Tuesday 24 January 2017

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाटलैंड का महत्व

उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव की शुरुआत पश्चिमी यूपी से होगी। यहां राज्य के पहले दो चरणों में 136 सीटों पर वोटिंग होगी। इन्हीं सीटों से राज्य में सत्ता के करीब पहुंचने वाली पार्टी का काफी हद तक भाग्य तय होगा। 2012 में मेरठ, मुरादाबाद, सहारनपुर, बरेली, आगरा और अलीगढ़ इलाके की 136 सीटों में से सबसे ज्यादा 58 सीटें पाने वाली समाजवादी पार्टी को बहुमत मिला था। 2012 में इस इलाके में सपा को 58, बसपा को 39, भाजपा को 20 और कांग्रेस को आठ तथा रालोद व अन्य को 10 सीट पर एक निर्दलीय ने जीत दर्ज की थी। 2013 के मुजफ्फरनगर के दंगें व 2014 में मोदी लहर ने इस पूरे इलाके का समीकरण बदल दिया। जातियों के हिसाब से इस इलाके में सबसे ज्यादा 26 प्रतिशत मुस्लिम हैं। इसके बाद दलित 25 प्रतिशत, जाट 17 प्रतिशत और यादव सात प्रतिशत मतदाता हैं। कुछ सीटों पर मुस्लिम मतदाताओं की संख्या 30 प्रतिशत से अधिक है। जाहिर है कि इस पूरे क्षेत्र में मुसलमान, दलित और जाट विशेष महत्व रखते हैं। पहले बात करते हैं मुस्लिम वोटों की। साइकिल सिम्बल अखिलेश यादव को मिलने के बाद भी यह तस्वीर साफ नहीं है कि पूरा मुस्लिम वोट सपा को ही मिलेगा। बिगड़ी कानून व्यवस्था, मुजफ्फरनगर दंगे की टीस और बनते-बिगड़ते राजनीतिक गठजोड़ से उत्तर प्रदेश का जाटलैंड शासन-प्रशासन से बेहद खफा है। चुनाव पर इसका सीधा असर पड़ सकता है। चौधरी चरण Eिसह की मजबूत विरासत को उनके लोग संभाल नहीं पाए, जिसके चलते समूचे जाटलैंड की पहचान का संकट पैदा हो गया है। सांप्रदायिक सद्भाव को नजर क्या लगी, सामाजिक तानाबाना ही चटक गया। नए राजनीतिक माहौल में भारतीय जनता पार्टी के प्रति उत्तर प्रदेश के जाटलैंड का ऐसा विश्वास जागा कि बीते लोकसभा चुनाव में अन्य दलों का इस क्षेत्र से सूपड़ा साफ हो गया। यहां के मतदाताओं में ध्रुवीकरण साल-दर-साल और बढ़ा है जो छोटी पार्टियों के लिए संकट पैदा करने वाला साबित हो सकता है। जाटलैंड में सपा कमजोर है तो बसपा के दलित बिखर गए हैं। रालोद का जाट-मुस्लिम फार्मूला सांप्रदायिक दंगे की भेंट चढ़ चुका है। कांग्रेस यहां अपना अस्तित्व तलाश रही है। मुसलमानों का एक वर्ग कहता है कि हम तो विकास चाहते हैं। समझ नहीं आ रहा कि हम किसको वोट दें? वह अखिलेश यादव के काम की सराहना जरूर करते हैं लेकिन बसपा भी उनका मनपसंद दल है। वह चाहते
 हैं कि सभी सेक्यूलर दल एक साथ आकर चुनावी अखाड़े में उतरें। हम चाहते हैं कि मुस्लिम वोटों का बिखराव न हो। एक निवासी का कहना था कि सभी राजनीतिक दल हर चुनाव में युवाओं को रोजगार देने का आश्वासन तो देते हैं लेकिन चुनाव के बाद वह अपने वादे से मुकर जाते हैं। इसलिए वह बदलाव चाहते हैं, इस बार वह बसपा को सत्ता में लाना चाहते हैं। खलीलाबाद निवासी उजम्मा नोटबंदी को लेकर बेहद परेशान हैं। नोटबंदी के असर ने उनके कारोबार को चौपट कर दिया है। मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि मैं किसको वोट दूं? सपा को या पीस पार्टी को, यही दुविधा बनी हुई है। मोहम्मद सिद्दीक कहते हैंöमेरा विश्वास सभी राजनीतिक दलों से उठ गया है। सत्ता में आने के बाद सभी दल अपने मन की करते हैं। मैं तो आजादी के बाद से ही सभी दलों को आजमाता आ रहा हूं लेकिन किसी ने मुसलमानों के लिए कुछ नहीं किया। कांग्रेस हो या सपा, बसपा हो या भाजपा सभी ही एक हमाम में नंगे हैं, सिर्फ मुस्लिम मतों को हासिल करने के लिए वो सेक्यूलर का लबादा ओढ़ लेते हैं और फिर वही करते हैं जो उन्हें करना है। मेंहदी खान चाहते हैं कि मुस्लिम मतों का बिखराव रोकने के लिए सभी सेक्यूलर पार्टियों का महागठबंधन बनना चाहिए लेकिन ताजा तस्वीर से स्पष्ट हो रहा है कि ऐसा गठबंधन बनना मुश्किल दिखता है। आज की तारीख में मुसलमानों का झुकाव किसी एक पार्टी नहीं बल्कि कई पार्टियों की तरफ नजर आ रहा है।

-अनिल नरेन्द्र

No comments:

Post a Comment