Friday 6 January 2017

क्या सुप्रीम कोर्ट के फैसले को मानेंगे राजनीतिक दल?

सर्वोच्च न्यायालय के सात न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने बहुमत से जो फैसला दिया है वह धर्म, नस्ल, जाति, समुदाय और भाषा के आधार पर वोट मांगना या चुनावी प्रक्रिया को प्रभावित करना जनप्रतिनिधित्व कानून के प्रावधान के तहत भ्रष्ट तरीका माना जाएगा। निश्चित तौर पर एक ऐतिहासिक व दूरगामी फैसला है। बेशक ऐसे फैसले आने में 21 साल लगे पर स्वागतयोग्य और सराहनीय है। अगर शीर्ष अदालत के इस फैसले को निर्वाचन आयोग प्रभावी ढंग से लागू कराने में सफल हो जाए तो देश की चुनावी राजनीति के शुद्धिकरण की दिशा में सकारात्मक परिवर्तन आ सकता है। प्रत्यक्ष को प्रमाण क्या? पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों की घोषणा हो चुकी है। चुनाव आयोग के पास यह सुनहरा अवसर है सुप्रीम कोर्ट के आदेश को सख्ती से लागू करने का। पर सवाल यह है कि क्या यह फैसला दिशानिर्देश की तरह काम करेगा या फिर व्यवहार में इसे कानूनी तौर पर लागू किया जा सकेगा? बेशक यह अच्छा हुआ कि सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट कर दिया कि जाति, मजहब, समुदाय, भाषा के नाम पर वोट मांगने को भ्रष्ट चुनावी तौर-तरीका माना जाएगा। कायदे से तो ऐसी स्पष्टता की जरूरत नहीं पड़नी चाहिए थी, क्योंकि सभी को पता है कि जाति, मजहब अथवा भाषा और समुदाय के नाम पर वोट मांगना एक तरह से एक वर्ग को दूसरे के खिलाफ खड़ा करना है। ऐसा कृत्य समाज को बांटने वाली राजनीति के अलावा और कुछ नहीं है। हालांकि जनप्रतिनिधित्व कानून के तहत कोई उम्मीदवार जाति, मजहब, समुदाय या भाषा के नाम पर किसी को मत देने को नहीं कह सकता, लेकिन सुप्रीम कोर्ट को नया फैसला इसलिए देना पड़ा, क्योंकि इसे लेकर भ्रम था कि किसके मजहब, जाति, समुदाय या भाषा आदि का उल्लेख निषेध माना जाएöउम्मीदवार के या फिर उसके विरोधी के अथवा मतदाताओं के? अब यह स्पष्ट हो गया कि प्रत्याशी और उसके विरोधी उम्मीदवार के अलावा मतदाता के भी मजहब इत्यादि का प्रयोग नहीं किया जा सकता। सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला देश को चुनावी राजनीति की संकीर्ण गलियों से निकलकर एकता और धर्मनिरपेक्षता के संवैधानिक राजमार्ग में लाने वाला कदम है। राजनीतिक दलों के नेता अपनी-अपनी जाति का सम्मेलन बुलाते हैं, जो अपने प्रत्याशियों के पक्ष में मतदान करने की अपील करते हैं। एक अहम सवाल यह भी है कि सभी दल दलितों को उपेक्षित, वंचित और पीड़ित बताकर अपना प्रचार करते हैं। सवाल है कि दलित शब्द जातिवाचक है या नहीं? इसे भी परिभाषित करने की आवश्यकता पड़ेगी। इसी तरह आरक्षण सांविधानिक प्रावधान है। बावजूद इसके खिलाफ विशेष जातियों के आंदोलन होते रहते हैं। माननीय न्यायमूर्तियों ने यह फैसला देते हुए रविन्द्र नाथ टैगोर के उस राष्ट्रवाद का हवाला दिया जो तमाम संकीर्णताओं के पार वैश्विक मानवता के विशाल क्षितिज की ओर ले जाता है। इस फैसले पर गहन विचार-विमर्श कर इसको लागू किया जाए।

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