Sunday, 18 December 2016

साल में कई बार कहीं न कहीं 16 दिसम्बर दोहराया जा रहा है

16 दिसम्बर आते ही हमें वसंत विहार में घटी निर्भया कांड की याद ताजा हो जाती है। 16 दिसम्बर 2012 कांड आज भी सभी देशवासियों को दहला देता है। कटु सत्य तो यह है कि इतने वर्ष बीतने पर भी कुछ भी नहीं बदला। सामूहिक बलात्कार पीड़ित को किए गए वादे आज भी अधूरे हैं। निर्भया हम शर्मिंदा हैं तुम्हारे कातिल आज भी जिन्दा हैं। ऐसा कोई दिन नहीं जाता जब शाम होने के बाद महिलाओं के साथ कोई न कोई घटना नहीं होती। भारत सरकार के आंकड़ों की मानें तो महिलाओं के प्रति अपराध में 18 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो की नवीनतम रिपोर्ट के मुताबिक चार साल पहले की तुलना में 10 हजार से ज्यादा केवल बलात्कार के मामलों में इजाफा हुआ है। चौंकाने वाले तथ्य यह हैं कि सजा की दर मात्र 29 प्रतिशत पर अटकी हुई है। मतलब एक साल में सौ में से केवल 29 आरोपियों को ही सजा हो पा रही है। सवाल यह है कि क्या निर्भया कांड के बाद हुए तमाम हंगामे और वादे-घोषणाओं के बावजूद क्या इस तरह की घटनाओं को रोका जा सका? नहीं, बिल्कुल नहीं। देश की राजधानी होने के बावजूद महिला अपराधों में कमी नहीं आई है। 16 दिसम्बर के कांड के बाद देश की सर्वोच्च अदालत ने कई फैसले किए थे जिसमें न्यायपालिका और कार्यपालिका को जोड़ा गया था। जघन्य अपराधों को रोकने के लिए उच्च अधिकार सेवानिवृत्त जजों की दो कमेटियां बनी थीं जिसमें एक सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जेएस वर्मा की कमेटी थी और दूसरी दिल्ली हाई कोर्ट की जज ऊषा मेहरा की कमेटी थी। दोनों ने कई सिफारिशें की थीं। उनमें से ज्यादातर बहस का मुद्दा बनकर कागजों में ही सिमट गईं। अगर महिला अपराधों में वृद्धि हो रही है तो इसके लिए न्यायपालिका, कार्यपालिका तो दोषी हैं हीं पर राजनीतिक स्तर पर दृढ़ इच्छाशक्ति का अभाव साफ नजर आता है। दुख से यह भी कहना पड़ता है कि हमारे समाज में भी कोई परिवर्तन नजर नहीं आया। पुलिस के अनुसार बलात्कार की ज्यादातर घटनाएं करीबी रिश्तेदार करते हैं। इसमें जज क्या करेंगे, पुलिस क्या करेगी? महिला सुरक्षा के इंतजाम कितने नाकाफी हैं, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि आज भी थानों में महिला डेस्क कहीं हैं, तो कहीं नहीं। इतना तय है कि महिला सुरक्षा को लेकर अब तक किए गए प्रयास नाकाफी हैं। सिर्प पुलिस को हर टाइम कोसने से काम नहीं चलेगा। आखिर राजधानी के हर काले स्थानों पर पुलिस वाला नहीं हो सकता। जिम्मेदारी तो सभी को अपनी तय करनी होगी। कहीं भी कुछ गलत हो रहा है तो अपने-पराये का फर्प किए बगैर उसका विरोध करना होगा। अगर आप चुप रहते हैं तो कल को दूसरा भी चुप रहेगा। यही चुप्पी नापाक इरादों को बल देती है। इन्हीं वजहों से साल में कई बार कहीं न कहीं 16 दिसम्बर आ जाता है। आज भी वही सवाल खड़े हैं जो 16 दिसम्बर 2012 को खड़े थे।

No comments:

Post a Comment