Saturday, 20 June 2015

...ताकि फिर न लगे इमरजेंसी

देश में इमरजेंसी थोपने की बरसी 25 जून से पहले भाजपा के वरिष्ठ नेता और अब मार्गदर्शक मंडल के सदस्य लाल कृष्ण आडवाणी ने एक अंग्रेजी अखबार को दिए इंटरव्यू में कहा कि 1975-77 में आपातकाल के बाद के सालों में मैं नहीं सोचता कि ऐसा कुछ भी किया गया है जिससे मैं आश्वस्त रहूं कि नागरिक स्वतंत्रता फिर से निलंबित या नष्ट नहीं की जाएगी। ऐसा कुछ भी नहीं है। उन्होंने कहा जाहिर है कि कोई भी इसे आसानी से नहीं कर सकता। ऐसा फिर से हो सकता है कि मौलिक आजादी में कटौती कर दी जाए। एक अपराध के रूप में इमरजेंसी को याद करते हुए आडवाणी जी ने कहा कि इंदिरा गांधी ने इसे बढ़ावा दिया था। 2015 के भारत में पर्याप्त सुरक्षा कवच नहीं है। श्री आडवाणी के इस बयान को विपक्षी दलों ने नरेंद्र मोदी सरकार के खिलाफ की गई टिप्पणी के रूप में लेकर इसका गलत मतलब निकालने का प्रयास किया है। कांग्रेस प्रवक्ता टॉम वड्डकन ने कहा कि मोदी शासन इमरजेंसी का संकेत दे रहा है। आडवाणी जी को जो कहना था, कह दिया। साफ है कि वह किसकी बात कर रहे हैं। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने कहा कि आडवाणी जी सही कह रहे हैं कि इमरजेंसी से इंकार नहीं किया जा सकता। क्या दिल्ली उनका पहला प्रयोग है? लाल कृष्ण आडवाणी ने जो आशंका जताई है उसे एक खास पार्टी के संतुष्ट या असंतुष्ट नेता के बयान के रूप में नहीं लिया जा सकता और न ही लिया जाना चाहिए। यह आधुनिक भारत के राजनीतिक विकास में लंबी और सक्रिय भूमिका निभा चुके एक तजुर्बेकार स्टेट्समेन का सटीक आब्जर्वेशन है। भारतीय लोकतंत्र और उसके नागरिकों के लिए आपातकाल का दौर एक काला अध्याय रहा है। तब देश ने देखा था कि किस तरह असुरक्षा और गुरूर के वशीभूत होकर तत्कालीन राजनीतिक नेतृत्व ने असहमति और विरोध के नागरिक अधिकारों का हरण कर लिया था। लेकिन इतिहास में यह भी दर्ज है कि देश ने लोकतंत्र को कुचलने की इस कुचेष्टा के खिलाफ जबरदस्त पलटवार करते हुए मतदान के जरिए जिम्मेदारी को करारा सबक सिखाया था। यह सही है कि होने को कुछ भी हो सकता है लेकिन एक सच यह भी है कि जिस दौर में देश ने आपातकाल को भोगा, आज हमारा लोकतंत्र उससे अधिक परिपक्व और जीवंत अवस्था में है। सक्रिय न्यायपालिका, सबल मीडिया और अपने नागरिक अधिकारों के संरक्षण को लेकर सजग मतदाता खासकर युवा वर्ग की मौजूदगी में आपातकाल की आहट दूर-दूर तक सुनाई नहीं देती। जहां तक आडवाणी जी का यह कहना है कि आपातकाल से बचने के पुख्ता उपाय अभी नहीं किए जा सके तो शायद उनका भाव यह है कि हमारे संविधान में ऐसा संशोधन नहीं हुआ जिससे आपातकाल लगाने की बात कोई हुकमरान न कर सके। सच्चाई यह है कि अकेले किसी कानूनी उपाय में इतना माद्दा नहीं है कि वह आपातकाल के खतरे से हमें संरक्षित कर सके। यह भी दिख रहा है कि उनके कहे के बहाने विरोधी मोदी सरकार पर निशाना साधने में जुट गए हैं। दूसरी ओर भाजपा के अंदर भी हाल के दिनों में ऐसी प्रवृत्तियां मजबूत हुई हैं जिनका लोकतांत्रिक भावनाओं और कसौटियों से कोई मेल नहीं है। सरकार में सारी शक्तियां एक व्यक्ति के इर्द-गिर्द सिमटी हुई हैं। लेकिन आडवाणी जी की चिन्ताएं सिर्प राजनीतिक दलों तक सीमित नहीं लगती। उन्हें लोकतंत्र का पहरेदार कहे जाने वाले ऐसे संस्थान देश में नजर नहीं आते, जिनकी लोकतांत्रिक मूल्यों को लेकर प्रतिबद्धता संदेह से परे हों। यह ध्यान रखना जरूरी है कि लोकतांत्रिक मूल्यों और अधिकारों का अपहरण हर बार बाकायदा घोषित करके ही नहीं किया जा सकता। वह लोकतांत्रिक आवरण में, कायदे-कानूनों की आड़ में भी हो सकता है। बचाव का कोई और उपाय नजर नहीं आता सिवाय निरंतर चौकसी, लगातार जागरुकता के। आडवाणी जी ने यह भी कहा कि आज की तारीख में निरंकुशता के खिलाफ मीडिया बेहद ताकतवर है। लेकिन यह लोकतंत्र और नागरिक अधिकारों के लिए वास्तविक प्रतिबद्धता है, मुझे नहीं पता। इसकी जांच करनी चाहिए।

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