Friday, 31 May 2019

पायल तड़वी आत्महत्या मामला समाज की सोच दर्शाता है

लोकसभा चुनाव के परिणामों पर सारे देश में  चर्चा जोरों पर है इसलिए मुंबई की डाक्टर पायल तड़वी द्वारा आत्महत्या करने की दुखद घटना हाशिये पर रह गई। जातीय टिप्पणी से परेशान होकर वीवाईएल नायर अस्पताल की रेजीडेंट डाक्टर पायल तड़वी ने खुदकुशी कर ली। पायल के परिवार का आरोप है कि पायल के सीनियर डाक्टरों ने उसके अनुसूचित जनजाति के होने के कारण उसको ताने मारते थे। पुलिस के मुताबिक आत्महत्या करने से पहले पायल ने अपनी मां को फोन पर कहा था कि वह अपने तीनों सीनियर डाक्टरों के उत्पीड़न से परेशान है, अब वह इसे बर्दाश्त नहीं कर पा रही है। वह तीनों उसे आदिवासी और जातिसूचक शब्दों से बुलाते थे। बता दें कि पायल तड़वी ने 22 मई को आत्महत्या कर ली थी। पायल की मां आबिदा ने कहा कि पायल हमारे समुदाय से पहली महिला डाक्टर बनने वाली थीं। उनके लिए बार-बार जातिसूचक शब्दों का भी इस्तेमाल करती थी। उधर महाराष्ट्र एसोसिएशन ऑफ रेजीडेंट डाक्टर्स (एमएआरडी) को लिखे पत्र में तीनों आरोपियोंöडॉ. अंकिता खंडेलवाल, डॉ. हेमा आहूजा और डॉ. भक्ति मेहारे ने कहा कि वह चाहते हैं कि कॉलेज इस मामले में निष्पक्ष जांच करे और उन्हें इंसाफ दे। तीनों ने पत्र में कहा कि पुलिस बल और मीडिया के दबाव में जांच करने का यह तरीका नहीं है जिसमें हमारा पक्ष नहीं सुना जा रहा। वहीं एसोसिएशन के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा कि हमारे पास पुख्ता जानकारी है कि तीनों डाक्टरों ने डॉ. पायल के खिलाफ जातिगत टिप्पणियां कीं। हम इस मामले में आगे की जांच के लिए पुलिस का सहयोग करेंगे। इस मामले में एक आरोपी डाक्टर भक्ति मेहारे को गिरफ्तार कर लिया गया है। आदिवासी समुदाय से ताल्लुक रखने वाली 26 वर्षीय पायल को आत्महत्या के लिए उकसाने के आरोप में तीन वरिष्ठ साथी डाक्टरों पर केस दर्ज किया गया है। दो अन्य डाक्टर अंकिता खंडेलवाल और हेमा आहूजा ने कोर्ट में अग्रिम जमानत की याचिका दायर की है। आरक्षण से प्रवेश लेने की बात पर पायल के साथ अपमानजनक व्यवहार किया जाता था। यदि यह सच है तो यह स्पष्ट होता है कि जातीय विद्वेष का जहर समाज में किस गहराई तक उतरा हुआ है। वरना कोई कारण नहीं कि विज्ञान की तर्पसंगत शिक्षा लेने वाली और वह भी मेडिकल की पोस्ट ग्रेजुएट में सीनियर लेवल पर पहुंचीं छात्राएं ऐसा घृणित व्यवहार करें। महाराष्ट्र के जलगांव के आदिवासी परिवार की बेटी पायल बुद्धिमान छात्रा थीं और उसे इसने अपनी मेहनत की धार देकर डाक्टर होने का सपना साकार किया। लेकिन बाद की घटनाओं से जाहिर है कि जातिवाद का जहर मन में पालने वाली सहपाठी छात्राओं के लिए उसकी यह तरक्की प्रशंसा की नहीं, ईर्ष्या का कारण बनी। बेशक आरोपियों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई भी होगी लेकिन ऐसी घटनाएं न हों इसके लिए नई पीढ़ी में स्वस्थ मानसिकता का विकास हमारी शिक्षा व्यवस्था और मानसिकता के लिए बड़ी चुनौती है। आज भी जातिवाद हावी है और यह इस केस से साबित होता है। समाज की मानसिकता को बदलना होगा, जो आसान नहीं है।

-अनिल नरेन्द्र

संघर्ष पथ पर तपकर बने दक्षिण के नायक

लोकसभा चुनाव नतीजों की इतनी धूमधाम थी कि इसमें उन चार राज्यों की विधानसभाओं के नतीजों की आवाज मंद पड़ गई। इनमें भी आंध्र प्रदेश और ओडिशा के नतीजे काफी कुछ ऐसा कह गए जिसे सुना जाना जरूरी है। यह दोनों राज्य ऐसे रहे जहां मोदी मैजिक नहीं चला। लोकसभा में भाजपा की भारी जीत के समानांतर आंध्र प्रदेश, अरुणाचल और सिक्किम में हुए विधानसभा चुनावों में कुछ नए सितारे चमके हैं, कुछ ने अपना करिश्मा बरकरार रखा है तो कुछ तो पुराने सितारे अस्त भी हो गए हैं। उदाहरण के लिए आंध्र प्रदेश में जगनमोहन रेड्डी के नेतृत्व में वाईएसआर कांग्रेस ने लोकसभा की 22 सीटों पर कब्जा जमाने के अलावा विधानसभा चुनाव में सत्तारूढ़ तेलुगूदेशम पार्टी का सूपड़ा साफ कर भारी बहुमत हासिल किया है, जो विभाजित आंध्र में बड़ी जीत है। इस सियासी उथल-पुथल में वाईएसआर कांग्रेस मुखिया जगनमोहन रेड्डी दक्षिण की राजनीति में नए और युवा चेहरे के रूप में उभरे हैं। भाजपा के खिलाफ देशव्यापी मोर्चा खोलने वाले चंद्रबाबू नायडू की पार्टी टीडीपी को आंध्र प्रदेश में लोकसभा के साथ-साथ विधानसभा चुनावों में करारी शिकस्त देकर जगनमोहन रेड्डी ने सियासत में अपना कद बड़ा कर लिया है। जगनमोहन रेड्डी की पार्टी वाईएसआर कांग्रेस ने 175 विधानसभा सीटों में से 152 और 25 लोकसभा सीटों में से 22 सीटें जीती हैं। डीएमके के बाद वाईएसआर कांग्रेस दक्षिण की दूसरी सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी बन गई है। 46 वर्षीय जगनमोहन रेड्डी के लिए साल 2009 किसी दुस्वप्न की तरह था। इसी साल उनके सीएम पिता वाईएसआर राजशेखर रेड्डी ने एक हेलीकॉप्टर हादसे में उनका साथ छोड़ा तो कांग्रेस ने भी उन्हें मझधार में छोड़ दिया लेकिन जगनमोहन रेड्डी ने हिम्मत नहीं हारी। जगनमोहन रेड्डी की सफलता में रणनीतिकार प्रशांत किशोर और उनकी भारतीय राजनीतिक एक्शन कमेटी टीम का प्रमुख योगदान है। चार दशक के राजनीतिक कैरियर में एन. चंद्रबाबू नायडू ने हमेशा पैंतरा बदला। कांग्रेस विधायक रहे, फिर ससुर एनटीआर की पार्टी टीडीपी में तख्ता पलटकर पार्टी और सीएम की कुर्सी पर कब्जा किया। अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में राजग में आए। 2014 में फिर राजग का दामन थामा। 2018 में साथ छोड़कर अचानक भाजपा विरोधी मोर्चे के गठन में लग गए। मगर नतीजे ने उनकी सियासी कैरियर पर सवाल खड़ा कर दिया। तमिलनाडु की राजनीति के दो ध्रुव जयललिता (अन्नाद्रमुक) और एम. करुणानिधि (द्रमुक) की मौत के बाद राज्य में नेतृत्व शून्यता का दौर शुरू हो गया था। अन्नाद्रमुक कई धड़ों में बंट गई, लेकिन एमके स्टालिन ने पारिवारिक जंग से पार पाते हुए चुनाव से पहले कांग्रेस-वाम दलों के साथ एक मजबूत गठबंधन भी खड़ा कर लिया। चुनाव में जबरदस्त जीत से स्टालिन का सियासी कद अचानक बढ़ गया। ढाई साल पहले केरल की सत्ता संभालने वाले माकपा के पिनराई विजयन के सामने वाम किले की नींव मजबूती देने की चुनौती थी। पश्चिम बंगाल व त्रिपुरा में आधार खत्म होने के बाद लोकसभा चुनाव में वाम दलों की उम्मीद बस इसी राज्य पर टिकी थी। मगर विजयन बीते चुनाव से बड़ा प्रदर्शन करने की बजाय वाम मोर्चा का राज्य में बस खाता ही खुलवा सके।

शिकस्त के बाद विपक्षी पार्टियों में नेतृत्व को लेकर घमासान

2019 लोकसभा चुनाव परिणामों के बाद सिर्प कांग्रेस में ही नहीं अन्य विपक्षी दलों में भी हाहाकार मची हुई है। पार्टी के अंदर से नेतृत्व पर हमले शुरू हो गए हैं। उत्तर प्रदेश में करारी शिकस्त के बाद पार्टी प्रमुख अखिलेश यादव पर गाज गिर रही है तो बिहार में तेजस्वी यादव को अध्यक्ष पद से हटाने की मांग पार्टी के अंदर से उठ रही है। चुनाव में करारी हार की समीक्षा करने के लिए अखिलेश यादव ने पार्टी मुख्यालय में अलग-अलग जिलों के नेताओं को बुलाकर उन वजहों पर चर्चा की जिसकी वजह से पार्टी के 32 प्रत्याशी हार गए। इस आम चुनाव में सपा को महज 5 सीटें मिली हैं। पिछले चुनाव में भी उन्हें 5 सीटें ही मिली थीं पर 2014 में वह अकेले लड़ी थी। इस बार उसका दो दलोंöबहुजन समाज पार्टी (बसपा) और राष्ट्रीय लोक दल (रालोद) के साथ गठबंधन था। इस गठबंधन को अपराजेय माना जा रहा था। लेकिन ढाक के वही तीन पात। गठबंधन में बसपा को भले ही लाभ हुआ। उसने 10 सीटें जीत लीं, लेकिन बाकी दो दल जहां के तहां रह गए। मुलायम परिवार के तीन सदस्य चुनाव हार गए। रालोद अपने हिस्से की तीनों सीटें हार गया। सूत्रों के मुताबिक सपा के वरिष्ठ नेता और अखिलेश के चाचा रामगोपाल यादव ने सही तरीके से सीटों का बंटवारा न करने के लिए अखिलेश को जिम्मेदार ठहराया है। मुलायम ने चुनाव से पहले ही मायावती के साथ गठबंधन के अखिलेश के फैसले पर नाराजगी जाहिर कर दी थी। यह बहस का मुद्दा हो सकता है कि यदि सपा-बसपा का गठबंधन न होता तो क्या दोनों पार्टियां ज्यादा सीटें जीतती? फिलहाल तो अखिलेश निशाने पर हैं। वहीं बिहार में राजद की करारी हार के बाद पार्टी के अंदर से भी विरोध के सुर उठने लगे हैं। राजद विधायक महेश्वर यादव ने नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव से इस्तीफा मांगा है। महेश्वर ने चुनाव में पार्टी के खराब प्रदर्शन को लेकर पार्टी नेतृत्व पर सवाल उठाया है। उन्होंने सोमवार को पटना में सलाह दी है कि नेता प्रतिपक्ष का पद पार्टी के किसी दूसरी जाति के वरिष्ठ नेता को दिया जाना चाहिए। इससे दूसरी जाति के लोग भी राजद से जुड़ेंगे। मुजफ्फरपुर से विधायक महेश्वर यादव ने कहा कि चुनाव में  पार्टी की जो स्थिति हुई है, वैसी पहले कभी नहीं हुई है। इस करारी हार की नैतिक जिम्मेदारी तेजस्वी यादव को लेनी चाहिए। नेता प्रतिपक्ष के पद पर तेजस्वी यादव को बैठाने से लोगों में यह संदेश गया है कि यह पार्टी लालू परिवार तक ही सीमित है। साथ ही पार्टी को अब नई राह तलाशनी होगी। लोकसभा चुनाव में राजस्थान में कांग्रेस की करारी हार के बाद प्रदेश की गहलोत सरकार के कई मंत्रियों ने मांग की है कि इस चुनावी शिकस्त के लिए जवाबदेही तय करने के साथ कार्रवाई होनी चाहिए। उधर कांग्रेस में हार के बाद इस्तीफों की झड़ी लग गई है। कांग्रेस के तीन और प्रदेशाध्यक्षों ने सोमवार को राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी को अपना इस्तीफा सौंप दिया है। लोकसभा चुनाव के परिणामों ने सभी विपक्षी पार्टियों को झकझोर कर रख दिया है। आत्ममंथन और जवाबदेही का दौर शुरू हो गया है।

Thursday, 30 May 2019

मध्यपदेश की कमलनाथ सरकार पर मंडरा रहे काले बादल

आम चुनावों के नतीजों ने मध्यपदेश में कांग्रेस की सरकार को संकट में डाल दिया है। दरअसल काफी समय से राजनीति के गलियारों में चर्चा जोरों पर थी कि केन्द्र में अगर नरेन्द्र मोदी की सरकार दोबारा आई तो मध्यपदेश की कांग्रेस की सरकार का अल्पमत में जाना तय है। नवम्बर 2018 में हुए मध्यपदेश विधानसभा चुनाव में किसी भी दल को अपने दमखम पर बहुमत नहीं मिला था। 230 सदस्यीय विधानसभा में कांग्रेस को 114 और भाजपा को 109 सीटें मिली थीं। बहुमत के लिए 116 के आंकड़े की जरूरत थी तब चार निर्दलीय, बसपा के दो और सपा के एक विधायक ने कांग्रेस को समर्थन देकर सरकार बनाने की राह आसान की। भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष व पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने दावा किया है कि लोकसभा में कांग्रेस की भारी हार को देखते हुए मुख्यमंत्री को इस हार की जिम्मेदारी लेते हुए खुद ही इस्तीफा दे देना चाहिए, शिवराज ने कहा कि कमलनाथ ने ये निर्देश दिए थे कि अगर उनके मंत्री के किसी क्षेत्र में कांग्रेस उम्मीदवार (आम चुनाव) हारा तो संबंधित मंत्री को उसके पास अपना इस्तीफा लेकर आना पड़ेगा। अब भारी पराजय के कारण अब तो उन्हें खुद ही पद छोड़ देना चाहिए। क्योंकि राज्य के दो-चार लोकसभा क्षेत्रों में हारते तो कमलनाथ अपने संबंधित मंत्रियों से इस्तीफा ले सकते थे। लेकिन अब कांग्रेस पत्याशी पूरे पदेश में हार गए हैं तो इसकी जिम्मेदारी तो खुद कमलनाथ को लेनी चाहिए। लोकसभा चुनाव में मिली हार के बाद पहली बार कांग्रेस विधायक दल की रविवार को हुई बैठक में सरकार की स्थिरता को लेकर चिंतन हुआ। मुख्यमंत्री कमलनाथ ने सुबह कैबिनेट की अनौपचारिक बैठक के बाद शाम को विधायकों के साथ भाजपा के अल्पमत की सरकार के आरोपों की चर्चा की। उन्होंने दो टूक कहा कि मेरी सरकार को लंगड़ी-लूली तो कभी अल्पमत तो कभी कमजोर बताया जा रहा है। आप लोगों ने मुझे विधायक दल का नेता चुना, मुख्यमंत्री बनाया, अब आप निर्णय करें कि क्या मैं कुर्सी छोड़ दूं? इस पर निर्दलीय, सपा, बसपा और कांग्रेस के सभी विधायकों ने एकजुट होकर कहा कि हमें आप पर पूरा भरोसा है। आप चाहें तो विधानसभा में फ्लोर टेस्ट करा लें। राज्यपाल के यहां परेड के लिए भी हम तैयार हैं। कमलनाथ सरकार के कैबिनेट मंत्री पद्युमन सिंह ने आरोप लगाया कि बीजेपी अब कांग्रेस विधायकों को खींचने की कोशिश कर रही है। विधायकों को 50 करोड़ रुपए का ऑफर दिया जा रहा है, लेकिन हमारा कोई साथी बिकने वाला नहीं है। कांग्रेस ने सोमवार को आरोप लगाया कि भाजपा मध्यपदेश की कमलनाथ सरकार को अस्थिर करने की कोशिश कर रही है। आने वाले दिनों में कमलनाथ सरकार के भविष्य का पता चलेगा। फिलहाल तो उनकी सरकार पर काले बादल छाए हुए हैं।

-अनिल नरेन्द्र

मोदी मुसलमानों का भरोसा कैसे जीतेंगे?

भाजपा की संसदीय दल की बैठक में नरेन्द्र मोदी को नेता चुना गया। संसदीय दल का नेता चुने जाने के बाद शनिवार को संसद के सेंट्रल हाल में दिए भाषण में पधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने `सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास' का महत्वपूर्ण नारा दिया। उन्होंने कहा कि हमें अल्पसंख्यकों का विश्वास हासिल करना है। हम पधानमंत्री की इस घोषणा का स्वागत करते हैं और उम्मीद करते हैं कि उनके इस कार्यकाल में मुसलमानों की असुरक्षित होने की भावना को दूर किया जाएगा। यह जो भय और दहशत का माहौल कुछ तथाकथित हिंदू संगठनों ने बनाया हुआ है उसे दूर किया जाएगा। इस्लामी  तालीम के दूसरे बड़े केन्द्र दारुल उलूम वक्फ के मोहतमिम मौलाना सुफियान कासमी ने मोदी के अल्पसंख्यकों का भरोसा जीतने वाले बयान की सराहना करते हुए कहा, उनका बयान सकारात्मक है और इससे अल्पसंख्यकों में विश्वास और उम्मीद का नया चिराग रोशन हुआ है। कासमी ने कहा, इस बयान का असर सभी तबको में महसूस किया जा रहा है। सबका साथ, सबका विकास के नारे में सबका विश्वास शामिल करना मुल्क की तरक्की व खुशहाली में बुनियादी हैसियत रखता है। उनके ये इरादे पूरे हों और देश में अमन, भाईचारा, सुरक्षा और आपसी सद्भाव का माहौल रहे। इसके लिए हम दुआ करते हैं। जमीयत उलमा--हिंद के महासचिव मौलाना  सैयद महमूद मदनी ने कहा कि मोदी ने भारत की सोच और दस्तूर के लिहाज से अल्पसंख्यकों को विश्वास में लेने और उनके लिए काम करने का जो इरादा लिया है हम उसका स्वागत करते हैं। राष्ट्र के निर्माण के लिए जो भी हमारी ताकत होगी वो हम लगाने को तैयार हैं। बरेलवी उलेमा ने उम्मीद जताई कि मोदी के कदम से मुल्क के हक में एक अच्छी कोशिश होगी। अगर मोदी ने अल्पसंख्यकों का विश्वास जीत लिया तो वे भाजपा का भरोसा टूटने नहीं देंगे। मोदी की ओर से यह कहा जाना एक तरह से समय की मांग को पूरा करना है कि उनकी सरकार अल्पसंख्यकों का भी भरोसा हासिल करेगी। ऐसा किया जाना इसलिए आवश्यक है, क्योंकि भाजपा की पचंड जीत के बाद यह माहौल बनाने की कोशिश हो रही है कि अब अल्पसंख्यकों की समस्याएं बढ़ने वाली है। पचार यह भी किया जा रहा है कि भारत हिंदू राष्ट्र बनने की दिशा में बढ़ रहा है। यह माहौल केवल भारतीय मीडिया की ओर से नहीं बनाया जा रहा है, बल्कि विदेशी मीडिया की ओर से भी बनाया जा रहा है। अमेरीकन पत्रिका टाइम ने अपने मुख्य पृष्ठ पर मोदी को ग्रेट डिवाइडर कहा है यानी भारत का विभाजन करने वाला। यह सरासर गलत और भ्रमित, भय पैदा करने वाला, दहशत फैलाने का पयास है। जहां हम पधानमंत्री के बयान का स्वागत करते हैं वहीं आए दिन मजहब के नाम पर हो रही घटनाओं पर भी ध्यान देना जरूरी है। अभी हाल ही में गुरुग्राम के कुछ युवकों द्वारा सदर बाजार जामा मस्जिद में नमाज पढ़ कर आ रहे एक युवक को रोककर नशे में धुत असामाजिक तत्वों ने उनके टोपी पहने होने पर टिप्पणी की और कथित तौर पर भारत माता की जय और जय श्रीराम के नारे लगाने के लिए कहा। मना करने पर उससे मारपीट की और टोपी फेंक दी। ऐसे असामाजिक तत्वों पर अगर एक बार सख्त कार्रवाई हो जाए तो आइंदा ऐसी हरकत करने से ऐसे तत्व बचेंगे। हो क्या रहा है कि ऐसे तत्वों को ऊपरी सुरक्षा मिलती है और यह साफ बच जाते हैं। दिल्ली के नवनिर्वाचित सांसद गौतम गंभीर ने यह कहा कि आरोपियों के खिलाफ जरूरी कदम उठाने चाहिए, लोगों को परस्पर भाईचारे की भी याद दिलानी चाहिए। उन्होंने ट्वीट में लिखा, गुरुग्राम में मुस्लिम युवक को टोपी उतारने और जय श्रीराम बोलने को कहा गया यह काफी खेदजनक बात है। इसकी निंदा होनी चाहिए। हम लोग सेक्यूलर देश में हैं जहां जावेद अख्तर ने ओs पालन हारे निर्गुण और न्यारे... और राकेश महेरा की दिल्ली-6 में अर्जियां जैसे गाने लिखते हैं। गौतम गंभीर के इस ट्वीट पर सोशल मीडिया में उनके खिलाफ अभियान चल गया। मोदी को यह याद रखना चाहिए कि भारत में अल्पसंख्यकों की बहुत बड़ी आबादी है। इंडोनेशिया के बाद भारत में सबसे ज्यादा मुसलमान हैं। भारत सबका है जहां सभी को अपने धर्म, परम्पराओं का पालन करने का अधिकार है। श्री मोदी के लिए ऐसा वातावरण बनाना चुनौती है। हम पीएम के बयान का स्वागत करते हैं और उम्मीद करते हैं कि वह इसमें खरे उतरेंगे।

Wednesday, 29 May 2019

ममता को अपने अस्तित्व बचाने की चुनौती

लोकसभा चुनाव से पहले राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी मुखिया शरद पवार ने एक बयान में कहा था कि अगर नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए स्पष्ट बहुमत साबित करने में असफल रही तो पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, आंध्रप्रदेश के सीएम चंद्रबाबू नायडू और उत्तर प्रदेश की पूर्व सीएम मायावती प्रधानमंत्री पद के लिए प्रमुख दावेदार होंगे। जो परिणाम आए तो सभी के सपने चूर-चूर हो गए। प्रधानमंत्री बनना तो दूर रहा चारों को मुंह की खानी पड़ी। अब तो अपने अस्तित्व बचाने की लड़ाई लड़नी पड़ेगी। 2019 के आम चुनाव के परिणाम ममता बनर्जी के लिए खतरे की घंटी हैं। मोदी की सुनामी में जिस तरह पश्चिम बंगाल में भाजपा 42 सीटों में से 18 पर कब्जा करने में सफल हुई है, उसे देखते हुए 2021 में होने वाले विधानसभा चुनाव में दीदी के लिए अपनी गद्दी बचाना मुश्किल हो सकता है। मोदी की लहर में यहां कांग्रेस व वामदलों का सफाया तो हुआ ही है, टीएमसी को भी लगभग एक दर्जन सीटों का नुकसान हुआ है। पश्चिम बंगाल में भाजपा के खिलाफ अत्यंत आक्रामक रुख अपनाने के बावजूद ममता दीदी वहां भाजपा की जड़ें जमाने से रोकने में असफल साबित हुई हैं। देश के सभी राज्यों में केवल पश्चिम बंगाल ऐसा राज्य रहा, जहां लोकसभा चुनाव के दौरान हिंसा की काफी घटनाएं हुई हैं। 2014 के लोकसभा चुनाव में तृणमूल ने यहां कुल 42 सीटों में से 34 सीटों पर कब्जा किया था। लोकसभा की कुल 42 में से 18 सीटों पर जीत दर्ज करने वाली भाजपा अब दावा कर रही है कि वोटर शेयर के मामले में राज्य के कम से कम 150 विधानसभा क्षेत्रों में पार्टी को बढ़त मिली है। भाजपा अब मोदी मैजिक के बूते पर बंगाल में तृणमूल कांग्रेस की तिलिस्म तोड़ने की जुगत में जुट गई है। जाहिर तौर पर बंगाल में भाजपा की जीत को टीएमसी वर्चस्व के लिए बड़े खतरे का संकेत दे रहा है। ममता के इसी वर्चस्व को तोड़ने के लिए भाजपा पिछले पांच वर्षों से लगातार रणनीति बनाकर यहां अपना आधार तैयार कर रही थी। भाजपा के बढ़ते जनाधार से खफा ममता इतनी गुस्से में थीं कि उन्होंने भाजपा के कई बड़े नेताओं की यहां रैलियों से भी रोकने की कोशिश की। वह तो इस हद तक चली गईं कि नरेंद्र मोदी मेरे प्रधानमंत्री नहीं हैं। यह पहला मौका है जब पश्चिम बंगाल के लोगों ने भाजपा को गले लगाया है। जीत के बाद भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने भाजपा कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए खासतौर पर पश्चिम बंगाल का जिक्र करते हुए संकेत दे दिया कि अब भाजपा का अगला लक्ष्य 2021 में पश्चिम बंगाल को फतेह करना है। ममता दीदी ने लोकसभा चुनाव में  पार्टी के खराब प्रदर्शन के बाद पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफे की शनिवार को पेशकश की लेकिन तृणमूल कांग्रेस ने इसे खारिज कर दिया। दीदी ने अपने संबोधन में दावा किया कि यह बड़ी जीत संदेह से परे नहीं है। यह काफी आश्चर्यजनक है कि बौने विपक्ष का कई राज्यों में पूरी तरह सफाया हो गया? कुछ जोड़तोड़ है और विदेशी शक्तियां भी इसमें शामिल हैं। ममता बनर्जी फाइटर हैं इतनी आसानी से भाजपा को बाजी मारने नहीं देंगी।

-अनिल नरेन्द्र

राहुल गांधी की इस्तीफे की पेशकश

चुनाव नतीजों के बाद हारे हुए राजनीतिक दल अपनी कमजोरियों की समीक्षा करते ही हैं। जिन दलों को उम्मीद के अनुसार परिणाम नहीं आते वह आत्ममंथन करते हैं कि कहां कमजोरी रही, कहां गलतियां हुईं। कांग्रेस पार्टी में भी समीक्षा व आत्ममंथन का दौर चल रहा है। राष्ट्रीय कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी इस हार से इस कदर निराश हुए कि उन्होंने पद छोड़ने की पेशकश कर दी। पार्टी कार्यकर्ता उन्हें मनाने में जुटे हैं, कार्यसमिति के तमाम नेता एक स्वर में राहुल का इस्तीफा अस्वीकार कर रहे हैं पर राहुल अपने फैसले पर अड़े हैं। राहुल ने हार की जिम्मेदारी लेकर पद छोड़ने की पेशकश की है। बेशक यह अच्छी बात है कि उन्हें अपनी जिम्मेदारी का अहसास हो रहा है और वह चाहते हैं कि इतनी पुरानी पार्टी आज जिस चौराहे पर आकर खड़ी हो गई है उसे आगे बढ़ने, अपनी खोई हुई जमीन और प्रतिष्ठा को वापस लाया जाए। इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि राहुल ने 2019 लोकसभा चुनाव प्रचार में जीतोड़ मेहनत की। उन्होंने एक अच्छा कैंपेन चलाया। यह अलग बात है कि मोदी की आंधी में उनकी सारी मेहनत हवा में उड़ गई पर इससे तो कोई इंकार नहीं कर सकता कि राहुल की मेहनत में कोई कमी रही? कमी रही तो संगठन की। लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद हुई कांग्रेस की कार्यसमिति की पहली बैठक में राहुल गांधी और महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा का गुस्सा फूट पड़ा। चुनाव के दौरान वरिष्ठ पार्टी नेताओं के रवैये को नागवार मानते हुए राहुल ने दो टूक कहा कि कमलनाथ, अशोक गहलोत और पी. चिदम्बरम जैसे नेताओं का ध्यान पार्टी से ज्यादा बेटों पर रहा, उन्होंने पार्टी से ऊपर बेटे को रखा। राहुल यहीं नहीं रुके। बोले कि नेताओं ने बच्चों को टिकट के लिए पार्टी पर दबाव बनाया, इस्तीफे की धमकी तक दे दी गई। राहुल के तेवर देखकर बैठक में मौजूद नेता सन्न रह गए। सोनिया गांधी भी खामोश रहीं। इसी दौरान हार की जिम्मेदारी लेते हुए अध्यक्ष पद से इस्तीफे की पेशकश की और यह भी कहा कि अब इस पद पर गांधी परिवार के बाहर से किसी नेता को जिम्मेदारी लेनी चाहिए। उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा कि इस पद के लिए मेरी बहन का नाम भी न लिया जाए। इस दौरान प्रियंका ने वरिष्ठ नेताओं की ओर से मुखातिब होकर कहा कि आप लोग कहां थे जब मेरा भाई अकेले ही लड़ रहा था? चार घंटे तक चली बैठक के दौरान राहुल ने पूछा कि जिन राज्यों में हाल में ही कांग्रेस सत्ता में लौटी वहां इतनी बड़ी हार कैसे हुई? इस दौरान ज्योतिरादित्य सिंधिया ने जैसे ही कहा कि हमें राज्यों में स्थानीय नेताओं को मजबूत करना होगा, राहुल का गुस्सा फूट पड़ा। पी. चिदम्बरम की ओर देखते हुए राहुल ने कहा कि इन्होंने धमकी दी थी कि अगर बेटे को टिकट नहीं मिला तो इस्तीफा दे दूंगा। बैठक में मौजूद नहीं रहे मध्यप्रदेश के सीएम कमलनाथ का जिक्र करते हुए राहुल बोलेöनाथ जी ने कहा कि अगर मेरा बेटा चुनाव नहीं लड़ेगा तो मैं सीएम नहीं रह सकता। अशोक गहलोत पर तंज कसते हुए राहुल ने कहा कि राजस्थान के सीएम तो बेटे के प्रचार के लिए सात दिन तक जोधपुर पड़े रहे। उन्हें राज्य की बाकी सीटों की चिंता नहीं थी। इसके बाद राहुल इस्तीफे पर अड़े रहे और अचानक चले गए। इससे पहले प्रियंका ने राहुल को शांत करते हुए कहा कि भाई तुम इस्तीफा मत दो इससे भाजपा की चाल सफल होगी। इस चुनाव में पार्टी के लिए जो लोग जिम्मेदार हैं, वह सभी इसी कमरे में बैठे हैं। जब वरिष्ठ नेताओं ने राहुल को इस्तीफा देने से रोका तो प्रियंका ने उन्हें टोकते हुए कहा कि आप लोगों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ लड़ने के लिए मेरे भाई को अकेला छोड़ दिया। राफेल और चौकीदार चोर है पर राहुल की बात को किसी ने भी आगे नहीं बढ़ाया। राहुल ने इस पर सहमति में सिर हिलाया और बोलेöआप लोगों में से कितने नेताओं ने प्रधानमंत्री के खिलाफ भ्रष्टाचार को लेकर प्रहार किया? कुछ नेताओं ने हाथ खड़े किए तो राहुल ने उन्हें खारिज कर दिया। इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि एक मजबूत लोकतंत्र में सत्तारूढ़ पार्टी और विपक्ष मजबूत होना चाहिए। अगर विपक्ष मजबूत नहीं होगा तो सत्तारूढ़ पार्टी निरंकुश हो जाएगी और मनमाने फैसले करेगी। इस प्रचंड बहुमत से बेशक मोदी सरकार मनमर्जी से फैसले कर सकती है पर अगर विपक्ष रहेगा तो फिर भी उनसे सवाल-जवाब कर सकता है। इस समय हमें कांग्रेस पार्टी में ऐसा कोई चेहरा नहीं दिखता जो राहुल की जगह ले सके। दुख की बात यह है कि कांग्रेस कार्यसमिति के किसी भी सदस्य ने हार की जिम्मेदारी लेने के लिए इस्तीफे की पेशकश नहीं की। सूत्रों के मुताबिक राहुल के इस्तीफे पर अड़ने के बाद पी. चिदम्बरम ने रुआंसे होकर उन्हें मनाने की कोशिश की। कहा कि आपको नहीं पता कि दक्षिण भारत के लोग आपसे कितना प्यार करते हैं, अगर आपने इस्तीफा दिया तो कुछ लोग आत्महत्या कर सकते हैं। वहीं लोकसभा चुनाव के बाद से कर्नाटक और मध्यप्रदेश की राज्य सरकारों पर संकट गहरा गया है। असंतोष के सुर फूट रहे हैं। इसके अलावा 2020 में दिल्ली, हरियाणा, महाराष्ट्र और झारखंड में विधानसभा चुनाव होने हैं। इन राज्यों में दिल्ली और हरियाणा से कांग्रेस का खाता तक नहीं खुल सका है। इन हालात में जो भी पार्टी की कमान संभालेगा उसके लिए हताश कार्यकर्ताओं और पस्त पड़े संगठन में फिर से जान पूंकना आसान नहीं होगा। वहीं दूसरी ओर राहुल के बाद फिलहाल ऐसा कोई नेता दिखाई नहीं दे रहा है जिसकी सर्वमान्यता पूरी पार्टी में हो। राहुल गांधी पहले ही पार्टी की कमान प्रियंका को देने से इंकार कर चुके हैं। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि 2019 लोकसभा चुनाव से पहले 5 विधानसभा चुनावों में राहुल के नेतृत्व में ही कांग्रेस पार्टी ने भाजपा को हराया था। राहुल को अपनी पेशकश पर फिर से गंभीरता से विचार करना चाहिए। हार-जीत तो चलती रहती है। इस समय तो कांग्रेस पार्टी के अस्तित्व को बचाने की लड़ाई है और यह लड़ाई लड़ने के लिए एक मजबूत नेतृत्व और संगठन की जरूरत है। राहुल फुल सर्जरी करें और नई टीम तैयार करें जो आगे की चुनौतियों से मुकाबला करने में सक्षम हो।

Tuesday, 28 May 2019

जब तक समोसे में रहेगा आलूöबिहार में रहेगा लालू

राष्ट्रीय जनता दल प्रमुख लालू प्रसाद यादव पिछले कुछ दिनों से जबसे 2019 लोकसभा चुनाव के परिणाम आए हैं तनाव में हैं। तनाव के कारण न तो वह सो पा रहे हैं, न ही दोपहर का खाना खा रहे हैं। रिम्स में लालू प्रसाद का इलाज कर रहे प्रो. डॉ. उमेश प्रसाद ने बताया कि वह सुबह में नाश्ता तो किसी तरह ले रहे हैं, लेकिन दोपहर का खाना नहीं खा रहे हैं। सुबह का नाश्ता और रात में ही खाना ले रहे हैं जिसके कारण उन्हें इंसुलिन देने में परेशानी हो रही है। दरअसल लालू प्रसाद यादव की राजनीति के आधार पर वोट बैंक को खिसकते देखकर उनकी परेशानी समझ आती है। उनके इस वोट बैंक पर इस बार मोदी का जादू चल गया। चुनाव नतीजों से यह बात साबित हो रही है कि भाजपा ही नहीं, राजग (राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन) में भी यदुवंशी राजनेताओं का जबरदस्त उभार हुआ है। यादव बहुल संसदीय क्षेत्रों से इस बार राजग के पांच सांसद चुने गए हैं। जातिगत समीकरण वाले पांच क्षेत्रों में भाजपा और जदयू ने यादव उम्मीदवार दिए थे यानि राजग के सभी यादव उम्मीदवार कामयाब रहे। राजग में जाति विशेष के लिए यह सौ प्रतिशत स्ट्राइक रेट है। इसका नतीजा यह हुआ कि राजद का खाता भी नहीं खुला। 17वीं लोकसभा के लिए बिहार से भाजपा ने तीन यादव उम्मीदवार दिए थे और जदयू के दो। 60 के दशक के कद्दावर रामलखन सिंह यादव के राजनीतिक अवसान के बाद लालू यादवों के राजनेता बन गए। विधानसभा चुनाव में जदयू के साथ गठजोड़ कर राजद ने बेहतर प्रदर्शन किया और 80 विधायक चुने गए थे। इनमें से एक-चौथाई यादव बिरादरी से हैं, पर लोकसभा चुनाव में इस बिरादरी ने लालू प्रसाद को बता दिया कि जनता किसी की पुश्तैनी जागीर नहीं है। 2014 के चुनाव की रणनीति बनाते समय ही भाजपा की नजर 14 प्रतिशत यादव मतदाताओं पर टिक गई थी। रणनीति के तहत ही रामकृपाल यादव राजद से भाजपा के पाले में आए। उन्हें यादव बहुल पाटलिपुत्र में लाल प्रसाद यादव की पुत्री मीसा भारती के खिलाफ मैदान में उतारकर भाजपा ने स्पष्ट कर दिया कि वह लोहे से लोहा काटेगी। विजयी होने के बाद पुरस्कार के रूप में रामकृपाल को केंद्र में मंत्री का पद मिलना लगभग तय है। भाजपा की रणनीति का दूसरा अध्याय नित्यानंद राय रहे। प्रदेश के संगठन की कमान उनके हवाले कर पार्टी ने बिरादरी विशेष को संदेश दिया कि इस पाले में भी नेतृत्व के लिए गुंजाइश है। यहां वंशवाद का दंश भी नहीं व राजद की ऐतिहासिक और बड़ी हार का एक कारण लालू का जेल में होना और उनके परिवार में कलह होना। भाजपा ने रणनीति के तहत बिहार में चुनाव लड़ा और शानदार जीत दर्ज की। वर्षों बाद बिहार की राजनीति में लालू प्रसाद यादव अप्रासंगिक लग रहे हैं। नहीं तो एक समय था जब कहा जाता था कि समोसे में आलू है, बिहार में लालू है।
-अनिल नरेन्द्र
� कड़ा हो गया है। दोनों भाजपा और कांग्रेस परिणामों से उत्साहित हैं।

दिल्ली की इस वोटिंग से निकलते विधानसभा चुनाव के नतीजे तो...

लोकसभा चुनाव 2019 के नतीजों के आधार पर अगर दिल्ली में विधानसभा सीटों पर हार-जीत के आंकड़े को देखें तो भाजपा की 70 में से 65 सीटों में पहले नम्बर पर रही और यह सीटें भाजपा के खाते में जा रही हैं। वहीं कांग्रेस ने पांच विधानसभा सीटों पर बढ़त बनाई है और मौजूदा लोकसभा चुनाव के नतीजों के आधार पर आम आदमी पार्टी को एक भी सीट नहीं मिल रही है। आप किसी भी विधानसभा सीट पर पहले नम्बर पर नहीं आई है। जहां तक नम्बर दो की बात है तो कांग्रेस 42 और आम आदमी पार्टी 23 विधानसभा सीटों पर दूसरे नम्बर पर है। हालांकि आम आदमी पार्टी का साफ कहना है कि लोकसभा चुनाव और विधानसभा चुनाव बिल्कुल अलग-अलग मुद्दों पर लड़े जाते हैं और लोकसभा चुनाव के नतीजों के आधार पर विधानसभा चुनावों के नतीजे नहीं निकाले जाते हैं। लोकसभा चुनाव परिणाम भी दर्शाते हैं कि इस बार मुस्लिम बहुल इलाकों में भाजपा को रफ्तार में वोट मिले। मुस्लिम बहुल तीन विधानसभा सीटें तो ऐसी हैं, जहां इस बार भाजपा ने जीत का परचम लहराया है। राजधानी की तीन लोकसभा सीटों की करीब 10 विधानसभा सीटें ऐसी हैं, जहां मुस्लिम वोटरों की संख्या बाकी वोटरों से अधिक है। इनमें चांदनी चौक लोकसभा से बल्लीमारान, चांदनी चौक, मटिया महल, सदर बाजार, ईस्ट दिल्ली से ओखला व गांधी नगर तो नॉर्थ ईस्ट दिल्ली लोकसभा सीट की बाबरपुर, सीलमपुर, मुस्तफाबाद व सीमापुरी ऐसी विधानसभाएं हैं, जहां मुस्लिम वोटर भारी तादाद में हैं। विशेष बात यह रही कि इन मुस्लिम बहुल सीटों पर इस बार भाजपा को पिछले लोकसभा चुनाव से ज्यादा वोट मिले हैं। लोकसभा चुनावों से पहले अगर दिल्ली में आप और कांग्रेस के बीच गठबंधन हो भी जाता तो भी भाजपा ही सातों सीटों पर जीत दर्ज करती। भाजपा को कुल 56.6 प्रतिशत वोट मिले, जो कांग्रेस 22.5 प्रतिशत और आप 18.1 प्रतिशत की कुल वोट के कुल वोट 40.6 प्रतिशत से ज्यादा है। वहीं 2014 में भाजपा ने 46.4 प्रतिशत वोट लेकर सातों सीटें जीती थीं। प्रदेश कांग्रेस दिल्ली लोकसभा चुनाव में भाजपा से सातों सीट हार गई लेकिन परिणामों ने पार्टी के लिए संजीवनी का काम किया है। आम आदमी पार्टी की तुलना में कांग्रेस काफी बेहतर प्रदर्शन करने में सफल रही। कांग्रेस को कुल 22.5 प्रतिशत मत प्राप्त हुए। आम आदमी पार्टी को मात्र 18 प्रतिशत मत ही प्राप्त हो सके। कांग्रेस चार वर्ष बाद दूसरे नम्बर की पार्टी बनकर उभरी व भाजपा से सीधी टक्कर लेने में सफल रही। शीला दीक्षित बेशक खुद हार गईं पर उनका यह विचार कि कांग्रेस को अकेला लड़ना चाहिए सफल हुआ। रही बात आम आदमी पार्टी की तो आम आदमी पार्टी का वोट बैंक मुस्लिम वोट और कलस्टर वोट भी खिसकता नजर आ रहा है। इस चुनाव में आप को झुग्गी-झोंपड़ी से भी ज्यादा वोट नहीं मिले। सातों संसदीय क्षेत्रों के 70 विधानसभा क्षेत्रों में आने वाले ज्यादातर जेजे कलस्टर ने भी प्रधानमंत्री मोदी के नाम पर वोट दिए। अगले साल दिल्ली विधानसभा चुनाव की स्टेज सज चुकी है। देखना यह होगा कि क्या आप पार्टी अपनी स्थिति बरकरार रख सकती है या नहीं? मुकाबला कड़ा हो गया है। दोनों भाजपा और कांग्रेस परिणामों से उत्साहित हैं।

Sunday, 26 May 2019

मुस्लिम महिलाओं और यंग इंडिया ने मोदी को खुलकर वोट दिया

लोकसभा चुनाव नतीजों से साबित होता है कि मुस्लिम वोटरों ने भी भाजपा को बड़ी तादाद में वोट दिया। खासकर मुस्लिम महिलाओं ने। दरअसल स्वच्छ भारत अभियान के तहत घर-घर में शौचालय बनाने की जो स्कीम मोदी लाए उससे सबसे ज्यादा लाभ महिलाओं को ही मिला। घर-घर में शौचालय बनाया जाना अभूतपूर्व है। 70 साल में इस बारे में नहीं सोचा गया। महिलाओं को उज्जवला योजना के तहत घर-घर में गैस चूल्हे का इंतजाम करके मोदी ने सभी महिलाओं खासकर ग्रामीण क्षेत्रों की महिलाओं पर खासा असर पड़ा। इन कदमों से महिलाओं की कठिन जिन्दगी को आसान बना दिया है। वहीं समीना बेगम बताती हैं कि एक बार में तीन तलाक देने वालों के खिलाफ कानून बनाकर मोदी सरकार ने मुस्लिम महिलाओं को बड़ी सोशल सिक्यूरिटी दी है। इस कारण मुस्लिम महिलाओं का भी उन्हें समर्थन मिला है। ग्रामीण क्षेत्रों में घर बनाने के लिए सरकारी मदद भी एक फैक्टर रही और यह इसलिए भी ज्यादा प्रभावी हुआ कि इन स्कीमों में कोई धर्म-जाति के आधार पर भेदभाव नहीं किया गया। मुस्लिमों के लिए खुशखबरी यह भी है कि 2019 में 26 सांसद जीते हैं। 2014 में यह संख्या 23 थी। मुस्लिम बहुल 92 सीटें हैं जिन पर मुस्लिम मतदाता सीधा असर डालता है। केंद्र में मोदी सरकार की वापसी के लिए तमाम फैक्टर के साथ-साथ पहली बार वोट करने वाले यंग वोटर्स और महिला वोटर भी अहम साबित हुए हैं। महिलाओं और पहली बार वोट करने वाले यंग वोटर्स ने वोट के समीकरण पर खासा प्रभाव डाला और भाजपा को इसका सीधा फायदा मिला। एक तरफ जहां फर्स्ट टाइमर ने राष्ट्रवाद के मुद्दे पर मोदी सरकार का साथ दिया तो वहीं महिलाओं ने जीवन की जद्दोजहद से निजात दिलाने वाली मोदी सरकार की तमाम योजनाओं के कारण भाजपा पर विश्वास जताया। एक्सपर्ट बताते हैं कि नरेंद्र मोदी जब प्रधानमंत्री बने तो सबसे पहले उनके निशाने पर पहली बार वोट डालने वाले युवा और महिलाओं का कल्याण रहा। ऐसे वोटर आमतौर पर राजनीतिक पार्टियों के राडार पर नहीं होते थे। लेकिन मोदी ने यंग इंडिया को सबसे पहले राडार पर लिया और उनसे सीधा सम्पर्प साधा। इसके लिए तकनीक का सहारा भी लिया गया और सोशल मीडिया के जरिये माहौल बनाया। यही कारण है कि राहुल गांधी, अखिलेश यादव और प्रियंका गांधी जैसे युवा चेहरे होने के बावजूद मोदी यंग जेनरेशन और महिलाओं में सबसे लोकप्रिय हुए। बालाकोट और जवाबी कार्रवाई का युवाओं पर खासा असर हुआ। पुलवामा अटैक के बाद एक युवा का कहना था कि प्रधानमंत्री मोदी ने देश को भरोसा दिलाया था कि सैनिकों की शहादत बेकार नहीं जाएगी और वही हुआ। पहली बार युवाओं और महिलाओं खासकर मुस्लिम महिलाओं को इस बात का अहसास हुआ कि वह मोदी के हाथों में सुरक्षित हैं। उन्होंने खुलकर व बढ़कर मोदी को वोट दिया।

-अनिल नरेन्द्र

जो जीता वह नरेंद्र है

मोदी हैं तो मुमकिन है... चुनाव से पहले यह महज एक नारा था, लेकिन नतीजे आने के बाद यह चमत्कार हो गया। भाजपा की अगुवाई वाली एनडीए को अगर 2019 में 2014 से भी बड़ी जीत मिली है तो इसकी वजह सिर्प नरेंद्र मोदी और सिर्प नरेंद्र मोदी ही हैं। मोदी सभी 542 सीटों पर लड़ रहे थे। मतदाताओं को अपने इलाके के उम्मीदवार तक का नाम पता नहीं था। जिससे भी पूछो कि वोट किसको दे रहे हो, जवाब होता था मोदी को। वोटरों के बीच नरेंद्र मोदी का नाम ऐसा भरोसा बनकर बैठ गया जिसके आगे न जाति-धर्म की कोई दीवार खड़ी हो पाई और न ही दलों के गठबंधन का कोई मायना रह गया। लोग मोदी के नाम से इतना आशान्वित होते दिखे कि उन्हें देश की बागडोर अगले पांच साल के लिए और सौंपने में कहीं कोई भ्रम या संशय नहीं रहा। इस बार मोदी की लहर नहीं सुनामी थी। भारतवर्ष का इतिहास रहा है कि सांसदों ने आमतौर पर मिलकर प्रधानमंत्री चुना है, लेकिन इस बार ऐतिहासिक बदलाव देखने को मिला है। इस बार एक प्रधानमंत्री (नरेंद्र मोदी) ने साढ़े तीन सौ सांसदों को चुना है। उल्टी गंगा इसलिए बही क्योंकि हर सीट पर प्रत्याशी का चेहरा कम मोदी का नाम ही चला। लोकसभा के इस चुनाव में कांग्रेस ने राफेल लड़ाकू विमान सौदे में गड़बड़ी, नोटबंदी, जीएसटी, किसानों की दुर्दशा, बेरोजगारी आदि तमाम जनता से सीधे जुड़े मुद्दों को उठाकर भाजपा के खिलाफ जोरदार प्रचार अभियान चलाया। पार्टी ने गरीबों के खाते में प्रतिवर्ष 72 हजार रुपए डालने वाली लोक-लुभावनी योजना भी देश के मतदाताओं के सामने रखी लेकिन वह भाजपा की ओर से बालाकोट हवाई हमला, राष्ट्रवाद, राष्ट्रीय सुरक्षा और जन कल्याण से जुड़ी योजनाओं के आक्रमक प्रचार की काट करने में बुरी तरह नाकाम साबित हुई। महाभारत युद्ध के वक्त जब श्रीकृष्ण से पूछा गया कि वह किसके पक्ष में थे तो उनका जवाब था कि वह तो हस्तिनापुर के पक्ष में थे। आज भारत के 130 करोड़ नागरिकों ने मोदी को बता दिया कि वह नरेंद्र मोदी के पक्ष में हैं। नरेंद्र मोदी पहले गैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्री होंगे, जिन्होंने पांच साल का कार्यकाल पूरा करने के बाद लगातार दूसरी बार सत्ता में वापसी की है। पंडित जवाहर लाल नेहरू और इंदिरा गांधी के बाद वह तीसरे प्रधानमंत्री हैं, जिनके नेतृत्व में पार्टी अकेले अपने दमखम पर बहुमत के साथ सत्ता में वापसी कर रही है। 2014 में भाजपा को 282 सीटें मिली थीं, लेकिन इस बार आंकड़ा 300 पार कर गया है। उसकी अगुवाई वाली एनडीए की सीटों की संख्या 2014 के मुकाबले 336 से बढ़कर 350 तक पहुंच गई। बढ़त इसलिए भी अहम है कि सरकार में रहने से उसके खिलाफ सत्ता विरोधी लहर की आशंका थी और कई तथाकथित राजनीतिक पंडितों ने भविष्यवाणी की थी कि भाजपा हार रही है और उसकी सीटें पिछली बार से कम रहेंगी। मोदी ने मजबूत विपक्ष को धराशाही कर दिया और उसका कोई भी मुद्दा नहीं चल सका। मोदी की जीत के कई कारण हैं जिसकी बारीकी से विश्लेषण की जरूरत है। इन्हें आगामी दिनों में रेखांकित करने का प्रयास करूंगा पर आज के लिए जो जीता वह नरेंद्र है।

Friday, 24 May 2019

पेरिस में राफेल दस्तावेजों की चोरी का प्रयास

भारतीय वायुसेना के पेरिस स्थित दफ्तर में रविवार सुबह घुसपैठ की कोशिश की गई। यह दफ्तर वायुसेना की राफेल परियोजना प्रबंधन टीम का है, जो वहां भारत के लिए 36 राफेल लड़ाकू विमानों के उत्पादन की निगरानी कर रहा है। यह दफ्तर फ्रांस की दसॉल्ट एविएशन कंपनी के परिसर में स्थित है, जिसे भारत सरकार ने लड़ाकू विमनों का ऑर्डर दिया है। रक्षा मंत्रालय के अधिकारियों के मुताबिक वायुसेना की वहां तैनात टीम फ्रांस में 36 राफेल विमानों के उत्पादन पर नजर रखने के साथ ही भारतीय पायलटों के प्रशिक्षण की जिम्मेदारी संभाल रही है। यह जासूसी का मामला है। पेरिस स्थित भारतीय दूतावास फ्रांस के अधिकारियों के सम्पर्प में है। अधिकारियों ने बताया कि कुछ अज्ञात लोगों ने पेरिस के उपनगरीय इलाके में भारतीय वायुसेना की राफेल परियोजना दफ्तर में घुसपैठ की कोशिश की। घुसपैठ की वजह जासूसी है या फिर कुछ और? सूत्रों ने बताया कि शुरुआती जांच में किसी हार्डवेयर या डाटा चोरी की सूचना नहीं है। स्थानीय पुलिस अब यह जांच कर रही है कि कहीं राफेल से जुड़े गोपनीय दस्तावेजों की चोरी की कोशिश तो नहीं है। हालांकि अभी तक भारतीय वायुसेना, रक्षा मंत्रालय या फ्रांस के दूतावास ने इस घटना पर कोई आधिकारिक बयान नहीं दिया है। वहीं पूर्व केंद्रीय मंत्री यशवंत सिन्हा और अधिवक्ता प्रशांत भूषण ने बुधवार को सुप्रीम कोर्ट में आरोप लगाया कि केंद्र ने राफेल विमान मामले में अदालत को जानबूझ कर गुमराह किया। इस सौदे में बड़े पैमाने पर धोखाधड़ी हुई है। याचिकाकर्ताओं ने दावा किया कि केंद्र ने इस मामले की सुनवाई के दौरान अदालत से जरूरी तथ्य छिपाए। तीनों याचिकाकर्ता शीर्ष अदालत के 14 दिसम्बर के उस फैसले पर पुनर्विचार करने का अनुरोध कर रहे हैं जिसमें फ्रांस की कंपनी दसॉल्ट से लड़ाकू विमान खरीदने के केंद्र में राफेल सौदे को क्लीन चिट दी गई थी। लोकसभा चुनावों के नतीजे आने से एक दिन पहले सार्वजनिक की गई लिखित दलीलों में याचिकाकर्ताओं ने कहा कि शीर्ष अदालत को गुमराह करने वाले अधिकारियों को गलत जानकारी देने के लिए जवाबदेह ठहराया जाना चाहिए। क्योंकि सरकार ने नोट तथा दलीलों के जरिये कई झूठ बोल तथा जरूरी तथ्य छिपाए। प्रशांत भूषण और अन्य याचिकाकर्ताओं ने लिखित में सबूत जमा किए। बता दें कि राफेल मामले में 14 दिसम्बर 2018 को सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए फैसले के खिलाफ प्रशांत भूषण समेत अन्य याचिकाकर्ताओं ने पुनर्विचार याचिका दायर की थी। कोर्ट ने इन याचिकाओं को खारिज करते हुए कहा था कि खरीद में निर्णय लेने की प्रक्रिया पर संदेह का कोई कारण नहीं बनता। अब पेरिस में राफेल के दस्तावेजों की चोरी के प्रयास महज इत्तेफाक हैं या सोची-समझी सेंधमारी की कोशिश?

-अनिल नरेन्द्र

``कुमारस्वामी 24 मई तक ही मुख्यमंत्री होंगे?''

लोकसभा चुनाव परिणाम आने वाले नतीजों से कर्नाटक सरकार पर सीधा असर पड़ने की संभावना जताई गई थी। केंद्रीय मंत्री सदानंद गौड़ा ने बेंगलुरु में बुधवार को दावा किया था कि लोकसभा चुनाव परिणाम के  बाद कर्नाटक में कांग्रेस-जद (एस) गठबंधन सरकार गिर जाएगी। उन्होंने कहा था कि एचडी कुमारस्वामी 24 मई की सुबह तक ही मुख्यमंत्री रहेंगे। ऐसी अटकलें हैं कि चुनाव के प्रतिकूल परिणाम के बाद कर्नाटक की गठबंधन सरकार की स्थिरता पर प्रभाव पड़ेगा। एग्जिट पोल में पूर्वानुमान जताया गया था कि कांग्रेस-जेडीएस गठबंधन लोकसभा चुनाव में खराब प्रदर्शन कर सकता है। दोनों पार्टियों ने गठबंधन कर लोकसभा चुनाव लड़ा था। अब कर्नाटक में कांग्रेस-जद (एस) सरकार कठिन संकट में फंस गई है। कर्नाटक में बीते साल भाजपा के सबसे बड़े दल के रूप में उभरने के बाद सरकार बनाने का मौका तो मिला, लेकिन वह जरूरी बहुमत नहीं जुटा सकी। इसके बाद कांग्रेस ने तीसरे नम्बर की पार्टी जद (एस) के साथ गठबंधन कर सरकार बनाई। राज्य की 225 (एक मनोनीत सदस्य समेत) कर्नाटक विधानसभा में दो सीटें रिक्त हैं। ऐसे में बहुमत का आंकड़ा 112 पर है। भाजपा के 104 विधायक हैं और उसके साथ एक निर्दलीय व एक केपीजेपी का विधायक है। भाजपा को बहुमत के लिए छह और विधायकों की जरूरत है। दूसरी तरफ सत्तारूढ़ गठबंधन में जद (एस) के 37, कांग्रेस के 78 व बसपा का एक विधायक है और उसकी संख्या 116 है। कांग्रेस के एक विधायक (असंतुष्ट) रोशन बेग के भाजपा के पक्ष में दिए बयान से पार्टी हाई कमान सकते में आ गया है। मंगलवार को अध्यक्ष राहुल गांधी से दिल्ली मिलने आ रहे पूर्व मुख्यमंत्री और वरिष्ठ नेता सिद्धारमैया को वहीं रुकने को कहा गया है। संकट और अधिक नहीं बढ़ जाए इसके लिए राहुल ने कर्नाटक के प्रभारी और महासचिव केसी वेणुगोपाल को बेंगलुरु रवाना कर दिया है। वरिष्ठ नेता गुलाम नबी आजाद के करीबी माने जाने वाले रोशन बेग मंत्री न बनाए जाने से नाखुश चल रहे थे, लोकसभा चुनाव में भी उन्हें टिकट नहीं दिया गया। चुनाव हो जाने के बाद उन्होंने एग्जिट पोल के बहाने कांग्रेस की हार की भविष्यवाणी की थी। रोशन बेग ने पार्टी के महासचिव वेणुगोपाल राव को जौकर करार दिया और कांग्रेस अध्यक्ष को फ्लॉप बताया। रोशन बेग यहीं नहीं रुके और कहा कि भाजपा को 18 सीटों से ज्यादा मिलेंगी जो सिर्प सिद्धारमैया की वजह से हुआ है। कर्नाटक में किसी भी पार्टी को सरकार बनाने के लिए 112 सीटों की जरूरत होती है। ऐसे में भाजपा को सरकार बनाने का दावा पेश करने के लिए सिर्प आठ विधायकों की जरूरत होगी क्योंकि भाजपा के पास 104 सीटें पहले से हैं। ऐसे में अगर रोशन बेग की तरह आठ और विधायक बगावत पर उतर कर भाजपा के पाले में आ जाते हैं तो कांग्रेस-जद (एस) की गठबंधन सरकार खतरे में पड़ जाएगी।

बिना चुनाव लड़े ही नेता बन गए राज ठाकरे

2019 के लोकसभा चुनाव में न तो महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) ने चुनाव में भाग लिया और न ही उसके मुखिया राज ठाकरे। पर फिर भी वह धुआंधार प्रचार में लगे रहे। राज ठाकरे ने लोकसभा चुनाव के दौरान राज्यभर में चुनावी सभाएं कर पीएम मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह पर जिस तरह हमले किए, उससे कांग्रेस-एनसीपी तो खुश रही और भाजपा और शिवसेना परेशान। सवाल है कि लोकसभा चुनाव में एक भी उम्मीदवार न खड़ा करने के बावजूद राज ठाकरे ने ऐसा क्यों किया? भाजपा का आरोप है कि उन्होंने यह सब शरद पवार के कहने पर किया। हालांकि राज ठाकरे अपनी पार्टी की सालाना गुढी पाडवा रैली में अपनी भूमिका पहले ही साफ कर चुके थे। एक बात तो दावे के साथ कही जा सकती है कि एमएनएस प्रमुख राजनीति के इतने नादान खिलाड़ी भी नहीं हैं कि केवल कांग्रेस-एनसीपी को फायदा पहुंचाने के लिए मोदी-शाह की जोड़ी पर धुआंधार आरोप लगाएं। निश्चित रूप से इसमें उनका अपना गणित है। जब मोदी का नाम प्रधानमंत्री पद के लिए कहीं नहीं था, तब सबसे पहले राज ठाकरे ने कहा था कि मोदी जैसा व्यक्ति देश को पीएम के रूप में मिलना चाहिए। अगर राज ठाकरे की अब तक की राजनीति पर नजर डालें तो मोदी पर उनके यूटर्न का मतलब समझा जा सकता है। उनकी पार्टी का पिछले विधानसभा चुनाव में सूपड़ा साफ हो चुका है। राज्य में मोदी लहर पर आई भाजपा सत्ता में है। शिवसेना सरकार या विपक्ष के कंफ्यूजन में भटकती रही है। कांग्रेस-एनसीपी मोदी लहर में सपाट हो चुकी लगती है। इन हालात में अपनी पार्टी में नई जान पूंकने की चुनौती राज ठाकरे के सामने पिछले पांच साल से बनी हुई है। ऐसे में उनके पास मनसे की जमीन तैयार करने के लिए मोदी और भाजपा के खिलाफ लोगों की नाराजगी को कैश कराने का बड़ा बेहतर तरीका और क्या हो सकता था? कांग्रेस-एनसीपी को नकारने वाले और मोदी-भाजपा से नाराज वोटरों के लिए विधानसभा चुनाव में मनसे नया विकल्प बनने की फिराक में है। राज ठाकरे ने एक नया वोटर वर्ग रखने के लिए तैयार किया है। यह भी ध्यान देने वाली बात है कि कांग्रेस-एनसीपी के युवा कार्यकर्ताओं का झुकाव राज ठाकरे की तरफ बढ़ा है और बड़ी संख्या में दलित यूथ भी राज ठाकरे के प्रभाव में जा सकता है। वह यह साबित करने में कामयाब रहे हैं कि महाराष्ट्र में मोदी का तार्पिक विरोध करने वाला उनसे बेहतर नेता कोई नहीं है। उनकी यह छवि आने वाले विधानसभा चुनाव में उनके काम आने वाली है। राज ठाकरे अपने ठेठ मराठी अंदाज में मुद्दों को जिस तरह उठाते हैं तो लोगों को बाल ठाकरे की याद ताजा हो जाती है। राज ठाकरे कह रहे हैं कि मोदी ने पांच साल मांगे थे। अब राहुल गांधी को मौका क्यों नहीं मिलना चाहिए।

-अनिल नरेन्द्र

टीम इंडिया के लिए तीसरा मौका है विश्व कप लाने का

30 मई से इंग्लैंड में शुरू हो रहे विश्व कप क्रिकेट प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए टीम इंडिया बुधवार को रवाना हो गई। टीम इंडिया को विश्व कप का प्रबल दावेदार माना जा रहा है और कोच रवि शास्त्राr को भी पूरा विश्वास है कि उनकी टीम पूरी क्षमता के साथ खेली तो फिर उसे चैंपियन बनने से कोई रोक नहीं सकता। शास्त्राr और कप्तान विराट कोहली महासमर के लिए टीम के इंग्लैंड रवाना होने से पहले मंगलवार को मीडिया से रूबरू हुए। राउंड रॉबिन प्रारूप होने के चलते यह विश्व कप बेहद चुनौतीपूर्ण हो गया है, जहां सभी 10 टीमों को सेमीफाइनल में जगह बनाने के लिए एक-दूसरे से मुकाबला करना होगा। विराट कोहली भी यही मानते हैं। भारत को पांच जून को दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ खेलने के बाद, नौ जून को आस्ट्रेलिया, 13 जून को न्यूजीलैंड और 16 जून को पाकिस्तान से खेलना है। कोहली ने कहा कि मैं जितने भी विश्व कप का हिस्सा रहा वह सबसे कठिन होगा, क्योंकि इसका प्रारूप ऐसा है। भारत को विश्व कप के प्रबल दावेदारों में गिनते हुए पाकिस्तान के पूर्व कप्तान जहीर अब्बास ने कहा कि दो विश्व कप जिता चुके महेंद्र सिंह धोनी का क्रिकेटिया दिमाग टीम इंडिया के लिए ट्रंप कार्ड साबित हो सकता है। भारत को टी-20 (2007) और 50 ओवरों का विश्व कप (2011) दिला चुके धोनी का यह आखिरी विश्व कप है जबकि बतौर कप्तान विराट कोहली पहली बार विश्व कप की कप्तानी करेंगे। कोच रवि शास्त्राr ने महेंद्र सिंह धोनी की तारीफ करते हुए उन्हें टीम के लिए बेहद अहम बताया। साथ ही कहा कि मौजूदा समय में उनसे अच्छा विकेटकीपर कोई नहीं है। शास्त्राr ने कहा कि आपको धोनी को कुछ भी बताने की जरूरत नहीं है। उन्होंने जो किया है उसी कारण वह यहां हैं। उनका और विराट कोहली का तालमेल अच्छा है। उनसे अच्छा विकेटकीपर कोई नहीं है। भारतीय टीम में स्पिनरों का रोल अहम रहेगा। बेशक चाइना मैन बॉलर कुलदीप यादव की फॉर्म से थोड़ी चिन्ता जरूर है। विराट कोहली ने कहा कि वह कुलदीप की फॉर्म को लेकर ज्यादा चिंतित नहीं हैं। उन्होंने कहा कि विश्व कप में कुलदीप और यजुवेंद्र चहल हमारे गेंदबाज आक्रमण के स्तम्भ होंगे। दोनों कलाई के स्पिनर 2017 के बाद से लगातार वन डे में टीम के लिए शानदार प्रदर्शन कर रहे हैं। टीम इंडिया इस बार काफी संतुलित है। ओपनर रोहित शर्मा और शिखर धवन दोनों अच्छी फॉर्म में चल रहे हैं। उनके बाद खुद कप्तान विराट कोहली भी अच्छी फॉर्म में हैं। मिडिल ऑर्डर में महेंद्र सिंह धोनी और हार्दिक पांड्या पारी को संभाल भी सकते हैं और आगे भी बढ़ा सकते हैं। रविन्द्र जडेजा भी पारी संभाल सकते हैं। बॉलरों की बात करें तो बुमरा, शर्मा और भुवनेश्वर की पेस तिकड़ी आक्रमण को धार देंगे। इंग्लैंड की पिच काफी सपाट है। हाल ही में पाकिस्तान के साथ वन डे सीरीज में देखा गया है कि लगातार 350 रन बने, लेकिन विराट इससे चिंतित नहीं है। विराट ने कहा कि हमारा मंत्र यही है कि हम परिस्थितियों के अनुसार लचीले होंगे, क्योंकि हम ऐसी पिच पर अच्छा प्रदर्शन करने की क्षमता रखते हैं। हम टीम इंडिया को शुभ कामनाएं देना चाहते हैं और उम्मीद करते हैं कि 1983 और 2011 में जीतने वाली टीम इंडिया के पास अब तीसरा मौका है।

Thursday, 23 May 2019

बयानों से चौके-छक्के लगाने वाले नवजोत सिंह सिद्धू

क्रिकेट की पिच हो या सियासी मैदान, नवजोत सिंह सिद्धू हमेशा विवादों में रहते हैं। बात 1996 की है जब इंग्लैंड में चल रही सीरीज के दौरान कैप्टन मोहम्मद अजहरुद्दीन से मतभेद होने के कारण क्रिकेटर नवजोत सिंह सिद्धू दौरा बीच में ही छोड़कर स्वदेश वापस आ गए थे। 23 साल बाद किरदार जरूर बदले गए हैं, लेकिन नवजोत सिंह सिद्धू का स्वाभाव आज भी वही है। एक बार फिर उनकी अपने कप्तान से नहीं बन रही है। इस बार पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह उनके निशाने पर हैं। बेशक नवजोत सिंह सिद्धू की जुबान ही उनकी मजबूती है जैसा कि हमने 2019 के लोकसभा चुनाव प्रचार में देखा पर अकसर वह आवेश में आकर कई बार ऐसी बातें कह जाते हैं जिससे पार्टी को फायदा होने की बजाय नुकसान हो जाता है। नवजोत सिंह सिद्धू एक ऐसा नाम जो क्रिकेट की दुनिया में लोकप्रियता हासिल करने के बाद टेलीविजन की ग्लैमर भरी दुनिया में भी खूब चमका। भाजपा का साथ छोड़कर कांग्रेस का हाथ थामने वाले नवजोत सिंह सिद्धू वर्तमान में पंजाब की कैबिनेट में मंत्री हैं। वह कांग्रेस के स्टार प्रचारकों की सूची में भी शामिल हैं और विभिन्न राज्यों में प्रचार में जुटे रहे। ऐसी चर्चा है कि पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह से चल रही तनातनी और लोकसभा के सियासी रण में उन्हें या उनकी पत्नी को उतारने का मौका न दिए जाने का मलाल उन्हें है। हालांकि नवजोत सिंह सिद्धू के विवादित बयान और कदम कई बार उनकी ही पार्टी कांग्रेस के लिए मुसीबत खड़ी करते रहे हैं। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान के शपथ ग्रहण समारोह में जाने के बाद वह विपक्ष के निशाने पर आ गए थे। यही नहीं, वहां पाकिस्तानी सेनाध्यक्ष को गले लगाना तो खुद उनकी ही पार्टी के मुख्यमंत्री को भी रास नहीं आया। मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने खुलकर इसका विरोध किया। पंजाब के कैबिनेट मंत्री नवजोत सिंह सिद्धू के बयानों से कांग्रेस के ज्यादातर मंत्री उनके खिलाफ हो गए हैं। मामला राहुल गांधी के ध्यान में भी है। मामले में कार्रवाई तो होने की संभावना है पर फैसला लोकसभा चुनावों के नतीजे आने के बाद होगा। माना जा रहा है कि आने वाले दिनों में सिद्धू के खिलाफ कार्रवाई हो सकती है। सोमवार को कैबिनेट मंत्री सुखजिंदर सिंह रंधावा तथा राजिंदर सिंह बाजवा इत्यादि ने नवजोत सिंह सिद्धू की बयानबाजी को बेतुका और गैर-वाजिब बताया। उधर नवजोत सिंह सिद्धू का कहना है कि उन्होंने जो कहा आत्मा से कहा है। श्रीगुरु ग्रंथ साहिब की बेअदबी पंजाब की आत्मा पर चोट है। इससे सारी सिख कौम आहत है। नवजोत सिंह सिद्धू और उनकी पत्नी दोनों को लगता है कि कैप्टन अमरिंदर सिंह की मर्जी से जानबूझ कर उनका टिकट काटा गया और फिर इसे उन दोनों ने खुद की प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया। नवजोत सिंह सिद्धू भले ही यह कह रहे हैं कि वह 2015 में पवित्र ग्रंथ की बेअदबी करने वालों पर कार्रवाई की मांग कर रहे हैं, लेकिन जब उन्होंने अपनी पार्टी के कुछ नेताओं पर पूर्व मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल के परिवार और अकाली दल को चुनाव में फायदा पहुंचाने का आरोप लगाया तो उसके निहितार्थ एकदम स्पष्ट थे। नवजोत सिंह सिद्धू सियासी रूप में महत्वाकांक्षी हैं, यह छिपी बात नहीं और कुछ गलत भी नहीं पर इस तरह उस मुख्यमंत्री पर अनाप-शनाप आरोप लगाना गलत है जिसने प्रदेश में कांग्रेस को इतनी शानदार जीत दिलाई।
-अनिल नरेन्द्र


मोदी को रोकने के लिए गठबंधन सरकार के प्रयास

बेशक तमाम एग्जिट पोल भाजपा के स्पष्ट बहुमत की ओर इशारा कर रहे हैं पर विपक्षी दलों को अभी भी विश्वास है कि त्रिशंकु संसद आने की संभावना है। आम चुनावों के नतीजों के ठीक पहले विपक्षी खेमे में सुगबुगाहट तेज हो गई है। पूरे महासमर में मोटे तौर पर गायब रही संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) अध्यक्ष सोनिया गांधी राजनीतिक रूप से अंतिम समय पर सक्रिय हो गई हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की जोड़ी से निपटने और जोड़तोड़ के लिए वह विपक्ष के तमाम नेताओं से संवाद साध रही हैं। सोनिया गांधी की इस मोर्चाबंदी में उनके प्रमुख सारथी द्रविड़ मुन्नेत्र कषगम (डीएमके) के सर्वेसर्वा एफके स्टालिन, कांग्रेस के सहयोगी और दिग्गज नेता शरद पवार व मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री कमलनाथ हैं। यूपीए अध्यक्ष की निगाहें इसके अलावा बिहार के मुख्यमंत्री और जदयू अध्यक्ष नीतीश कुमार के साथ लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) के रामविलास पासवान को भी एनडीए से तोड़ने पर टिकी हैं। दरअसल विपक्षी खेमा किसी भी हालत में भाजपा या एनडीए की सरकार नहीं बनने देना चाहता है। यही वजह है कि गुरुवार 16 मई 2019 को कांग्रेस ने एक बड़ा त्याग करने का संकेत देते हुए पार्टी के वरिष्ठ नेता गुलाम नबी आजाद से प्रेस कांफ्रेंस पर स्पष्ट किया कि अगर कांग्रेस को प्रधानमंत्री पद नहीं मिलता है तो इस बात से उसे कोई परेशानी नहीं होगी। लोकसभा चुनाव 2019 के सातवें चरण की वोटिंग से पहले सोनिया गांधी विपक्षी दलों को एकजुट करने में जुट गई थीं। सोनिया गांधी ने विपक्षी दलों के प्रमुख नेताओं को फोन करके कहा कि 22, 23 और 24 मई को आप दिल्ली में रहेंगे? इसका मतलब साफ है कि नतीजों से पहले ही सोनिया गांधी विपक्ष के नेताओं की बैठक के लिए खुद अपने कंधों पर जिम्मेदारी लेते हुए कवायद तेज कर दी है। दरअसल कांग्रेस विपक्षी दलों की बैठक बुलाती है, ऐसे में साफ संदेश देने की कोशिश रहेगी कि भले ही हम सब प्री-पोल गठजोड़ का हिस्सा न हों पर हम सब मोदी के खिलाफ लड़ें और एकजुट हैं। सोनिया गांधी ने कहा कि किसी भी दल को बहुमत न मिलने की स्थिति में कांग्रेस ने गठबंधन सरकार बनाने का मास्टर प्लान तैयार कर लिया है। इसके तहत यदि भाजपा व उसके सहयोगी बहुमत के करीब नहीं पहुंचते हैं तो गैर-भाजपा व गैर-कांग्रेस दलों को भाजपा के पाले में जाने से रोकने के साथ ही उन्हें कांग्रेस की तरफ लाया जाना है। नई रणनीति के तहत केंद्र में मोदी को रोकने के लिए कांग्रेस ने सेक्यूलर ताकतों की गुगली फेंक दी है। इसके द्वारा जहां ऐसे दलों को भाजपा के पाले में जाने से रोकना है जोकि अभी न यूपीए का हिस्सा हैं और न ही राजग का, वहीं समान विचारधारा के नाम पर उन्हें धर्मनिरपेक्ष मोर्चे के तहत एक झंडे के नीचे लाने का प्रयास है। यह प्रयास तभी सफल हो सकता है जब भाजपा और उनके प्री-पोल पार्टनर्स स्पष्ट बहुमत से दूर रहें। कम से कम एग्जिट पोलों से तो यह नहीं लगता कि ऐसा होगा। देखें 23 मई को क्या रिजल्ट निकलता है।

Wednesday, 22 May 2019

क्या हर सीट पर मोदी चुनाव लड़ रहे थे?

2019 का लोकसभा चुनाव बाकी चुनावों से भिन्न रहा। ऐसा लगता था कि सारी 542 लोकसभा सीटों पर एक ही व्यक्ति चुनाव लड़ रहा है। आप किसी से पूछो कि आप किसको वोट देंगे? जवाब आता था नरेंद्र मोदी को। आप अगर उनसे उनके चुनाव लड़ रहे उस क्षेत्र के उम्मीदवार का नाम पूछें तो बहुतों को तो यह भी मालूम नहीं था कि उनके इलाके से उम्मीदवार कौन है? क्या पीएम नरेंद्र मोदी पूरे देश में एक रणनीति के तहत उम्मीदवारों की जगह सीधे अपने लिए वोट मांग रहे थे? क्या इस रणनीति में कैंडिडेट गौण और मोदी का चेहरा ही हर संसदीय क्षेत्र में स्थापित करने की रणनीति ने अपना असर दिखा दिया? कम से कम एग्जिट पोल तो यही कह रहे हैं। इस चुनाव के सफर में भाजपा की जो कूटनीति दिखी, उससे यही संकेत मिला कि 2019 का लोकसभा चुनाव अब तक का सबसे प्रभावी प्रेसिडेंशियल स्टाइल का चुनाव रहा है। 2014 में भी भाजपा मोदी लहर के ही भरोसा 282 सीटें जीतने में सफल रही थी, लेकिन तब वह विपक्ष में थी। इस बार मोदी ने सत्ता विरोधी लहर के सामने खुद को खड़ा कर चुनाव की दिशा को मोड़ने में सफलता हासिल कर ली। दरअसल विपक्ष को इस बात का अहसास था कि एनडीए के पांच साल के कार्यकाल में सरकार और सत्ताधारी सांसदों पर चाहे जितने सवाल उठे, चाहे जितनी भी भी एंटी एनकंबेंसी रही हो, लेकिन मोदी ब्रांड पहले की ही तरह मजबूत बना हुआ है। भाजपा संसदीय इतिहास में अब तक की सबसे ज्यादा 438 सीटों पर चुनाव लड़ी, वहीं कांग्रेस ने 424 उम्मीदवार मैदान में उतारे। भाजपा ने 2014 के मुकाबले इस बार 33 प्रतिशत यानि 90 सांसदों के टिकट काटे, जबकि पांच सांसद पहले ही पार्टी छोड़ चुके थे। वहीं कुछ वरिष्ठ नेता 75 प्लस के मापदंड की भेंट चढ़ गए। साथ ही कुछ सांसदों को बिहार की जेडीयू के साथ गठबंधन की वजह से ड्रॉप किया गया था। भाजपा ने जिन सांसदों के टिकट काटे उनमें सर्वाधिक 40 प्रतिशत आरक्षित सीटों के थे। लोकसभा की कुल 131 आरक्षित सीटों में से 67 सीटों पर भाजपा का कब्जा था। 2014 में 282 सीटें जीतने वाली भाजपा उपचुनाव में हार और कुछ सांसदों के पार्टी छोड़ने की वजह से 268 सीटों पर आ चुकी थी। इनमें से पार्टी ने 90 सांसदों को टिकट नहीं दिया, वहीं दो सांसद विधायक बन चुके थे। 90 में से सबसे ज्यादा 19 टिकट उत्तर प्रदेश और 12 टिकट मध्यप्रदेश से कटे। 10-10 सांसदों के टिकट गुजरात और राजस्थान में काटे गए। पीएम मोदी ने सारे चुनावी अभियान में एक ही बात कहीöआपका वोट सीधा मोदी को जाएगा। इससे काफी हद तक स्थानीय दलों के क्षेत्रीय मुद्दों को राष्ट्रवाद से काटने की कोशिश सफल होती दिख रही है। मोदी ने खुद को एक ऐसे चेहरे के रूप में स्थापित किया, जो देश के लिए जरूरी है। आतंकवाद जैसी समस्याओं पर बड़े फैसले ले सकता है और मौजूदा विकल्पों में सबसे बेहतर है। वह यह संदेश देने में सफल रहे कि उनकी जीत तभी होगी जब लोकल उम्मीदवार जीतेगा। यह चुनाव मोदी बनाम सारे रहा जिसमें मोदी हावी होते दिख रहे हैं।

-अनिल नरेन्द्र

इन एग्जिट पोलों का ट्रेक रिकॉर्ड

सातवें चरण के मतदान का समय पूर्ण होने के साथ ही लोकसभा चुनाव 2019 के एग्जिट पोल रविवार शाम से आने से शुरू हो गए। लोकसभा चुनाव की मतगणना 23 मई को होगी, लेकिन अलग-अलग एजेंसियों की विभिन्न चैनलों पर आते ही राजनीतिक बहस का नया दौर शुरू हो गया। ऐसा माहौल बनाया जा रहा है जैसे वास्तविक परिणाम भी ऐसा ही होंगे। कोशिश होती है कि नतीजों को लेकर एक तस्वीर सामने आए। लेकिन भारत का अनुभव रहा है कि इससे भ्रम ज्यादा फैलता है। अगर हम अतीत के एग्जिट पोल के देखें तो यह अनुमान कई बार गलत साबित हुए हैं। अकसर सवाल उठता है कि एग्जिट पोल सटीक आंकलन करता है या फिर इसे अनुमान और ट्रेंड के तौर पर तैयार किया जाता है। अगर हम पिछले प्रमुख चुनावों और उनके एग्जिट पोल पर नजर डालें तो पाएंगे कि असल रिजल्ट और एग्जिट पोल में काफी अंतर आ जाता है। 2004 के लोकसभा चुनाव में एनडीए के सत्ता से बाहर जाने का अनुमान कोई नहीं लगा पाया था। वहीं तीसरे मोर्चे के मजबूत प्रदर्शन का आकलन सभी ने गलत किया जिसका परिणाम एग्जिट पोल गलत साबित होने के रूप में सामने आया। 2004 चुनाव में ज्यादातर एग्जिट पोल यानि चुनाव बाद सर्वेक्षणों में शाइनिंग इंडिया के नारे पर चुनाव लड़ने वाली अटल बिहारी वाजपेयी की एनडीए सरकार की जीत का अनुमान लगाया गया था। लेकिन जब नतीजे आए तो पासा पूरी तरह पलटा हुआ था। 2009 आम चुनाव में एक बार फिर भाजपा को ज्यादा आंक कर सर्वे गच्चा खा गए। 10 साल पहले हुए लोकसभा चुनाव में कांग्रेस नेतृत्व वाले यूपीए के बारे में अधिकतर एग्जिट पोल गलत साबित हुए। यूपीए ने जितनी सीटें पाईं, उसका अनुमान कोई सर्वे एजेंसी नहीं कर सकी। दूसरी ओर भाजपा के बारे में अधिकांश एग्जिट पोल का आंकलन काफी बढ़ाचढ़ा कर पेश किया गया। 2014 के आम चुनाव में कांग्रेस को नुकसान और इतना गिरने का आंकलन कोई नहीं कर पाया। 2014 के चुनाव में सभी का अनुमान यह तो था कि भाजपा अच्छा प्रदर्शन करेगी, लेकिन कितना अच्छा प्रदर्शन करेगी यह सिर्प दो एजेंसियां ही भांप सकी। वहीं कांग्रेस को होने जा रहे वास्तविक नुकसान अधिकांश नहीं भांप सके। अब बात करते हैं 2017 उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव की। इसमें भारतीय जनता पार्टी ने बहुत बड़ी जीत दर्ज की। इतनी बड़ी जीत का कयास किसी सर्वेक्षण में नहीं किया गया। उत्तर प्रदेश में 2017 के विधानसभा चुनाव में भी एग्जिट पोल में भाजपा को मिली सीटों का अनुमान किसी को नहीं हुआ। भाजपा ने अनुमान के औसत से 116 सीटें अधिक हासिल की। नोटबंदी के बाद उत्तर प्रदेश में हुए 2017 के विधानसभा चुनाव ने तो एग्जिट पोल और राजनीतिक पंडितों को हिलाकर रख दिया। सारे पोल त्रिशंकु विधानसभा के संकेत दे रहे थे, लेकिन परिणाम आए तो 403 विधानसभा सीटों वाले राज्य में भाजपा 312 सीटों के प्रचंड बहुमत से सत्ता में आई। 2014 के लोकसभा चुनाव में भी एग्जिट पोल नरेंद्र मोदी के पक्ष में चल रही आंधी को पूरी तरह भांप नहीं पाए लेकिन भाजपा ने अकेले दम पर 282 सीटें हासिल कर इतिहास रचा, जबकि एनडीए का आंकड़ा 336 के पार पहुंच गया। दिल्ली विधानसभा चुनाव 2015 में मोदी को प्रचंड बहुमत आने के बाद हुए। एग्जिट पोल का अनुमान था कि आम आदमी पार्टी (आप) को 31 से 50 के बीच सीटें मिलेंगी और भाजपा को 17 से 35 सीटें, कांग्रेस को तीन से सात सीटें मिलेंगी। लेकिन 70 सीटों वाली विधानसभा के नतीजे आए तो आदमी आदमी पार्टी (आप) ने 67 सीटें जीतकर सभी सर्वेक्षणों को धराशायी कर दिया। भाजपा सिर्प तीन सीटों पर अटक गई और कांग्रेस का तो खाता भी नहीं खुल सका। बिहार में 2015 के चुनाव में महागठबंधन और भाजपा के  बीच कांटे की टक्कर का दावा था, लेकिन परिणाम आए तो जदयू, राजद और कांग्रेस के गठबंधन ने 243 सीटों वाली विधानसभा में 178 सीटें जीतीं। अभी कुछ दिन पहले आस्ट्रेलिया के आम चुनाव में प्रधानमंत्री स्कॉट मॉरीसन के नेतृत्व वाले गठबंधन ने तमाम सर्वेक्षणों को धराशायी करते हुए चमत्कारी वापसी करते हुए चौंका दिया। बता दें कि आस्ट्रेलिया में चुनावों को लेकर जितने भी ओपिनियन पोल हुए, उनमें विपक्षी आस्ट्रेलियन पार्टी की जीत बताई गई थी। विपक्षी पार्टियों ने जश्न भी मनाना शुरू कर दिया था पर जब रिजल्ट आए तो उनकी हार हुई। पिछले 15 सालों के भारत के सर्वेक्षणों के आंकड़े देखें तो पहले भी एग्जिट पोल के अधिकांश आंकलन सटीक नहीं रहे। इसलिए बेहतर है कि आप 23 मई तक धीरज रखें।

Tuesday, 21 May 2019

चुनावी दंगल समाप्त हुआ, अब दावों की जंग

2019 लोकसभा चुनाव की लंबी प्रक्रिया 19 मई को आठ राज्यों की 59 सीटों पर मतदान के बाद अंतत समाप्त हो गई। अब मैदान की लड़ाई खत्म, अब दावों की जंग शुरू हो गई है। 23 मई तक जब तक ईवीएम खुलेगी दावों का यह सिलसिला चलता रहेगा। 19 मई शाम छह बजे से एक्जिट पोल भी आ गए और 23 मई तक हर टीवी चैनल पर इनको लेकर बहस देखने को मिलेगी। जो जीत रहा है वह तो शांत रहेगा जो हार रहा है वह इन्हें गलत बताएगा और उदाहरण देगा कि फ्लां-फ्लां एक्जिट पोल गलत साबित हुए थे। अपनी अंतिम रैली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि लोकतंत्र में चुनाव सरकार बनाने के लिए होता है। खरगौन की रैली में प्रधानमंत्री ने कहा कि राजनीतिक दल और उम्मीदवार आपसे अपनी-अपनी नीयत और नीति के हिसाब से वोट मांगते हैं। लेकिन 2019 का चुनाव अन्य चुनावों से भिन्न है। इस चुनाव का नेतृत्व जनता कर रही है। देश आज कश्मीर से कन्याकुमारी और कच्छ से कामरूप तक पूरा देश कह रहा हैöअबकी बार मोदी सरकार। और तीन-चार दिन से मैं सुन रहा हूंöअबकी बार, 300 पार। उन्होंने कहा कि आतंकवाद और नक्सलवाद को खत्म करने की हमारी प्रतिबद्धता को भरपूर जन समर्थन मिला है। यह देश की भावना है कि आतंकियों को घर में घुसकर मारा जाए। मोदी ने सरकार फिर से बनने का दावा करते हुए कहा कि नई सरकार जल्दी काम करना शुरू कर देगी। उन्होंने कहाöमेरा मोटा-मोटा मत है कि पूर्ण बहुमत वाली सरकार पांच साल का कार्यकाल पूरा करने के बाद जीतकर सत्ता में आ रही है और लंबे अरसे के बाद फिर ऐसा होगा। वहीं राहुल गांधी को जब पता चला कि उसी समय दिल्ली भाजपा मुख्यालय में मोदी-शाह की प्रेस कांफ्रेंस हो रही है तो उन्होंने दावा किया कि प्रधानमंत्री की विदाई तय हो चुकी है। उन्होंने कहा कि मैंने कई बार मोदी जी से सवाल किए, लेकिन उन्होंने यह कहकर टाल दिया कि इसका उत्तर 23 मई को जनता देगी। राहुल ने चुनाव आयोग को फिर पक्षपाती बताया। उन्होंने कहाöजबकि ऐसे ही बयानों के लिए दूसरे नेताओं पर कार्रवाई की गई वहीं मोदी और अमित शाह के बयानों पर कोई संज्ञान नहीं लिया गया। कांग्रेस अध्यक्ष ने आरोप लगाया कि चुनाव आयोग ने पूरे चुनाव का कार्यक्रम नरेंद्र मोदी के प्रचार को ध्यान में रखकर बनाया। राहुल ने यह भी कहा कि प्रधानमंत्री मेरे परिवार के बारे में चाहे जितना अनुचित बोल लें पर मैं उनके माता-पिता के बारे में कभी नहीं बोलूंगा। राहुल ने कहा कि मैं प्रधानमंत्री पद का आदर करता हूं और मैं उनको नफरत के बदले प्यार लौटाऊंगा। अगर उनके माता-पिता ने कुछ गलत भी किया, फिर भी मैं उनके माता-पिता के बारे में नहीं बोलूंगा। अगर वह हमारे बारे में गंदा बोलना चाहते हैं तो यह उन पर है। 2014 में लोकसभा में हमारे नम्बर कम थे लेकिन कांग्रेस ने विपक्ष की भूमिका `' ग्रेड से निभाई। 23 मई को मोदी सरकार जाना तय है। अब 23 मई को ही पता चलेगा कि भाजपा की 300 सीटें आ रही हैं या उनकी विदाई होगी?
-अनिल नरेन्द्र


आखिरी दिन दो प्रेस कांफ्रेंसों का किस्सा

भारतीय राजनीति के इतिहास में संभवत ऐसा पहली बार हुआ जब प्रधानमंत्री पद के दो दावेदार एक समय, एक ही शहर में अपने-अपने मुख्यालय में आयोजित प्रेसवार्ता में सम्पूर्ण सियासी दांव पेंच के साथ मौजूद थे। खास बात यह रही कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पांच वर्ष के अपने कार्यकाल में किसी प्रेस कांफ्रेंस में शिरकत की। शुक्रवार की इस शाम लंबे चुनावी प्रचार के समापन के भी यही लम्हे थे और दोनों नेताओं ने अपनी चुनावी रैलियां खत्म कर राजधानी लौटे थे। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की प्रेस कांफ्रेंस में प्रधानमंत्री की मौजूदगी आश्चर्यजनक रही क्योंकि ऐसा कम हुआ है कि पार्टी अध्यक्ष की प्रेस कांफ्रेंस में प्रधानमंत्री पहली बात तो शामिल हों और दूसरी बात एक भी प्रश्न का जवाब न दें। समझ नहीं आया कि आखिर जब पांच साल में प्रधानमंत्री ने एक भी प्रेस कांफ्रेंस नहीं की तो अमित शाह की प्रेसवार्ता में उनका शिरकत करने का मकसद क्या था? भाजपा मुख्यालय में पार्टी अध्यक्ष अमित शाह की प्रेस कांफ्रेंस पूर्व निर्धारित थी, लेकिन सबको चौंकाते हुए प्रधानमंत्री मध्यप्रदेश के खरगौन में अपनी आखिरी रैली के बाद सीधे भाजपा मुख्यालय पहुंचे। पत्रकारों को संबोधित करते हुए मोदी ने भाजपा के पूर्ण बहुमत के साथ केंद्र में सत्ता में वापस लौटने का दावा किया। वहीं अमित शाह ने सरकार के पांच साल के कार्यकाल का लेखाजोखा पेश करने के साथ भाजपा के तीन सौ से अधिक सीटों के साथ केंद्र की सत्ता में लौटने की बात कही। चुनिन्दा पत्रकारों को इस प्रेसवार्ता में बुलाया गया था और कुछ समय बाद हॉल का दरवाजा बंद कर दिया गया था। इधर प्रधानमंत्री की प्रेस कांफ्रेंस चल रही थी तो उधर कांग्रेस मुख्यालय में राहुल गांधी की। राहुल ने अवसर के अनुरूप आक्रामक शैली में प्रधानमंत्री से सीधे सवाल किएöप्रधानमंत्री जी राफेल पर आप मेरी चुनौती क्यों नहीं स्वीकार करते? वहीं नरेंद्र मोदी ने अपनी बातें जरूर रखीं लेकिन वह सवाल टाल गए। वह बोलेöमैं पार्टी का अनुशासित कार्यकर्ता हूं, उत्तर हमारे अध्यक्ष अमित भाई देंगे। राहुल ने अपने आक्रामक स्टाइल से कहा कि कांग्रेस ने नरेंद्र मोदी के समर्थन के 90 प्रतिशत दरवाजे बंद कर दिए हैं जबकि 10 प्रतिशत वह खुद बंद कर चुके हैं। कांग्रेस अध्यक्ष की प्रेस कांफ्रेंस शाम करीब 4.30 बजे शुरू हुई और करीब 25 मिनट चली। राहुल गांधी ने इस पर संतोष व्यक्त किया कि पूरे पांच साल उनकी पार्टी ने जिम्मेदार विपक्ष की भूमिका का निर्वाह किया। उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा के साथ गठबंधन नहीं होने पर राहुल ने कहा कि सपा-बसपा के मिलकर चुनाव लड़ने के फैसले का सम्मान करते हैं। नतीजों के बाद विपक्षी दलों में भाजपा को समर्थन पर वह बोलेöकांग्रेस वैचारिक तौर पर सभी को एकजुट करने में सफल रही है। उन्होंने कहा कि उन्हें नहीं लगता कि मायावती, मुलायम सिंह, ममता बनर्जी और चन्द्रबाबू नायडू मोदी सरकार को समर्थन देंगे। प्रचार अभियान समाप्ति पर अपनी प्रेस कांफ्रेंस में राहुल ने प्रधानमंत्री पर तंज कसते हुए प्रधानमंत्री के साक्षात्कारों पर चुटकी ली। राहुल बोलेöउनसे पूछा गया कि आम पसंद हैं आपको या नहीं, कुर्ते की बांह कटवा कर क्यों पहनते हैं? बालाकोट के बारे में बताते हैं कि मैंने एयरफोर्स से कहा कि मौसम खराब है, बादल हैं। राडार पकड़ नहीं पाएगा। इसके बाद राहुल ने टेबल थपथपाते हुए कहा कि यह देश के प्रधानमंत्री हैं शानदार।

Sunday, 19 May 2019

जातीय समीकरण में फंसे मनोज सिन्हा

शहीदों की धरती के नाम से विख्यात पूर्वांचल की गाजीपुर सीट इस बार विकास बनाम जाति की लड़ाई है। गाजीपुर से भाजपा उम्मीदवार, केंद्रीय संचार मंत्री, रेल राज्यमंत्री मनोज सिन्हा द्वारा किए गए विकास कार्यों की खुद चर्चा कर रहे हैं, लेकिन सपा-बसपा गठबंधन का जातीय समीकरण भाजपा के लिए कड़ी चुनौती बन गया है। इस लोकसभा सीट पर सिन्हा के खिलाफ गठबंधन की ओर से अफजाल अंसारी उम्मीदवार हैं। पूर्वांचल के बाहुबली मुख्तार अंसारी के भाई अफजाल 2004 से 2009 तक यहां से सांसद रहे हैं। 2014 में लोकसभा चुनाव में मोदी लहर के बीच कड़े मुकाबले में मनोज सिन्हा महज 33 हजार वोटों से जीते थे जबकि सपा-बसपा ने अलग-अलग चुनाव लड़ा था। सपा-बसपा के साथ आने से गाजीपुर सीट पर सामाजिक समीकरण पूरी तरह से बदल गया है। इस सीट पर सबसे ज्यादा संख्या यादव मतदाताओं की है और उसके बाद दलित और मुस्लिम मतदाता हैं। यादव, दलित एवं मुस्लिम मतदाताओं की कुल संख्या गाजीपुर संसदीय सीट की कुल मतदाताओं की संख्या लगभग आधी है। गठबंधन का यही समीकरण सिन्हा के लिए चुनौती है। वैसे गाजीपुर के स्थानीय लोग यह स्वीकार करते हैं कि जिले में काम हुआ है, हालांकि हार-जीत के बारे में कोई भी कुछ स्पष्ट कहने की स्थिति में नहीं दिखाई देता है। मनोज सिन्हा क्षेत्र में पिछले पांच वर्षों में हुए विकास कार्यों और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम पर गठबंधन के जातीय समीकरण को विफल करने की कोशिश में हैं। समाज के सभी वर्ग हमारे साथ हैं, कहते हैं मनोज सिन्हा। मनोज सिन्हा न तो राजनीतिक विरोधियों की बात करते हैं और न ही किसी विवादित मुद्दे की, सिर्प मोदी सरकार की उपलब्धियों की चर्चा करते हैं। अफजाल अंसारी दबंग बाहुबली नेता हैं। हत्या, अपहरण जैसे कई मुकदमों में आरोपी हैं। फिलहाल विधायक कृष्णानंद राय की हत्या के मामले में जमानत पर हैं, जबकि उनका छोटा भाई मुख्तार अंसारी अभी भी जेल में है। वहीं कांग्रेस उम्मीदवार अजीत प्रताप कुशवाहा पूर्व मंत्री बाबू सिंह कुशवाहा की पार्टी से हैं। पेशे से वकील अजीत 2017 में जगीपुर विधानसभा से जन अधिकार पार्टी से लड़ चुके हैं, लेकिन वह पांचवें स्थान पर रहे थे। सपा-बसपा गठबंधन हो जाने से अफजाल के हौंसले बुलंद हैं। कुल मिलाकर असल लड़ाई मनोज सिन्हा और अफजाल अंसारी के बीच है, विकास और बाहुबली व जातीय समीकरण से है।
-अनिल नरेन्द्र

संघ के गढ़ मध्यप्रदेश में कांग्रेस की चुनौती

लोकसभा चुनाव के आखिरी चरण (19 मई) को मध्यप्रदेश में जिन आठ सीटों पर मुकाबला होना है। वर्ष 2014 में भाजपा ने मालवा-निम़ाड़ की यह सीटें जीतकर इतिहास रचा था। लेकिन विधानसभा चुनावों में मिली सफलता से उत्साहित कांग्रेस कम से कम चार सीटें जीतने की उम्मीद कर रही है। वहीं भाजपा मोदी के दम पर पिछला नतीजा दोहराने का दावा कर रही है। उसने छह सीटों पर अपने उम्मीदवार बदले हैं। पश्चिमी मध्यप्रदेश का यह क्षेत्र शुरू से ही आरएसएस के प्रभाव वाला रहा है। चुनाव हों या न हों, संघ व उसके संगठनों की गतिविधियां सतत् जारी रहती हैं। भाजपा की असली ताकत भी यहीं है। वहीं कांग्रेस और उसका ढांचा आमतौर पर चुनाव के वक्त ही मैदान में दिखता है। कई लोग कहते हैंöकांग्रेस का अभियान वन डे और टी-20 की तर्ज पर होता है। मध्यप्रदेश की व्यावसायिक राजधानी इंदौर संघ का गढ़ है। लोकसभा स्पीकर सुमित्रा महाजन ने 1989 से जीत का जो सिलसिला शुरू किया, वह 30 साल से कायम है। ताई के नाम से मशहूर सुमित्रा इस बार रण में नहीं हैं। ताई के इंकार के बाद पूर्व सीएम शिवराज सिंह मैदान की पसंद व इंदौर विकास प्राधिकरण के चेयरमैन रहे शंकर लालवानी को भाजपा ने उतारा है। कांग्रेस ने पंकज सिंघवी को फिर मौका दिया है। सिंघवी सीएम कमलनाथ की पसंद हैं। उन्हें भाजपा की अंदरूनी खटपट का फायदा मिल सकता है। काल भैरव की नगरी उज्जैन में कांग्रेस और भाजपा दोनों के ही उम्मीदवार अपने दलों में कलह से परेशान हैं। भाजपा ने चिंता मीणा मालवीय का टिकट काटकर अनिल फिरोदिया और कांग्रेस ने बापूलाल मालवीय को मैदान में उतारा है। मंदसौर लोकसभा सीट से किसान तय करेंगे जीत। किसान आंदोलन के बाद मौजूदा सांसद सुधीर गुप्ता के विरोध के बावजूद भाजपा ने उन्हें टिकट दिया है। दरअसल विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का सूपड़ा साफ होने के बाद भाजपा ने उन्हें उतारा है। वहीं कांग्रेस से पूर्व मीनाक्षी नटराजन किसानों की कथित नाराजगी के कारण उम्मीद देख रही हैं। मध्यप्रदेश की अन्य जिन सीटों पर चुनाव हो रहा है उनमें कड़वा, खरगौन, रतलाम, झाबुआ और धार प्रमुख हैं। यह चुनाव जहां भाजपा और संघ के लिए अपनी साख बचाने की लड़ाई है वहीं मुख्यमंत्री कमलनाथ और दिग्विजय सिंह के लिए भी प्रतिष्ठा का प्रश्न बने हुए हैं। 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने मध्यप्रदेश की कुल 29 सीटों में से 27 पर जीत दर्ज की थी जबकि कांग्रेस के हाथ सिर्प 2 सीटें ही आई थीं।

बनारस में मोदी का मुकाबला खुद मोदी से है

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ यूं तो 25 उम्मीदवार खड़े हैं पर मोदी का मुकाबला खुद से ही है। पिछली बार 2014 में मोदी के खिलाफ वाराणसी से 41 उम्मीदवार खड़े थे पर नरेंद्र मोदी 3,71,784 वोटों से जीते थे। इस बार यह संख्या घटकर 25 हो गई है। इसके बावजूद उनके खिलाफ एक छोटा भारत चुनाव लड़ रहा है। यह स्पेशल 25 उम्मीदवार आंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, बिहार, केरल, उत्तराखंड समेत कई राज्यों के हैं और इनमें से प्रत्येक यहां कुछ न कुछ मुद्दे साबित करने आए हैं। महाराष्ट्र के एक किसान मनोहर आनंद राव पाटिल महात्मा गांधी की तरह कपड़े पहनते हैं और अपने गले में उनका फोटो लटका लिया है। वह कहते हैं कि मैं यहां मोदी को हराने नहीं आया हूं। मैं उनका ध्यान किसानों की दुर्दशा और बढ़ते भ्रष्टाचार की ओर दिलाने आया हूं। हॉकी खिलाड़ी ओलंपियन दिवंगत मोहम्मद शाहिद की बेटी हिना शाहिद भी मोदी के खिलाफ चुनाव लड़ रही हैं। उनका कहना है कि वह संसद इसलिए जाना चाहती हैं ताकि वह महिलाओं का मुद्दा उठा सकें। उन्होंने कहाöमैं जानती हूं कि मैं मोदी को नहीं हरा सकती, लेकिन किसी को इसलिए घर नहीं बैठना चाहिए कि वह (मोदी) एक मजबूत उम्मीदवार हैं। सपा और कांग्रेस प्रत्याशी सहित 26 उम्मीदवार मैदान में हैं। बीएसएफ से बर्खास्त तेज बहादुर फौजी का पर्चा खारिज होने के बाद अब सपा से पहले पर्चा भरने वाली शालिनी यादव और कांग्रेस के पूर्व विधायक विनय राय मैदान में हैं। 2014 में मोदी को 5,81,022 वोट मिले। उनके खिलाफ नोटा को मिलाकर 4,49,663 वोट पड़े थे। कांग्रेस से तब भी अजय राय ही थे और उन्हें मात्र 75,614 वोट मिले थे जबकि दूसरे नम्बर पर रहे आम आदमी पार्टी (आप) के मुखिया अरविंद केजरीवाल को 2,09,000 वोट मिले थे। इस बार कांग्रेस और सपा में से किसी एक को करीब तीन लाख मुसलमान वोटर ज्यादा दमदार बनाएंगे। यह नम्बर दो की लड़ाई दिलचस्प होगी। वाराणसी में असल लड़ाई मोदी बनाम मोदी है, देखना यह होगा इस बार मोदी कितनी वोटों से जीतते हैं? यह भी देखना दिलचस्प होगा कि महागठबंधन उम्मीदवार शालिनी यादव कितने वोट काट सकती हैं? जहां तक कांग्रेस के अजय राय का सवाल है, हमें नहीं लगता कि वह कोई सम्मानजनक वोट भी पा सकेंगे। कुछ दिन तक बर्खास्त फौजी तेज बहादुर का मामला मीडिया में चला था पर मोदी के खिलाफ चुनाव लड़ने को उतरे 102 दावेदारों में से जिन 71 के पर्चे दाखिल हुए, उनमें तेज बहादुर भी शामिल थे। अगर तेज बहादुर खड़े रहते तो माहौल कुछ  बनता अब तो पीएम को वॉकओवर मिलेगा।

Saturday, 18 May 2019

बिहार में अंतिम चरण की सीटों के लिए संग्राम

बिहार में दो दिन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तीन सभाएं। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने गुरुवार को सभा और रोड शो किया। यह अंतिम चरण की आठ सीटों को हर हालत में जीत लेने की पुरजोर इच्छा और इसके प्रयास की गवाही दे रहे हैं। दोनों खेमे ने इस आखिरी मोर्चे की फतेह में अपना आखिरी दांव इसी हिसाब से लगाया है, जिससे उनको ज्यादा से ज्यादा सीटें मिलें। महागठबंधन के पास इस चरण में पाने को बहुत कुछ है। गठबंधन के हिसाब से यह सभी आठ सीटें राजग की हैं। हां, पिछले चुनाव में इनमें से दो सीटों को जीतने वाली रालोसपा अब महागठबंधन के साथ है। राजग की उत्कृष्ट सक्रियता, महागठबंधन पर भारी है। मकसद यानि सीटों को बचाना और  रालोसपा के नाम वाली दो सीटों (काराकार और जहानाबाद) को भी अपना बनाना। सबकी चाहत व प्रयास चरम पर है। राजग (खासकर भाजपा) ने बड़े नेताओं की पूर्व टोली बिहार में उतार दी। गृहमंत्री राजनाथ सिंह, यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ आदि विभिन्न क्षेत्रों में घूम रहे हैं। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी आदि की तो धुआंधार सभाएं हो रही हैं। वैसे बड़े कांग्रेसी (गुलाम नबी आजाद, शक्ति सिंह गोहिल) घूमने लगे, जो दूसरे राज्यों के चुनाव में लगे थे। तेजस्वी यादव ने प्रचार की यात्रा और बढ़ा दी हैं। दोनों पक्षों का रोड शो पर जोर है। बीते चरणों के अनुभव से दोनों पक्ष (राजग-महागठबंधन) अपने आधार पर वोटों को पूरी तरह सुरक्षित रखने की लाइन पर काम कर रहे हैं। छठे चरण में कई क्षेत्रों के वोटिंग पैटर्न ने इसकी दरकार बताई। दूसरे के वोट बैंक में सेंधमारी को कामयाब बनाने की रणनीति को भी साकार करने की पुरजोर कोशिश हो रही है। नेताओं को उन्हीं की जाति वाले इलाकों में घुमाया जा रहा है। लालू प्रसाद यादव की कानोंकान संदेश पहुंचाने वाली तकनीक इस्तेमाल की जा रही है। 19 मई को पाटलिपुत्र, पटना साहिब, आरा, नालंदा, जहानाबाद, सासाराम, बक्सर और काराकार पर वोट पड़ेंगे। 2014 में आठ में से 6 सीटों को भाजपा-जदयू ने जीता था, दो सीटें रालोसपा के हिस्से में आई थीं।
-अनिल नरेन्द्र
सड़कों पर उतर चुकी हैं।

अंतिम नौ के लिए बंगाल में घमासान

आम चुनावों के बीच पश्चिमी बंगाल में भाजपा और टीएमसी के बीच हिंसक सियासी टकराव हो रहे हैं। तेजी से चलते घटनाक्रमों को देखकर सवाल उठ रहा है कि सूबे की सियासत क्या मोड़ लेने जा रही है और यह हालात क्यों? भाजपा की  बात करें तो इस दफा बंगाल से पार्टी को बेहद उम्मीदें हैं। पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने बुधवार को फिर दावा किया कि वह राज्य की 42 सीटों में से कम से कम 23 सीटों पर जीत हासिल करेंगे। भाजपा के लिए यह इसलिए भी जरूरी है कि अगर उसे हिन्दी पट्टी में कुछ सीटों का नुकसान होता है तो बंगाल से उसकी भरपाई की जा सकेगी। पश्चिम बंगाल में हर चरण में हुई हिंसा वहां राजनीति के हिंसक चरित्र को तो दर्शाती ही है लेकिन आखिरी चरण से पहले भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के रोड शो में हुई भीषण हिंसा और 19वीं सदी के प्रख्यात समाज सुधारक ईश्वर चन्द्र विद्यासागर की मूर्ति तोड़े जाने की घटना दुर्भाग्यपूर्ण होने के साथ-साथ घोर निन्दनीय भी है। स्थिति यहां तक पहुंच गई है कि चुनाव आयोग को वहां हस्तक्षेप कर चुनाव प्रचार में तय अवधि से चौबीस घंटे की कटौती करने के साथ-साथ राज्य के प्रधान गृहसचिव और एडीजी-सीआईडी को तत्काल प्रभाव से हटा देना पड़ा है, जो मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के लिए बड़ा झटका है। पश्चिम बंगाल की 42 में से आखिरी नौ सीटों पर 19 तारीख को मतदान से पहले कोलकाता में हुई इस हिंसा से राज्य ही नहीं, देश की भी राजनीति गरमा गई है। हिंसा के बारे में आरोप-प्रत्यारोप के बीच ममता भाजपा से सीधा मोर्चा लेकर जनता को यह संदेश देने में सफल हुई हैं कि वह मोदी-शाह से टक्कर लेने में सक्षम हैं। वह यह संदेश देना चाहती हैं कि मजबूत विकल्प वही हैं। सत्ता विरोधी वोटों पर उसका स्वाभाविक हक है। ममता बनर्जी करीब 12 साल पहले इसी अंदाज में तीन दशक पुरानी लेफ्ट सरकार के सामने आ खड़ी हुई थीं। लगातार संघर्ष से उन्होंने मुख्य विपक्षी कांग्रेस को पीछे धकेला और फिर लेफ्ट को हराकर खुद सत्ता तक पहुंच गईं। ममता बनर्जी इस सियासी टकराव को बंगाली अस्मिता से जोड़कर भाजपा को आउट साइडर पार्टी के रूप में पेश करना चाहती हैं। भाजपा सरकार और पार्टी से टकरा कर उन्होंने यह संदेश देने की कोशिश भी है कि टीएमसी बंगाली स्वाभिमान की लड़ाई लड़ने वाली इकलौती पार्टी है। इस रणनीति के साथ वह कोलकाता की सड़कों पर उतर चुकी हैं।