Thursday, 3 December 2015

ग्लोबल वार्मिंग पर सहमति बनना अति आवश्यक है

  फांस को दोहरी सफलता के लिए बधाई! पहली कि इस्लामिक स्टेट द्वारा किए गए इतने भीषण आतंकी हमले के बाद उसने 180 देशों के राष्ट्राध्यक्षों व पधानमंत्रियों को अपने देश में सम्मेलन करने का साहस दिखाया जो अपने आप में इस्लामिक स्टेट के मुंह पर तमाचा है और दूसरा कि उसने ग्लोबल वार्मिंग पर इतने बड़े सम्मेलन का आयोजन किया। पेरिस में विश्व के 180 से अधिक देशों के नेता वैश्विक आतंकवाद के बाद दूसरी सबसे बड़ी चुनौती ग्लोबल वार्मिंग से निपटने का रास्ता तलाशने के लिए जुटे। ग्लोबल वार्मिंग यानि जलवायु के तापमान में निरंतर बढ़ोतरी विश्व भर में दहशत पैदा कर रही है। भय यह है कि ग्रीन हाउस गैसें का उत्सर्जन जिस रफ्तार से बढ़ रहा है, वह जारी रहा तो निकट भविष्य में धरती और आसपास का पूरा वायुमंडल मनुष्य सहित सारे जीवों को झुलसाने लगेगा। उससे कितनी भयावह स्थिति पैदा होगी इसकी कल्पना भी डरा देती है। अभी यह सीमा औद्योगीकरण युग की शुरुआत के पूर्व के तापमान 2 डिग्री सेल्सियस को माना गया है। धरती और उसके आसपास का वायुमंडल 5 डिग्री सेल्सियस की ओर बढ़ रहा है। पिछले ढाई दशकों के दौरान ग्लोबल वार्मिंग को लेकर कई सम्मेलन हो चुके हैं, रियो डी जनेरियो 1992, क्योटो 1997 और कोपनहेगान 2009 की बैठकों के बावजूद विकसित और विकासशील देशों के बीच ग्रीन हाउस गैसों की कटौती को लेकर कोई सहमति नहीं बन सकी। इसकी बड़ी वजह यही है कि विकसित देश अपनी जवाबदेही से बचना चाहते हैं और वे विकासशील देशों से बराबरी की उम्मीद करते हैं। भारतीय पधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने विकसित देशों को स्पष्ट चेतावनी देते हुए कहा है कि यदि वे भारत जैसे विकासशील देशों पर उत्सर्जन कम करने का बोझ डालते हैं तो यह नैतिक रूप से गलत होगा। साझी किंतु अलग-अगल जिम्मेदारियों का सिद्धांत हमारे सामूहिक उपकम का आधार होना चाहिए। उन्होंने विकसित देशों से कहा कि वे जलवायु परिवर्तन के खिलाफ लड़ाई में अधिक बोझ उठाने के अपने कर्तव्य का निर्वाहन करें। वैश्विक तापमान को औद्योगिक कांति से पहले के स्तर से दो डिग्री सेल्सियस से अधिक न रखने का लक्ष्य तब तक पूरा नहीं हो सकता जब तक विकसित देश उदारता नहीं दिखाते। यह अच्छी बात है कि विश्व के ज्यादातर देश अपनी ओर से कार्बन उत्सर्जन में कटौती का लक्ष्य बना चुके हैं। 90 पतिशत उत्सर्जन करने वाले सभी देश इसमें शामिल हैं। यह भविष्य के पति उम्मीद जगाता है। कार्बन उत्सर्जन में कटौती को लेकर विकसित देशों की नजर चीन, भारत और ब्राजील जैसे देशों पर टिकी है। जिनके बारे में उनका कहना है कि इन तीन उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओsं को दी गई छूट की वजह से ही क्योटो और कोपनहेगान की बैठकें सफल नहीं हो सकी। बेशक चीन में उत्सर्जन का स्तर अमेरिका के बाद सर्वाधिक है, पर भारत और ब्राजील इस पलड़े पर एक साथ नहीं रखे जा सकते कटु सत्य तो यह है कि भारत का उत्सर्जन चीन की तुलना में आधे से भी कम है पर असल मुद्दा यह है कि ग्लोबल वार्मिंग की मार से कोई देश बच नहीं सकता। यह खतरा कितना निकट है इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि 2015 संभवत अब तक का सबसे गर्म वर्ष साबित होने जा रहा है। समझने की यह भी जरूरत है कि ग्लोबल वार्निंग की सबसे बड़ी मार सौ से अधिक गरीब और छोटे देशों पर पड़ रही है। जब तक विकसित देश इन गरीब और छोटे देशों व विकासशील देशों की आपत्तियों व सुझाव पर ध्यान नहीं देते पेरिस का कोई सार्थक परिणाम निकलने की उम्मीद कम ही है।  

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