Monday, 30 September 2019

ईरान और सऊदी में धर्म और क्षेत्र में प्रभुत्व का झगड़ा

ईरान के राष्ट्रपति हसन रूहानी ने अमेरिकी सेना को सऊदी अरब में भेजने पर तल्ख अंदाज में अपनी प्रतिक्रिया देते हुए कहा है कि विदेशी सेना खाड़ी की सुरक्षा के लिए खतरा है और इन्हें बाहर ही रहना चाहिए। रूहानी ने कहा कि विदेशी सेना अपने साथ हमेशा दुख और पीड़ा लाती है। विदेशी सेना हमारे क्षेत्र में सिर्प परेशानी पैदा करेगी। बता दें कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने परमाणु समझौता तोड़ने के बाद से अमेरिका और ईरान के रिश्तों में कड़वाहट आ गई है। 14 सितम्बर को सऊदी की दो पेट्रोलियम रिफायनरी में हुए ड्रोन हमले की जिम्मेदारी यमन के हूती विद्रोहियों ने ली थी, लेकिन सऊदी और अमेरिका इसके लिए ईरान को दोषी बता रहा है। फलस्वरूप ट्रंप ने सऊदी में अमेरिकी सैनिक टुकड़ी को तैनात करने का फैसला किया है। दरअसल सऊदी अरब और ईरान के बीच लंबे समय से टकराव चल रहा है। दोनों देश लंबे समय से एक-दूसरे के प्रतिद्वंद्वी हैं लेकिन हाल के दिनों में दोनों के बीच तल्खी और बढ़ी है। दोनों शक्तिशाली पड़ोसियों के बीच यह संघर्ष लंबे समय से क्षेत्रीय प्रभुत्व को लेकर चल रहा है। दशकों पुराने इस संघर्ष के केंद्र में धर्म भी है। दोनों ही हालांकि इस्लामिक देश हैं लेकिन दोनों सुन्नी और शिया प्रभुत्व वाले हैं। ईरान शिया मुस्लिम बहुल है, वहीं सऊदी अरब सुन्नी बहुल लगभग पूरे मध्य-पूर्व में यह धार्मिक बंटवारा देखने को मिलता है। यहां के देशों में कुछ शिया बहुल हैं तो कुछ सुन्नी बहुल। समर्थन और सलाह के लिए कुछ देश ईरान के साथ हैं तो कुछ देश सऊदी अरब की ओर दिखते हैं। ऐतिहासिक रूप से सऊदी अरब में राजतंत्र रहा है। सुन्नी प्रभुत्व वाले सऊदी अरब इस्लाम का जन्मस्थल है और इस्लामिक दुनिया की सबसे महत्वपूर्ण जगहों में शामिल हैं। लिहाजा यह खुद को मुस्लिम दुनिया के नेता के रूप में देखते हैं। हालांकि 1979 में इसे ईरान में हुई इस्लामिक क्रांति से चुनौती मिली, जिससे इस क्षेत्र में एक नए तरह का राज्य बना। एक तरह की क्रांतिकारी धर्मतंत्र वाली शासन प्रणाली। उनके पास इस मॉडल को दुनियाभर में फैलाने का स्पष्ट लक्ष्य था। खासकर बीते 15 सालों में लगातार कुछ घटनाओं की वजह से सऊदी अरब और ईरान के बीच मतभेदों में बेहद तेजी आई है। 2003 में अमेरिका ने ईरान के प्रमुख विरोधी इराक पर आक्रमण कर सद्दाम हुसैन की सत्ता को तहस-नहस कर दिया, इससे यहां शिया बहुल सरकार के लिए रास्ता खुल गया और देश में ईरान का प्रभाव तब से तेजी से बढ़ा है। 2011 की स्थिति यह थी कि कई अरब देशों में विद्रोह के स्वर बढ़ रहे थे जिसकी वजह से पूरे इलाके में राजनीतिक अस्थिरता पैदा हो गई। ईरान और सऊदी अरब ने इस उथल-पुथल का फायदा उठाते हुए सीरिया, बहरीन और यमन में अपने प्रभाव का विस्तार करना शुरू किया जिससे आपसी संदेह और बढ़े। राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता गर्मा रही है, क्योंकि ईरान कई मायनों में इस क्षेत्रीय संघर्ष को जीतता दिख रहा है। सऊदी अब ईरान के प्रभुत्व को रोकने के लिए उतावला है और सऊदी के शासक युवा और जोशीले प्रिंस मोहम्मद बिन-सलमान का सैन्य दुस्साहस इन क्षेत्रों में तनाव की स्थिति को और भी बदतर बना रहा है। उन्होंने पड़ोसी यमन में विद्रोही हूती आंदोलन के खिलाफ चार साल से युद्ध छेड़ रखा है ताकि वहां ईरान का प्रभाव न पनप सके। लेकिन पिछले चार साल बाद अब यह उनके लिए भी महंगा दांव साबित हो रहा है। मोटे तौर पर कहें तो मध्य पूर्व का वर्तमान रणनीतिक नक्शा शिया-सुन्नी से विभाजन को दर्शाता है। सुन्नी बहुल सऊदी अरब के समर्थन में यूएई, बहरीन, मिस्र और जॉर्डन जैसे खाड़ी देश खड़े हैं। वहीं ईरान के समर्थन में सीरिया के राष्ट्रपति बसर-अल-असद हैं जिन्हें सुन्नियों के खिलाफ हिजबुल्लाह सहित ईरानी शिया मिलिशिया समूहों का भरोसा है। कुल मिलाकर सऊदी अरब की दो जेल रिफायनरियों के हमले ने मध्य पूर्व में स्थिति बेहद तनावपूर्ण बना दी है। कई मायनों में इन दोनों प्रतिद्वंद्वी देशों के बीच शीतयुद्ध की तरह है, जैसा कि अमेरिका और सोवियत संघ के बीच कई वर्षों तक गतिरोध बना रहा।

-अनिल नरेन्द्र

No comments:

Post a Comment