Saturday 3 November 2018

अम्मी अगर मैं जिन्दा रहा तो...

आतंकी हमला हो गया है... हम दंतेवाड़ा में आए थे इलैक्शन कवरेज के लिए पर... एक रास्ते से जा रहे थे, आर्मी हमारे साथ थी... अचानक नक्सलियों ने घेर लिया... अम्मी अगर मैं जीवित बचा तो गनीमत है... अम्मी मैं तुमसे बहुत प्यार करता हूं... हो सकता है कि मैं हमले में मारा जाऊं... परिस्थितियां सही नहीं हैं... पता नहीं क्यों मौत को सामने देखते हुए डर नहीं लग रहा है... बचना मुश्किल है यहां पर... छह-सात जवान हैं साथ में... चारों तरफ से घेर लिए हैं... यह शब्द दूरदर्शन के असिस्टेंट कैमरामैन मोर मुकुट शर्मा के हैं, जो मंगलवार को हुए नक्सली हमले में दंतेवाड़ा के जंगलों में फंस गए थे। उन्होंने बताया कि यहां करीब 40 मिनट तक फायरिंग होती रही। ऐसी भयावह आवाजें तो मैंने सिर्प फिल्मों में ही सुनी थीं और उन आवाजों से पूरा जंगल गूंज रहा है। मालूम हो कि नक्सली हमले में मुकुट के साथी कैमरामैन अच्युतानंद की मौत हो गई थी। दोनों एक ही बाइक पर सवार थे। मुकुट ने बताया कि पतला रास्ता होने के कारण हमें बाइक से जाना पड़ा था। अचानक गोलीबारी शुरू हो गई। मैं सड़क के किनारे पर खड्ड में चला गया। मैंने सोचा अच्युतानंद मारा गया है, मेरे पास इतना समय नहीं था कि इन पलों को कैमरे में कैद कर लूं। मैं मोबाइल से शूट करने लगा। जहां पर मैं लेटा हुआ था, वहां लाल चींटियों का झूंड था। चींटियां मेरे शरीर पर रेंगने लगीं, इसलिए मुझे बीच में ही वीडियो बंद करना पड़ा। हमले में दो जवान शहीद हो गए थे और दूरदर्शन के कैमरामैन अच्युतानंद साहू की भी मौत हो गई थी। भारत में ड्यूटी के दौरान पत्रकारों की जिन्दगी पर खतरा अब एक आम बात हो गई है। आए दिन किसी पत्रकार पर हमला या हत्या की घटनाएं प्रमाण है कि पत्रकारिता करना और वास्तविक खबरें निकालना कितना जोखिम भरा काम हो गया है। निश्चित रूप से हमारे बहादुर जवानों की जान भी देश के लिए बेहद कीमती है और माओवादियों के हमले में दो लोगों की शहादत दुखी करने वाली घटना है। लेकिन एक पत्रकार जिसका काम निरपेक्ष भाव से सिर्प घटना को दर्ज करना था, उसकी जान जाने की भी अहमियत कम नहीं। इसी घटना में एक अन्य पत्रकार की जान किसी तरह बच सकी। यह सब तब हुआ जब माओवादियों की ओर से बाकायदा एक पत्र जारी कर कहा गया था कि बस्तर के किसी भी हिस्से में रिपोर्टिंग के लिए पत्रकार आ सकते हैं, उन्हें किसी भी इलाके में आने-जाने से नहीं रोका जाएगा। लेकिन ताजा हमले में कैमरा संभाले जिस पत्रकार की मौत हुई, उसे पहचानना भी मुश्किल नहीं था। फिर भी उसे निशाना बनाया गया। आखिर इससे माओवादियों को क्या हासिल हुआ? कहा जा सकता है कि जब युद्ध या हमले की स्थिति होती है, उस वक्त हथियार चलाने वाले सिर्प इस बात को याद रखते हैं कि वह दुश्मन का सामना कर रहे हैं। भारत में पत्रकारों को इस तरह के जोखिम का सामना केवल माओवादियों से प्रभावित या कश्मीर के अशांत क्षेत्रों में युद्ध या हिंसक टकराव के दौरान ही नहीं करना पड़ता बल्कि दूसरे सामान्य दिखते शहरों और दूरदराज के ग्रामीण इलाकों में भी भ्रष्ट या आपराधिक गतिविधियों में लिप्त लोगों के बारे में खबरें निकालने वाले पत्रकारों को भी कभी सीधे हमले में तो कभी हादसे की शक्ल में मार दिया गया है।  जवानों के साथ मीडिया कर्मी का इस तरह जाना अत्यंत दुखद है। हम शहीद होने वाले जवानों और दूरदर्शन के कैमरामैन को अपनी श्रद्धांजलि देते हैं। एक और  पत्रकार बेतुकी हिंसा का शिकार हो गया। वह तो महज अपनी ड्यूटी कर रहा था।

-अनिल नरेन्द्र

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