Thursday, 20 October 2016

तीन तलाक, हलाला और बहुविवाह पर बहस

मुस्लिम समुदाय से जुड़े तीन संवेदनशील मुद्दोंöतीन तलाक, हलाला और बहुविवाह पर उच्चतम न्यायालय में केंद्र सरकार के प्रस्तुत शपथ पत्र और विधि आयोग पर मांगे गए सुझावों को लेकर मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड व अन्य मुस्लिम संगठनों ने जैसा तीखा विरोध दिखाया है, उसमें आने वाले समय की कुछ तस्वीरें बहरहाल जरूर झलक रही हैं। बहस को राजनीतिक चश्मे या धर्म के आधार पर देखने की बजाय समुदाय में मुस्लिम महिलाओं के हक और सम्मान से जोड़कर देखा जाए तो सभी की भलाई है। ये तीनों मुद्दे वैसे न तो नए हैं और न ही पहली बार इन पर बहस हो रही है, ताजा सन्दर्भ में एक तलाकशुदा महिला शायरा बानो की सर्वोच्च अदालत में दी गई अर्जी से जुड़ा है और अब जिसे लेकर केंद्र सरकार और मुस्लिम संगठन आमने-सामने हैं। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड व अन्य मुस्लिम संगठनों ने जैसा तीखा विरोध दिखाया है, उससे साफ है कि ये संगठन तीन तलाक को गैर कानूनी मानने और निकाह आदि मामलों पर एक कानून बनाए जाने के किसी प्रयास को आसानी से स्वीकार नहीं करने वाले। हालांकि केंद्र सरकार ने अभी समान नागरिक कानून बनाने की कोई बात नहीं की है। विधि आयोग ने केवल कुछ प्रश्न जारी कर उनका उत्तर मांगा है और वे प्रश्न सिर्प मुसलमानों से संबंधित नहीं हैं। केंद्रीय वित्तमंत्री अरुण जेटली ने साफ कहा है कि यूनिफॉर्म सिविल कोड सरकारी फैसला नहीं है। कोर्ट के आदेश पर ही सरकार आगे बढ़ रही है। जेटली ने कहा कि संविधान हर व्यक्ति को समानता का अधिकार और गरिमा के साथ जीवन बिताने का अधिकार देता है। जहां तक पर्सनल लॉ का संबंध है, मेरा मानना है कि पर्सनल लॉ के तहत मिले अधिकारों पर संवैधानिक नियंत्रण होना चाहिए। पर्सनल लॉ भेदभाव को बढ़ावा नहीं दे सकता और न ही मानवीय गरिमा के साथ समझौता कर सकता है। फिर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि यह पहल केंद्र सरकार की तरफ से नहीं हुई है, यह तो पहल सुप्रीम कोर्ट की ओर से हुई है जिसके सामने मुसलमानों का तीन तलाक और ईसाइयों के तलाक संबंधित मामले सुनवाई के लिए आए हुए हैं। वास्तव में तीन तलाक, हलाला और बहुविवाह ये तीनों ऐसी प्रथाएं हैं, जिनका नुकसान समुदाय की महिलाओं को उठाना पड़ता है और मुस्लिम समुदाय के भीतर भी इन पर एक राय नहीं है। मसलन एक व्याख्या यह है कि तीन तलाक के लिए तीन महीने का अंतर हो ताकि सुलह के रास्ते खुले हों। पर अनेक मामलों में इस्लामिक संस्थाओं ने नशे में और फोन पर दिए गए तलाक तक को जायज माना है। बहस तो इस पर भी है कि आखिर पुरुष को एकतरफा तलाक देने का हक क्यों हो? तर्प यही दिया जाता है कि पुरुष में सही फैसला लेने की क्षमता होती है। यह ठीक है कि धार्मिक भावनाओं को आहत नहीं किया जाना चाहिए और आस्था का सम्मान होना चाहिए लेकिन ऐसे समय में जब महिलाएं किसी भी मामले में पुरुषों से पीछे नहीं हैं, यह बात गले नहीं उतरती कि वे फैसले लेने में पुरुषों से कमतर होती हैं। शिया धर्मगुरु ने भी तीन तलाक की प्रथा को खत्म करने और इससे संबंधित कानून बनाए जाने का समर्थन किया है। मुस्लिम समाज का इस मामले में दो भागों में बंटना ही यह साबित करता है कि यह कोई कुरान या हदीस का मामला नहीं है। अगर ऐसा होता तो स्वयं को इस्लामिक मानने वाले दुनिया के 22 देशों ने इस अन्यायपूर्ण प्रथा का अंत नहीं किया होता। भारत वैसे भी एक सेक्यूलर देश होने के कारण संविधान के तहत चलता है। यहां किसी के धर्म, रीति-रिवाज, उपासना पद्धतियों में सरकारें हस्तक्षेप नहीं कर सकतीं पर जब संविधान में लैंगिक समानता और मानवीय गरिमा का अधिकार दिया है तो उसका पालन कराना भी सरकारों का दायित्व है। उम्मीद की जाती है कि मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और अन्य मुस्लिम संगठन जो विरोध कर रहे हैं वह असलियत को समझेंगे और इसे धार्मिक हस्तक्षेप का मामला न मानते हुए मानवीय जरूरत समझेंगे।

-अनिल नरेन्द्र

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