिछले लगभग दो दशक से जद (यू) और राजद अलग-अलग खेमों में रहे हैं और उनके कार्यकर्ता जमीनी स्तर पर एक-दूसरे के खिलाफ सक्रिय रहे हैं। ऐसे में नेताओं और कार्यकर्ताओं के बीच अचानक सौहार्द और समन्वय पैदा हो भी नहीं सकता। बिहार विधानसभा चुनाव पर सारे देश की निगाहें होंगी। निसंदेह भाजपा सार्वजनिक तौर पर यह स्वीकार नहीं कर सकती कि जद (यू) और राजद के तालमेल से उसकी चुनौतियां बढ़ गई हैं, लेकिन वस्तुस्थिति यही है और इसीलिए यह आवश्यक है कि वह इस तालमेल को गंभीरता से ले।

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