Friday, 25 December 2015

बहुविवाह के लिए कुरान की गलत व्याख्या न करें ः अदालत

वैसे तो हमारे मुस्लिम समाज में बहुत जागृति आ चुकी है और आमतौर पर हमारे अधिकतर मुसलमान भाई एक ही शादी करते हैं पर फिर भी कुछ कम पढ़े-लिखे पिछड़े वर्ग से जुड़े मुसलमान आज भी एक से ज्यादा शादियां करते हैं और ऐसा करने के लिए कुरान शरीफ का गलत सहारा लेते हैं। हाल ही में गुजरात उच्च न्यायालय ने इस सिलसिले में एक महत्वपूर्ण टिप्पणी की। गुजरात हाई कोर्ट ने कड़े शब्दों में आदेश जारी करते हुए कहा कि एक से ज्यादा पत्नियां रखने के लिए मुस्लिम पुरुषों द्वारा कुरान की गलत व्याख्या की जा रही है और ये लोग स्वार्थी कारणों के चलते बहुविवाह के प्रावधान का गलत इस्तेमाल कर रहे हैं। न्यायाधीश जेबी पारदीवाला ने यह भी कहा कि अब समय आ गया है जब देश समान नागरिक संहिता को अपना ले क्योंकि ऐसे प्रावधान संविधान का उल्लंघन हैं। न्यायाधीश ने भारतीय दंड संहिता की धारा 494 से जुड़ा आदेश सुनाते हुए यह टिप्पणी की। भारतीय दंड संहिता की यह धारा एक से ज्यादा पत्नियां रखने से जुड़ी है। याचिकाकर्ता जफर अब्बास मर्चेंट हाई कोर्ट से सम्पर्प करके उसके खिलाफ उसकी पत्नी द्वारा दर्ज कराई गई प्राथमिकी को खारिज करने का अनुरोध किया था। पत्नी ने आरोप लगाया था कि  जफर ने उसकी सहमति के बिना किसी अन्य महिला से शादी की है। प्राथमिकी में जफर की पत्नी ने उनके खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा (494) (पति या पत्नी के जीवित रहते हुए दोबारा विवाह करना) का हवाला दिया। हालांकि जफर ने अपनी याचिका में दावा किया था कि मुस्लिम पर्सनल लॉ मुसलमानों को चार बार विवाह करने की अनुमति देता है और इसीलिए उसके खिलाफ दायर प्राथमिकी कानूनी जांच के दायरे में नहीं आती। जज पारदीवाला ने अपने आदेश में कहाöमुसलमान पुरुष एक से अधिक पत्नियां रखने के लिए कुरान की गलत व्याख्या कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि कुरान में जब बहुविवाह की अनुमति दी गई थी तो उसका एक उचित कारण था। आज जब पुरुष इस प्रावधान का इस्तेमाल करते हैं तो वे ऐसा स्वार्थ के कारण करते हैं। बहुविवाह का कुरान में केवल एक बार जिक्र किया गया है और यह सशर्त बहुविवाह के बारे में है। अदालत ने कहा कि मुस्लिम पर्सनल लॉ मुसलमान को इस बात की अनुमति नहीं देता है कि वह एक पत्नी के साथ निर्दयतापूर्ण व्यवहार करे, उसे घर से बाहर निकाल दे, जहां वह ब्याह कर आई थी और इसके बाद दूसरी शादी कर ले। हालांकि ऐसी स्थिति से निपटने के लिए देश में कोई कानून नहीं है। इस देश में कोई समान नागरिक संहिता नहीं है। अदालत ने अपने आदेश में कहा कि आधुनिक, प्रगतिशील सोच के आधार पर भारत को इस प्रथा को त्यागना चाहिए और समान नागरिक संहिता की स्थापना करनी चाहिए। ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने दूसरी ओर कहा कि देश के मुसलमान न्यायपालिका का सम्मान करते हैं, लेकिन शरई मामलों में अदालतों का हस्तक्षेप गैर जरूरी है, जिसे किसी सूरत में बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। लॉ बोर्ड के सचिव व इस्लामिक निकाह एकेडमी के महासचिव मौलाना खालिद सैफुल्लाह रहमानी ने कहा कि कानून बनाना अदालतों का काम नहीं है। बदलते समय के साथ मुस्लिम पर्सनल लॉ में बदलाव किए जाने की जरूरत है, गलत है। कहा कि वह न्यायालय का सम्मान करते हैं, लेकिन अदालतों को अपनी हद पार करने की जो कोशिश की जा रही है वो चिंता का विषय है। देश में इस समय मुसलमानों को बेवजह परेशान करने की कोशिश की जा रही है, जो निंदनीय है। मौलाना ने सुप्रीम कोर्ट के मुस्लिम पर्सनल लॉ के तलाक व बहुविवाह के मसले की वैधता सुनवाई करने के फैसले पर कहा कि कानून बनाना न्यायपालिका का काम नहीं है। संविधान के मुताबिक देश के मुसलमानों को जो हक दिए गए हैं, उनकी खिलाफ वर्जी किसी भी देश में उचित नहीं है।

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